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आगम सूत्र ३८, छेदसूत्र-५, 'जीतकल्प'
[३८] जीतकल्प
छेदसूत्र-५- हिन्दी अनुवाद सूत्र -१
प्रवचन-(शास्त्र) को प्रणाम करके, मैं संक्षेप में प्रायश्चित्त दान कहूँगा । (आगम, सूत्र, आज्ञा, धारणा, जीत वो पाँच व्यवहार बताए हैं उसमें) जीत यानि परम्परा से कोई आचरणा चलती हो महा पुरुषने – गीतार्थने द्रव्य क्षेत्र काल-भाव देखकर निर्णीत किया हो ऐसा जो व्यवहार वो जीत व्यवहार । उसमें प्रवेश किए गए (उपयोग लक्षण वाले) जीव की परम विशुद्धि होती है । जिस तरह मलिन वस्त्र को क्षार आदि से विशुद्धि हो वैसे कर्ममलयुक्त जीव को जीत व्यवहार अनुसार प्रायश्चित्त दान से विशुद्धि होती है। सूत्र-२
तप का कारण प्रायश्चित्त है और फिर तप संवर और निर्जरा का भी हेतु है। और यह संवर-निर्जरा मोक्ष का कारण है । यानि प्रायश्चित्त द्वारा विशुद्धि के लिए बारह प्रकार का तप कहा है । यह तप द्वारा आनेवाले कर्म रूकते हैं और संचित कर्म का क्षय होता है । जिसके परिणाम से मोक्ष मार्ग प्राप्त होता है। सूत्र-३,४
__सामायिक से बिन्दुसार पर्यन्त के ज्ञान की विशुद्धि द्वारा चारित्र विशुद्धि होती है । चारित्र विशुद्धि से निर्वाण प्राप्ति होती है । लेकिन चारित्र की विशुद्धि से निर्वाण के अर्थी को प्रायश्चित्त अवश्य जानना चाहिए, क्योंकि प्रायश्चित्त से ही चारित्र विशुद्धि होती है।
वो प्रायश्चित्त दश प्रकार से है । आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारंचित । सूत्र - ५
अवश्यकरणीय ऐसी संयम क्रिया समान योग (कि जिसका अब बाकी गाथा में निर्देश किया है) उसमें प्रवर्ते हुए अदुष्ट भाववाले छद्मस्थ की विशुद्धि या कर्मबंध निवृत्ति का अप्रमत्तभाव यानि आलोचना।
(आगे की ६ से ८ गाथा द्वारा आलोचना प्रायश्चित्त कहते हैं।) सूत्र-६-७
आहार-आदि के ग्रहण के लिए जो बाहर जाना या उच्चार भूमि (मल-मूत्र त्याग भूमि) या विहार भूमि (स्वाध्याय आदि भूमि) से बाहर जाना या चैत्य या गुरुवंदन के लिए जाना आदि में यथाविधि पालन करना, यह सभी कार्य या अन्य कार्य के लिए सो कदम से ज्यादा बाहर जाना पड़े तो यदि आलोचना न करे तो वो अशुद्ध या अतिचार युक्त माना जाए और आलोचना करने से शुद्ध या निरतिचार बने । सूत्र -८
स्वगण या परगण यानि समान सामाचारीवाले या असमान सामाचारीवाले के साथ कारण से बाहर निर्गमन हो तो आलोचना से शुद्धि होती है। यदि समान सामाचारीवाले या अन्य के साथ उपसंपदा से विहार करे तो निरतिचार हो तो भी (गीतार्थ आचार्य मिले तब) आलोचना से शुद्धि होती है।
(आगे की ९ से १२ गाथा में प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त कहते हैं ।) सूत्र - ९-१२
तीन तरह की गुप्ति या पाँच तरह की समिति के लिए प्रमाद करना, गुरु की किसी तरह आशातना करना, विनय भंग करना, ईच्छाकार आदि दश सामाचारी का पालन करना, अल्प भी मृषावाद, चोरी या ममत्व होना, अविधि से यानि मुहपत्ति रखे बिना छींकना, वायु का उर्ध्वगमन करना, मामूली छेदन-भेदन-पीलण आदि
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(जीतकल्प)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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