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उन्हें बड़ी सावधानीके साथ उसपर चलना चाहिए । उनका जानबूझ कर गृहस्थी के बन्धनोंमें पडना, आरंभादिक पापोंमें फँसना और कामादिक शत्रका शरण लेना भी नरक-निगोद-तिर्यचादिकके कठोर बंधनों से बचने, संकल्प तथा अशुभरागादि - जनित घोर पापोंसे सुरक्षित रहने और अज्ञान - मिथ्यात्वादि प्रबल शत्रुत्रों से पिंड छुड़ाने के अभिप्रायसे ही होना चाहिए। उन्हें अपने पूर्ण ब्रह्मचर्यादि धर्मों पर लक्ष्य रखते हुए समस्त कर्मशत्रुओं को जीतनेका उद्देश्य रखना चाहिए और उसके लिए बराबर अपना आत्म - बल बढ़ाते रहना चाहिए। आत्माका बल शुभकमासे बढ़ता है, और
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शुभ कर्मों से घटता है। इस लिए गृहस्थाश्रम में उन्हें अशुभ कम का त्याग करके बराबर शुभ कर्मों का अनुष्ठान करते रहना चाहिए । गृहस्थाश्रम में गृहस्थधर्मद्वारा आत्माका बल बहुत कुछ बढ़ाया जा सकता है । इसी लिये महर्षियोंने इस गृहस्थाश्रमकी सृष्टि की है। शुभ कर्मों के द्वारा आत्म-बल बढ़जाने पर गृहस्थों को, प्रेमपूर्वक ग्रहण किये हुए हाथके कांटेके समान गृहस्थाश्रमका भी त्याग कर देना चाहिए और फिर उन्हें 'वानप्रस्थ' या 'सन्यस्त' ( मुनि) आश्रम धारण करना चाहिए। और इस प्रकार कर्मों का बल घटाते हुए अंतके आश्रम द्वारा उन्हें सर्वथा निर्मूल करके बंधन से हट जाना चाहिए। यही मुक्तिकी सुसरला युक्ति है। और इसके उपर्युक्त दिग्दर्शनसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि गृहस्थाश्रम अथवा गृहस्थ धर्मका यह प्रणयन कितना अधिक युक्ति और चतुराईको लिए हुए है । और उस पर पूरा पूरा अमल होनेसे मुक्ति कितनी संनिकट हो जाती है ।
समाज- सगठन
* विवाह पद्धति में भी, भगवान ऋषभदेव का स्तवन करते हुए, यह बतलाया गया है कि उन्होंने युगको आदिमें कल्याणकारी गृहस्थधर्मको प्रवर्तित करके उसके द्वारा युक्तिके साथ निर्वाणमार्ग को प्रवर्तित किया था । यथाः
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