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अध्यात्म बारहखड़ी
तू ही सुठाकुर प्रभू जगदीश राया,
लोकेश लोक परिपूरण रूप भाया। और कुठाकुर सवै नर देव सर्वे,
झूठी विभूति लखि मूढ वृथा जु गर्वे ।। १०२ ।। तू ही सुढार सुभ रूप कुहार औरा,
..तो कौं सबै मुधि प्रभ जग कौ हि मौरा। .. तू ही सुदारण महादुखहार देवा,
तू ही सुधारण हमैं प्रभू दै स्व सेवा ।। १०३ ।। तू ही सुतारक भवोदधि पोत स्वामी,
तू ही सुमारग निरूपण रूप नामी। तू ही सुदर्शन विभासक दृश्य रूपा, तू ही सुग्यान धन शुद्ध स्वरूप भूपा॥ १०४॥
- छंद भुजंगी प्रयात - सुनासीर भाष्यो जु इंद्रो सुरेद्रो, तुझी कौं र₹ देव तू है मुनिंद्रो। चहैं नाहि दासा सुनासीर लोका, विरक्ता जगद्भोग थी ग्यान थोका । १०५ ।। सुपर्णा समाना तिहारे सुदासा, जिनौं कौं लखें काल नागा जुनासा। ग्रस काल लोकैं न दासै प्रभूजी, सही काल जीता सुदासा विभूजी ॥ १०६ ।। सुवर्णा नही है सुवर्णा गुसांई, तु ही है सुवर्णा सुरूपा असांई। सुतो नाहि काहू हि को तू अनादि, सुता सर्व तेरे तु ही तात आदी ।। १०७।। तु ही मृर चंदा हतै अंधकारा, प्रकासी सदा तत्व रूपी अपारा । जप सूर चंदा भजै न फनिंदा, तु ही कोटि सूर्याधितेजो मुनिंदा ॥ १०८॥ तु ही सूक्षमो जाहि कोऊ न जान, तु ही थूल थूलो अनंतत्त्व मानें। नही सक्षमो तू हि थूलो हु नाही, अमूर्त स्वरूपो तुही सर्व माही ।। १०९॥ तु ही सूनृतो सत्य रूपो अरूपो, प्रभू तूही सूरीश्वरो है अनूपो। जधैं सूरि तोकौं उपाध्याय धोकैं, स्टैं साध तोकौं हि जे चित्त गेकै॥११०।।