Book Title: Adhyatmavada aur Vigyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 10
________________ सम्यग्दर्शन के पाँच लक्षण जैनधर्म में सम्यक् दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये गये है:१. सम अर्थात समभाव, २. संवेग अर्थात् आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति अथवा सत्याभीप्सा, ३. निर्वेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, ४. अनुकम्पा अर्थात् दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को आत्मवत् पीड़ा समझना और उसके प्रति करुणा का भाव रखना और ५. आस्तिक्य अर्थात् पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म - सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्त्व को स्वीकार करना । सम्यक् दर्शन के छह स्थान जिस प्राकार बौद्ध-साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख से निवृति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है इन चार आर्य सत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है, उसी प्रकार जैन-साधना के अनुसार षट् स्थानकों (छह बातों) की स्वीकृत्ति सम्यक्दर्शन है- (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मुक्ति का उपाय (मार्ग) है २२ । जैन तत्त्व - शास्त्र के अनुसार इन षट्स्थानकों पर दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर निर्भर है; ये षट्स्थानक जैन-साधना के केन्द्र बिन्दु हैं । सम्यक् ज्ञान का अर्थ दृष्टिकोण की विशुद्धि पर ही ज्ञान की सम्यक्ता निर्भर करती है । अत: जैन साधना का दूसरा चरण है सम्यक् ज्ञान। सम्यक् - ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन-सा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान वस्तुतत्त्व का उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन-दर्शन के अनुसार एकांगीज्ञान मिथ्यात्व है, क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक आग्रह बुद्धि है, तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है, तब तक यथार्थ ज्ञान भी असम्भव है। जैनदर्शन के अनुसार सत्य के अनेक पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक् जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में : ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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