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________________ १५ समाज-संगठन __अथात-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षक ये जैनियों के चार आश्रम उत्तरोत्तर शुद्धि को लिए हुए हैं। इससे प्रगट होता है कि सब आश्रमों से पहला आश्रम ब्रह्मचारी आश्रम रकवा गया है। यह आश्रम, वास्तव में, सब आश्रर्मा की नीव जमाने वाला है। जब तक इस आश्रम के द्वारा एक खास अवस्था तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए किसी योग्य गुरु के पास विद्याभास नहीं किया जाता है, तब तक किसी भी आश्रम का ठीक तौर मैं पालन नहीं हो सकता। इसके बिना वे सब आश्रम बिना नींव के मकान के समान अस्थिर और हानि पहुचाने वाले होते हैं । इसलिए सब से पहले बालक बालिकाओं को एक योग्य अवस्था तक पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ रखकर उनकी शिक्षा और शरीर-संगठन का पूरा प्रबन्ध करना चाहिए और इसके बाद कहीं उनके विवाइ का नाम लिया जाना चाहिये । यही माता पिता का मुख्य कर्तव्य है। यह योग्य अवस्था' बालकोंके लिये २० वर्ष तक और बालिकाओं के लिये १६ वर्ष से कम न होनी चाहिये । इमसे पहिले न वीर्य हो परिपक्क होता है और न विद्याभ्यास हो यथेट बनता है। सारा ढांचा कच्चा हो रह जाता है, जिससे आगे गृहस्थाश्रम धर्म और समाजसंगठन को बहुत बड़ो हानि पहुंचती है और स्त्री पुरुषों का जीवन भो नीरस सथा दुखमय बन जाता है। शरीरशास्त्र के वेत्ता आचार्य “याग्भट' लिखते हैं कि, 'पुरुप को अवस्था पूरे २० वर्ष की और स्त्री की अवस्था पूरे १६ वर्ष की होजाने पर गर्भाशय, मार्ग, रक्त, शुक्र (वीर्य),शरीरस्थ वायु और हृदय शुद्ध होजाते हैं-अपना *हिन्दुओं के यहां भी ये ही चार आश्रम इसी क्रम से माने गए हैं। यथाः ब्रह्मचारी ग्रहस्थश्च वानप्रहस्था यतिस्तथा। एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः । -मनुस्मृतिः।
SR No.009239
Book TitleSamaj Sangathan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1937
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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