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________________ समाज संगठन जाता हुआ मुमुक्ष आत्मा अपने लक्ष्यसे कभी भ्रष्ट नहीं होतापुद्गलके अथवा प्रकृतिके मोहजालमें कभी नहीं फंसता । वह कभी बन्धको मुक्ति, कर्मको कर्माभाव, हानिको लाभ, पापको धर्म और शत्रु को मित्र स्वीकार नहीं करता । और न कभी इन बन्धादिक अवस्थाओंको इष्ट समझता हुआ उनमें तल्लीन होता है । बल्कि उसका प्रेम इन सब अवस्थाओंसे सिर्फ 'कायर्थी' होता है। कायर्थी प्रेम कार्यकी हदतक रहता है। कार्यकी समाप्तिपर उसकी भीसमाप्ति हो जाती है इस लिये वह अपने किसी इष्ट प्रयोजनकी साधनाके निमित्त लाचारीसे इन बन्धादिक अवस्थाओंसे क्षणिक प्रेम रखता हुआ भी बराबर निर्बम्ध, निष्कर्म, निर्हानि, निष्पाप और निःशत्रु होनेकी चेष्टा करता रहता है । इस विषय में उसका यह सिद्धान्त होता हः उपकाराद्गृहीतेन शत्रु णा शत्रु मुद्धरेत् । पादलग्न करस्थेक कण्टकेनेव कण्टकम् ।। अर्थात-हाथमें कांटा लेकर जिस प्रकार पैरका कोटा निकाला जाता है, उसी प्रकार उपकार तथा प्रेमादिकसे एक शत्रु को अपना बनाकर उसके द्वारा दूसरे शत्रु को निर्मूल करना चाहिये। अभिप्राय यहकि, पैरमेंलगेहुए कांटेको निकोलने के लिए पैरमें दूसरा कांटाचुभाने की जरूरत होती है और उस दूसरे कांटेको आदरके साथ हाथमें ग्रहण करते हैं। परन्तु वह दूसरा कांटा वास्तवमें इष्ट नहीं होता कालान्तरमें वह भी पैरमें चुभ सकता है और न उसका चुभनाही इष्ट होता है क्योंकि उससे भी तकलीफ जरूर होती है फिर भी उस अधिक पीड़ा पहुचानेवाले पैरके कांटेको निकालनेके लिए यह सब कुछ किया जाना है। और कार्य हो चुकनेपर वह दूसरा कांटा भी हाथसे डाल दिया जाताहै। इसी सिद्धान्त पर मुमुक्ष आत्माको बराबर चलना होता है। उसका जानबूझकर किसी बन्धन में पड़ना, कोई पापका
SR No.009239
Book TitleSamaj Sangathan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1937
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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