________________
१५४
अध्यात्म बारहखड़ी
दंग नगर कौ नाम है, तु नागर रसरूप। नगर तिहारौ सर्व कै, माथै है जगभूप ।। ८५ ।। दंती हस्ती कौं कहैं, हस्तीपति को नाथ। तोहि भजै जगनाथ जी, तू अनंत अति साथ ।। ८६ ।। दं कहिये जु कलत्र कौं, तेरै नारी नांहि। तू निज परणति सौं रमैं, रमा तिहारै मांहि ॥८७॥ दं कहिये प्रभु छेद कौं, छेदन भेदन नाहि। तरै भाव दयाल है, हिंसा. नाम न पाहि।। ८८ ।। दं कहिये फुनि दान कौं, तू दांनी जगदीस। भुक्ति मुक्ति की मान जो, भक्ति देहु अवनीस ।। ८९ ॥ दद्दा पासि दु शून्य है, अंतिम मात्रा जोय।
तू सव मात्रा मांहि है, चिनमात्रो प्रभु सोय ॥९० ॥ अथ वारा मात्रा एक कवित्त मैं ।
_ - सवैया . ३१ दया को निधान है सुदानपति दाता एक,
दिन दिन तेरौ जस देखिये नवो नवो। दीनानाथ दीनबंधु दुष्टनित दूर देव,
देस ब्रत महाब्रत भासै त हरै भवो। दैव एक तू ही सव दोष को हरन हार,
दौर अति तेरौ, दौरजन्य विनु तु शिवो। दंभः रहित और रहित मोह तें विशुद्ध, दः प्रकास है अनास देहु आपनी लवो॥९१॥
- दोहा - दया रूप गुन शक्ति जो. भवा भवांनी भूति ।
सो संपति लछमी रमा, है दौलत्ति विभूति ॥ ९२ ।। इति दकार संपूर्णं । आगैं धकार का व्याख्यान कर है।