Book Title: Adhyatma Barakhadi
Author(s): Daulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 292
________________ २८४ अध्यात्म बारहखड़ी संकट हरन सुपास तू, दूरि नही जग सार। तू संदेह वितीत है, संसारार्णव तार ॥१३६ ।। संसारी तैं सिद्ध , तेरेई परसाद। संभव तू ही असंभवो, धरइ जु नांहि बिषाद ॥१३७ ।। जे संसार सरीर सैं, अर भोगनि त नाथ। विरकत हूँ सुमुनीश्वरा, ते हि लहैं तुब साथ ।।१३८ ।। संप्रदाय तेरी सही, जा करि शिव सुख होय। भव संतान अनंत तैं, तारक न. प्रभू, गोरा !! १३: ।। . संपा विजुरी कौं कहैं, तदवत चंचल देह। संपादक निज ज्ञान को, चेतन तत्व विदेह ।। १४० ।। संप्रदान अधिकर्ण अर, अपादान अर कर्ण। करता करम जु षट विधि, कारक रूप अवर्ण॥१४१।। संध्या अभ्र समान है, भव तन भोग विभूति। इनसौं जे ममता धेरै, भव मैं धेरै प्रसूनि ॥१४२।। संध्या तीन मझार जे, तोहि भर्जे चित लाय। अहनिसि ध्यान समाधि की, सिद्धि लहँ ते राय ! १४३ ।। संवेगादिक गुणधरा, ध्यानै तोहि मुनिंद। तु असंग सरवंग है, केवल रूप जिनिंद।। १४४।। सत संगति नैं पाईए, तेरी भक्ति दयाल। शिव संगम को मूल है, नेरी सेव कृपाल ॥ १४५ ।। ... मस्टा - सः कहिये मो जीव, धन्य धन्य है जगत मैं। तोहिं र₹ जु अतीव, तेरौं नै निज रस लहै ।। १४६ ।। सः शूली को नाम, शूली रुद्र त्रिशूल धर। सो ध्यानै तुव धाम, तू सब करि पूजित प्रभू॥१४७ ।।

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