SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाज-संगठन दोनों पक्षको शक्तियोंके मिलापसे आनन्दका पार नहीं रहता । इस सम्मिलित शक्तिसे जीवन-युद्ध अनेक अंशोंमें सुगम हो जाता है। 'विवाहके द्वारा कुटुम्बोंको रचना होती है और कुटुम्बों से समाज' बनता है। कुटुम्बोंके संगठित, बलान्य और सुव्यस्थित होने पर समाज सहज हो में संगठित, बलाढ्य और सुव्यवस्थितहो जाता है और समाजके संगठित, बलान्य और सुव्यवस्थित होने पर उन सब लौकिक तथा धार्मिक स्वत्वोंको--अधिकारोंकी-पूर्णतया रक्षा होती है जिनको रक्षा प्रत्येक व्यक्ति या कुटुम्ब अलग अलग नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि सब कुटुम्ब समाज-शरीर के अंग हैं । एक भो अंगको व्यवस्था बिगड़ जानेपर जिस प्रकार शरोरके काममें बाधा पड़ जाती है उसी प्रकार किसी भी कुटुम्बकी व्यवस्था बिगड़ जाने पर समाजके काम में हानि 'पहुँचती है। और जिस प्रकार सब अंगोंके ठीक होने पर शरीर स्वस्थ और निरोग होकर भले प्रकार सब कार्यों का सम्पादन करने में समर्थ हो सकता है, उसी प्रकार समाज भी सब कुटुम्बों की व्यवस्था ठीक होने पर यथेष्ट रोतिसे धर्म-कर्म आदिको व्यवस्था कर सकता है और प्रत्येक कुटुम्ब तथा व्यक्ति के स्वत्वोंके रक्षा और उसकी आवश्यकताओं की पूर्तिका समुचित प्रबन्ध कर सकता है। इससे कहना होगा कि समाजका सङ्गठन कुटुम्बोंके सङ्गठन पर अबलम्बित है' और कुटुम्बके सङ्गठनका भार कुटुम्बके प्रधान व्यक्तियों पर गृहणी और गृहपतियों पर होता है। इसलिये समाज संगठनका सारा भार प्राय उन स्त्री पुरुषों पर है जो विवाहित हैं या विवाहके लिए प्रस्तुत हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारियोंको खूब समझ लेना चाहिये। उनके द्वारा कोई भी ऐसा काम न होना चाहिये। जिससे समाज सङ्गठनमें बाधा पड़तो हो । साथ ही, उन्हें यह भी जान लेना चाहिये कि जब तक परिस्थिति नहीं सुधरेगी-वाता
SR No.009239
Book TitleSamaj Sangathan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1937
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy