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आगम सूत्र ३८, छेदसूत्र-५, 'जीतकल्प' सूत्र-१०२
अनवस्थाप्य तप और पारंचित तप दोनों प्रायश्चित्त अंतिम चौदह पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु स्वामी से विच्छेद हए हैं। बाकी के प्रायश्चित्त शासन है तब तक रहेंगे। सूत्र - १०३
इस प्रकार यह जीत कल्प-जीत व्यवहार संक्षेप से, सुविहित साधु की अनुकंपा बुद्धि से कहा । उसी अनुसार अच्छी तरह से गुण जानकर प्रायश्चित्त दान करना ।
(३८) जीतकल्प-छेदसूत्र-५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(जीतकल्प)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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