Book Title: Aadhunik Kahani ka Pariparshva
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 12
________________ १६ आधुनिक कहानी का परिपार्श्व प्राणशून्यता का परिचायक था । देश-काल के अनुसार सामाजिक और धार्मिक सुधारों की ओर किसी ने ध्यान न दिया। सच तो यह है कि मानसिक अध्यवसाय रहने पर भी भारतवासी जड़ पदार्थ में परिणत हो गए थे । जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त पण्डे-पुरोहित, ज्योतिषी, 'गुरु' आदि जैसे अशिक्षित और अर्द्ध-शिक्षित ब्राह्मण हिन्दू समाज पर छाए हुए थे। उनके मुख से सुनी हुई ग़लत या ठीक बातों को समाज वेद-वाक्य मानकर तदनुकूल आचरण करने के लिए प्रस्तुत रहता था। अपने अधिकार, उच्च पद और आमदनी खो देने के भय से ब्राह्मण परम्परागत धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होते देखना नहीं चाहते थे । सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण वर्ग के अतिरिक्त अन्य किसी वर्ग को धर्मशास्त्रों का अध्ययन करके धार्मिक जीवन के संचालन का अधिकार न होने तथा संस्कृत भाषा से परिचित न होने के कारण समाज ब्राह्मणों का पतित शासन उखाड़ फेंकने में असमर्थ था। ऐसे ही पतित धार्मिक शासन के अन्तर्गत क्रूर, अत्याचारपूर्ण और हृदय-विदारक सती-प्रथा जैसी अन्य अनेक कुप्रथाओं और कुरीतियों का प्रचार था। कूप-मण्डूक ब्राह्मणों तथा उनके अनुयायियों के विरोध करने पर भी उन्नीसवीं शताब्दी पूर्वार्द्ध में राजा राममोहन राय, द्वारिकानाथ ठाकुर, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर प्रभृति सज्जनों की सहायता से तत्कालीन अधिकारियों ने ये कुप्रथाएँ एवं कुरीतियाँ बन्द करने का प्रयत्न किया था। बाल-हत्या और नर-बलि तक धर्म-सम्मत मानी जाती थी । बाल-विवाह समाज में घुन की तरह काम कर रहा था। वर्ण-भेद के अन्तर्गत असंख्य जातियों और उपजातियों में विभाजित होने के कारण भारतवासियों को संगठित होने में बड़ी कठिनाई पड़ रही। इनके साथ ही विधवा-विवाह-निषेध, बहु-विवाह, खानपान-सम्बन्धी प्रतिबन्ध, समुद्र-यात्रा के कारण जाति-बहिष्कार, नशाखोरी, पर्दा, स्त्रियों की हीनावस्था, धार्मिक साम्प्रदायिकता, अफ़ीम खाना आदि अनेक कुप्रथाओं का चलन हो गया था। इनमें से कुछ ती काल-वश

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