Book Title: Adhyatmavada aur Vigyan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 15
________________ इसके साथ ही साथ वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है, कि १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होने चतुर्विध संघ की स्थापना की तथा जीवन भर उसका मार्ग-दर्शन करते रहे। जैनधर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के सुधार से समाज के सुधार की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है, जब तक व्यक्ति नहीं सुधरेगाा तक तक समाज नहीं सुधर सकता है। जब तक व्यक्ति के जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता, वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। लोकसेवक और जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वो से दूर रहें - यह जैन आचार-संहिता का आधारभूत सिद्धान्त है। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होगें। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है? महावीर की शिक्षा का सार यही है, कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र प्रवृत्ति का आधार बन सकती है। प्रश्न व्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भगवान् का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है।३० जैन साधना में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये जो पाँच व्रत माने जाते हैं वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है, वे सामाजिक मंगल के लिए भी हैं। वे आत्मशुद्धि के साथ ही हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास भी हैं। जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही महत्व दिया है। जैनधर्म में तीर्थकर, गणधर और सामान्य केवली के जो आदर्श स्थापित किये गये हैं और उनमें जो तारतम्यता निश्चित की गई है, उसका आधार विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण और व्यक्ति-कल्याण की भावना ही है। इस त्रिपुटी में विश्व-कल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थकर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की उपस्थिति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन साधना केवल आत्महित या वैयक्तिक जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में: १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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