Book Title: Adhyatma Barakhadi
Author(s): Daulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 297
________________ अध्यात्म बारहखड़ी २८९ तीये. शुल्म सद, हाणिया विटालि . मांहैं, लहैं हीन परजाय, पापिया संसैं नाहैं। अतिहि हीनता रूप, भूप इह भव की माया, याते पार उतारि, देहु अविनश्वर काया। तेरे दास उदास भव तें, ज्ञान क्रिया मैं निपुण हैं, व्रत्त प्रवत्तक भक्ति रूपा, तिन सम और जु कवण हैं।। १८॥ हींग जु होय अभक्ष, हाट को सीधौ नियं, चरम चाननी छाज, चर्म घृत तेल हु निंद्यं । चंदोवा है जोग्य गृही कौँ भोजन पाने, __ पूजा दांन सुज्ञान तूहि भासेइ प्रमाने। हुतकर्मा हुतभर्म तू ही, तू होता भव भाव को, हुलसै हि चित्त तो देखतां, तू खेवट गुन नांव कौ ॥१९॥ हु अहिये प्राक्रत्त मांहि है परगट नामा, तू हि प्रगट जगदीस. ईश है अतुलित धांमा। हूं अति सलिउ अनंत, काल भव वन महि तो बिन, अव निस्तारि दयाल, तू हि प्रभु तमहर कर दिन। हेत अहेत जु त्यागि जग सौं, हेत करें तो सौं मुनी, हेम रूप तू रहित काई, तो विनु हेय सबै दुनी ।। २० ।। हेय कहावै त्याग, जोग जे वस्तु पराई, __ परद्रव्य जु नहि लीन, एक निजरस सुखदाई। आतम विनुसब हेय, एक आदेय स्वरूपा, हेयाय सवै हि, तू हि भासइ जग भृपा। तेरै हेय न एक दीमै, तू हि उपादे वस्तु है, हे नाथ तारि भव सिंधु तँ, तू तारक परसस्त है।॥२१॥ हेकड मल्ल अवीह, हेतु शिव को इक तू ही, हेत अहेत न लेत, एक निज भाव समूहि।

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