Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Darbarilal Nyayatirth
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 717
________________ दशवकालिकसूत्रपाठ. ७११ तम्हा एवं विश्राणित्ता, दोसं उग्गश्वगृणं ॥ वानकायसमारंनं, जावजीवाइं वजए ॥४॥ वणस्सइं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिया ॥४१॥ वणस्सई विहिंसंतो, हिंसर अ तयस्सिए ॥ तसे अ विविहे पाणे, चरकुसे अ अचरकुसे ॥ ४॥ तम्हा एवं विश्राणित्ता, दोसं उग्गवडणं ॥ वणस्सइ समारंनं, जावजीवाई वजाए ॥ ४३ ॥ तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥ ४॥ तसकायं विहिंसंतो, हिंस उ तयस्सिए ॥ तसे अ विविहे पाणे, चरकुसे अ अचरकुसे ॥४॥ तम्हा एवं विशआणित्ता, दोसं उग्गश्वगुणं ॥ तसकायसमारंनं, जावजीवा वजाए ॥ ३६॥ जाई चत्तारि जुझाइ, इसिणा हारमाणि ॥ ताई तु विवऊतो, संजमं अणुपालए ॥ ॥ पिंडं सिद्धां च वत्थं च, चनत्थं पायमेव य ॥ अकप्पियं न विजा, पमिगाहिज कप्पियं ॥ ७ ॥ जे निश्रागं ममायंति, कीमुद्देसियाहडं ॥ वहं ते समणुजाणंति, इथ उत्तं महेसिणा ॥ ए॥ तम्हा असणपाणा, कीअमुदै सिाहनं ॥ वायंति रिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ॥ ५० ॥ कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो ॥ मुंजतो असणपाणा, आयारा परिनस्सइ ॥ ५१॥ सीउंदगसमारंजे, मत्तधोअणणबुडणे ॥ जाइं नंति नूआई, दिको तत्थ असंजमो ॥ ५॥ पत्याकम्मं करेकम्मं, सिया तत्थ न कप्पश् ॥ एअमन नुंजंति, निग्गंथा गिहिलायणे ॥ २३ ॥ आसंदीपलिकेसु, मंचमासालएसु वा ॥ अणायरिश्रमजाणं, श्रासश्त्तु सश्त्तु वा ॥ ५४॥ नासंदीपलिकेसु, न निसिजा न पीढए ॥ निग्गंथा पडिलेहाए, बुधवुत्तमहिगा ॥ ५५॥ गंलीरविजया एए, पाणा उप्पडिलेहगा ॥ आसंदी पलिअंको अ, एअम विवजिया ॥५६॥ गोबरग्ग पविस्स, निसिजा जस्स कप्पश् ॥ श्मे रिसमणायारं, आववजाइ अबोहिअं ॥ ५७ ॥ विवत्ती बंजचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो ॥ वणीमगपमिग्घाट, पझिकोहो अगारिणं ॥ ५ ॥ अगुत्ती बंजचेरस्स, इत्थी वा वि संकणं ॥ कुसीलवढ्ढणं गणं, दूर परिवाए ॥ एए॥ तिन्हमन्नयरागस्स, निसिङ्गा जस्स कप्पश् ॥ जराए अनिअस्स, वाहिअस्स तवस्सिणो ॥६॥ वाहि वा अरोगी वा, सिणाणं जो पत्थए ॥ वुक्कतो होश आयारो, जढो हव संजमो ॥६१ ॥ संति मे सुहुमा पाणा, घसासु निलगासु अ॥ जे अनिरकू सिणायंतो, विथडेणुप्पिलावए ॥ ६ ॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण नसिणेण वा ॥ जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिच्गा ॥ ३ ॥ सिणाणं अवा ककं, लुछ पलमगाणि अ॥ गायस्सुबट्टणचए, नायरंति कया वि ॥ ६ ॥ नगिणस्स वा वि मुंगस्स, दीहरोमनहंसिणो ॥ मेहुणा उवसंतस्स, किं विजूसा कारिअं॥६५॥ विनूसावत्तिकं निस्कू, कम्मं बंधश् चिक्कणं ॥ संसारसायरे घोरे, जेणं पड दुरुत्तरे ॥६६॥ विनुसावत्तियं चेयं, बुझा मन्नंति तारिसं ॥ सावङ बहुलं चेअं, नेयं ताहिं सेविअं॥६७ ॥ खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमश्रावे गुणे ॥ धुणंत पावाइं पुरेकडाई, नवाइं पावाइं न ते करंति ॥ ६ ॥ अवसंता अममाअकिंचणा, सविजविजाणुगया जसंसिणो॥ जनप्पसन्नेविमलेवचंदिमा, सिद्धिविमापाजवंति ताणो ॥ त्तिबेमि ॥ ६ए॥ ॥ इति महाचारकथाख्यं षष्ठमजयनणं सम्मत्तं ॥६॥ ॥ अथमुवाक्यशुद्ध्याख्यं सप्तममध्ययनम् ॥ ७॥ चजन्हें खलु नासाणं, परिसंखाय पन्नवं ॥ पुन्हं तु विणयं सिरके, दो न नासिङ सबसो॥१॥ जा अ सच्चा अवत्तवा, सच्चामोसा अ जा मुसा ॥ जा अबुधेहिं नाइन्ना, न तं नासिज पन्नवं ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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