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RKK
कट न० १०६
॥ वन्दे जिनवरम् ||
समाज संगठन
लेखक --
श्रीयुत पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ।
प्रकाशक
जैनमित्र मंडल
धर्मपुरा देहली।
प्रथम वृति } चँत्रवीर सं० २४६३ अप्रैल १६३७ { भूल
२०००
मूल्य
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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम संख्या
र काल नं.
खण्ड
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समाज-संगठन
समाज का सुव्यवस्थित, बलाढ्य और वृद्धिगत होना समाजसंगठन कहलाता है। प्राचीन आचार्यों ने विवाह का विधान करके उसके द्वारा संतानोत्पादन करने को जो गृहस्थका एक खास धर्म बतलाया है उसका मुख्य उद्देश्य समाज-संगठन है, जिस के द्वारा धर्म-कर्मादि की संतति अविच्छिन्न रहने से अपना विकास सिद्ध किया जा सकता है। क्योंकि समाज व्यक्तियोंका बनता है-व्यक्तियों के समुदायका नाम ही समाज है-और व्यक्तियों का समुदाय तभी बढ़ता है और तभी उसके द्वारा समाजकी पुष्टि होकर धर्म-कर्मादि की संतति अविच्छिन्न रह सकती है जब कि विवाह-द्वारा योग्य संतान उत्पन्न की जाय इसलिये विवाह द्वारा और बल लाना-यह समाज-संगठनका मुख्य अंग है।
जैसाकि आदि पुराण के १५ वे पर्व में वर्णित विवाहकी निम्न प्रार्थना से प्रकट है जो युगकी आदि में नाभि राजाने भगवान् 'ऋषभदेव' से की थी:
त्वामादि पूरुषं दृष्ट्वा लोकोऽप्येवं प्रवर्त्तताम् । महतां मार्गवर्तिन्यः प्रजाः सुप्रजसोह्यमूः ।।६।। ततः कलत्रमनेष्टं परिणेतुं मनः कुरु । प्रजासंततिरेवं हि नोच्छेत्स्यति विदांवर ॥६॥ प्रजासन्तत्यविच्छेदे तनुते धर्मसन्ततिः । मनुष्य मानवं धर्म ततो देवोनमुच्युते ॥६३।। देवेमं गृहिणां धर्म विद्धि, दारपरिग्रहम् । सन्तान रक्षणे यत्नः कार्यों हि गृहमेधिनाम् ॥६४॥
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समाज-संगठन
संगठन की ज़रूरत का वाह्यदृष्टि से विचार
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अब देखना यह है कि विवाहद्वारा संतान उत्पन्न करके समाज संगठनकी ज़रूरत क्यों पैदा होती है ? जरूरत इसलिए होती है कि यह जीवन एक प्रकारका 'युद्ध' है-लौकिक और पारलौकिक या अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही दृष्टियोंसे इसे युद्ध समझना चाहिये - और यह संसार 'युद्धक्षेत्र' है । युद्ध में जिस प्रकार अनेक शक्तियोंका मुकाबिला करनेके लिये सैन्य-संगठनकी जरूरत होती है उसी प्रकार जीवन- युद्ध में अनेक आपदाओं से पार पानेके लिए समाज संगठन की आवश्यकता है। हम चारों ओर से इस संसार में अपनी पत्नियों द्वारा घिरे हुए हैं कि यदि हमारे पास उनसे बचने का कोई साधन नहीं है तो हम एक दिन क्या, घड़ी भर भी जीवित नहीं रह सकते । बाह्य जगत पर दृष्टि डालने से मालूम होता है कि एक शक्ति बड़ी सरगर्मी के साथ दूसरी शक्तिपर अपना स्वत्व (स्वामित्व ) और प्राबल्य स्थापित करना चाहती है, अपने स्वार्थ के सामने दूसरी को बिलकुल तुच्छ और नाचीज समझती है, चैतन्य होते हुए भी उससे जड़ - जैसा व्यवहार करती है और यदि अवसर मिले तो उसे कुचल डालती है - हड़प कर जाती है। रात दिन प्रायः इस प्रकारको घटनाएँ देखने में आती हैं। निर्बलों पर खूब अत्याचार होते हैं। न्यायालय खुले हुए हैं, परन्तु वे सब उनके लिये व्यर्थ हैं । उनकी कोई सुनाई नहीं होती। इसलिए कि, उनका कोई रक्षक या सहायक नहीं है, उनमें कौटुम्बिक बल नहीं है, जिस ससाज के वे अंग हैं वह सुव्यवस्थित नहीं हैं, पैसा उनके पास नहीं है' उन्हें कोई साक्षी उपलब्ध नहीं होता कोई गवाह मयस्सर नहीं आता । जो लोग प्रत्यक्ष उन पर होते हुए अत्याचारोंको देखते हैं वे भी अत्याचारीके भय से या अपने स्वार्थमें कुछ बाधा पड़नेके भय से बेचारे
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समाज-संगठन
ग़रीबोंकी कोई मदद नहीं करते, उन्हें न्याय-भिक्षा' दिलाने में समर्थ नहीं होते। और इस तरह बेचारे पारवारिक और सामाजिक शक्ति, विहानोंको रातदिन चुपचाप घोर संकट और दुःख सहन करने पड़ते हैं। संसारमें अविवेक और स्वार्थको मात्रा इतनी बढ़ी हुई है कि उसके आगे पापका भय कोई चीज़ नहीं है। पापके भयसे बहुत ही कम अपराधोंकी रोक होती है। ऐसे बहुत ही कम लोग निकलेंगे जो पापके भयसे अपगध न करते हो । जो हैं उन्हे सच्चे धर्मात्मा समझना चाहिए। बाको अधिकांश लोग ऐसे ही मिलेंगे जो लोकभयसे, राज्यभयसे या परशक्तिके भयसे पापाचरण करते हुए डरते हैं। अन्यथा, उन्हें पापसे कोई घृणा नहीं है, वे सब जब मौका मिलता है तब ही उसे कर बैठते हैं। ऐसी हालतमें समूह बनाकर रहने की बहुत ही जरूरत है। समूहमें बहुत बड़ी शक्ति होती है। छोटे छोटे तिनकों और कच्चे सूतके धागोंका कुछ भी बल नहीं है, उन्हें हर कोई तोड़मरोड़ सकता है । परन्तु जब वे मिलकर एक मोटे रस्सेका रूप धारण कर लेते हैं तब बड़े बड़े मस्त हाथी भी उनसे बांधे जा सकते हैं। चींटियां आकारमें कितनी छोटी छोटी होती हैं परन्तु वे अपनी समूह शक्ति से एक सांपको मार लेती है। जिनको समूह शक्ति बढ़ी हुई होतो है उनपर एकाएक कोई आक्रमण नहीं कर सकता, हराएकको उनपर अत्याचार करने या उनके स्वार्थमें बाधा डालनेका माहस नहीं होता, उनके स्वत्वों और अधिकारों को बहुत कुछ रक्षा होतो है। विपरीत इसके, जिनमें समूहशक्ति नहीं होती वे निर्बल कहलाते हैं और निर्बलों पर प्राय: राजा और प्रजा मभों के अत्याचार हुआ करते हैं। छोटा-छोटी मछलियां संख्या अधिक होने पर भी अपने में समूहशक्ति नहीं रखतीं, इस लिये बड़ी बड़ी मछलियां या मच्छ उन्हें खा जाते हैं । मधुमक्खियां (शहदकी मक्खियां) अपने में कुछ समूहशक्ति रखती हैं, इससे हर
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एकको उनके छत्ते के पास तक जानेका साहस नहीं होता । साधारण मक्खियोंमें वह शक्ति नहीं है, इसलिये उन्हें हर कोई मार गिराता है । इससे केवल व्यक्तियोंकी संख्या के अधिक होनेका नाम 'समूह ' या 'समूह - शक्ति' नहीं है। बल्कि उनका मिलकर 'एक प्राण' और 'एक उद्देश्य' हो जाना ही समूह या समूह-शक्ति कहलाता है। एक कुटुम्बके किसी व्यक्ति पर जब कोई अत्याचार करता है तो उस कुटुम्बीके सभी लोगोंको एक दम जोश आ जाता है और वे उस अत्याचारीको उसके अत्याचार का मजा ( फल ) चखानेके लिये तैयार हो जाते हैं, इसीको 'एकप्ररण होना' कहते हैं। इसी तरह पर, जब कुटुम्बको कोई मनुष्य कुटुम्बके उद्देश्यके विरुद्ध प्रवर्त्तता है, अन्यायमार्ग पर चलता है तो उससे भी कुटुम्ब के लोगों के हृदय पर चोट लगती है और वे शरीर के किसी अंग में उत्पन्न हुए विकार के समान, उसका, प्रतिशोध करनेके लिये तैयार हो जाते हैं; इसको भी 'एक प्रारण होना' कहते हैं। साथ ही, यह सब उनके एक उद्दश्य' होनेको भी सूचित करता है । इस प्रकार एक प्राण और एक उद्देश्य होकर जितनी भी अधिक व्यक्तियां मिलकर एक साथ काम करती हैं उतनी ही अधिक विघ्नबाधाओं से सुरक्षित रहकर वे शीघ्र सफल मनोरथ होती हैं । यही समाज संगठन का मुख्य उद्देश्य है और इसी ख़ास उद्दश्यको लेकर विवाहको सृष्टिकी गई है। इसमें पूरा 'रक्षातत्व' भरा हुआ है
एक विवाह होने पर दोनों पक्षकी कितनी शक्तियां परस्पर मिलती हैं, एक दूसरेके सुख दुःखमें कितनी सहानुभूति बढ़ती है और कितनी समवेदना प्रगट होती है इसका अनुभव वे सब लोग भले प्रकार कर सकते हैं जो एक सुव्यवस्थित कुटुम्बमें रहते हों । युद्ध में दो राज-शक्तियों के परस्पर मिलने से एक सूत्रमें बँधनेसे - जिस प्रकार आनन्द मनाया जाता है उसी प्रकार विवाह
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समाज-संगठन दोनों पक्षको शक्तियोंके मिलापसे आनन्दका पार नहीं रहता । इस सम्मिलित शक्तिसे जीवन-युद्ध अनेक अंशोंमें सुगम हो जाता है। 'विवाहके द्वारा कुटुम्बोंको रचना होती है और कुटुम्बों से समाज' बनता है। कुटुम्बोंके संगठित, बलान्य और सुव्यस्थित होने पर समाज सहज हो में संगठित, बलाढ्य और सुव्यवस्थितहो जाता है और समाजके संगठित, बलान्य और सुव्यवस्थित होने पर उन सब लौकिक तथा धार्मिक स्वत्वोंको--अधिकारोंकी-पूर्णतया रक्षा होती है जिनको रक्षा प्रत्येक व्यक्ति या कुटुम्ब अलग अलग नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि सब कुटुम्ब समाज-शरीर के अंग हैं । एक भो अंगको व्यवस्था बिगड़ जानेपर जिस प्रकार शरोरके काममें बाधा पड़ जाती है उसी प्रकार किसी भी कुटुम्बकी व्यवस्था बिगड़ जाने पर समाजके काम में हानि 'पहुँचती है। और जिस प्रकार सब अंगोंके ठीक होने पर शरीर स्वस्थ और निरोग होकर भले प्रकार सब कार्यों का सम्पादन करने में समर्थ हो सकता है, उसी प्रकार समाज भी सब कुटुम्बों की व्यवस्था ठीक होने पर यथेष्ट रोतिसे धर्म-कर्म आदिको व्यवस्था कर सकता है और प्रत्येक कुटुम्ब तथा व्यक्ति के स्वत्वोंके रक्षा और उसकी आवश्यकताओं की पूर्तिका समुचित प्रबन्ध कर सकता है। इससे कहना होगा कि समाजका सङ्गठन कुटुम्बोंके सङ्गठन पर अबलम्बित है' और कुटुम्बके सङ्गठनका भार कुटुम्बके प्रधान व्यक्तियों पर गृहणी और गृहपतियों पर होता है। इसलिये समाज संगठनका सारा भार प्राय उन स्त्री पुरुषों पर है जो विवाहित हैं या विवाहके लिए प्रस्तुत हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारियोंको खूब समझ लेना चाहिये। उनके द्वारा कोई भी ऐसा काम न होना चाहिये। जिससे समाज सङ्गठनमें बाधा पड़तो हो । साथ ही, उन्हें यह भी जान लेना चाहिये कि जब तक परिस्थिति नहीं सुधरेगी-वाता
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समाज-संगठन वरण ठोक नहीं होगा--तब तक हम अपनी स्थितिको भी जैसा चाहिये वैसा नहीं सुधार सकते । इसलिये समाज सङ्गठनके अभि प्रायसे-वायुमंडल को सुधारनेकी दृष्टिसे-उन्हें अपने कुटुम्बके सुव्यवस्थित करनेमें कोई भी बात उठा न रखनी चाहिए। इस प्रकारके प्रयत्नसे सब कुटुम्बोंके सुव्यवस्थित हो जानेपर जो स्वच्छ वायु-धारा बहेगी वह सभीके लिए स्वास्थ्यप्रद होगी और उनमें रह कर सभी लोग अपना कल्याण कर सकेंगे।
प्रत्येक कुटुम्बको 'सुव्यवस्थित और बलाढ्य' बनानेके लिए उसके प्रधान पुरुषोंको इन बातोंपर ध्यान रखनेकी खास जरूरत है
(१) स्वयं सदाचारसे रहना और अपने कुटुम्बियों तथा अश्रिनोंको सदाचारके मार्ग पर लगाना। ऐसा कोई काम न करना जिसका समाज पर बुरा असर पड़े।
(२) अपने बुद्धि-बल, शरीर-बल और धन-बलको बराबर बढ़ाते रहना और सदा प्रसन्नचित रखनेकी चेष्टा करना। । (३) सबके दुख-सुखका पूरा खयाल रखना, सबको परस्पर प्रेम तथा विश्वास करना सिखलाना और दुखियोंके दुख दूर करने का प्रयत्न करना । साथ ही, किसीपर अत्याचार न करना और दूसरों के द्वारा होते हुये अत्याचारोंको यथाशक्ति रोकना।
(४) वीर्यका दुरूपयोग न करके प्रायः संतानके लिए ही मैथुन करना । किसी व्यसनमें न फसना और जितेन्दिय रहना।
(५) स्वयं कुसङ्गतिसे बचना और अपने परिवारके लोगोंको बचाते रहना । साथ ही अपनी संतानका कभी बाल्यावस्थामें विवाह न करना। . (६) संतानकी तथा अन्य कुटुम्बियोंकी शिक्षाका समुचित प्रबन्ध करना, उन्हें धर्मके मार्गपर लगाना और ऐसी शिक्षा देना
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जिससे वे परावलम्बी न बनकर प्रायः स्वावलम्बी बर्न और देश धर्म तथा समाजके लिये उपयोगी सिद्ध हों।
(७) कुटुम्ब भरमें एकता, सत्यता, समुदारता, दयालुता, गुणग्राहकता, आत्मनिर्भरता और सहन शीलता आदि गुणोंका प्रचार करना । साथही, ईर्षा, द्वष और अदेखसका-भाव आदि अवगुणों को हटाना। (E) रूढ़ियोंका दास न बनकर कुरीतियोंको दूर करना और जो कुछ युक्ति तथा प्रमाणसे समुचित और हित रूप अँचे उसीके अनुसार चलना।
(E) धर्म प्रचार और समाज के उत्थानकी बरावर चिंता रखना और धार्मिक कार्यों में सदैव योग तथा सहायता देते रहना।
(१०)मितव्ययी (किफायतशार) बनना परन्तु कृपण नहीं होना । साथ ही पूज्यकी पूजाका कभी व्यतिक्रम न करते हुये बराबर अतिथि सत्कार में उद्यमी रहना और उसे यथाशक्ति करना
प्रत्येक स्त्री-पुरुषको इन दस बातोंको अपना कर्त्तव्य क्रम बना लेना चाहिये अपने समस्त प्राचार व्यवहारका सूत्र समझना चाहिये और विवाहके गठजोड़ेके समय इनकी भी गांठ बांध लेनी चाहिये
अंतरङ्ग-दृष्टिसे विचार . यह तो हुआ बाह्य जगतकी दृष्टिसे विचार। अब अंतरग जगत पर दृष्टि डालिये । अंतरंग जगत पर दृष्टिडालनेसे मालूम होता है कि यह जीवात्मा अनादिकोलसे मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, मद, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय, जुगुप्मा अज्ञान, अदर्शन, अन्त राय, और वेदनीय आदिक सैकड़ों और हजारों कर्मशत्र ओंसे घिरा हुआ है, जिन सबने इसे बन्धनमें
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डालकर पराधीन बना रक्खा है और इसकी अनन्त शक्तियोंका घात कर रक्खा है । इसी लिये यह आत्मा अपने स्वभावसे च्युत होकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है और अनेक योनियों में परिभ्रमण करता हुआ नाना प्रकारके दुःख और कष्टोंको भोग रहा है। इसका मुख्य और प्रधान उद्देश्य है 'बन्धनसे छुटकर स्वाधीनता प्राप्त करना।
परन्तु बन्धनसे छटना आसान काम नहीं है । एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्रकी परतंत्रतासे अलग होना चाहता है-स्वाधीन बननेकी इच्छो रखता है--तब उसे रातदिन इस विषयमें प्रयत्नशील रहनेकी जरूरत होता है । बड़े २ उपायोंकी योजना करनी पड़ती है। घोर संकट सहन करने होते हैं, वन्धनोंमें पड़ना होता है, हानियां उठानी पड़ती हैं, अपने स्वार्थकी बलि देनी होती है और बहुतसे ऐसे काम भी करने पड़ते हैं जिनका करना उसे इष्ट नहीं होता और न वे उसके उद्देश्य ही होते हैं परन्तु बिना उनके किये उसे अपने उद्देश्योंमें सफलता प्राप्त नहीं हो सकती और इस लिये वह उन्हें लाचारीकी दृष्टि से करता है। साथ ही वह अपने लक्ष्यसे कभी भ्रष्ट नहीं होता और न दूसरे राष्ट्रकी मोह-माया में फंसता है । तब कहीं वह वर्षों के बाद परतंत्रताकी बेड़ीसे छूटकर स्वतंत्रता की शीतल छायामें निवास करता है। इसी तरह पर उस आत्माको भी, जो कर्मके बन्धनसे छूटना चाहता है, अपनो उद्देश्य सिद्धिके लिये बड़े बड़े प्रयोग करने होते हैं और नाना प्रकारके कष्ट उठाने पड़ते हैं। उसे बन्ध मुक्त होने के लिए बन्धनमें भी पड़ना होता है, कर्मसे छटनेके लिए कर्म भी करना पड़ता है, हानिसे बचनेके लिए हानि भी उठानी पड़ती है, पाप से सुरक्षित रहने के लिए पाप भी करना होता है और शत्रु ओंसे पिंड छुड़ाने के लिए शत्रु ओंका आय भी लेना पड़ता है । परन्तु इन सब अवस्थाओंमें होकर
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जाता हुआ मुमुक्ष आत्मा अपने लक्ष्यसे कभी भ्रष्ट नहीं होतापुद्गलके अथवा प्रकृतिके मोहजालमें कभी नहीं फंसता । वह कभी बन्धको मुक्ति, कर्मको कर्माभाव, हानिको लाभ, पापको धर्म और शत्रु को मित्र स्वीकार नहीं करता । और न कभी इन बन्धादिक अवस्थाओंको इष्ट समझता हुआ उनमें तल्लीन होता है । बल्कि उसका प्रेम इन सब अवस्थाओंसे सिर्फ 'कायर्थी' होता है। कायर्थी प्रेम कार्यकी हदतक रहता है। कार्यकी समाप्तिपर उसकी भीसमाप्ति हो जाती है इस लिये वह अपने किसी इष्ट प्रयोजनकी साधनाके निमित्त लाचारीसे इन बन्धादिक अवस्थाओंसे क्षणिक प्रेम रखता हुआ भी बराबर निर्बम्ध, निष्कर्म, निर्हानि, निष्पाप और निःशत्रु होनेकी चेष्टा करता रहता है । इस विषय में उसका यह सिद्धान्त होता हः
उपकाराद्गृहीतेन शत्रु णा शत्रु मुद्धरेत् ।
पादलग्न करस्थेक कण्टकेनेव कण्टकम् ।। अर्थात-हाथमें कांटा लेकर जिस प्रकार पैरका कोटा निकाला जाता है, उसी प्रकार उपकार तथा प्रेमादिकसे एक शत्रु को अपना बनाकर उसके द्वारा दूसरे शत्रु को निर्मूल करना चाहिये। अभिप्राय यहकि, पैरमेंलगेहुए कांटेको निकोलने के लिए पैरमें दूसरा कांटाचुभाने की जरूरत होती है और उस दूसरे कांटेको आदरके साथ हाथमें ग्रहण करते हैं। परन्तु वह दूसरा कांटा वास्तवमें इष्ट नहीं होता कालान्तरमें वह भी पैरमें चुभ सकता है और न उसका चुभनाही इष्ट होता है क्योंकि उससे भी तकलीफ जरूर होती है फिर भी उस अधिक पीड़ा पहुचानेवाले पैरके कांटेको निकालनेके लिए यह सब कुछ किया जाना है। और कार्य हो चुकनेपर वह दूसरा कांटा भी हाथसे डाल दिया जाताहै। इसी सिद्धान्त पर मुमुक्ष आत्माको बराबर चलना होता है। उसका जानबूझकर किसी बन्धन में पड़ना, कोई पापका
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काम करना और किसी शत्रु की शरणमें जाना दूसरे अधिक कठोर बंधनसे बचने, घोर पापोंसे सुरक्षित रहने और प्रबल शत्रु ओंसे पिंड छुड़ानेके अभिप्रायसे ही होता है । यद्यपि उसे सम्पूर्ण कर्मशत्रुओंका विजय करना इष्ट होता है; परन्तु साथ ही वह अपनी शक्तिको भी देखता है और इस बात को समझता है कि यदि समस्त शत्रुओंको एकदम चैलेंज देदिया जाय-सब का एक साथ विरोध करके उन्हें युद्ध के लिए ललकारा जाय तो उसे कदापि सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए वह बराबर अपनी शक्तिको बढ़ानेका उद्योग करता रहता है। जब तक उसका बल नहीं बढ़ता तब तक वह अपनी तरफसे आक्रमण नहीं करता, केवल शत्रुओंके आक्रमणकी रोक करता है, कभी कभी उसे टेम्पोरेरी ( अल्पकालिक ) संधियां भी करनी पड़ती हैं और जब जिस विषयमें उसका बल बढ़ जाता है तब उसी विषयक शत्रुसे लड़नेके लिए तैयार हो जाता है और उसे नियमसे परास्त कर देता है। इस तरह वह संपूर्ण काँके बन्धनसे छूटकर मुक्त होजाता है। ___ गृहस्थाश्रम भी कर्मबन्धनसे छटनके प्रयोगों में से एक प्रयोग है
और स्त्री पुरुष दोनों मुमुक्ष हैं-कर्मबन्धनसे छटने के इच्छुक हैंइस लिये उन्हें भी अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट होकर गृहस्थाश्रमकी बंधादिक अवस्थाओंको अपना स्वरूप न समझ लेना चाहिए, उन्हें सर्वथा इष्ट मानकर उनमें तल्लीन न हो जाना चाहिए । बंधको मुक्ति, कर्मको कर्माभाव, हानिको लाभ, पापको धर्म और शत्रुको मित्र न मान लेना चाहिये । ऐसा मान लेनेसे फिर कर्मका बंधन न छुट सकेगा। अंतरंग दृष्टिसे उनका भी प्रेम इन सब अवस्थाओं से 'कायार्थी' होना चाहिए और उन्हें बराबर निर्बन्ध, निष्कर्म, निर्हानि निष्कषाय और निःशत्रु होनेकी चेष्टा करते रहना चाहिए। साथही, उनका भी वही "कण्टकोन्मूलन" सिद्धान्त होना चाहिए और
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उन्हें बड़ी सावधानीके साथ उसपर चलना चाहिए । उनका जानबूझ कर गृहस्थी के बन्धनोंमें पडना, आरंभादिक पापोंमें फँसना और कामादिक शत्रका शरण लेना भी नरक-निगोद-तिर्यचादिकके कठोर बंधनों से बचने, संकल्प तथा अशुभरागादि - जनित घोर पापोंसे सुरक्षित रहने और अज्ञान - मिथ्यात्वादि प्रबल शत्रुत्रों से पिंड छुड़ाने के अभिप्रायसे ही होना चाहिए। उन्हें अपने पूर्ण ब्रह्मचर्यादि धर्मों पर लक्ष्य रखते हुए समस्त कर्मशत्रुओं को जीतनेका उद्देश्य रखना चाहिए और उसके लिए बराबर अपना आत्म - बल बढ़ाते रहना चाहिए। आत्माका बल शुभकमासे बढ़ता है, और
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शुभ कर्मों से घटता है। इस लिए गृहस्थाश्रम में उन्हें अशुभ कम का त्याग करके बराबर शुभ कर्मों का अनुष्ठान करते रहना चाहिए । गृहस्थाश्रम में गृहस्थधर्मद्वारा आत्माका बल बहुत कुछ बढ़ाया जा सकता है । इसी लिये महर्षियोंने इस गृहस्थाश्रमकी सृष्टि की है। शुभ कर्मों के द्वारा आत्म-बल बढ़जाने पर गृहस्थों को, प्रेमपूर्वक ग्रहण किये हुए हाथके कांटेके समान गृहस्थाश्रमका भी त्याग कर देना चाहिए और फिर उन्हें 'वानप्रस्थ' या 'सन्यस्त' ( मुनि) आश्रम धारण करना चाहिए। और इस प्रकार कर्मों का बल घटाते हुए अंतके आश्रम द्वारा उन्हें सर्वथा निर्मूल करके बंधन से हट जाना चाहिए। यही मुक्तिकी सुसरला युक्ति है। और इसके उपर्युक्त दिग्दर्शनसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि गृहस्थाश्रम अथवा गृहस्थ धर्मका यह प्रणयन कितना अधिक युक्ति और चतुराईको लिए हुए है । और उस पर पूरा पूरा अमल होनेसे मुक्ति कितनी संनिकट हो जाती है ।
समाज- सगठन
* विवाह पद्धति में भी, भगवान ऋषभदेव का स्तवन करते हुए, यह बतलाया गया है कि उन्होंने युगको आदिमें कल्याणकारी गृहस्थधर्मको प्रवर्तित करके उसके द्वारा युक्तिके साथ निर्वाणमार्ग को प्रवर्तित किया था । यथाः
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समाज-संगठन।
परन्तु इन समस्त आश्रमोंके धर्मका पूरी तौरसे पालन तब ही हो सकता है जब 'समाजका संगठन अच्छा हो" । बिना समाज संगठनके कोई भी काम यथेष्ट रीतिसे नहीं हो सकता । बाह्य साधन न होनेसे सब विचार हृदयक हृदयमें ही विलीन हो जाते हैं, बंध. मोक्षकी सारी कथनी ग्रन्थों में ही रक्खी रह जाती है और अमली सूरत कुछ भी बन नहीं पड़ती। जैनियों का सामाजिक संगठन बिगड़ जानेसे ही अफसोस ! अाज बस्तुतः मुनिधर्म उठ गया !!
और इसीसे जैनियोंकी प्रगति रुक गई। मुनियों का धर्म प्रायः गृहस्थोंके आश्रय होता है। इसीलिए 'पद्मनन्दि' आदि प्राचार्योंने "गृहस्था धर्महेतवः" "श्रावकामूलकारणम्” इत्यादि वाक्यों-द्वारा गृहस्थोंको धर्मकाहेतु' और 'मुनिधर्मका मूल कारण' बतलाया है।
प्रावर्तयन्जनहित खलु कर्मभूमौ षटकर्मणा गृहिवृर्ष परिवर्त्य युक्त्या। निर्वाणमार्गमनवद्यमजः स्वयंभूः
श्रीनाभिसुनुजिनपो जयतात्स पूज्यः ॥ जो लोग विवाहको सर्वथा संसारका कारण मानकरनिवृत्तिप्रधान धर्मेके साथ उसको असम्बद्ध समझते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है। उन्होंने विवाहके वास्तविक उद्देश्यको नहीं समझा और न धर्मका रहस्य ही मालूम किया है।
* 'मनु' आदिने भी गृहस्थाश्रमको प्रधानता दी है और लिखा है कि शेष तीनों आश्रमों का उसीके द्वारा भरण-पोषण होता है और वे उसके आश्रित हैं। यथाः
"सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानतः । गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठः स त्रीनेतान्बिभर्ति हि ॥ "तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम ।।
-मनुस्मृतिः।
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समाज-संगठन परन्तु गृहस्थाश्रम ब्यवस्था ठीक न होने से--समाज के अव्यवस्थित
और निर्बल होने से यह सब कुछ भी नहीं हो सकता। इस लिए अंतरंग और वहिरंग दोनों दृष्टियों से समाज-संगठन की बहुत बड़ी जरुरत है। विवाह भी इसी खास उद देश्य को लेकर होना चाहिये और उसको पूरा करने के लिए प्रत्येक स्त्री पुरुष को उन दस कर्तव्यों का पूरी तार से पालन करना चाहिए जो कुटुम्बों को सुव्यवस्थित बनाने के लिये बतलाए गए हैं, और जिन पर समाज का संगठन अवलम्बित है।
सिद्धि के लिये जरूरत समाज संगठन को पूरी तौर से सिद्ध करने के लिए और गृहस्थाश्रम का भार समुचित रीति से उठाने के लिए इस बात की बहुत बड़ी ज़रूरत है कि स्त्री और पुरुष दोनों ही योग्य हों, समर्थ हों, व्युत्पन्न हों, युवावस्था को प्राप्त हों, समाज हित की दृष्टि रखते हों और संगठन की जरूरत को भले प्रकार समझते हों। बाल्यावस्था से ही उनके शरीर का संगठन अच्छी रीति पर हुआ हो, वे खोटे संस्कारों से दूर रक्खे गए हों और उनकी शिक्षा दीक्षा का योग्य प्रबन्ध किया गया हो। साथ ही विवाह-संस्कार होने तक उन्होंने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया हो और लौकिक तथा पारमार्थिक ग्रन्थों का अध्ययन करके उनमें दक्षता प्राप्त की हो अच्छी लियाकत हासिल की हो । बिना इन सब बातों की पूर्ति हुए समाज का यथेष्ट संगठन पूरे तौर से नहीं बन सकता, न गृहस्थाश्रम का भार समुचित रीति से उठाया जा सकता है और न
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समाज-संगठन बस गृहस्थाश्रम ही सुग्वाश्रम बन सकता है * । इसीलिए गृहस्थाश्रम से पहिले आचार्यों ने एक दूसरे आश्रम का विधान किया है जिसका नाम है ब्रह्मचर्याश्रम-अर्थात नावारी रहकर बिद्याभ्यास करते हुए शारिरिक और मानसिक शक्तियों को केन्द्रित एवं विकसित करना । इस आश्रम का खास उद देश्य इन्हीं सब बातों की पूर्ति करना है जो विवाह के मुख्य उद्देश्य समाज संगठन को पूर्ति तथा गृहस्थाश्रम के पालन के लिए जरूरी हैं । भगवज्जिनसेनाचार्य ने, आदि पुराण में, इन सब आश्रमों का क्रम इस प्रकार वर्णन किया है:
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोत्थभिक्षकः । इत्याश्रमास्तु जैनानोमुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥३६-१५३।। * मुनि रत्नचद जी ने भी 'कर्तव्य-कौमुदी' में लिखा हैयावन्नार्जयते धनं सुविपुलं दारादिरक्षाकरं । यावन्नैव समाप्यते दृढतरा विद्याकला वाश्रिता ।। यावन्नो वपुषो धियश्च रचना प्राप्नोति दादय परं। तावन्नो सुखदं वदन्ति विबुधा ग्राह्य गृहस्थाश्रमं ।। अर्थात-जब तक इतना प्रचुर धन पैदा न करलिया जाय अथवा पास न हो जिससे अपनी तथा स्त्री-पुत्रादि को यथेष्ट रक्षा होसके घर का खर्च चल सके, जब तक विद्या और कला का अभ्यास अच्छी तरह से पूरा न हो जाय और शरीर के अंगों की रचना तथा बुद्धि का विकास अच्छी तरह से होकर उनमें पूर्ण दृढ़ता न आ जाय तव तक गृहस्थाश्रम का ग्रहण करना सुखदायी नहीं हो सकता। ऐसा बुद्धिमानों का मत है।
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समाज-संगठन
__अथात-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षक ये जैनियों के चार आश्रम उत्तरोत्तर शुद्धि को लिए हुए हैं।
इससे प्रगट होता है कि सब आश्रमों से पहला आश्रम ब्रह्मचारी आश्रम रकवा गया है। यह आश्रम, वास्तव में, सब आश्रर्मा की नीव जमाने वाला है। जब तक इस आश्रम के द्वारा एक खास अवस्था तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए किसी योग्य गुरु के पास विद्याभास नहीं किया जाता है, तब तक किसी भी आश्रम का ठीक तौर मैं पालन नहीं हो सकता। इसके बिना वे सब आश्रम बिना नींव के मकान के समान अस्थिर और हानि पहुचाने वाले होते हैं । इसलिए सब से पहले बालक बालिकाओं को एक योग्य अवस्था तक पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ रखकर उनकी शिक्षा और शरीर-संगठन का पूरा प्रबन्ध करना चाहिए और इसके बाद कहीं उनके विवाइ का नाम लिया जाना चाहिये । यही माता पिता का मुख्य कर्तव्य है।
यह योग्य अवस्था' बालकोंके लिये २० वर्ष तक और बालिकाओं के लिये १६ वर्ष से कम न होनी चाहिये । इमसे पहिले न वीर्य हो परिपक्क होता है और न विद्याभ्यास हो यथेट बनता है। सारा ढांचा कच्चा हो रह जाता है, जिससे आगे गृहस्थाश्रम धर्म और समाजसंगठन को बहुत बड़ो हानि पहुंचती है और स्त्री पुरुषों का जीवन
भो नीरस सथा दुखमय बन जाता है। शरीरशास्त्र के वेत्ता आचार्य “याग्भट' लिखते हैं कि, 'पुरुप को अवस्था पूरे २० वर्ष की और स्त्री की अवस्था पूरे १६ वर्ष की होजाने पर गर्भाशय, मार्ग, रक्त, शुक्र (वीर्य),शरीरस्थ वायु और हृदय शुद्ध होजाते हैं-अपना *हिन्दुओं के यहां भी ये ही चार आश्रम इसी क्रम से माने गए हैं।
यथाः ब्रह्मचारी ग्रहस्थश्च वानप्रहस्था यतिस्तथा। एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः । -मनुस्मृतिः।
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________________ समाज-संगठन 16 कार्य यथेष्ट रीति से करने लगते हैं-उस समय परस्पर जो मैथुन किया जाता है उससे बलवान् सन्तान उत्पन्न होतो है ; और इससे कम अवस्था में जो मैथुन किया जाता है उससे रोगी, अल्पायु (शीघ्र मर जाने वाली) या दीन दुःखित और भाग्यहीन सन्तान पैदा होती है अथवागर्भ ही नहीं रहता। वाग्भट के वे वचन इस प्रकार हैं: पूर्णषोडशवर्षी स्त्री पूर्णविशनसंगता। शुद्ध गर्भाशये मार्गे रक्त शुक्रऽनिले हृदि / वीर्य वंतं सुतं सूते ततो न्यूनाब्दयोः पुनः / रोग्यल्पायुरधन्यो वा गभौं भवति नैव वा / / इनसे साफ जाहिर है कि पुरूष का 20 वर्ष से और स्त्री का 16 बर्ष से कम उम्र में विवाह न होना चाहिए। ऐसा कम उम का विवाह बहुत ही हानिकारक होता है और समाज के संगठन को बिगाड़ता है। छोटी उम में विवाह करके बाद को जो 'गौना' या 'द्विरागमन' की प्रथा है वह बिलकुल विवाह के उद्देश्य एवं समाजसंगठनका घात करने वाली पृथा है-सोते हुए सिंहको जगाकर उसे थपकी देने के समान है। किसी भी माननीय प्राचीन जैनशास्त्र में उसका उल्लेख या विधान नहीं है और उसके द्वारा व्यर्थ ही दो व्यक्तियोंका जीवन खतरे में (जोखम) में डाला जाता है। इसलिए समाज-संगठनके इच्छुक बुद्धिमानों द्वारा वह प्रथा कदापि आदरणीय नहीं हो सकती। उपसंहार ___यदि सब सूत्र रूप से समाज संगठन और उसकी सिद्धि का रहस्य है। आशा है सहृदय पाठक एवम उत्साही नवयुवक इसका ठीक तौरसे अनुभव करते हुए समाजसंगठनके कार्यमें अग्रसर होंगे अपने अपने कर्तव्यों का दृढ़ता के साथ पालन करेंगे। और उसके द्वारा समाज में सुख शांति का वातावरण प्रस्तुत करके अपने तथा दूसरों के उत्थान और विकास का मार्ग प्रशस्त बनाएंगे। इत्यलम् / जुगलकिशोर मुख्तार (सरसावां) जिला सहारनपुर