Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Darbarilal Nyayatirth
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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अथ दशवैकालिकसूत्रपाठः ।
१५ इहलोगपारत्तहिरं, जेणं गच्छई सुग्गई । बहुस्सुझं पकुवासिका, पुच्चिाबविणिच्चयं ॥ ४ ॥ हा पायं च कायं च, पणिहाय जिऽदिए ॥ अजीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ॥४॥ न परकट न पुर, नेव किच्चाण पिळ ॥ न य जरूं समासिङ, चिहिजा गुरुणंतिए ॥ ४६॥ अपुच्चिले न जासिजा, नासमाणस्स अंतरा ॥ पिहिमसं न खाईजा, मायामोसं विवाए ॥४॥ अप्पतिथं जेण सिश्रा, आसु कपिज वा परो ॥ सबसो तं न नासिका, नासं अहिअगामिणिं ॥॥ दि निरं असंदिर, पडिपुन्नं विश्र जिरं ॥ अयंपिरमणुबिग्गं, नासं निसिर अत्तवं ॥ ४ ॥ आयारपन्नत्तिघरं, दिग्विायमहिजागं ॥ वायविरकलिअं नच्चा, न तं उवहसे मुणी ॥ ५० ॥ नरकत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतनेसजं ॥ गिरिणो तं न आईरके, नूाहिगरणं पयं ॥ ५१ ॥ श्रन्न पगडं लयणं, नई सयणासणं ॥ उच्चार नूमिसंपन्नं, छीपसुविवजिथं ॥ ५ ॥ विवित्ता अनवे सिजा, नारीणं न लवे कहं ॥ गिरिसंश्रवं न कुजा, कुजा साहूहिं संथवं ॥ २३ ॥ जहां कुक्कुडपोअस्स, निच्चं कुलल लयं ॥ एवं खु बंजयारिस्स, ईबीविग्गह जयं ॥ ५४॥ चित्तन्नित्तिं न निनाए, नारिं वा सुअलंकिअं ॥ नरकर पिव दवूणं, दिहिं परिसमाहरे ॥ ५५ ॥ हबपायपलिच्छिन्नं, कन्ननासविगप्पियं ॥ अवि वाससयं नारिं, बंजयारी विवजाए ॥५६॥ विजूसा इचिसंसग्गो, पणीअं रसनोअणं ॥ नरस्सत्त गवेसिस्स, विसं तालउ जहा ॥ २७॥ अंगपञ्चंगसंगणं, आरुसविअपेहिकं ॥ श्छीणं तं न निनाए, कामरागविवढ्ढणं ॥ ५ ॥ विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नालिनिवेसए ॥ अणिचं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण य ॥ ५ ॥ पोग्गलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा ॥ विणीअतिण्हो विहरे, सीइनूएण अप्पणा ॥६॥ जा सघाइ निरकंतो, परिश्रयणमुत्तमं ॥ तमेव अणुपालिका, गुणे आयरिअसंमए ॥ ६१॥
तवं चिमं संजमजोगयं च, सप्नायजोगं च सया अहिहिए ॥ सुरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ॥ ६॥ सप्लायसनाणरयस्स ताणो, अपावन्नावस्स तवे रयस्स ॥ विसुन जं सि मलं करे कडं, समीरियं रुप्पमलं व जोशणा ॥ ६३ ॥ से तारिसे मुरकसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे ॥ विरायश् कम्मघणंमि अवगए, कसिणनपुडावगमे व चंदिमि ॥ त्तिबेमि ॥ ६॥
॥ इति आयारपणिही णाम अनयणं संमत्तं ॥७॥ ॥ अथ विनयसमाधिनामकनवमाध्ययने प्रथमोद्देशकः ॥ अंना व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिरके । सो चेव उ तस्स अनावो, फलं व कीअस्स वहाय हो ॥१॥ जे श्रावि मंदित्ति गुरुं वश्त्ता, डहरे श्मे अप्पसुअत्ति नच्चा ॥ हीलंति मित्थं पडिवजमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ॥२॥ पग मंदा वि नवंति एगे, महरा वि अ जे सुअबुयोववेत्रा॥ आयारमंतो गुणसुन्अिप्पा, जे हीलिया सिहिरिव जास कुजा ॥३॥ जे आवि नागं महरं ति नच्चा, श्रासायए से अहिआय होइ॥ एवायरिश्रपि हु हीलयंतो, निच जास्पदं खु मंदो ॥४॥ आसिविसो वा वि परं सुरुको, किं जीवनासाउ परं नु कुजा ॥ आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुरको ॥ ५॥
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