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आगम सूत्र ३८, छेदसूत्र-५, 'जीतकल्प' में ४० लोगस्स पर एक नवकार प्रमाण काऊस्सग्ग प्रायश्चित्त जानना। सूत्र - २२
सूत्र के उद्देश-समुद्देश-अनुज्ञा में २७ श्वासोच्छ्वास प्रमाण, सूत्र पठ्ठवण के लिए (सज्झाय परठवते हुए) आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण (१ नवकार प्रमाण) काऊस्सग्ग प्रायश्चित्त जानना चाहिए।
(अब तप प्रायश्चित्त के सम्बन्धित गाथा बताते हैं ।) सूत्र- २३-२५
ज्ञानाचार सम्बन्धी अतिचार ओघ से और विभाग से दो तरह से हैं । विभाग से उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कंध, अंग यह परिपाटी क्रम हैं । उस सम्बन्ध से काल का अतिक्रमण आदि आठ अतिचार हैं - काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिण्हवण, व्यंजन, अर्थ, तदुभय आठ आचार में जो अतिक्रमण वह ज्ञानाचार सम्बन्धी अतिचार, उसमें अनागाढ़ कारण से उद्देशक अतिचार के लिए एक नीवि, अध्ययन अतिचार में पुरिमड्ड, श्रुतस्कन्ध अतिचार के लिए एकासणा, अंग सम्बन्धी अतिचार के लिए आयंबिक तप प्रायश्चित्त आता है । आगाढ़ कारण हो तो यही दोष के लिए पुरिमड्ड के अठ्ठम पर्यन्त तप प्रायश्चित्त है । वो विभाग प्रायश्चित्त और ओघ से किसी भी सूत्र के लिए उपवास तप प्रायश्चित्त और अर्थ से अप्राप्त या अनुचित को वाचनादि देने में भी उपवास तप । सूत्र - २६
काल-अनुयोग का प्रतिक्रमण न करे, सूत्र, अर्थ या भोजन भूमि का प्रमार्जन न करे, विगई त्याग न करे, सूत्र-अर्थ निषद्या न करे तो एक उपवास तप प्रायश्चित्त ।
सूत्र - २७
जोग दो प्रकार से हैं-आगाढ़ और अणागाढ़ । दोनों के दो भेद हैं । सर्व से और देश से । सर्व से यानि आयंबिल और देश से यानि काऊस्सग्ग करके विगई ग्रहण करना वो । यदि आगाढ़ जोग में आयंबिल तूट जाए तो दो उपवास और देश भंग में एक उपवास, अणागाढ़ में सर्वभंगे दो उपवास और देशभंगे आयंबिल तप । सूत्र - २८
शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, मूढ़दृष्टि, अनुपबृंहणा, अस्थिरिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना यह आठ दर्शनातिचार का सेवन देश से यानि कि कुछ अंश में करनेवाले को एक उपवास तप, मिथ्यात्व की वृद्धि के लिए एक उपवास ऐसे ओघ प्रायश्चित्त मानना और शंका आदि आठ विभाग देश से सेवन करनेवाले साधु को पुरिमडू, रत्नाधिक को एकासणा, उपाध्याय को आयंबिल, आचार्य को उपवास तप प्रायश्चित्त जानना । सूत्र - २९-३०
उस प्रकार प्रत्येक साधु को उपबृंहणा-संयम की वृद्धि पुष्टि आदि न करनेवाले को पुरिमड्ड आदि उपवास पर्यन्त प्रायश्चित्त तप आता है और फिर परिवार की सहाय निमित्त से पासत्था, अवसन्न-कुशील आदि का ममत्व करनेवाले को, श्रावक आदि की परिपालना करनेवाले को या वात्सल्य रखनेवाले को निवि-पुरिमड्ड आदि प्रायश्चित्त तप आता है । यहाँ यह साधर्मिक को संयमी करना या कुल संघ-गण आदि की फिक्र या तृप्ति करे ऐसी बुद्धि से सर्व तरह से निर्दोषपन से ममत्व आदि आलम्बन होना चाहिए। सूत्र - ३१
एकेन्द्रिय जीव को संघटन करते नीवितप, इन जीव को परिताप देना या गाढ़तर संचालन से उपद्रव करना वो अणागाढ़ और आगाढ़ दो भेद से बताया अणागाढ़ की कारण से ऐसा करने से पुरिमड्ड तप और अणागाढ़ कारण से एकासणा तप प्रायश्चित्त तप आता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(जीतकल्प)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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