Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3 Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 4
________________ यत् किंचित् कथनम् शुभ कार्य का प्रारम्भ और उसकी परिसमाप्ति, और वह भी निर्विघ्न हो जाए, तो उसे सद् भाग्य समझना चाहिए। क्योंकि शुभ कार्य में विघ्नों की परम्परा का आ जाना, कार्य को पूरा कर सकना, सहज तथा सरल नहीं है । भारत को प्राचीन परम्परा रही है, कि किसी भी शुभ कर्म को प्रारम्भ करने से पूर्व मंगलाचरण किया जाता है । वह वाचिक भी हो सकता है, और मानसिक भी । अतः भारत में मंगलाचरण की पुरातन परम्परा रही है । यह भी देखा जाता है, कि मंगलाचरण करने पर भी कार्य की सिद्धि नहीं होती । उसका समाधान यह किया जाता है, विघ्न-बाहुल्य था, उतनी अधिक मात्रा में मंगलाचरण नहीं किया गया । अध्यात्म प्रवचन के तृतीय भाग के सम्पादन करने के पूर्व ही मैं अस्वस्थ हो गया । अस्वस्थता लम्बी और काफी कष्ट-दायिनी थी । कष्ट के क्षणों में भी मेरा संकल्प कार्य को पूरा करने का बना रहा, उसमें शैथिल्य नहीं आने दिया । मनुष्य के संकल्प में महान् बल होता है । अपनी संकल्प शक्ति के द्वारा मैं तो शीघ्र स्वस्थ हो गया, जो कि डॉक्टरों की आशा के विपरीत था । गुरु कृपा से स्वस्थ होकर अपने अधूरे कार्य को पूरा करने में, मैं फलवान् रहा । आज मुझे परम प्रसन्नता है, कि मेरा संकल्प पूरा हुआ । पूज्य गुरुदेव का सन् १९६० का वर्षावास कलकत्ता में था । वहाँ के श्रीसंघ ने इन प्रवचनों को लिपिबद्ध कराया था। ये प्रवचन तीन भागों में प्रकाशित हो चुके हैं। प्रथम दर्शन मीमांसा, द्वितीय ज्ञान-मीमांसा एवं आचार-मीमांसा, तृतीय तत्त्व-मीमांसा, कर्म-मीमांसा और अध्यात्मवाद । तृतीय भाग में, गुरु का गुरु-गम्भीर विषय है, भारतीय दर्शनों में तथा पाश्चात्य दर्शनों में तत्त्व विचार । पूर्व के दो भागों की अपेक्षा इसमें विचार की गम्भीरता अधिक है। पूज्य गुरुदेव स्वभावतः गम्भीर ( ३ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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