Book Title: Adhyatmavada aur Vigyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 26
________________ के तत्त्व पल रहे हैं। आत्मज्ञान कोई हौव्वा नहीं है, वह तो अपने अन्दर झांककर अपनी वृत्तियों और वासनाओं को पढ़ने की कला है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त तकनीक के सहारे हम पदार्थों का परिशोधन करना तो सीख गये और परिशोधन से कितनी जिसे शक्ति प्राप्त होती है यह भी जान गये किन्तु आत्म के परिशोधन की जो कला अध्यात्म के नाम से हमारे ऋषि-मुनियों ने दी थी, आज हम उसे भूल चुके हैं। फिर भी विज्ञान ने आज हमारी सुख-सुविधा प्रदान करने के अतिरिक्त जो सबसे बड़ा उपकार किया वह यह कि धर्मवाद के नाम पर, जो अन्ध श्रद्धा और अन्धविश्वास पल रहे थे उन्हें तोड़ दिया, है। इसका टूटना आवश्यक भी था क्योंकि परलोक की लोरी सुनाकर मनुष्य समाज को अधिक समय तक भ्रम में रखना सम्भव नहीं था। विज्ञान ने अच्छा ही किया हमारा यह भ्रम तोड़ दिया, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भ्रम का टूटना ही पर्याप्त नहीं है। इससे जो रिक्तता पैदा हुई उसे आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा के द्वारा ही भरना होगा। यह आध्यात्मिक मूल्य निष्ठा उच्च मूल्यों के प्राति निष्ठा है, जो जीवन को शान्ति और आत्मसंतोष प्रदान करते हैं। अध्यात्म और विज्ञान का संघर्ष वस्तुतः भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का संघर्ष है। अध्यात्म की शिक्षा यही है कि भौतिक सुखसुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं आत्मिक मूल्यों से परे सामाजिकता और मानवता के उच्च मूल्य भी हैं। महावीर की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है पदार्थ को परममूल्य न मानकर आत्मा को ही परममूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि के अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। अतः भौतिकवादी सुखों की लालसा में वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उनकी उपलब्धि हेतु शोषण और संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है, जिससे वह स्वयं तो संत्रस्त होता ही है, साथ ही साथ समाज को भी संत्रस्त बना देता है। इसके विपरीत अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख का केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। सुख-दुःख आत्म केन्द्रित है। आत्मा या व्यक्ति ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। वही अपना मित्र और वही अपना शत्रु है। सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा अपना मित्र है और दुप्रातिष्ठिा आत्मा अपना शत्रु है। वस्तुतः आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों से न होकर सद्गुणों में स्थित आत्मा में होती जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में : २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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