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________________ समाज-संगठन। परन्तु इन समस्त आश्रमोंके धर्मका पूरी तौरसे पालन तब ही हो सकता है जब 'समाजका संगठन अच्छा हो" । बिना समाज संगठनके कोई भी काम यथेष्ट रीतिसे नहीं हो सकता । बाह्य साधन न होनेसे सब विचार हृदयक हृदयमें ही विलीन हो जाते हैं, बंध. मोक्षकी सारी कथनी ग्रन्थों में ही रक्खी रह जाती है और अमली सूरत कुछ भी बन नहीं पड़ती। जैनियों का सामाजिक संगठन बिगड़ जानेसे ही अफसोस ! अाज बस्तुतः मुनिधर्म उठ गया !! और इसीसे जैनियोंकी प्रगति रुक गई। मुनियों का धर्म प्रायः गृहस्थोंके आश्रय होता है। इसीलिए 'पद्मनन्दि' आदि प्राचार्योंने "गृहस्था धर्महेतवः" "श्रावकामूलकारणम्” इत्यादि वाक्यों-द्वारा गृहस्थोंको धर्मकाहेतु' और 'मुनिधर्मका मूल कारण' बतलाया है। प्रावर्तयन्जनहित खलु कर्मभूमौ षटकर्मणा गृहिवृर्ष परिवर्त्य युक्त्या। निर्वाणमार्गमनवद्यमजः स्वयंभूः श्रीनाभिसुनुजिनपो जयतात्स पूज्यः ॥ जो लोग विवाहको सर्वथा संसारका कारण मानकरनिवृत्तिप्रधान धर्मेके साथ उसको असम्बद्ध समझते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है। उन्होंने विवाहके वास्तविक उद्देश्यको नहीं समझा और न धर्मका रहस्य ही मालूम किया है। * 'मनु' आदिने भी गृहस्थाश्रमको प्रधानता दी है और लिखा है कि शेष तीनों आश्रमों का उसीके द्वारा भरण-पोषण होता है और वे उसके आश्रित हैं। यथाः "सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानतः । गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठः स त्रीनेतान्बिभर्ति हि ॥ "तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम ।। -मनुस्मृतिः।
SR No.009239
Book TitleSamaj Sangathan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1937
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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