Book Title: Agam 38 Jitkalpa Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 12
________________ आगम सूत्र ३८, छेदसूत्र-५, 'जीतकल्प' सूत्र - ७९ जीत व्यवहार से ज्यादा अन्य तप अच्छी तरह से करनेवाले को अन्य प्रायश्चित्त देकर जीत व्यवहार प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए । वैयावच्चकारी वैयावच्च करता हो तब थोड़ा प्रायश्चित्त देना चाहिए। (अब छेद प्रायश्चित्त कहते हैं ।) सूत्र-८० तप गर्वित या तप में असमर्थ, तप की अश्रद्धा करनेवाले, तप से भी जो निग्रह नहीं कर सकते, अतिपरिणामी-अपवाद सेवी, अल्पसंगी इन सबको छेद प्रायश्चित्त दो । सूत्र-८१-८२ ज्यादातर उत्तरगुण भंजक, बार-बार छेयावत्ति यानि छेद आवृत्ति करे, जो पासत्था, ओसन्न कुशील आदि हो, तो भी जो बार-बार संविग्न साधु की वैयावच्च करे, उत्कृष्ट तप भूमि यानि वीर प्रभु के शासन में छ मासी तप करे, जो अवशेष चारित्रवाला हो उसे पाँच, दश, पंद्रह साल से छ मास पर्यन्त या जितने पर्याय धारण करे उस तरह से छेद प्रायश्चित्त दो। (अब मूल प्रायश्चित्त बताते हैं ।) सूत्र-८३ ____प्राणातिपात, पंचेन्द्रिय का घात, अरुचि या गर्व से मैथुनसेवन, उत्कृष्ट से मृषावाद-अदत्तादान या परिग्रह का सेवन करे इस तरह बार-बार करनेवाले को मूल प्रायश्चित्त । सूत्र -८४ तप गर्विष्ठ, तप सेवन में असमर्थ, तप की अश्रद्धा करते, मूल-उत्तर गुण में दोष लगानेवाले या भंजक, दर्शन और चारित्र से पतीत दर्शन आदि कर्तव्य को छोड़नेवाला, ऐसा शैक्ष को भी (शैक्ष आदि सर्व को) मूल प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-८५-८६ अति अवसन्न, गृहस्थ या अन्यतीर्थिक के भेद को हिंसा आदि कारण से सेवन करनेवाला, स्त्री गर्भ का आदान या विनाश करनेवाला ऐसा साधु-उसे तप बताया गया है ऐसा तप-छेद या मूल, अनवस्थाप्य या पारंचित प्रायश्चित्त उसे अतिक्रमे तो पर्याय छेद, अनवस्थाप्य, पारंचित तप पूरा होने पर उसे मूल प्रायश्चित्त में स्थापना करना। मूल की आपत्ति में बार-बार मूल प्रायश्चित्त आता है। (अब अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त बताते हैं ।) सूत्र - ८७ उत्कृष्ट से बार-बार द्वेषवाले, चित्त से चोरी करनेवाला, स्वपक्ष या परपक्ष को घोर परिणाम से और निरपेक्षपन से निष्कारण प्रहार करे तो अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त । सूत्र-८८ सर्व अपराध के लिए जहाँ-जहाँ काफी कुछ करके पारंचित प्रायश्चित्त आता है वहाँ उपाध्याय को अनावस्थाप्य प्रायश्चित्त देना, जहाँ काफी कुछ करके अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता हो वहाँ भी अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त दो। सूत्र - ८९ लिंग, क्षेत्र, काल और तप उस चार भेद से अनवस्थाप्य कहा है जो व्रत या लिंग-यानि वेश में स्थापना न कर सके, प्रव्रज्या के लिए अनुचित लगे उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त दो । लिंग के दो भेद द्रव्य और भाव, द्रव्यलिंग यानि रजोहरण और भावलिंग यानि महाव्रत । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(जीतकल्प)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" - Page 12 Page 12

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