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वचन
मन
आत्मा
काया
पास ये तीन साधन उपलब्ध हैं। चौथे क्रम पर इन्द्रियाँ गिनी जाती हैं। उनकी गणना काया में ही हो जाती है। इन सबसे की जाती सभी प्रवृत्तियाँ मिथ्यात्वग्रस्त ही होगी ।
आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि तत्त्वभूत विषयों के बारे में उनको सोचना कि आत्मादि कुछ है ही नहीं आदि समान विचारधारा रहती है। दूसरों को सुनाने - समझाने के लिए बोलने की . नास्तिकता की भाषा भी समान ही
रहती है । अब विचार - वाणी दोनों मिथ्यात्वग्रसित हो तो वर्तन-व्यवहार कैसा होगा ? सब पापप्रवृत्तिग्रस्त ही रहेगा। ऐसा मिथ्यात्वी जीव पुण्य-पाप-धर्म-अधर्म आदि तत्त्वों को मानता ही नहीं है । उनमें कुछ भेद भी नहीं मानता है । इसीलिए किसी भी प्रकार का पाप करने में उसे लज्जा या संकोच रहता ही नहीं है। वह सर्वथा निर्लज्ज निर्भीक रहता है। किसी भी प्रकार का पाप करने के लिए तैयार रहता है ।
मिथ्यात्व पाप और संसार परिभ्रमण
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मिथ्यात्व और सभी पापों के बीच गाढ संबंध है । मिथ्यात्वी जब कुछ भी मानने के लिए ही तैयार नहीं है तो फिर पापादि को छोडने का प्रश्न ही कहाँ खडा होता है ? हिंसा- झूठ चोरी - दुराचार - व्यभिचार, अति परिग्रह, क्रोधादि कषाय आदि सभी पापों के बारे में उसके दिल में करने की इच्छा बनी रहती है। पापभीरुता का गुण उसमें न रहने के कारण पाप करने की तीव्र इच्छा रहती है । पाप करने में भी मजा - सुख मानकर वह चलता है । इस प्रकार सुख की लालसा से भी पाप की प्रवृत्ति करने के कारण नए कर्म काफी भारी मात्रा में उपार्जन करता ही रहता है । इस पाप प्रवृत्ति से पुनः कर्म का बंध होता है । इस कर्म के उदय से पुनः वैसी पाप करने की ही वृत्ति बनती है । फिर पाप करता है— फिर कर्म बांधता है फिर कर्म का उदय होता है, फिर उस कर्म के उदय के कारण वापिस पाप करता है, फिर कर्म बांधता है फिर पाप की प्रवृत्ति - फिर कर्म - बंध - उदय । इस पाप-कर्म-बंध और उदय के कारण संसार चक्र में परिभ्रमण बहुत ही लम्बे काल तक
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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