Book Title: Adhyatmik Gyan Vikas Kosh Author(s): Rushabhratnavijay Publisher: Rushabhratnavijay View full book textPage 3
________________ मधर्म की महत्ता हेतु 10 श्रेष्ठ उपमा ॥ कल्पवृक्ष चिंतामणी निधान-भंडार भोजनादि देनेवाले कल्पवृक्ष पृथ्वी पर प्राप्त चिंतामणी जिसके हस्त में.... दुनिया की पूरी जिसके पास निधान उसे लीलालहेर किंतु होते है। युगलिक मानवी इन वृक्षों से ही संपत्ति उसके हाथ में है क्योंकि वह उस मणि से यह निधान शाश्वत नहीं है। जबकि धर्म ऐसा अपना जीवन यापन करते है किंतु धर्मरूपी इच्छित प्राप्त कर सकता है किंतु धर्म चिंतामणी निधान है जिसकी कृपा से सदा के लिए कल्पवृक्ष तो धरती के ही नही स्वर्ग के और का असर तोपरलोक तक, रत्न की मर्यादा इस आनंदतथायहनिधान चिरस्थायी है। आगे बढ़कर मुक्ति सुख को भी देता है अतः भवतक जबकिधर्म तोभवोभव तक। धर्मकल्पवृक्ष अपूर्व है। अपूर्व बांधव अपूर्व मित्र जो मुसीबतों में काम आता है वह बांधव जबकि हमेशा सहभागी बनने हेतु तत्पर एक मात्र धर्म है। आपत्ति का निवारण तथा संपत्ति के द्वार खुले रखता ही वह संसारी मित्र है किंतु वह मित्र समस्त सुखों को नही दे सकता जबकि धर्म! सब कुछ देता है। परमगुरू रथ गुरू का काम अज्ञान दूर करना और ज्ञान देना है गुरू इस भव तक ज्ञान देते है जबकि धर्म आनेवाले भव में भी प्रत्येकबुद्ध - स्वयंबुद्ध बनाकर ज्ञान देता है। मार्ग पर व्यवस्थित ले जाने का काम रथ का होता है वह एक गांव से दुसरे गांव ले जाता है जबकि धर्म तो सदगति और मोक्ष मेभीले जाता है यहरथरास्ते मेंटता या बिगड़ता नहीं है। रास्ते में संबल दो-तीन दिन तक काम आता है जिन्दगीभर काम नहीं आता है जबकि धर्म संबल भवोभव तक काम आता है। तथा वह खराब नही होता है ओरदोषों को दूरकरनेवालाहै। संबल दुनियां के रत्नों को चोर चोरी कर सकते सार्थवाह! एक गांव से दूसरे गांव जाते रास्ते में है राजा आदि का अधिकार भी उस पर आते जंगल-नदी-समुद्र-पहाड़ों की कुशलता होता है जबकि यह धर्म रूपी रत्न का पूर्वक पार करवाता है फिर भी राजा-पशु आदि संचय चोरीनहीहोता, नष्ट नही होता तथा का भय तो होता ही है किंतु धर्म सार्थवाह केबल कोई अधिकारभीनहीजमाता। सेतोइहलोक-परलोकके भय दूरहोजाते है। रत्नसंचय सार्थवाहPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24