Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

Previous | Next

Page 4
________________ ‍‍ नेवी मित मतिवाला दर्शनीउनुं मत क्यारें पण शुद्ध कहेवाय नहीं परंतु जे दर्शनमा पोताना श्रात्मानुं यात्मत्वपणुं जाणीने पूर्णपणे दयाने अंगीकार करी हो य एवं तो एक श्री जैनदर्शन बे घने ते सर्व लोक प्रविदित बे. तेथी ए धर्म जग मां सर्वोत्कृष्ट कहेवाय बे. ए धर्मना एक रीतें, याचारधर्म, दयाधर्म, क्रियाधर्म ने वस्तुधर्म, एवा चार नेद बे घने दान, शील, तप, तथा नाव, ए चार तेनां कारण बे. वे धन बलें करी दान देवाय, मन बलवडे शील पलाय, शरीर बलवडे तप थाय घने सम्यक् ज्ञानबलवडे नावधर्मनी वृद्धि थाय. ए नावधर्म, दान, शील ने तप, aarai धिक बे, केमके नावधर्मनुं कारण ज्ञान बल बे; जेणेकरी वस्तुनुं स्वरूप जालीयें, तेने ज्ञान कहीयें. ते ज्ञानथकी यात्मधर्मनी वृद्धि तथा संरक्षण जे. लुं थाय तेलुं पेलां त्रण जे दान, शील ने तप, ते थकी यतुं नथी. एनुं कारण ए बे के नय, निक्षेप, प्रमाण, चार अनुयोगनो विचार, सप्तनंगी, षट्इव्यादिकनो विचार, यादि लइ ज्ञान बलवडे जीवने परिपूर्ण प्राप्त थायले. वली श्री दशवैकालिक सूत्र मां पण प्रथम ज्ञानने पछी क्रिया कहीबे. ते उपरांत ज्ञान विनानी जे क्रिया क रवी ते पण क्लेशरूप कहीले. अर्थात् क्रिया तो ज्ञाननी दासी जेवीजले. ज्ञानी पुरुष नी छल्प क्रिया पण अत्यंत श्रेष्ठ बे. वली श्री उत्तराध्ययनमां पण कयुं बे के ज्ञान गुण संयुक्त जे होय तेनेज मुनि कहेवो. एथी पण ज्ञाननुं महात्म्य अत्युत्कृष्ट जणा य. श्री महानिशीथमां ज्ञानने प्रतिपाति वर्णव्यं बे. श्री मरुदेवी माताने हस्ती उपर बेतां तां केवल ज्ञान उत्पन्न ययुं. वली श्री भरतेश्वरने खारीसा भुवनमा रह्यां तां कर्मो विमुक्तता थइ ते पण ज्ञानतुंज प्राबल्य हतुं; अने श्री उपदेश मालामां कबे के ज्ञान रूपी नेत्रें करी उजमाल एवा मुनिने वंदन करवुं योग्य बे. देवाचार्य मनवादि प्रमुखों बौध दर्शनीउने जीतीने जगत्‌मां यशोवाद लीधो ते पण ज्ञाननो ज प्रसाद जाणवो. ज्ञाननी जे तीक्ष्णता तेज प्रबंध चारित्र जाणवुं. जे निका चित कर्मनो कोडो वर्षपर्यंत दान, शील तथा तप कस्याथी विनाश थतो नथी ते ज्ञानथी एक श्वासोवासमा थायले. एटलाज माटें क्रिया गुरुने पीपलाना पत्र जेवा गया बे. ने ज्ञानी गुरुने समुड् समान गल्या बे. ज्ञान विना सम्यक्त्वपएं रही शके नहीं, ज्ञा न विना हिंसानो मार्ग समजाय नहीं, सिद्धांतोक्त समस्त क्रियानुं मूल जे श्रद्धा बे तेनुं पण कारण ज्ञान के केमके ज्ञान विना श्रद्धानी प्राप्ति यती नथी, एवं जे ज्ञान ना पांच प्रकार. मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव ने केवल ए पांचने विषे पण श्रुतज्ञान सर्वथी अधिकोपयोगी बे श्रुतज्ञान पदार्थमात्रनुं प्रकाशक बे. स्वमत तथा प मनुं परिपूर्ण प्रकाश करनारुं पण श्रुतज्ञानज बे. अज्ञानरूप तिमिर टालवाने सूर्यस Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 1050