Book Title: Adhyatmavada aur Vigyan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 31
________________ जनता को लूटा जाता है। धर्म का यह धन्धा, है सबसे अच्छा, इसमे नहीं लगता है, पूँजी पल्ला। बिन मेहनत पद, प्रतिष्ठा और पैसा सब कुछ तो मिल जाता है। अधिक क्या कहे, स्वर्ग की बैंक भी खाता खुल जाता है। यह एक ऐसा धंधा है, भीतर से हो चाहे काला, बाहर से तो पूरा उजला है। पर याद रखो तुम, सबको दे सकते हो धोखा, पर तुम्हारे भीतर, है जो बैठा वह सब कुछ जानता है, तुम्हारी सारी कलाबाजी पहचानता है तुम्हारा परमात्मा बाहर नही, भीतर बैठा है खुद को दिया गया धोखा परमात्मा से धोखा है। धर्म-धन्धा नही, मानवता की सेवा है धर्म में लूटना नही, लुट जाना पड़ता है। यह कुछ पाना नहीं, खोना ही खोना है। सेवा और समर्पण ही अर्पण है खुद का ही तर्पण है। यहाँ खुदी को मिटा, खुदा को पाया जाता है। तेरे और मेरे भेद मिटा सबको अपनाया जाता है । आत्मा को ही परमात्मा बनाय जाता है। जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में : ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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