Book Title: Agam 38 Jitkalpa Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, DeepratnasagarPage 10
________________ आगम सूत्र ३८, छेदसूत्र-५, 'जीतकल्प' पर शयन करवाते पुरिमड तप प्रायश्चित्त । सूत्र-५६ आचार्य की आज्ञा बिना स्थापना कुल में भोजन के लिए प्रवेशे तो एकासणा, पराक्रम गोपे तो एकासणा, उस अनुसार जीत व्यवहार है । सूत्र व्यवहार अनुसार माया रहित हो तो एकासणा माया सहित हो तो उपवास । सूत्र-५७ दौड़ना-कूदना आदि में वर्तते पंचेन्द्रिय के वध की संभावना है । अंगादान-शुक्र निष्क्रमण आदि संक्लिष्ट कर्म में काफी अतिचार लगे, आधाकर्मादि सेवन रस से ग्लान आदि का लम्बा सहवास करे उन सब में पंचकल्याणक प्रायश्चित्त तप आता है। सूत्र-५८ सर्व उपधि आदि को धारण करते हुए प्रथम पोरीसि के अन्तिम हिस्से में यानि पादोनपोरीसि के वक्त या प्रथम और अन्तिम पोरीसि के अवसर पर पडिलेहण न करे । चोमासी में या संवत्सरी के दिन शुद्धि करे तो पंचकल्याणक तप प्रायश्चित्त । सूत्र- ५९ जो छेद (प्रायश्चित्त) की श्रद्धा नहीं करता । मेरा पर्याय छेदित या न छेदित ऐसा नहीं जानता । अभिमान से पर्याय का गर्व करता है उसे छेद आदि प्रायश्चित्त आता है। जीत व्यवहार गणाधिपति के लिए इस प्रकार का है। गणाधिपति को छेद प्रायश्चित्त आता हो तो भी तप उचित प्रायश्चित्त देना चाहिए। सूत्र - ६० इस जीत व्यवहार में जो प्रायश्चित्त नहीं बताए उस प्रायश्चित्त स्थान को वर्तमान में संक्षेप से मैं कहता हूँ जो निसीह-व्यवहार-कप्पो में बताए गए हैं । उसे तप से छ मास पर्यन्त के मानना । सूत्र - ६१ (भिन्न शब्द से पच्चीस दिन ग्रहण करने के लिए यहाँ विशिष्ट शब्द से सर्व भेद ग्रहण करना) भिन्न और अविशिष्ट ऐसे जो-जो अपराध सूत्र व्यवहार में बताए उन सबके लिए जित व्यवहार अनुसार नीवि तप आता है। उसमें ज्यादातर इतना कि लघुमास में पुरिमड्ढ, गुरुमास में एकासणा, लघुचऊमासे आयंबिल, गुरु चऊमासे उपवास, लघु छ मासे छठ्ठ, गुरु छ मासे अठ्ठम, ऐसे प्रायश्चित्त तप दो। सूत्र - ६२ इन सभी प्रकार से - सभी तप के स्थान पर यथाक्रम सिद्धांत में जो तप बताए वहाँ जीत व्यवहार अनुसार नीवि से अठ्ठम पर्यन्त तप कहना। सूत्र - ६३ इस प्रकार जो प्रायश्चित्त कहा गया उसके लिए विशेष से कहते हैं कि सभी प्रायश्चित्त का सामान्य एवं विशेष में निर्देश किया गया है । वो दान-विभाग से द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पुरुष पडिसेवी विशेष से मानना । यानि द्रव्य आदि को जानकर उस प्रकार देना । कम अधिक या सहज उस अनुसार शक्ति विशेष देखकर देना । सूत्र - ६४-६७ द्रव्य से जिसका आहार आदि हो, जिस देश में वो ज्यादा हो, सुलभ हो वो जानकर जीत व्यवहार अनुसार प्रायश्चित्त देना । जहाँ आहार आदि कम हो, दुर्लभ हो वहाँ कम प्रायश्चित्त दो । क्षेत्र रूक्ष-स्निग्ध या साधारण है यह जानकर रूक्ष में कम, साधारण में जिस तरह से जीत व्यवहार में कहा हो ऐसे और स्निग्ध में अधिक प्रायश्चित्त दो, उस प्रकार तीनों काल में तीनों तरीके से प्रायश्चित्त दो । गर्मी रूक्ष काल है, शर्दी साधारण काल है और वर्षा स्निग्ध मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(जीतकल्प)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 10Page Navigation
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