Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Jambuvijay, Dharmachandvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 391
________________ २९४ प्रथमे परिशिष्टे ५६८ विशिष्टशब्दाः सूत्राकाः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विजति(इ)(ती) १३, ५६, १५८, २३०, विद्धसणधम्म १२० ५०४ विद्धंसमाण ६२४ विजभावं ५४४ विधुणिय १०३ विजा विधूणयं २८७ विजाचरणं विधूमठाणं ३३४ विजापलिमोक्ख ५४४ विन्नाय विजं ७७, १२०, ६५६, ३९९, ४४५, विपरीयास ४५४, ४५६, ४५९, ५७७ विप्पगब्भिय विज्झंति ३०८, ३२९, ३४१ विप्पजहाय २४७ विदड्ढ ३३३ विप्पडिएति विणइंसु विप्पडिवण्ण १७५ विणएज ५७७ विप्पणमंति ५५१ विणय ५३५, ५८० विप्पमादं ५८० विणस्सति १६, ८१ विप्पमुक्क ७९, ४७६, ४८१ विणास ८, १२ विप्परियासुवे(३)ति ३८२, ३९१, ५४५, विणासयंते. ३८९ विणासि विप्पहूणा विणिकस्स ३२१ विबद्ध १९०, १९२, ३४२ विणिघाय विभजवाद ६०१ विणिणेजा ५३३ विमण १६९ विणिहंति ३९६ विमुक्क ४९५, ४२६ विणीय ४०७,४८२ विमुच्चती १९ विण्णत्तिधीरा ५५१ विमोक्खहेउ विण्णप्पं २९६ विमोयणाए ५६७ विण्णवणाहि १४४ वियड ७१, १३२, ४०१, ४०२, ४५५ विण्णवणित्थीसु २३४-२३६ वियत्त वितक वियागरे ४६१, ६२४ वितहं ६०२ वियागरेंति वितिगिंछसमावण्णं २०८ वियागरेंते ५.८४ वितिगिंछाए वियागरेजा ५५९,५७४, ५९८,६०१ वितिगिच्छतिण्ण ४७५, ५३६, ५८५ वियाणे वित्त ५, ११०, १५८, ४४०, ४४३, वियास ३२९ ४९१, ५८३, ५९४ वियाहिथ १४४, १६४ वितिच्छेय विरज २७८ विदित्ता विरति ११८, २४४, ५०७ विदुमं १२१, १५९ विरय(त) १००,१०९, १३५, १४२,२७१, ३०८ । ४००, ४०२ ४७८,५२९ ४८ ०. ५१६ विभ्रूण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475