Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Pannavanna Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text ________________
१०५८
संपत्त (सम्प्राप्त) ज ५।२१ सू २/३ उ ११४ से ८,६३,६३,१४२,१४३; २१ से ३, १४, १५, २१:३ । १ से ३,२०, २३, २६,८८, १२६, १५३, १५४,१६६,१६७,१७०४१ से ३,२७,५११,
३,४४
संपत्ति (सम्प्राप्ति ) उ १४१,४३,४४ संपत्थिय ( सम्प्रस्थित ) उ ३१६३,६७,७०,७३ संपन्न ( सम्पन्न ) ज २०१६
१११,४१६,१८
√संपमज्ज (सं+प्र · मृज्) संपमज्जेज्जा ज ५।५, संबद्ध ( संबद्ध ) ज २१२० से २७ ७५ से ७६
संपया (संपदा) ज २७४
संपराइयबंधन (साम्परायिकबन्धक) प २३/६३ संपराइयबंधय ( साम्परायिक बन्धक ) प २३।१७६ संपराय ( सम्पराध ) ज ३।१०३ संपरिक्खित्त (सम्परिक्षिप्त ) ज ११७, ६, २३, २५, २८,३२,३५; ४।१,३,६,१४,२५,३१,३६,४३,
४५,५७,६२,६८,७२,७६,७८,८६,६०,६५, १०३,१४१, १४३, १४८, १४९, १५२, १७४, १७६,१७८, १८३,२००,२१३,२१५,२३४,
१२,२८,३२,३६उ ५१६
संपरिवुड (सम्परिवृत ) ज २२८८६०३६,१४, १८,२२,३०,३१,३६,४३,५१,६०,६८,७७, ७८,१३,१३०,१३६, १४०, १४६, १७२, १८०, १८६,२०४,२१४,२२१, २२२, २२४ ५ ।१,५, २२,४६,४७,५६,६७ उ ११२,१६,६२,६३,६७, ६८,१०५ से १०७,१२१,१२२, १२६ से १२८,
१३३;३।१११ ; ४।१८ १५ १६
संपुष्णदोहल (सम्पूर्णदोहद ) उ ११५०.७५
/ संपेह ( सं + - ईक्ष्) संपेहेइ ज ३३२६,३६,४७ उ ११७; ३।२६ संपेहेति ज ३।१६८ संपेहेमि उ १७६
संपेहेता ( सम्प्रेक्ष्य ) ज ३।२६ उ ११७; ३३२६ संव ( शम्ब) उ५११०
संबंधि ( सम्बन्धिन् ) ज ३।१८७ उ ३३५०, ११०,
संपाविउकाम ( सम्प्राप्तुकाम) ५।२१ संपिडिय ( सम्पिण्डित ) प १६११५ ज २।१२ संपिna (संवि) ज २।१३३;३।२४ संपुच्छण ( सम्प्रच्छन ) ज ५१५ संपुण्ण (सम्पूर्ण ) ज ३१२२१ उ ११३४
संभिन्न ( सम्भिन्न ) प ३३|१८ संमिय ( श्लेष्मिक ) उ ३३५
२४०,२४१,२४२,२४५;५।३८ ३|११६१२, संभूयग ( सम्भूतक) उ ३८
Jain Education International
संबद्धसाग (संबद्ध लेखक ) सू १६।११।२ संबररुहिर ( शम्बररुधिर ) १७१२६ संबाह (सम्बाध ) ज २१२२,३३१८,३१,१८०,२२१ उ ३।१०१
संबुद्ध (सम्बुद्ध ) उ ३१४५
संकांत ( सम्भ्रान्त ) उ ११३७
संपत्त-संलाव
संभम ( सम्भ्रम ) ज ३१२०६५।२२,२६ संभव (सम्भव) ज ७३११४
ग २०११
संपलग्ग ( सम्प्रलग्न ) ज ३।१०७,१०९ उ १।१३८ संमुच्छित्ता ( सम्मूर्च्छय ) सु २०१ संपलियंक ( संपर्यङ्क) ज २१८६
संमुद्रिय ( सम्मूच्छित ) सू ६१
/ सम्माण (सं. गानय् ) सम्भाणेइ उ १११०६; ३।११० सम्मार्णेति उ ५३६ सम्माणेमि उ १११७
संलवमाण ( संलगत् ) उ ११४७
संलाव (संलाप ) ज २११५:३१३८ सू २०१७
संभोग ( सम्भोग ) उ१।२७,१४० संमज्जग ( सम्मज्जक) उ ३१५० संमज्जण ( सम्मार्जन) उ३३५१,५६,७१,७६ संमज्जिय ( सम्मार्जित) ज २६५; ३३७, १८४; ५.५७
संछ ( सं + मुर्च्छ) मंमुच्छंति सू ३ । १ संमुच्छति संमठ ( सम्मृष्ट) ज २१६; ३७५१५७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745