Book Title: Agam 38 Jitkalpa Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 13
________________ आगम सूत्र ३८, छेदसूत्र-५, 'जीतकल्प' सूत्र- ९० स्वपक्ष-परपक्ष के घात में उद्यत ऐसे द्रव्य या भाव लिंगी को और ओसन्न आदि भावलिंग रहित को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त । जिन-जिन क्षेत्र से दोष लगे उसे उसी क्षेत्र में अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त । सूत्र - ९१ जो जितने काल के लिए दोष में रहे उसे उतने काल के लिए अनवस्थाप्य । अनवस्थाप्य दोष के दो भेद आशातना और पडिसेवणा-निषिद्ध कार्य करना वो । उसमें आशातना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त जघन्य से छ मास और उत्कृष्ट से एक साल, पडिसेवण अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त जघन्य से एक साल उत्कृष्ट से बारह साल | सूत्र- ९२ उत्सर्ग से पडिसेवण कारण से बारह साल का अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आए और अपवाद से अल्प या अल्पतर प्रायश्चित्त दो या सर्वथा छोड़ दो। सूत्र-९३ वो (अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त सेवन करके) खुद शैक्ष को भी वंदन करे । लेकिन उसे कोई वंदन न करे, वो प्रायश्चित्त सेवन करके परिहार तप का अच्छी तरह से सेवन करे, उसके साथ संवास हो सके लेकिन उसके साथ संवाद या वंदन आदि क्रिया न हो सके। (अब पारंचित प्रायश्चित्त कहते हैं ।) सूत्र- ९४ तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर, महर्द्धिक उन सबकी आशातना कईं अभिनिवेष-कदाग्रह से करे उसे पारंचित प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-९५ जो स्वलिंग-वेश में रहा हो वैसे कषायदुष्ट या विषयदुष्ट और राग को वश होकर बार-बार प्रकट रूप से राजा की अग्रमहिषी का सेवन करे उसे पारंचित प्रायश्चित्त । सूत्र-९६ थिणद्धि निद्रा के उदय से महादोषवाला, अन्योन्य मैथुन आसक्त, बार-बार पारंचित के उचित प्रायश्चित्त में प्रवृत्त को पारंचित प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - ९७ वो पारंचित चार तरह से हैं । लिंग, क्षेत्र, काल और तप से, उसमें अन्योन्य पड़िसेवन करके और थिणद्धि महादोषवाले को पारंचित प्रायश्चित्त । सूत्र - ९८-९९ क्षेत्र से वसति, निवेस, पाड़ो, वृक्ष, राज्य आदि के प्रवेशस्थान नगर, देश, राज्य में जिस दोष का जिसने सेवन किया हो उसे उस दोष के लिए वहीं पारंचिक करो। सूत्र - १०० जो जितने काल के लिए दोष का सेवन करे उसे उतने काल के लिए पारंचित प्रायश्चित्त, पारंचित दो तरह से- आशातना और पड़िसेवणा, आशातना पारंचित ६ मास से १ साल, पड़िसेवणा प्रायश्चित्त १ साल से १२ साल । सूत्र-१०१ पारंचित प्रायश्चित्त सेवन करके महासत्त्वशाली को अकेले जिनकल्पी की तरह और क्षेत्र के बाहर अर्ध योजन रखना और तप के लिए स्थापन करना, आचार्य प्रतिदिन उसका अवलोकन करे । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(जीतकल्प)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 13

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