________________
समाज-संगठन।
१०.
काम करना और किसी शत्रु की शरणमें जाना दूसरे अधिक कठोर बंधनसे बचने, घोर पापोंसे सुरक्षित रहने और प्रबल शत्रु ओंसे पिंड छुड़ानेके अभिप्रायसे ही होता है । यद्यपि उसे सम्पूर्ण कर्मशत्रुओंका विजय करना इष्ट होता है; परन्तु साथ ही वह अपनी शक्तिको भी देखता है और इस बात को समझता है कि यदि समस्त शत्रुओंको एकदम चैलेंज देदिया जाय-सब का एक साथ विरोध करके उन्हें युद्ध के लिए ललकारा जाय तो उसे कदापि सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए वह बराबर अपनी शक्तिको बढ़ानेका उद्योग करता रहता है। जब तक उसका बल नहीं बढ़ता तब तक वह अपनी तरफसे आक्रमण नहीं करता, केवल शत्रुओंके आक्रमणकी रोक करता है, कभी कभी उसे टेम्पोरेरी ( अल्पकालिक ) संधियां भी करनी पड़ती हैं और जब जिस विषयमें उसका बल बढ़ जाता है तब उसी विषयक शत्रुसे लड़नेके लिए तैयार हो जाता है और उसे नियमसे परास्त कर देता है। इस तरह वह संपूर्ण काँके बन्धनसे छूटकर मुक्त होजाता है। ___ गृहस्थाश्रम भी कर्मबन्धनसे छटनके प्रयोगों में से एक प्रयोग है
और स्त्री पुरुष दोनों मुमुक्ष हैं-कर्मबन्धनसे छटने के इच्छुक हैंइस लिये उन्हें भी अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट होकर गृहस्थाश्रमकी बंधादिक अवस्थाओंको अपना स्वरूप न समझ लेना चाहिए, उन्हें सर्वथा इष्ट मानकर उनमें तल्लीन न हो जाना चाहिए । बंधको मुक्ति, कर्मको कर्माभाव, हानिको लाभ, पापको धर्म और शत्रुको मित्र न मान लेना चाहिये । ऐसा मान लेनेसे फिर कर्मका बंधन न छुट सकेगा। अंतरंग दृष्टिसे उनका भी प्रेम इन सब अवस्थाओं से 'कायार्थी' होना चाहिए और उन्हें बराबर निर्बन्ध, निष्कर्म, निर्हानि निष्कषाय और निःशत्रु होनेकी चेष्टा करते रहना चाहिए। साथही, उनका भी वही "कण्टकोन्मूलन" सिद्धान्त होना चाहिए और