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________________ समाज-संगठन समाज का सुव्यवस्थित, बलाढ्य और वृद्धिगत होना समाजसंगठन कहलाता है। प्राचीन आचार्यों ने विवाह का विधान करके उसके द्वारा संतानोत्पादन करने को जो गृहस्थका एक खास धर्म बतलाया है उसका मुख्य उद्देश्य समाज-संगठन है, जिस के द्वारा धर्म-कर्मादि की संतति अविच्छिन्न रहने से अपना विकास सिद्ध किया जा सकता है। क्योंकि समाज व्यक्तियोंका बनता है-व्यक्तियों के समुदायका नाम ही समाज है-और व्यक्तियों का समुदाय तभी बढ़ता है और तभी उसके द्वारा समाजकी पुष्टि होकर धर्म-कर्मादि की संतति अविच्छिन्न रह सकती है जब कि विवाह-द्वारा योग्य संतान उत्पन्न की जाय इसलिये विवाह द्वारा और बल लाना-यह समाज-संगठनका मुख्य अंग है। जैसाकि आदि पुराण के १५ वे पर्व में वर्णित विवाहकी निम्न प्रार्थना से प्रकट है जो युगकी आदि में नाभि राजाने भगवान् 'ऋषभदेव' से की थी: त्वामादि पूरुषं दृष्ट्वा लोकोऽप्येवं प्रवर्त्तताम् । महतां मार्गवर्तिन्यः प्रजाः सुप्रजसोह्यमूः ।।६।। ततः कलत्रमनेष्टं परिणेतुं मनः कुरु । प्रजासंततिरेवं हि नोच्छेत्स्यति विदांवर ॥६॥ प्रजासन्तत्यविच्छेदे तनुते धर्मसन्ततिः । मनुष्य मानवं धर्म ततो देवोनमुच्युते ॥६३।। देवेमं गृहिणां धर्म विद्धि, दारपरिग्रहम् । सन्तान रक्षणे यत्नः कार्यों हि गृहमेधिनाम् ॥६४॥
SR No.009239
Book TitleSamaj Sangathan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1937
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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