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ऋषभतर्पण : जैन क्रियाकांड विषयक एक सरस कृति
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
दरेक धर्मसंप्रदायने पोताना आगवा क्रियाकांडो अने आचार-अनुष्ठानो होय छे. नर्या ज्ञानमार्गनी वातो धर्म-संप्रदायने दीर्घायु नथी आपी शकती. धर्मनो आंतर-प्राण भले ज्ञानमार्गमां होय, पण तेने उल्लसित-पल्लवित करनार अने दीर्घकाळ पर्यंत लोकहृदयमां जीवंत राखनार तत्त्व ते तो ते धर्मसंप्रदायनां कियाकांड अने आचार-अनुष्ठानो ज, एम कहेवामां अजुगतुं नथी.
भारतीय संस्कृतिने संबंध छे त्यां सुधी, धर्मसाधनानो आदर्श आत्मसाक्षात्कार अने मोक्षप्राप्ति छे. दरेक भारतीय धर्मसंप्रदाये, एक या बीजा रूपमा, आ आदर्शने स्वीकार्यो छे. आम छतां, आ आदर्शने सिद्ध करवा माटेनां साधनो, उपायो के मार्गो विविध होय छे. ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग अने एवां विविध साधनो द्वारा आ आदर्श सुधी पहोंची शकाय छे, ऐम आपणा धर्मपुरुषोए कडुं छे.
___आमां पण, ज्ञानयोग अने ध्यानयोग ए तो बहु विकसित आत्मदशावाळा साधकोना वशनां साधन छे. जनसाधारण जेनुं आलंबन लईने धर्मसाधना कर्यानो परितोष पामी शके, तेवां साधनो तो कर्मयोग अने भक्तियोग ज. आ बन्ने योगो एवा छे के जे बहोळा लोकसमूहना चित्तने आकर्षी शके छे, अने "दुःखतप्त तथा अपायबहुल जीवनमां पण, आ योगो द्वारा, धर्म सुपेरे अने विना कष्टे साधी शकाय छे" एवी धर्माभिमुखता लोकचित्तमां प्रेरे छे. अथी ज, जेम अन्य धर्मोना, तेम जैन धर्मना आचार्योए पण धर्मसाधनाना प्रथम अने अत्यावश्यक पगथियालेखे क्रियामार्ग अने भक्तियोग उपर, भले पोत-पोतानी आगवी परिभाषामां, पण, घणो भार मूक्यो छे. अटलं ज नहि, पण ए क्रियामार्ग अने भक्तिमार्गनी साधना माटे तेमणे विविध धार्मिक क्रियाकांडो अने अनुष्ठानो पण रच्यां छे.
गृहस्थोचित क्रियाकांडोमां एकबाजु जैन परिपाटी प्रमाणे गर्भाधानसंस्कारादि सोळ संस्कारोना विधि मळे छे. तो वीजी बाजु देवपूजाथी मांडीने शान्तिक-पौष्टिक विधानो तथा मंत्र-यंत्रगर्भित अनुष्ठानो पण प्राप्त छ. एनी
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ऑक्टोबर २००२
विगतो आपणने जैन धर्मना मुद्रित अमुद्रित आचारग्रंथों द्वारा तथा प्रचलित क्रियानुष्ठानो द्वारा मळी शके तेम छे.
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जो के जैन ग्रंथोमां बीजां घणां विधि-विधानो छे; मृत आत्मानी पुण्यस्मृत्यर्थे तथा तेनां सत्कर्मोनी अनुमोदनार्थे तेम ज मांगलिक प्रसंगोए विघ्न-रोग-शोक- उपद्रवादिना उपशमार्थे शान्तिस्नात्रादि अनुष्ठानो पण थतां होय छे; पण मृत्यु पामेली व्यक्तिनी पाछळ श्राद्ध के तर्पण जेवुं अनुष्ठान जेम ब्राह्मण-संप्रदायमा मळे छे थाय छे, तेवुं कोई अनुष्ठान जैन धर्ममां जोवा मळतुं नथी, के तेवां अनुष्ठाननो विधि पण आजपर्यंत कोई जैन ग्रंथमां जोवामां के सांभळवामां आव्यो नथी. जैनो मरणोत्तर श्राद्ध-पिंडदान के तर्पणमां मानता नथी; बल्के एनो निषेध / विरोध करे छे, एवो एक स्वीकृत ख्याल परापूर्वथी आपणे त्यां प्रवर्ते छे. अने आधी ज जैनोमां आवो कोई विधि आजे थतो पण नथी.
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परंतु एक संस्कृत कृति पूज्यपाद आचार्य श्री विजयसूर्योदयसूरिजी म. ना संग्रहगत एक प्राचीन हस्तलिखित गुटकामांथी तेओश्रीने मळी आवी छे; अवुं नाम छे " ऋषभतर्पणम्" जे गुटकामांथी आ कृति मळी आवी छे ते गुटकानां विविध पृष्ठोमां संवत १६४२, १६४३, १६४६ ए त्रण संवतो लखायेल जोवा मळे छे अने ते संवतो, ते ते पृष्ठ पर पूरी थती कोई कृतिनी पूर्णाहूति ते वर्षे थई होवानुं निर्देशे छे, ओ उपरथी, आ गुटको १७मा शतकना पूर्वार्धमा लखायेलो होवानुं मानवामां कोई अडचण नडे तेम नथी; अने एटले ज, आ ऋषभतर्पण पण ते गुटकाना समय करतां वधु जूनी कृति छे ए पण सहज ज सिद्ध थाय तेम छे.
आ कृतिना कर्ता परत्वे कृतिमां के गुटकामां क्यांय निर्देश नथी. आम छतां, आ कृति अने गुटको ऊना ( काठियावाड ) ना रहेवासी श्रावक शिवसीना पठनार्थे लखवामां आव्यां होई, ए प्रदेशना श्रावकोमां आ कृति तथा तेनो उपयोग, ते समयमां प्रचलित हशे, एवं अनुमान थाय छे. सौराष्ट्रना प्रभासपाटण, प्राची, गिरनार वगेरे तीर्थक्षेत्रो, हिंदु परंपरामां आजे पण श्राद्ध अने पितृतर्पण वगेरे अनुष्ठान माटे मान्य धर्मक्षेत्रो गणाय छे. आ क्षेत्रोमां परंपराधी आ बधां अनुष्ठानो थाय छे. एम लागे छे के जैन गृहस्थवर्ग पण,
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अनुसंधान-२१ कोईक काळे, आ अजैन कर्मकांड तरफ वळवा मांड्यो हशे, अने ते तरफ वळतो तेने अटकाववा माटे के पछी जैन परंपरा प्रति पाछो वाळवा माटे, कोईक विचारवंत पुरुषे आ तर्पण-अनुष्ठाननं निर्माण कर्य हशे. जळस्नानमंत्रमा आवतां 'स्वर्णरेखा' नदी अने 'गजपद' कुंडना उल्लेख परथी आ रचना अने तेना रचनारनो संबंध सौराष्ट्रनो संबंध सौराष्ट्र प्रदेश साथे होवानुं समजी शकाय छे.
एकंदरे शुद्ध छतां कृतिना पाछला भागनां केटलांक पद्यो अशुद्ध छे. कृति बे भागमां वहेंचायेली छे : पहेला भागमां ऋषभतर्पणनो दंडक-पाठ छे, अने बीजा भागमां तर्पणनो पूजा विधि छे. भाषा घणी मधुर अने रोचक छे. दंडक-पाठमां ऋषभदेव (प्रथम जैन.तीर्थंकर), पुंडरीक स्वामी (ऋषभदेवना पट्टशिष्य), मरुदेवा (ऋषभदेवनां माता), नाभिराजा (ऋषभदेवना पिता), भरत चक्रवर्ती अने बाहुबली (ऋषभदेवना बे पुत्रो), सुमंगला अने सुनंदा (ऋषभदेवनां बे पत्नी), ब्राह्मी अने सुंदरी (ऋषभदेवनी बे पुत्रीओ), मरीचि अने श्रेयांस (ऋषभदेवना पौत्रो) तथा गौतमगणधर समेत वर्धमान स्वामीआटलां इष्ट तत्त्वोनुं स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, वषट्, नमः वगैरे जुदां जुदां मंत्रबीजाक्षरो-पुरस्सर स्मरण-स्तवन करवामां आव्युं छे. ते पछी तर्पणविधि करावनार यजमानने माटे प्रार्थनाओ छे. एमां चक्रेश्वरी देवी, गोमुखयक्ष, १६ विद्यादेवीओ तथा महालक्ष्मी, त्रिपुरा इत्यादि अन्यान्य अनेक देवताओने पण स्मरवामां आव्यां छे, ते नोंधपात्र छे. ते पछी आ तर्पणविधि ज्यारे करातो होय ते वर्ष-अयन-ऋतु-मास-पक्ष-तिथि-वारना निर्देश सहित, आ तर्पणविधि जेना श्रेय-गति अर्थे थतो होय ते मृत पितृओनो उल्लेख करवानुं सूचन छे.
ते पछी आ तर्पण कराववाथी थता लाभो आ प्रमाणे नोंध्या छे : आ तर्पण थकी सघळां पूर्वजो तृप्ति पामे छे; जे पूर्वजो/स्वजनो अग्नि, विष, सर्प आदि कारणे के शत्रुकृत कामण टूमण के शस्त्र प्रयोगथी मर्यां होय; कूवा आदिमां डूबीने के पर्वत परथी जंपापात करीने के भूख- तरस-रोगादिवशे माँ होय; धननाशने के प्रियना. वियोगने लीधे जे मयाँ होय; वळी कोई बाळक, युवान, वृद्ध, स्त्री, हठाग्रही कुमारी, पुत्रविहोणां गोत्रीया जनो, ऋणने लीधे पूर्वजन्मनां वैरी होय तेवा लोको बगर जे कोई मर्या हाय. तं सान
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ऑक्टोबर २००२ प्रीति-प्रसन्नता प्राप्त थाय तेमज मृतात्माओ मात्सर्य त्यजी, निर्वैर बनी, प्रीतिभाव सर्जी, सुख-गति प्राप्त करे अने अप्रसन्नता छोडीने सुप्रसन्न थाय तेवी प्रार्थना अहीं करवामां आवी छे.
वळी, आ तर्पणविधि करवाथी मूळ अने अश्लेषा नक्षत्रमा जन्मेला जनकना ते दोषो शमे छे: कुस्वप्न, अपशुकन, अपमुहूर्त-आदिरूप अशुभ भावो शुभमां परिणमे छे: चोर नासे छे; शत्रु त्रासे छे; सर्पादि मूंझाय छे; वैरीओ शोकग्रस्त थाय छे; उपद्रवो नष्ट थाय छे; वृक्षो फळे छे; धान्य नीपजे छे; पृथ्वी पर नित्य उत्सव प्रवर्ते छे - इत्यादि अनेक वातो प्रार्थनाना सूरमां आमां सूचवाई छे. दंडकने प्रांते सौनां कल्याणनी शुभ प्रार्थना मूकी छे.
दंडकविभाग पछी आवे छे अनुष्ठानविभाग. आ तर्पणविधिने 'ऋषभतर्पण' नाम आपवामां आव्युं छे अने आ कृतिना छेवाड़े निर्देश्युं छे तेम आ विधि जैन श्वेतांबर संघने प्राणपणे पूज्य श्रीशत्रुजयतीर्थ(पर्वत) पर आवेला रायणपगलां (ऋषभदेवनी रायणवृक्ष तळे विराजती पादुका) समक्ष ज करवानो छे तेथी, आ बीजा विभागमा प्रथम, यजमाने (तथा विधिकारके) भूमिशुद्धि तथा स्नानाचमन मंत्रपूर्वक कर्या पछी, ऋषभदेवनी प्रतिमाने पूर्वाभिमुख के उत्तरभिमुख पधरावीने ते पर सुगंध-जल-कलशाभिषेक, दूधनो, घीनो, इक्षुरसनो तथा सवौषधीनो अभिषेक-करवाना छे. ते पछी पुष्प, अक्षत, फल, धूप, नैवेद्य पूजा करीने आरती-मंगलदीवो करवापूर्वक ऋषभतर्पणनो दंडक-पाठ बोलता बोलतां अखंड जळधारा वडे शांतिकळश भरवानो छे. आथी समजाय छे के पहेला विभागमांना दंडक-पाठनो उपयोग अहीं करवानो छे. आ रीते, विधि पूरो थया बाद मंत्रपाठपूर्वक मुनिराजोने सुपात्रदान करवानुं सूचन छ ने त्यारबाद विसर्जनविधि छे.
प्रान्ते आ ऋषभतर्पण समृद्ध गृहस्थ वर्षमां बे वार करावे तो तेने विपुल लक्ष्मी मळे छ; अने शत्रुजयतीर्थे रायणवृक्षतळे करे तो तेना पूर्वजोनी सद्गति थाय छे तथा तेना दोषो शमे छे, अम महिमा वर्णव्यो छे, अने सूचव्युं छे के आ विधि, उपरिकथित हेतुओ सिवाय पण, बिंबप्रतिष्ठा, देवभोज्य अने विवाह आदि मंगल कार्योना अवसरे करवामां आवे तो, ते करनारने कार्यसिद्धि थाय छ; पुत्रीने बदले पुत्र प्राप्त थाय छे: लाभ न थतो
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अनुसंधान-२१
होय तो लाभ थाय छे; ने दुष्टजनोना उपद्रवो दूर थाय छे. अने नित्य आ ऋषभतर्पणनो पाठ करे तेने (शत्रुजयनी) यात्रानु फळ (घेर बेठां) मळे छे.
____ आ कृति अद्यावधि अप्रगट छे, अने आनी बीजी कोई प्रति क्यांय उपलब्ध थयानुं जाणमां नथी. एटले बीजी प्रति न मळे त्यां सुधी प्रस्तुत गुटकागत आनी प्रति ते एकमात्र प्रति छे एम मानवं जोईए.
श्रीऋषभतर्पणम् ॥ ।। ६०॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥
नमः श्रीपरमात्मने आदिपुरुषाय प्रथमभूपतये श्रीनाभिजन्मने वृषभध्वजाय श्रीमरुदेवोत्सङ्गसङ्गिने सुवर्णवर्णाय पञ्चशतचापोच्चाय ललिताङ्गाय सुमङ्गला-सुनन्दाऽऽनन्ददायिने पुत्रशतसनाथीकृतदिक्कक्राय काञ्चनदा(दा)न चमत्कृतसुपद्धतरवे प्रथममुमुक्षवे दक्षाय ज्ञानगर्भाय प्रकटितसकलव्यापाराय कल्पद्रुमफलिते(ता?)भ्यवहाराय क्षीरनीरनिधिनीरपायिने अष्टापदगिरिशिरःक्षिप्ताऽष्टकर्मणे विमलाचलचूलाधिरूढप्रौढश्रियः(ये) प्र(प्रि)यालूतरोर्मूले 'मसवसताय'(? समवसृताय) त्रैलोकि(क्य)स्वामिने पुण्याध्वदर्श(शि)ने सर्वदर्श(शि)ने सर्वज्ञाय जगत्पितामहाय महीयसे [देव]दानवपूजिताय वासवाचितांहये शरण्याय तीर्णभवारण्याय ।।।
मा श्रीं क्लीं ब्लूँ वषट् । स्वस्ति ते भगवतेऽर्हते पुण्डरीकाय । स्वस्ति मरुदेवायै । स्वस्ति नाभये । स्वस्ति भरताय भरतचक्रिणे । स्वस्ति बाहुबलये महाबलाय । स्वस्ति सुमङ्गलायै । स्वस्ति सुनन्दायै । स्वस्ति ब्रायै। स्वस्ति सुन्दर्यै । स्वस्ति मरीचये । स्वस्ति श्रीयांसाय । स्वस्ति वर्धमानाय सगौतमाय ।।
भगवन् ! नमस्ते सत्त्वरजस्तमोऽतीताय ऋषभाय । नमः पुण्डरीकाय । नमो मरुदेवायै । नमो नाभये । नमो भरताय भरतचक्रिणे । नमो बाहुबल[ये] । महाबलाय नमः । सुमङ्गलायै नमः । सुनन्दायै नमः । नमो ब्राहल्यै । नमः सुन्दर्यै । नमो मरीचये । नमः श्रीयांसाय । नमो वर्द्धमानाय सगौतमाय ।।
प्रभो ! प्रथमतीर्थङ्कराय भगवते वषट् । भरताय भरतचक्रिणे वपट् ।
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ऑक्टोबर २००२ वषट् बाहुबलये । महाबलाय वषट् । सुमङ्गलायै वषट् । सुनन्दायै वषट् । ब्रायै वषट् । सुन्दर्यै वषट् । मरीचये वषट् । श्रीयांसाय वषट् । वर्द्धमानाय सगौतमाय [वषट्] 1
स्वामिन(न्) ! प्रथमयोगिने भगवते स्वाहा । पुण्डरीकाय स्वाहा । मरुदेवायै स्वाहा । नाभये स्वाहा । ब्राहृयै स्वाहा । सुन्दर्यै स्वाहा । मरीचये स्वाहा । श्रीयांसाय स्वाहा । वर्द्धमानाय सगौतमाय स्वाहा ॥
स्वस्ति मे सु(स)परिकराय । स्वस्ति यजमानाय सपौत्राय । स्वस्ति राज्ञे । स्वस्ति प्रजाभ्यः । स्वस्ति साधुसङ्घाय । स्वस्ति यजमानाय(मान) पूजेभ्यः । वषट् यजमानपूर्वजेभ्यः । स्वाहा यजमानपूर्वजेभ्यः । स्वाद्वय(स्वधा) यजमानपूर्वजेभ्यः ।।
स्वामिन् ! श्रेयांससद्मनि रसालरसेन कृतपारणस्य यजमानस्य सपुत्रपौत्रस्य ट(?) भूयात् । तथा श्रीहीधृतिकीर्तिकान्तिबुद्धिमेधाः सिद्धयन्तु भवत्प्रसादेन । मति देही(हि) । गति देही(हि) । श्रियां(य) देही(हि) । कल्याणं देही(हि) ॥
ना श्री एँ जये विजये जयन्ते अपराजिते सर्वार्थसिधे(द्ध) भगवति कूष्माण्डि चक्रेश्वरि शासनदेवते गोमुखयक्षराजप्रिये ! देहि मे वरम् । सम्पादय यजमानस्य वाञ्छितम् ॥
रोहिणी- प्रज्ञप्ती-वज्र शृङ्खला-वज्राङ्कशी-चक्रेश्वरी-नरदत्ता-कालीमहाकाली-गौरी-गान्धारी- सर्वास्त्रमा(म)हाज्वाला - मां(मा)नवीवैरोट्य(ट्या) - अच्छुप्ता - मानसी - महामानसीति षोडशविद्यादेव्यः । कुलदेवी - सरस्वती- महालक्ष्मी - महामाया - तारा - त्रिपुराऽम्बिका - पद्मावती - क्षेत्रदेवता - शान्तिदेवता - गणपति – ब्रह्मशान्ति - सर्वानुभूति -- गण(णि)पिटक .. गोमुखप्रमुखा यक्षा(:) । हरिहरब्रह्मादयो देवा(:) । शकाद्या लोकपाला(:) । सूर्यसोमाङ्गारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनि(नै)श्चरराहुकेतवो ग्रहाः । प्रभो ! तवानुभावने(वेन) प्रसीदन्तु । सद्यो वरदा भवतु(न्तु) स्वाहा ।।
अमुष्मिन् संवत्सरे, अमुष्मिन् अयने, अमुष्मिन् ऋतु(तौ), अमुष्मिन् मासे. अमुष्मिन् पक्षे. अमुकतिथी. अमुकवारे, अमुकज्ञाते(तौ), अमुकगोत्र.
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अनुसंधान-२१ अमुकसुतस्य, अमुकयजमानस्य पितृणां तृप्तये, प्रीतये, श्रेयोऽर्थ, गत्यर्थं प्रारब्धमिदं तं(?) ऋषभतर्पणम् ॥
अनेन तर्पणेन तृप्यन्ति सर्वेऽपि पूर्वजाः पितृ-पितामह-प्रपितामहाद्या माता-मातामहपुरस्सराश्च; पितृव्य-भ्रातृ - भ्रातृव्य--पुत्र-कलत्रप्रमु[खा] वहनविषसर्पव्याघ्रालर्कगजगोमहिषीहता(:), वैरिकार्मणशस्त्रप्रयोगमृताः, कृपसरः सरिन्निमग्नाः, गिरितरुपातभग्नाः, क्षुत्पिपासाद्दिताः, रोगदोषकण्टकपाशादिकष्ट(टै)श्च्युयुतजीविताः, धनहानि-वल्लभावियोगविनष्टाश्च ये बाला युवानो वृधा(द्धा):, स्त्रियाः(यः) कुमारजटिलाः, अपुत्राः, गोत्रिणः, सहमृता रु(ऋ?)ण सम्बन्धिनः पूर्वजन्मवैरिणः, पापा अगतिका मुद्गला भूताः, क्लेशकारिणः । सर्वेऽपि ते प्रीयन्तां प्रीयन्ताम् । ह(ह)ष्यन्तु, तुप्यन्तु, मुच(च)न्तु, मत्सरं त्यजन्तु, अवैरं भजन्तु, प्रीति सृजन्तु, शर्माणि लभतारन्तां), गति लभतां(न्तां), अप्रसन्नाः सुप्रसन्ना भवन्तु ||
ना श्री अहूं श्रीऋषभस्वामिने स्वाहा ॥ अन्यच्च-मूलाऽश्लेषाग्रहणगण्डान्तजातस्य विषकन्याया]श्च दोषजातं यातु यातु । कुस्वप्न -कुशकुनकुमुहूर्ताद्या अशुभा भावा(:) शुभं(भा) भवतु(न्तु) । नश्यन्तु तस्कराः । [त्रस्यन्तु शत्रवः । मुह्यन्तु पन्नगाः । शोच्य(च)न्तु वैरिणः । प्रयान्तु ईतयः । वर्षन्तु जलधराः । फलन्तु शाखिनः । निष्पद्यतां (न्तां) कर्षणानि । नित्योत्सवैर्गजन्तु(तु) पृथ्वी । प्रसीदन्तु पृथिवीभुजः । न्यायधर्माध्वनि वहन्तु लोकाः । स्फुरन्तु सतां मन्त्राः । जायन्तां पुत्रवं(व)त्यः सत्य(:) स्त्रियः । स्फूर्ज(ज)तु धर्मः । श्रवंति(तु) क्षीराणि गावः । गायन्तु गेहे गेहे मङ्गलानि मृगाक्ष्यः । नृत्यन्तु जिनालये भावसारा: । सिद्धयन्तु पुण्यवतां मनोरथाः । वर्धन्तु(न्तां) श्रियः ॥ एँ क्ली हुँ फुट् स्वाहा ।।
शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । [दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवतु लोकः ॥१॥]
श्री ऋषभतर्पणमिदम् !!
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ओक्टोबर २००२
अथ ऋषभतर्पणविधिः ॥ प्रसन्नेऽह्नि सूरिः कृतस्तान(:)शुचि(:) शुचिवस्त्रालङ्करणः प्रातरधी(र्थी) श्राद्धः सुधीर्मेध्य(:) गृहमेधिनः (मेधी) सौधमध्यास्य विधिज्ञः सविधीकृतः
वीर उच्चि ऊर्चसी(शी)प्रिये सर्वसहे रत्नबीजवह्निबीजकुल जनर्चिविस्वोपकारिणि प्रकृतिपुण्यवसुन्धरे पवित्रीभव मां पावय पावय नमोऽर्हते स्वाहा ।।
____ अनेन दिक्षु वासक्षेपात् भूमिशुधि:(द्धिः) || मृदम्भसा च कुर्यात् शुधि:(द्धिः) ।।
स्वर्णरेखा-गजपद-गङ्गा-सिन्धु-सरस्वती ।
परमेष्ठिपदान्येभिः स्नानमाचमनं चरेत् ॥ स्नानाऽऽचमनमन्त्रः ॥ तत(:) सचन्दनः(न)स्वस्तिके स्थाले प्रागुत्तराभिमुखं श्रीऋषभं निवेश्य गन्धाम्बुभृतं कलशं करे कृत्वा पठति
शकैः सुमेरुशिखरे-ऽभिषिक्तं तीर्थवारिणा (यत्त्वाम्) (?) । पश्यन्ति स्म ये स्वामिन् !(?) ते धन्या धरणीतले ॥१॥ सिच्यमानोऽन्वहं वृक्षः, काले फलति वा नवा ।
जिनकल्पद्रुमोऽवश्यं, वाञ्छाऽतीतफलप्रदः ॥२॥ स्नानमन्त्राः ॥
यदा बाल्ये त्वया पीतं क्षीरं क्षीराम्बुधेः प्रभो ! ।
तद्वद् मन्यस्व गोस्वामिन् ! गोक्षीरं मदुपाह(ह)तम् ॥३।। दूध(दुग्ध) स्नानमन्त्रः ॥
सत्त्वं सत्त्वनिधेस्तस्य तापितं परमामृतम् ।
घृतं तवाङ्गस्पर्शेन, शीतीभवितुमिच्छति ॥४॥ घृतस्नात्रम् ॥
यथा श्रेया(यां)सराजस्य, रसस्ते श्रेयसेऽभवत् । स्नात्रे पवित्र(त्रि)तस्तद्वत्, प्रीयते भवतु प्रभाः ॥५।।
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अनुसंधान-२१ इक्षुरसस्नात्रम् ॥
पादयोरौषधीनेता, लुठति स्म तवाऽन्वहम् । इति(ती)व सर्वोषधयः, स्वामिभक्त्या "दुहौ दोष
मपहंति स्म चंदन ॥६॥ (चन्दनकिरे:) || (?) १ सर्वोषधीस्नात्रम् ॥
लगित्वाऽङ्गे जिनेन्द्रस्य, नित्यामोदसुनिर्मलः । "निजं(जां)निफ(फ)लता(तां) पुरा जग्मु(ः) सुमनसः
___ कोटिशः स्वयमर्हतम् । नामसाम्यागुणोद्गुणोदबधा नीयन्ते तु जनाजनैः ॥७॥ (?)२ पुष्पारोपणम् ॥
न क्षतं क्ष(क्षि)तिपीठेऽपि स(?)चलितं(ते) तस्य जायते ।३
पुरा(र)स्तादार्हतो भक्त्या, यो मुञ्चत्यक्षतोच्चयम् ॥८॥ अक्षतढौकनम् ॥
चैतन्यं सुकुले जन्म वैदुष्यं जीवितं धनम् ।
सफलीक्रियते सर्बे(ब), जिनाग्रे फलढौकनात् ॥९॥ फलम् ॥
रराज जिनराजस्य धूपध्यां(ध्या)नलिनं (?)वपुः ।
सुपर्वपर्वतस्येव, जलदालिगतं शिरः ॥१०॥ धूपं(प:) ॥
नैवे()चं जायते किश्चित्, प्राणिनस्तस्य कर्हिचित् ।
नैवेद्यं वीतरागस्य यः कल्पयति कल्पचि(वि)त् ॥११॥ नैवेद्यम् ॥
विधिरुत्तारणी कार्षते (ण्यकार्युः ?) पञ्चापि सुरशाष(खि)नः ।
पञ्चदीपालिदम्भेन, तव दानविमा(मो)हिताः ॥१३।। आरात्रिकम् ॥
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________________ ओक्टोबर 2002 दीपस्त्वमेव गोस्वामिन् ! विश्वमोहतमोहरः / दीपो मङ्गलदम्भात् ते, सुरैरुत्तारणे कृतः // 14|| मङ्गलदीपः // ततोऽर्हतः पुरस्तात् पुष्पाक्षतफलनालिकेरपूगमुद्रापूर्णं पूर्णकलशं [सं]स्थाप्य श्रीऋषभतर्पणमन्त्रं स्मरन्नक्षतकलशाम्बुधारया कलशं पूरयेत् / भक्तिप्रह्वः श्राद्धः पठति यथा वासोऽर्हते दत्त(तं), दीक्षाकाले बिडौजसा / तथा मुनिभ्योऽहमपि, ददामि स्वामिवत्सलः // 1 // * पितरः साधुरूपेन(ण) भवतुरन्तु) परमेश्वराः / स्वस्मै स्थानाय गच्छन्तु, प्रसन्ना मम भक्तितः // 2 // पूजाविसर्जने // इदं ऋषभतर्पणं य: समृधो(द्धो) ग्र(ग)ही वर्षमध्ये वारद्वयं कारयेत्, तस्य विपुला वर्द्धते(न्ते) श्रियः / श्रीशत्रुञ्जये प्र(प्रि)याल(लू)मूले कुर्वतः पूर्वजा गतिं लभन्ते, दोषोपशम: स्यात् / बिम्बस्थापने, देवभोज्ये, विवाहादौ च कुतः सर्वकार्यसिधि:(द्धिः) / पुत्रिकोत्पत्तौ पुत्रप्राप्तिः / अलाभे लाभः / खलार्थे खलोपशमः स्यात् / नित्यं य: पठ्यमानं शृणोति तस्य यात्राफलं भवेत् // इति श्रीऋषभतर्पणविधि(:) सम्पूर्णः ॥छः //