________________
व्यक्ति को पदार्थापक्षी बनाती है। आसक्त व्यक्ति अपने को 'पर' में खोजता है। जबकि अनासक्त या वीतराग दृष्टि व्यक्ति को स्व में केन्द्रित करती है। दूसरे शब्दों में, जैनधर्म वीतरागता की उपलब्धि को ही जीवन का परम लक्ष्य घोषित किया गया है। क्योंकि वीतराग ही सच्चे अर्थ में समभाव में अथवा साक्षी भाव मे स्थित रह सकता है। जो चेतना समभाव या साक्षी भाव में स्थित रह सकती है वही निराकुल दशा को प्राप्त है और जो निराकुल दशा को प्राप्त होती है, वही शाश्वत सुखों का आस्वाद करती है। जैनधर्म में आत्मोपलब्धि या स्वरूप - उपलब्धि को, जो जीवन का लक्ष्य माना गया है, वह वस्तुत: वीतराग दशा में ही सम्भव है और इसलिए प्रकारान्तर से वीतरागता को भी जीवन का लक्ष्य कहा गया है। वीतरागता का ही दूसरा नाम समभाव या साक्षीभाव है। यही समभाव हमारा वास्तविक स्वरूप है। इस अवस्था को प्राप्त कर लेना ही हमारे जीवन का परम साध्य है।
साध्य और साधना मार्ग का आत्मा से अभेद
जैनधर्म में साधक, साध्य और साधनामार्ग तीनों ही आत्मा से अभिन्न माने गये है। आत्मा ही साधक है, आत्मा ही साध्य है, और आत्मा ही साधना मार्ग है। ‘अध्यात्मतत्त्वालोक' में कहा गया है कि आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष है, जब तक आत्मा कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, वह संसार है । किन्तु जब वह इन्हें अपने वशीभूत कर लेता है तो मुक्त कहा जाता हैं। " आचार्य अमृतचन्द्रसूरी समयसार की टीका में लिखते हैं आत्म कि द्रव्य की पर्याय का परिहार और शुद्ध आत्म तत्व की उपलब्धि ही सिद्धि है । १२ आचार्य हेमचन्द्र ने भी साध्य और साधक में भेद बताते हुए योगशास्त्र में कहा है कि कषाय और इन्द्रियों से पराजित आत्मा बद्ध और उनको विजित करने वाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मुक्त कहा जाता है।१३ वस्तुतः आत्मा की वासनाओं से युक्त अवस्था ही बन्धन ह और वासनाओं तथा विकलपों से रहित शुद्धात्मदशाही मोक्ष है। जैन अध्यात्मवाद का कथन है कि साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर है । धर्म साधना के द्वारा जो कुछ पाया जाता है वह बाह्य उपलब्धि नहीं अपितु निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है। हमारी मूलभूत क्षमतायें साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में समान ही है। साधक और सिद्ध अवस्थाओं में अन्तर क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का है । जिस प्रकार बीज
जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में : ५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org