Book Title: Adhyatmik Gyan Vikas Kosh
Author(s): Rushabhratnavijay
Publisher: Rushabhratnavijay

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Page 19
________________ धर्म का मूल है - दया जहाँ प्रेम वहाँ त्याग होगा ही। त्याग न होता हो 66जीवों का सत्कार तथा तो प्रेम दंभ है लेकिन इससे बढ़कर पापों का धिक्कार यह है श्रद्धा मेरा जैसा स्वरूप है येसा ही सबका है जैन धर्म का मौलिक विचार है। यह भाव ही दयाभाव को जागृत स्वता है। जैन धर्म सागर है, अन्य धर्म नदी है समुद्र में नदी समाविष्ट है, नदी में समुद्र नहीं ११ वीतराग परमात्माने आंशिक दया नहीं संपूर्णतया जीवों के प्रति दयाभाव दिखाया है। पार्श्वकुमार को पता चला कि नगर के बाहर संन्यासी चारों ओर काष्ठ की चिता जलाकर बीच में पंचामि तप कर रहा है। तो वहाँ जाकर कहाँ कि-जिन धर्म में क्या नहीं वह धर्म, धर्म नहीं है। जलते काष्ठ से जागनागिन को बाहर निकलवाया। सर्पयुगल पर क्या करके न वकार महामंत्र सुनाया। जिसके प्रभाव से मस्कर धरणेन्द्र-पद्मावती के रूप में प्रगट हुए। घड़ी का एक छोटा स्थू निकल गया कि घड़ी बंद। हमारी जीवन शेर पानी घड़ी भी ऐसा ही है 1 जीव का धिक्कार में प्रतिबिंबित अपने जैसे आराधना घड़ी बंद, 1 जीव अन्य शेर को देखक मारने हेतु का सत्कार आराधना तत्पर हुआ और वह स्वयं ही मर गया। अन्य घड़ी शुरू। जीवों को मारना अर्थात् स्वयं को ही दंडीत करना..०। क्योंकि उसका फल कभी न कभी हमें ही भुगतना है। जैसा बोओगे वैसा पाओगे। BIOHDBHO0000000000HRANDROIRADHANRAJENDAR AWARRIBE 20000GGCSCRIODG00000

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