Book Title: Karlakkhan Samudrik Shastra
Author(s): Prafullakumar Modi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsurl Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नगर करलक्खण [सामद्रिक शास्त्र] मारतीय For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 3484364-8434-5433444 www.kobatirth.org भारतीय ज्ञानपीठ, काशी के प्राकृत प्रकाशन १ महाबन्ध (जैन सिद्धान्त ग्रन्थ) २ करलक्खण (सामुद्रिक शास्त्र) [प्रेस में ] संस्कृत १२) (१) न्यायविनिश्चय विवरण- प्रथम भाग २ न्यायविनिश्चय विवरण- द्वितीय भाग ३ मदन पराजय ४ कन्नड प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थ-सूची ५ तत्त्वार्थश्रुतसागरी नाममाला सभाष्य For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला [ प्राकृत ग्रन्थाङ्क २ ] Gets A * 444 4 4 ఈత తన करलक्खणं [सामुद्रिक शास्त्र] सम्पादक: प्रो० प्रफुल्लकुमार मोदी, एम्. ए. किंग एडवर्ड कॉलेज, अमरावती, सी. पी. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ASHIKHARGESSHISHASKHASk+SHAard+cr+AE.KICKASSkisrki प्रथम आवृत्ति ) श्रावण, वीरनि० सं० २४७३ __ मूल्यम् १) वि० सं० २००४ छह सौ प्रति ) अगस्त १९४७ । रुप्यकमेकम् मुद्रकः-भार्गव भूषण प्रेस, बनारस । For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय ज्ञानपीठ काशी स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में तत्सुपुत्र सेठ शान्तिप्रसाद जी द्वारा संस्थापित ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला में प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश हिन्दी कन्नड तामिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक दार्शनिक पौराणिक साहित्यिक और ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धान, उसका मूल और यथासंभव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन होगा । जैन भंडारों की सूचियाँ, शिलालेखसंग्रह, विशिष्ट विद्वानों के अध्ययनग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित होंगे। COOOOO0 ग्रन्थमाला सम्पादक और नियामक (प्राकृत विभाग ) प्रो० डॉ० हीरालाल जैन, एम० ए०, डी० लिट०, मॉरिस कॉलेज, नागपुर । प्रो० डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, एम० ए०, डी० लिट०, राजाराम कॉलेज, कोल्हापुर। प्राकृत ग्रन्थाङ्क २ प्रकाशकअयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस सिटी। मुद्रक-पं० पृथ्वीनाथ भार्गव, भार्गव भूषण प्रेस, गायघाट, काशी। स्थापनाब्द फाल्गुन कृष्ण ९ वीरनि० २४७० सर्वाधिकार सुरक्षित ( विक्रम सं० २००० ११८ फरवरी १९४४ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org JNANA-PITHA MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA PRAKRIT GRANTHA No. 2 KARALAKKHANAM # BHARATIYA JNANA PITH First Edition 600 Copies. EDITOR: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Prof. PRAFULLA KUMAR MODI, M. A. KING EDWARD COLLEGE, AMRAOTI, C. P. BHARATIYA JNANA PITHA KASHI SHRAVANA, VIR SAMVAT 2473 VIKRAMA SAMVAT 2004 AUGUST, 1947 For Private and Personal Use Only Price. Rs. 1/ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BHARATIYA JNANA-PITHA KASHI. FOUNDED BY SETH SHANTIPRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE BENEVOLENT MOTHER MOORTI DEVI JNANA-PITHA MOORTI DEVI JAIN GRANTHAMALA IN THIS GRANTHAMALA CRITICALLY EDITED JAIN AGAMIC, PHILOSOPHICAL, PAURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRANSHA, HINDI, KANNADA & TAMIL ETC AVAILABLE IN ANCIENT LANGUAGES, WILL BE PUBLISHED IN THEIR RESPECTIVE LANGUAGES WITH THE TRANSLATION IN MODERN LANGUAGES AND ALSO CATALOGUES OF BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUDIES, OF COMPETENT SCHOLARS & POPULAR JAIN LITERATURE WILL BE PUBLISHED. GENERAL EDITORS OF THE PRAKRIT SECTION Prof. Dr. HIRALAL JAIN, 1.4., D. LITT.. MORRIS COLLEGE, NAGPUR. Prof. Dr. A. N. UPADHYE, N. A., D. LITT. RAJARAM COLLEGE, KOLHAPUR. PRAKRIT GRANTHA No. 2 PUBLISHER AYODHYA PRASAD GOYALIYA, SECRETARY, BHARATIYA JNANA PITHA, DURGAKUND ROAD, BEN ARES CITY. Founded in Falgun Krishana 9 Vir Sam. 2470 All Rights Reserved Vikram Samvat 2000 18th Feb. 1944. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकथन मनुष्य की हथेलियाँ ( करतल ), अपनी आकृति, बनावट, मृदुता, रंग, रूप और रेखाओंकी दृष्टिसे, एक दूसरेसे अति भिन्न होती हैं। शरीरशास्त्रियोंका कहना है कि, शरीरका यह ढाँचा जिस चमड़ेसे आवृत है वह कुछ तन्तुओंसे बँधा है। वे सब एक दूसरेसे सम्बन्धित ही नहीं हैं बल्कि उनसे मोड़के स्थानोंमें कुछ चिह्न भी उठ आए हैं। इन हथेलियोंकी विषमताका कारण नाना आकृतिकी मांसपेशियाँ हैं। शरीरशास्त्री यह विश्वास नहीं करते कि यन्त्ररूपमें बने हुए घुमावदार मोड़ों और संकेतोंका आध्यात्मिक रहस्यमय या भविष्य बतानेवाला कोई अर्थ होता है। मनुप्यमें अपने भविष्य जाननेकी इच्छा उतनी ही पुरातन है जितना कि स्वयं मनुष्य, और यह उतनी ही बलवती होती जाती है ज्यों ज्यों मनुष्यका वातावरण हर तरफ अनिश्चितसा दिखता है। प्रति मनुप्यमें आश्चर्यरूपसे अति भिन्न पाई जाने वाली हथेलियाँ ही भविष्य-ज्ञानपद्धतिका आधार हैं और इसे सामुद्रिक ( हस्तरेखा ) विद्या कहते हैं। हाथकी रेखाओं और चिह्नोंका, खासकर हथेलीका, लाक्षणिक अर्थ है । वे हमारे मानसिक और नैतिक स्वभावोंसे ही सम्बन्धित नहीं हैं बल्कि व्यक्तिकी भावी घटनाओंकी गतिविधियों पर भी प्रकाश डालते हैं। यदि कुछ चिह्न हमारे अतीतकी बातें बताते हैं तो कुछ भविष्यकी। शरीरपरके चिह्नोंसे मानवीय प्रवृत्तियोंका भविष्य कहना एक पुराना सिद्धान्त है तथा प्रायः इसका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्यमें मिलता है। और सामुद्रिक विद्या उससे एक दम सम्बन्धित है। चूंकि शारीरिक चिह्नोंकी व्याख्या सिर्फ लाक्षणिक है पर पूर्वकी ओर पश्चिम देशों की मौलिक मान्यताएँ एक दूसरेसे नहीं मिलती। भारतीय पद्धति रेखाओं, शङ्ख तथा चक्रोंपर ज्यादा जोर देती है जब कि पाश्चात्य पद्धतिमें नाना आकृतिओं और रेखाओंको महत्त्व दिया गया है, तथा उसमें एक ही रेखाके अर्थोंमें बहुधा भेद पड़ जाता है। चाहे मौलिक मान्यताएँ प्रामाणिक न हों तथा बहुतसे अर्थ तर्कपूर्ण भले न हों पर एक तथ्य तो जरूर है कि अनेकोंके लिये यह सामुद्रिक विद्या आकर्षणकी वस्तु है। तथा गत कुछ वर्षों में प्रधान-प्रधान व्यक्तियों के हस्तरेखा चित्र लिये गये हैं तथा उनसे कुछ आनुमानिक निष्कर्ष निकाले गये हैं। सामुद्रिक विद्या बहुतोंके लिए संसारी जीविकाका धन्धा हो गया है परन्तु करलक्खण, जो कि यहाँ से प्रथम बार सम्पादित हो रहा है, के ग्रन्थकारका उद्देश्य धार्मिक ही है। इस ग्रन्थके लिखनेमें उनका उद्देश्य धार्मिक संस्थाओंको इस योग्य बनानेका है कि जिससे वे व्यक्तियोंकी योग्यताको माप सकें और उनको ( पुरुष या स्त्रीको ) धार्मिक प्रतिज्ञाएँ तथा नियम दे सकें। For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस सामुद्रिक शास्त्रका, भविष्य कहनेकी पद्धतिके रूपमें प्राचीन भारतीय विद्यामें स्थान है और उस विषयको प्रतिपादन करनेवाली यह छोटी पुस्तक करलक्षण भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशितकी जा रही है। प्राकृत पाठ, संस्कृत छाया तथा हिन्दी शब्दार्थके साथ है और सम्पादक प्रफुल्लकुमार मोदीने यह सब हमारे सामने स्पष्ट रूपसे रखा है । मोदीजी एक बुद्धिमान् नवयुवक विद्वान् हैं और यह संस्करण उनकी भावी योग्यताओंको बतलाता है। अपने पिता प्रो० डा० हीरालाल जैनकी मातहतीमें शिक्षित हुए, इस युवकसे सम्भावना है कि भविष्यमें संस्कृत और प्राकृत साहित्यके अनुसन्धानोंसे, हमें बहुत कुछ दे सकेगा। ___ श्री सेठ शान्तिप्रसाद जेनने प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बहुबिध रूपोंको संसारके सामने रखनेके आदर्श उद्देश्योंसे प्रेरित हो भारतीय ज्ञानपीठको स्थापित किया है । उनकी पत्नी श्रीमती रमारानी भी उनके उत्साह और उदारताके अनुरूप ही संस्थाके प्रकाशनोंमें तीव्र अभिरुचि रखती हैं। वे दोनों हमारे अति धन्यवादके पात्र हैं। हमें अनेक आशाएँ हैं कि यह संस्था न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी शास्त्रीके उत्साहपूर्ण प्रबन्धके नीचे अनेक विद्वानोंके सक्रिय सहयोगसे बहुतसे योग्य प्रकाशन सामने लाएगी और इस तरह हमारे देशकी सांस्कृतिक परम्पराको और समृद्ध करेगी। कोल्हापुर आ० ने० उपाध्ये १५ अगस्त १९४७ प्रकाशन-व्यय २००) छपाई ६०) कागज १०) बाइंडिग ३०) फुटकर १००) कार्यालय व्यवस्था, प्रूफ संशोधन आदि २००) कमीशन, विज्ञापन १००) भेंट आलोचना कुल ७००) ६००) प्रति छपी, लागत एक प्रति १%)। For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं प्रस्तावना 1 हस्तरेखाज्ञानका प्रचार भारतवर्ष में बहुत प्राचीन कालसे रहा है । पुराणोंमें, बौद्धों के पालि धर्मशास्त्रों में तथा जैनोंके प्राकृत आगमोंमें भी इसका उल्लेख पाया जाता है । संस्कृत में उसे सामुद्रिक शास्त्र कहा गया है और अग्निपुराण के अनुसार प्राचीन कालमें समुद्र ऋषि अपने शिष्य गर्गको इस विद्याका अध्ययन कराया था ( लक्षणं यत्समुद्रेण गर्गायोक्तं यथा पुरा --- अग्निपुराण) । वराहमिहिर ने भी अपने सुप्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ बृहत्संहिता के महापुरुपलक्षण नामके सर्ग (६७-६९) में इसका उल्लेख किया है। यहां तक कि बृहत्संहिता के टीकाकार उत्पलभट्टने 'यथाह समुद्रः' कहकर बहुत से लोक समुद्र ऋषि प्रणीत उद्धृत किये हैं । हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेना - चार्य ने भी 'नरलक्षण' के कर्ताका उल्लेख किया है और उन्हीं लक्षणों का वर्णन हरिवंशपुराणके २३ वें सर्गके ५५ वें श्लोकसे १०७ वें श्लोक तक पाया जाता है उनमेंसे १३ (८५-९७ ) श्लोकोंका विषय हस्तलक्षण और उनकी सार्थकता है, अतः वे पूर्णतः हस्तरेखाज्ञानविषयक कहे जा सकते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ हस्तरेखाज्ञान सम्बन्धी छोटी सी पुस्तिका है । इस ग्रन्थकी जो प्राचीन हस्तलिखित प्रति मुझे उपलब्ध हुई थी उस पर ग्रन्थका नाम 'सामुद्रिक शास्त्र' दिया गया है । किन्तु ग्रन्थका असली नाम 'करलक्खणं' है जैसा कि उसकी आदि और अन्तकी गाथाओंसे सुस्पष्ट हो जाता है । यह ग्रन्थ ६१ प्राकृत गाथाओं में पूर्ण हुआ है । ग्रन्थके विषयका सार निम्न प्रकार है प्रथम गाथा रचयिताने जिन भगवान् महावीरको प्रणाम कर पुरुष और स्त्रियोंके करलक्षणं कहने की प्रतिज्ञा की है । दूसरी गाथा के अनुसार पुरुषको लाभ व हानि, जीवन व मरण तथा जय व पराजय रेखानुसार ही प्राप्त होते हैं । गाथा ३ के अनुसार पुरुषोंके लक्षण उनके दाहिने हाथ में और स्त्रियोंके उनके बायें हाथमें देखकर शोधना चाहिये । इसके आगे कर्ताने अंगुलियोंके बीच अन्तरका फल वर्णन किया है ( गा० ४-५ ) ; फिर उनके पर्वों का वर्णन है ( गा० ६ ) ; तत्पश्चात् मणिबंधकी रेखाओंका उल्लेखकर ( गा० ७-११ ) विद्या, कुल, धन, रूप और आयुसूचक पांच रेखाओंका वर्णन किया है ( गा० १२-२२ ) । आगेकी ती गाथाओं में ( २३-२५) रेखाओंके आकार, रूप व रंगके अनुसार उनका फल बतलाया है । फिर अंगूठेके मूलमें यवोंका फल कहा गया है ( गा० २६-२७ ) तथा उनके द्वारा भाई, बहिन व पुत्रपुत्रियों की सूचना दी गई है ( गा० २८-३० ) । फिर लेखकने अंगूठेके नीचे यव, For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में नशा केदार, काकपद आदिके गुणदोष बतलाये हैं ( गा० ३१-३५ )। फिर कनिष्ठिका अंगुलीके नीचेकी रेखाओंसे पति-पलियोंकी सूचना दी गई है (गा० ३६-३९)। तत्पश्चात् व्रत (गा० ४०) मार्गण ( खोजवीन ) ( गा० ४१ ) व गुरुदेव स्मरण ( गा० ४२ ) सूचक रेखाओंका उल्लेख है । फिर लेखकने अंगुलियों आदि पर भँवरी ( गा० ४३ ) व शंख ( गा० ४४ ) रूप चिह्नोंका फल कहा है। फिर नखोंके आकार व रंग आदिका फल कहा गया है ( गा० ४५ ) और उसके आगे मत्स्य, पद्म, शंख, शक्ति आदि चिह्नोंकी सूचना दी गई है ( गा० ४६-५३ )। फिर हथेली पर बहु रेखाओं व अल्प रेखाओंका फल कहा गया है ( गा० ५४ ) और तत्पश्चात् परोपकारी हाथके लक्षण बतलाये गये हैं ( गा० ५५)। कुछ चिह्न ऐसे हैं जो धन, वंश व आयु रेखाओंके फलोंको बढ़ा या घटा देते हैं ( गा० ५६ )। जीवरेखा व कुलरेखाके मिल जानेका प । तथा हाथके स्वरूपका फल गाथा ५८-५९ में कहा गया है। कैसे यव वाचनाचार्य व उपाध्याय व सूरि होने वाले पुरुषकी सूचना देते हैं यह गा० ६० में बतलाया गया है। अन्तकी गाथामें लेखकने विनयके साथ बतलाया है कि यह ग्रन्थ उन्होंने संक्षेपतः यतिजनोंके हितार्थ इसलिये लिखा है कि वे इसके द्वारा प्रत्येक व्यक्तिकी योग्यता जान कर ही उसे व्रत दें। दुर्भाग्यतः लेखकने अपना नाम व समय कहीं नहीं बतलाया और न हमारे पास कोई ऐसे साधन उपलब्ध हैं जिनसे इन बातोंका पता व अनुमान लगाया जा सके । __इस ग्रन्थकी भाषा प्रायः शुद्ध महाराष्ट्री है, क्योंकि इसमें 'त्' के लोप होनेपर केवल उसका संयोगी स्वर यश्रुति सहित या बिना उसके ही पाया जाता है; 'थ' के स्थानपर कहीं भी 'ध' न होकर सर्वत्र 'ह' ही हुआ है, और पूर्वकालिक कृदन्त अव्यय 'ऊण' प्रत्यय लगाकर बनाया गया है। यद्यपि ग्रन्थ छोटा सा है, तथापि वह इसलिये विशेष महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा प्राकृतमें शास्त्रीय साहित्यके संबंधमें हमारा ज्ञान विस्तृत होता है। ___ इस अवसर पर मैं भारतीय ज्ञानपीठ, काशीके अधिकारी वर्गको धन्यवाद देता हूँ कि. उन्होंने इस पुस्तकको अपनी ग्रन्थमालामें सम्मिलित कर प्रकाशित करनेकी कृपा की। ) किंग एडवर्ड कालेज, अमरावती । अप्रैल १९४७ प्रफुल्लकुमार मोदी For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir FOREWORD The human palms considerably differ from each other in their shape, structure, softness, colour, figures and lines. The anatomist explains that the skin covering the skeleton is tied down by certain fibres which not only hold them together but at the same time give rise to certain marks along the folding points of the skin. The unevenness of the palm, however, is due to the muscles of various sizes. He refuses to believe that this mechanical arrangement of flexion-folds has any psychic, occult or predictive signification. The desire to know future is as old as man, and it increases all the more when man's environments are uncertain in every respect. The human palm, as it varies in a wonderfully interesting manner from person to person, has come to be the basis of a predictive system known as palmistry. The lines and figures on the hand, especially the palm, are symbolically interpreted : they are connected not only with mental and moral dispositions but are said to reflect also the current of future events in the individual's life. If some marks record past events, others indicate the future ones. The prediction of human tendencies from marks on the body is a very old idea, often referred to in early Indian literature, and the system of palmistry is quite akin to it. As the interpretation of physical marks can be only symbolical, the basic presumptions in the East and West are not identical. The Indian system lays more stress on the lines, conchs and wheels while the western system takes into account the various mounts as well as lines : the meaning attached to the same line often varies. The basic presumptions may not be verifiable, and some of the interpretations may not appeal to reason ; still it is a fact that many a mind has a strong fascination for palmistry; and during later years palmprints of eminent personalities are taken and certain conclusions are inductively arrived at. Palmistry has become a profession with many for worldly ends ; but the author of the Kara-lakkhanam which is edited here for the first time, has a more pious aim : he tells us that his object in writing this book was only to enable religious missionaries to prejudge the potentialities of a person and then only administer religious oaths and vows to him or her. For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 Palmistry as a system of predicting future has found place in ancient Indian wisdom as well, and a small text dealing with palmistry, the Karalakkhanam, is being published here by the Bharatiya Jnanapitha, Benares. The Prakrit text is accompanied by Sanskrit Chaya and Hindi paraphrase : and all this is presented to us in a neat manner by the editor, Shri Prafulla Kumar Modi. Mr.Modi is an intelligent young scholar; and this edition augurs well of his potential abilities. Trained as he is under his father, Professor Dr.Hiralal Jain, it is expected that he would soon give us more and more of his researches in Prakrit and Sanskrit literature. It is with the noble object of making known to the world the manifold aspects of ancient Indian culture and civilization that the Bharatiya Jnanapitha has been established by Shri Shantiprasad Jain. His zeal and generosity are worthily matched by the keen interest which his wife Shrimati Rama Rani takes in the publications of the Institution. Both of them deserve our best thanks. We have every hope that this Institution under the enthusiastic management of Nyayacharya Pt. Mahendra Kumar Shastri will bring out many worthy publications with the active cooperation of various scholars and make thereby the cultural heritage of our nation all the more rich. Kolhapur : 15 August, 1947. A. N. Upadhye, For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KARALAKKHANAM INTRODUCTION Palmistry has been practised in India from very ancient times. References to it are found in the Puranas, in the Pali books of the Buddhist Canon as well as in the Prakrit works of the Jaina Agama. The Sanskrit name for palmistry is “Samudrika” and according to the Agni Purana, it is so called because a teacher by name Samudra had taught it to Garga in ancient times. Varaha Mihira also makes mention of it in his famous treatise on astrology Brihat Samhita in the chapters on Mahapurusha-lakshana (chapters 67-69). Not only that, but the commentator Utpala Bhatta quotes many verses which he has ascribed to Samudra by saying “Yathaha Samudrab”. Jinasena in his Harivamsa Purana mentions Sagara as the author of a book on the characteristics of man (Nara-lakshana) a description of which occupies verses 55 to 107 of chapter 23. Of these thirteen verses from 85 to 97 are devoted to the signs of the hand and their significance, and therefore treat of palmistry in the strict sense of the term. The work now under treatment is a small hand book on palmistry. The only old manuscript that was available to me bears the title of “Samudrika Sastra." But the real name of the work is “Karalakkhanam” as is clear from the opening and the closing verses of the book. The whole work is completed in 61 verses composed in Prakrit Gathas. Its contents may be summarised as follows : In the first verse the author pays homage to Jina Mahavira and proposes to deal with the signs of the hands of men and women. According to verse two, a man gets profit or loss, happiness or sorrow, life or death, victory or defeat, according to the lines (found on the palm of his hand). The signs of men, according to verse 3, should be studied on the right hand, and those of women on the left. The author then deals with the significance of the interval between the fingers (verses 4-5) and of the nature of their joints (verse 6). Then the lines of the wrist are dealt with (verses 7-11), and the five most significant lines denoting learning, family, wealth, beauty and longevity are named and described (verses 12-22 ). The form, shape and colour of the lines are explained in the next three verses (23-25). Then the barley marks below the thumb are treated (verses 26-27), and they are said to indicate the number of brothers, * लक्षणं यत्समुद्रेण गर्गायोक्तं यथा पुरा Agni P. p. 243. For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12 sisters and children which a person may have (verses 28-30). The author then goes on to deal with the section of the palm below the thumb (verses 31-35) and that below the small finger (verses 36-39). Amongst the latter are included some lines which would point out how many wives or husbands the person would have. There are, then, the lines indicating the religious tendencies (Vrata Rekha V. 40), potentialities of research (Margana Rekha V. 41), and pious tendencies (V. 42). The author then goes on to describe the significance of the whirl marks (Bhramara V. 43) and conch marks (Samkha V. 44). The form and colour of the nails are then treated (verse 45), continued by a treatment of the marks of fish, lotus, cross, etc. (verses 46-53). The significance of too many lines or too few lines on the palm is then shown (verse 54). What sort of hand denotes possibilities of service to humanity is then explained (verse 55). How certain specific marks aggravate or assuage, heighten or decrease the effect of other marks and signs is then shown (V. 56). The effect of the life line and family line joining together is then stated (V. 57) and then the effect of the form and make up of the hand as a whole is given (V. 58-59). What lines indicate a would be saint or teacher is then explained (V. 60); and, lastly, the author meekly tells us that his object in writing the book was only to enable religious missionaries to prejudge the potentialities of a person and then only administer the religious oaths and vows to him or her. Unfortunately, the author has not given us anywhere his name or date of the composition; and there is no material at present available to me to determine these with any precision. The language of the work is almost pure Maharashtri Prakrit, there being only the vowels left with or without the Ya-sruti when ta' is dropped; 'tha' never being changed to ‘dha' but always to 'haand und being the past participle absolute termination. The work, small though it be, is valuable as it enriches our knowledge about the literature in Prakrit devoted to technical subjects. I take this opportunity to thank the authorities of the Bharatiya Inana Pitha Kashi, for undertaking to publish this work in their series. King Edward College, Amraoti. April, 1947. P. K. Modi. For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय सूची गाथा 3 ७-११ १४-१५ १७-१८ १९ १. महावीर भगवानको प्रणाम और विषय प्रतिज्ञा २. रेखाओंका महत्त्व . ३. पुरुष और स्त्रीके लक्षण भिन्न हाथों में ४. अंगुलियों के बीच में अंतरका फल । ५. , पर्वोका फल ६. मणिबंध (कलाइ) की रेखाओंका फल .. पंचरेखासे पूर्वकर्मका निर्देश ८. विद्या रेखा ९. कुल " १०. धन , ११. ऊर्ध्व , सन्मान , १३. समृद्धि , १४. आयु , ५५. रेखाओंके स्वरूप और रंगका फल । १६. अंगूठेके नीचे यवोंका फल १७. भाई बहिन बतानेवाली रेखाएँ १८. सन्तान बतानेवाली रेखाएँ १९. अंगूठेके नीचे समफल यवोंका फल .. २०. ,, बीच 'केदार'का फल २१. , केदारको काटनेवाली रेखाओंका फल २२. , मूलमें काकपदका फल .. २३. , बीचमें यवोंका फल २४. पुरुषकी स्त्रियां और स्त्रियोंके पति बतानेवाली रेखाएँ। २५. छोटी अंगुलीके मूलकी रेखाओंका फल २६. धर्म रेखा २७. मार्गण रेखा २८. व्रत रेखा : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : २१-२२ २३-२५ २६-२७ २९-३० ३६-३७ ३८-३९ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाथा ४३ ४६-५२ . २९. भौंरी फल ३०. शंख फल ३१. नखोंके स्वरूप और रंगका फल ३२. मत्स्य, पद्म आदि चिह्नका फल ३३. हाथके बीचमें काकपदका फल ३४. बहुरेखा व बिना रेखावाले हाथका फल ३५. परोपकारी हाथके लक्षण ३६. सूची व अग्निशिखा चिह्नका प्रभाव .. ३७. जीवरेखाके कुलरेखासे मिल जानेका फल ३८. हाथके स्वरूपका फल ३९. आचार्य, उपाध्याय व सूरि बतानेवाली रेखा ४०. ग्रंथ लिखनेका उद्देश १ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर-लक्खणं ( १ ) पणमिय जिणममित्रगुणं गयरायसिरोमणिं महावीरं। वुच्छं पुरिसत्थीणं करलक्खणमिह समासेणं ॥ प्रणम्य जिनममितगुणं गतरागशिरोमणिं महावीरम् । वक्ष्ये पुरुषस्त्रियोः करलक्षणमिह समासेन ॥ अनंत गुणोंके धारक तथा रागके जीतनेवालोंमें शिरोमणि, महावीर जिनेन्द्रको प्रणाम करके, मैं पुरुष और स्त्रियोंके हस्तरेखाओंके लक्षण, संक्षेपमें, बतलाता हूँ। पावइ लाहालाहं सुहदुक्खं जीविग्रं च मरणं च । रेहाहिं जीवलोए पुरिसो विजयं जयं च तहा ॥ प्राप्नोति लाभालाभौ सुखदुःखे जीवितं च मरणं च । रेखाभिः जीवलोके पुरुषः विजयं जयं च तथा ॥ इस जीवलोकमें मनुष्य लाभ और हानि, सुख और दुःख, जीवन और मरण, जय और पराजय रेखाओंके बलसे पाता है। दाहिणहत्थे पुरिसाण लक्खणं वामयम्मि महिलाणं । रेहाहिं सुद्ध णिज्झाइऊण तो लक्खणं सुणहं ॥ दक्षिणहस्ते पुरुषाणां लक्षणं वामके महिलानाम् । रेखाभिः शुद्धं निर्ध्याय तल्लक्षणं शृणुत ॥ पुरुषोंके लक्षण दाहिने हाथ तथा स्त्रियोंके बायें हाथकी रेखाओंको खूब ध्यानसे देखकर ( जाने जाते हैं )। उन लक्षणोंको सुनो। ३, १ प्रतौ 'णिज्झाकुणं' इति पाठः। २ प्रतौ 'जानीहि' इति पाठः । For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २ www.kobatirth.org करलक्खणं हाथोंके स्वरूपका फल वराहमिहिरने इस प्रकार बताया है जिनके हाथ बारसदृश हों वे धनी और जिनके व्याघ्रके समान हों वे पापी होते हैं । ( बृहत्संहिता ६७, ३७ ) ( ४ ) अङ्गुल्यन्तरफलम् बालत्तणम्मि सुलहं पएसिणी - मज्झमंतरघणम्मि । मज्झिम-प्रणामियाणंतरम्मिं तरुणत्तणे सुक्खं ॥ बालत्वे सुलभं प्रदेशिनीमध्यमान्तरधने । मध्यमाऽनामिकयोः अन्तरे सघने तरुणत्वे सौख्यम् || यदि प्रदेशिनी और मध्यकी अंगुलियोंका अंतर सघन हो ( अर्थात् वे एक दूसरे से मिली हों और मिलने से उनके बीच में कोई अन्तर न रहे ) तो बालकपन में सुख होवे । यदि मध्यमा और अनामिका के बीच सघन अंतर हो तो जवानीमें सुख हो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाथ की अंगुलियोंका फल वराहमिहिर ने इस प्रकार बताया है-लम्बी अंगुलियां दीर्घजीवियोंकी, अवलित ( सीधी ) सुभगोंकी, सूक्ष्म ( पतली ) बुद्धिमानोंकी और चपटी दूसरोंकी सेवा करने वालोंकी होती हैं। मोटी अंगुलियों वाले निर्धन और बाहरको झुकी अंगुलियों वाले शस्त्रसे मरने वाले होते हैं । (बृहत्संहिता ६७, ३६-३७ ) विरली अंगुलियों से मनुष्य निर्धन तथा सघनसे धनसंचय करने वाले होते हैं । (बृहत्संहिता ६७, ४३ ) ( ५ ) पावर पच्छा सुक्खं कणिट्ठियाणामितरघणम्मि । सव्वंगुलीघणम्मि होइ सुही धणसमिद्धो ॥ प्राप्नोति पश्चात् सौख्यं कनिष्ठिका ऽनामिकान्तरघने । सर्वाङ्गुलीघने च भवति सुखी धनसमृद्धश्च ॥ ४. १ प्रतौ '० तरणम्मि' इति पाठः । ५. १ प्रतौ 'कनिष्ठिकानामिकयोः अन्तरघने' इति पाठः । For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org करलक्खणं यदि कनिष्ठिका और अनामिकामें सघन अन्तर हो तो बुढ़ापेमें सुख होवे । यदि सभी अंगुलियां सघन हों तो मनुष्य सदा सुखी और धन-सम्पन्न होता है। अगुल्यन्तरफले पर्वणां फलम्सम्मसंगुलिपव्वो पुरिसो धणवं सुही सया होइ। जइ सो अमंसपव्वो ता तस्स सिरी ण संभवइ ॥ समांसाङ्गुलिपर्वा पुरुषः धनवान् सुखी सदा भवति । यदि स अमांसपर्वा तर्हि तस्य श्रीः न संभवति ॥ जिस पुरुषकी अंगुलियोंके पर्व मांसल हों वह धनवान् और सदा सुखी होता है। यदि उसके पर्व मांसल न हों तो उसके धन नहीं होता। वराहमिहिरके अनुसार जिनकी अंगुलियोंके पर्व ( पोर ) लम्बे हों वे सौभाग्यवान् और दीर्घायु होते हैं । ( बृहत्संहिता ६७, ४२ ) मणिबन्धविषये गाथापञ्चकम्धणकणगरयणजुत्तो मणिबंधे जस्स तिरिण रेहायो। . बाहरणविविहभागी पच्छा भदं च सो लहइ ॥ धनकनकरत्नयुक्तः मणिबन्धे यस्य तिस्रः रेखाः । आभरणविविधभागी पश्चात् भद्रं च स लभते ॥ जिसके मणिबंध ( कलाई ) पर तीन रेखाएं हों उसे धान्य, सुवर्ण और रत्नोंकी प्राप्ति होती है, उसे नाना प्रकारके आभूषणोंका उपभोग मिलता है तथा अन्तमें उसका कल्याण होता है। ( ८ ) महुपिंगलाहि सुहिया अविणवया हवंति रत्ताहिं। सुहमाहिं मेहावी सुभगा य समत्तमूलाहि ॥ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं मधुषिङ्गलाभिः सुखिताः अविनष्टव्रताः भवन्ति रक्ताभिः । सूक्ष्माभिः मेधावी सुभगाश्च समत्वमूलाभिः ।।' यदि इन रेखाओंका रंग मधु ( शहद ) के समान पिंगल (लाल कत्था रंग) का हो तो पुरुष सुखी होते हैं, यदि रक्तके समान लाल हों तो उनका कभी व्रत भंग नहीं होता; यदि सूक्ष्म हों तो वे बुद्धिमान होते हैं; तथा यदि उनकी मूल सम हो तो वे सुभग अर्थात् स्वरूपवान् और भाग्यवान् होते हैं। मणिबंधके स्वरूपका फल वराहमिहिरने इस प्रकार बताया है-जिनका मणिबंध ( कलाई ) गठा हुआ और दृढ हो वे राजा होते हैं, ढीला होनेसे हाथ काटा जाता है तथा शब्द उत्पन्न करने वाला हो तो पुरुष दरिद्री होता है । __ (बृहत्संहिता ६७, ३८) तिप्परिखित्ता पयडा जवमाला होइ जस्स मणिबंधे । सो होइ धणाइएणो खत्तिय पुण पत्थिवो होइ॥ त्रिपरिक्षिप्ता प्रकटा यवमाला भवति यस्य मणिबन्धे । स भवति धनाकीर्णः क्षत्रियः पुनः पार्थिवः भवति ॥ जिसके मणिबंधमें यवमालाकी तीन धाराएं हों वह धनसे परिपूर्ण होता है और यदि वह क्षत्रिय हो तो राजा बनता है। . ( १० ) दुप्परिखित्ता रम्मा जवमाला होइ जस्स मणिबंधे। सो हवइ रायमंती विउलमइ ईसरो होई ॥ द्विपरिक्षिप्ता रम्या यवमाला भवति यस्य मणिबन्धे । स भवति राजमन्त्री विपुलमतिः ईश्वरः भवति ॥ - जिसके मणिबंधमें यवमालाकी दो धाराएं हों वह राजमंत्री होता है, और उसमें यदि विशाल बुद्धि हुई तो वह राजा भी बनता है। ( ११ ) इक्कपरिक्खिता पुण जवमाला दीसए सुमणिबंधे । सिट्ठी धणेसरो होइ तह य जणपुज्जियो पुरिसो॥ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कर लक्खणं एकपरिक्षिप्ता पुनः यवमाला दृश्यते स्वमणिबन्धे । श्रेष्ठी धनेश्वरः भवति तथा च जनपूजितः पुरुषः ॥ - और जिसके मणिबंध में यवमालाकी एक ही धारा दिखे वह धनेश्वर सेठ बनता है और सब लोग उसकी पूजा करते हैं । ( १२ ) विज्जाकुलधणरूवं रेहति श्राउ- उडरेहाथो । पंच व रेहा करे जणस्स पयडंति पुव्वकयं ॥ गयी हो विद्याकुलधनरूपं रेखात्रितकं आयुः ऊर्ध्व रेखा । पञ्चापि रेखा करे जनस्य प्रणयन्ति पूर्वकृतम् ॥ पुरुषके हाथकी पंचरेखाएं उसके पूर्वजन्म के कर्मोंको सूचित करती हैं । इनमें तीन विद्या, कुल और धनरूप हैं, एक आयुकी रेखा और एक ऊर्ध्व रेखा । करतल अर्थात् हाथके तलुए के स्वरूपका फल वराहमिहिर ने इस प्रकार बताया है - तलुआ गहराई लिये होनेसे मनुष्य पैत्रिक संपत्ति से वञ्चित रहते हैं, गहराई गुलाई लिये होनेसे धनी होते हैं तथा तलुआ ऊपरको उठा हुआ होनेसे दातार होते हैं । जिनका तलुआ विषम अर्थात् ऊँचा नीचा हो वे निर्धन होते हैं । जिनका लाल हो वे ईश्वर (धनी), जिनका पीला हो वे व्यभिचारी तथा जिनका रूखा हो वे निर्धन होते हैं । ( बृहत्संहिता ६७, ३९-४० ) ( १३ ) विद्यारेखा १२. १ प्रतौ 'पणयंति' इति पाठः । जिनसेनाचार्य ने भी इसी प्रकार लक्षण बतलाये हैं । इतना विशेष है कि वे गहराई लिये तलुवालेको नपुंसक भी कहते हैं । ( हरिवंश पुराण २३, ९१ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथाहि - मणिबंधा रेहा अंगुट्टपरसिणीण मज्झगया । सा कुइ सत्थजुत्तं विणा विक्खणं पुरिसं ॥ मणिबन्धात् रेखा अङ्गुष्ठप्रदेशिन्योः मध्यगताः । स करोति शास्त्रयुक्त विज्ञानविचक्षणं पुरुषम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं भ होकर जो रेखा अंगूठा और प्रदेशिनोके बीच तक उरुषको शास्त्रका ज्ञाता और विज्ञानमें कुशल बनाती है । कुलरेखाविषये गाथायुग्मम्मणिबंधात्रो पयडा पएसिणी जाव जाइ जस रहा। बहुबंधुसमाइण्णं कुलवंसं णिदिसे तस्स ॥ मणिबन्धात् प्रकटा प्रदेशिनी यावत्' याति यस्य रेखा । बहुबन्धुसमाकीर्णं कुलवंशं निर्दिशेत् तस्य ।। मणिबंधसे प्रकट होकर जिसकी रेखा प्रदेशिनी तक जाती है उसकी वह रेखा बहुतसे बंधुओंसे युक्त कुल और वंशकी द्योतक है । ( १५ ) दीहाइ जाण दीहं कुलवंस मडहिनं मडहिआए। वुच्छिण्णाए किरणं जाणसु भिण्णं च भिषणाए । दीर्घया जानीहि दीर्घ कुलवंशं लघुकं लघुकया । व्युच्छिन्नया छिन्नं जानीहि भिन्नं च भिन्नया । यदि यह रेखा दीर्घ हो तो उसका कुल और वंश भी दीर्घ ( अर्थात् पुरानी परम्परा वाला ) जानो। यदि रेखा छोटी हो तो कुल और वंश भी ओछ जानो। और यदि यह रेखा छिन्न हो तो कुलवंश भी व्युच्छिन्न ( विनष्ट ) और भिन्न हो तो भिन्न (विभाजित ) जानो।। धनविषये मणिबंधात्रो पयडा संपत्ता मज्झिमंगुलिं रेहा। सा गुणइ धणसमिद्धं देसक्खायं तमायरियं ॥ मणिबन्धात् प्रकटा सम्प्राप्ता मध्याङ्गुलिं रेखा । सा करोति धनसमृद्धं देशख्यातं तमाचार्यम् ॥ १४. १ प्रतौ 'प्रदेशिनी या च' इति पाठः । २ प्रतौ 'निर्देशयति' इति पाठः। For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org करलक्खणं मणिबंधसे प्रकट होकर जो रेखा मध्यम अंगुलि तक गयी हो को धनसमृद्ध, देशप्रसिद्ध आचार्य (उपदेशक ) बनाती है । ( १७ ) अक्खंडा अप्फुडिया पल्लवा यया विणा य । इका वि उडरेहा सहस्सजणपोसिणी भणिया || अखण्डा अस्फोटिता अपल्लवा आयता अच्छिन्ना च । एकाषि, ऊर्ध्वरेखा सहस्रजनपोषिणी भणिता || एक ही ऊर्ध्वरेखा. यदि वह अखंड हो, फूटी न हो, उसमें शाखायें न हो, चौड़ी हो और छिन्न न हो, तो हजार मनुष्योंके भरणपोषणकी योग्यता रखती है । ( १८ ) विप्पाणं वेदकरी रजकरी खत्तिया सा भणिया । वेसा अत्थरी सुक्खकरी सुद्दलोचाणं ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विप्राणां वेदकरी राज्यकरी क्षत्रियाणां सा भणिता । वैश्यानाम् अर्थकरी सौख्यकरी शूद्रलोकानाम् ॥ यही रेखा विप्रोंको वेदज्ञाता बनानेवाली है, क्षत्रियोंको राज्य दिलानेवाली है, वैश्योंको धनका लाभ करानेवाली है और शूद्रलोगोंको सुख उपजानेवाली कही गयी है । ( १९ ) मणिबंधा पडा संपत्तमणामिअंगुलिं रेहा । सा कुणइ सत्थवाहं नरवइसयपुज्जियं पुरिसं ॥ मणिबन्धात् प्रकटा सम्प्राप्ता अनामिकाङ्गुलिं रेखा । सा करोति सार्थवाहं नरपतिशतपूजितं पुरुषम् ॥ मणिबंधसे प्रकट होकर जो रेखा अनामिका तक जाती है वह पुरुषको सार्थवाह, अर्थात् किसी दलका नायक (अगुआ), बनाती है जिसकी सैकड़ों नरेश पूजा करते हैं । १७- १ प्रतौ 'पोसणी' इति पाठः । २ प्रतौ 'पोषणा' इति पाठः । For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org करलक्खणं ( २० ) ऊर्ध्व रेखाविषये गाथा - मणिबंधा पडा पत्ता चरिमंगुलिं तु जा रहा । साकुड़ जससमिद्धिं सिद्धिं वा विभवसंजुत्तं ॥ मणिबन्धात् प्रकटा प्राप्ता चरमाङ्गुलिं तु या रेखा । सा करोति यशः समृद्धिं श्रेष्ठिनं वा विभवसंयुक्तम् ॥ मणिबंधसे प्रकट होकर जो रेखा अन्तिम अर्थात् छोटी अंगुलि तक जाती है वह खूब यश दिलाती है और यदि पुरुष सेठ हो तो उसका खूब विभव बढ़ती है । ( २१ ) आयुरेखाफलम् - बीसं तीसं चत्ता पणासं सहि सत्तरिं असि । एउयं कणट्टियाऊ पएसिणं जाव जाणिज्जा ॥ विंशतिः त्रिंशत् चत्वारिंशत् पंचाशत् षष्टिः सप्ततिः अशीतिः । नवतिः कनिष्ठिकायाः आयुः प्रदेशनीं यावत् जानीयात् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनिष्ठिकासे लगाकर प्रदेशिनी तक रेखाके अनुसार बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी और नब्बे वर्षकी आयु जानो । अर्थात् छोटी अंगुली के प्रारम्भमें समाप्त हो जाने वाली रेखा बीस वर्षकी आयु सूचित करती है और उसके अंत तक जाने वाली तीस वर्ष की । इसी प्रकार अनामिकाके प्रारम्भ तक जाने वाली चालीस और अन्त तक जाने वाली पचास वर्षकी आयु बतलाती है । मध्यमा प्रारम्भ तक जाने वाली रेखासे साठ और अंत तक जाने वालीसे सत्तर वर्षकी आयुका बोध होता है, तथा प्रदेशिनीके प्रारम्भ तक अस्सी और अंत तक नब्बे वर्षकी आयु मानी जाती है । ( २२ ) काणंगुलीइ रेहा पएसिणं लंघिऊण जस्स गया । अखंडिया अफुडिया वरिसाए सयं च सो जियइ ॥ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २ www.kobatirth.org - कर लक्खणं कनीनिकाङ्गुलिरेखा प्रदेशिनीं लङ्घयित्वा यस्य गता । अखण्डिता अस्फुटिता वर्षाणां शतं च स जीवति ॥ कनीनिकासे चलने वाली जिसकी रेखा प्रदेशिनीको पार कर जाती है और अखंडित हो, फूटी न हो, वह सौ वर्ष जीता है । ( २३ ) द्वारगाथा पल्लवा विच्छिणा विरला विसमा य सिद्दिसे रेहा | हरिया फुडित्र विवरणा नीला रुक्खा तहा चेव || पल्लविता विच्छिन्ना विरला विषमा च निर्दिशेत् रेखा । हरिता स्फुटिता विवर्णा नीला रूक्षा तथा चैव ॥ रेखाके स्वरूप इस प्रकार बताये गये हैं- पल्लवित, विच्छिन्न, विरल, विषम, हरित, स्फुटित, विवर्ण, नील और रूक्ष । ( २४ आयुर्धनरेखा पल्लविया सकिलेसा विवरणा सु पावए महादुक्खं । विरला धणव्वयकरी पीइधणं णत्थि विसमासु ॥ पल्लविता सक्लेशा विच्छिन्नासु प्राप्नोति महादुःखम् । विरला धनव्ययकरी नीतिधनं नास्ति विषमासु || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पल्लवित रेखा क्लेशदायिनी होती है, विच्छिन्न रेखा महादुःख पहुँचाती है, विरल रेखा धनका व्यय कराती है और विषमसे नीतिपूर्वक अर्जित धन नहीं होता । ( २५ ) हरियासु चोरियधणं फुडि विवरणा बंधणमुवे पीला frogsणो' रुक्खासु मिभोगभागी हरितासु चौर्यधनं स्फुटितविवर्णासु बन्धनमुपैति । नीला निर्विण्णः रूक्षासु मितभोगभागी च ॥ । For Private and Personal Use Only | २३- १ प्रतौ 'णिह से' इति पाठः । २ प्रतौ 'निर्दिशति' इति पाठः । ३ प्रतौ 'एवम्' इति पाठः । २५- १ प्रतौ 'णिवुईष्णो' इति पाठः । १८ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं हरितसे धन चोरी चला जाता है, ( अथवा चोरीका धन मिलता है); स्फुटित और विवर्णसे बंधन अर्थात् गिरफ्तारी भोगना पड़ता है, नीलसे निर्विण्ण अर्थात् उदास रहता है और रूक्षसे परिमित भोग भोगनेको मिलते हैं । ___वराहमिहिरके अनुसार चिकनी और गहरी रेखाएं धनी पुरुषोंकी तथा इससे विपरीत निर्धनोंकी होती हैं । ( बृहत्संहिता ६७, ४३ ) ( २६ ) अगुष्ठफलसम्बन्धिरेखाविषये गाथानवकम् अङ्गुष्ठस्य मणिबन्धफलम्अंगुट्ठयस्य मूले या तिपरिखित्ता समे जवे जस्स । सो होइ धणाइण्णो खत्तिय पुण पत्थिश्रो होइ । अङ्गुष्ठकस्य मूले या त्रिपरिक्षिप्ताः समा यवाः यस्य । । स भवति धनाकीर्णः क्षत्रियः पुनः पार्थिवः भवति ॥ अंगूठेके मूलमें जिसके तीन समान यव हों वह धनवान होता है, और यदि क्षत्रिय हो तो राजा.बनता है। (२७ ) - दुप्परिक्खित्ताइ पुणो णरवइसमपुज्जित्रो गरो होइ। एगपरिक्खित्ताए जवमालाए धणेसरो होइ ॥ द्विपरिक्षिप्तया पुनः नरपतिशतपूजितः नरः भवति । एकपरिक्षिप्तया यवमालया धनेश्वरः भवति ॥ यदि दो यव हों तो पुरुष सैकड़ों नरेशोंसे पूजा जाता है, और यदि एक ही यवमालाकी धारा हो तो वह धनेश्वर होता है। वराहमिहिरने अंगूठेके यवोंका फल इस प्रकार बताया है--अंगूठेके बीचके यवोंसे मनुष्य धनी और अंगूठेके मूलके यवोंसे पुत्रवान् होता है। ( बृहत्संहिता ६७, ४२) ( २८ ) अंगुट्टयस्स मूले जत्तिअमित्ताउ थूलरेहायो। ते इंति भाविश्रा किर तणुप्राहिं होंति बहिणीश्रो॥ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं अङ्गुष्ठकस्य मूले यावन्मात्राः स्थूलरेखाः । ते भवन्ति भ्रातरः किल तन्वीभिः भवन्ति भगिन्यः ॥ अंगूठेके मूल में जितनी स्थूल रेखाएँ हों उतने भाई होते हैं और जितनी सूक्ष्म रेखाएँ हों उतनी बहिन होती हैं। ( २९ ) पुत्रपुत्रिकाविषयेअंगुट्ठयस्य हिढे रेहाश्रो जस्स जत्तिा हुँति । तत्तिमित्ता पुत्ता तणुप्राहिं दारिया हुंति ॥ अङ्गुष्ठकस्य अधः रेखाः यस्य यावन्त्यः भवन्ति । तावन्मात्राः पुत्राः तन्वीभिः दारिकाः भवन्ति ॥ अंगूठेके अधोभागमें जिसके जितनी रेखाएँ हों उसके उतने ही पुत्र होते हैं । यदि रेखाएँ सूक्ष्म हों तो उतनी लड़कियाँ होती हैं। जत्तियमित्ता छिण्णा भिण्णा ते दारिश्रा मुत्रा जाण । अच्छिण्णा अभिण्णा जीवंति अ तत्तिा तणुश्रा॥ यावन्मात्राः छिन्नाः भिन्नाः ता दारिका मृताः जानीहि । अच्छिन्नाः अभिन्ना जीवन्ति च तावन्तः तनुजाः ॥ जितनी रेखाएँ छिन्न भिन्न हों उतनी सन्ताने मृत जानो। जितनी रेखाएँ अच्छिन्न और अभिन्न हों उतने बालक जीते हैं। अंगुट्ठयस्य हिढे अखंडे समफले जवे जस्स । तस्स य खाणं पाणं मल्लं सव्वत्थ संपयडइ ॥ अङ्गुष्ठकस्य अधः अखण्डः समफलः यवो यस्य । तस्य च खानं पानं माल्यं सर्वत्र संप्राप्नोति ॥ अंगूठेके अधोभागमें जिसके अखंड और समफल यव हों उसे खानपान और माला ( सन्मान ) सर्वत्र मिलते हैं । ३१-१ प्रतौ 'संप्रजायते' इति पाठः । For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं ( ३२ ) अंगुट्ठयस्स मज्झ केदारं जइ हविज पुरिसस्स । सो होइ सुक्खभागी पावइ पुण खत्तिश्रो रज्जं ॥ अङ्गष्ठकस्य मध्ये केदारं भवेत् पुरुषस्य । स भवति सौख्यभागी प्राप्नोति पुनः क्षत्रियः राज्यम् ॥ अंगूठेके मध्यमें यदि केदार होवे तो वह पुरुष सुखभोग पाता है। और यदि क्षत्रिय होय तो राज्य पावे । केप्रारमइगयाश्रो रेहायो जत्तिाउ दीसंति । तित्ताइं बंधणाई पावइ अत्थक्खयं पुरिसो॥ केदारमतिगताः रेखाः यावन्त्यः दृश्यन्ते । तावन्ति बन्धनानि प्राप्नोति अर्थक्षयं पुरुषः ।। - केदारको काटकर जाती हुई जितनी रेखाएँ दिखें, पुरुष उतने ही बार गिरफ्तारी ( जेलखाना ) भोगे और धनका क्षय हो। अंगुट्टयस्य मूले कागपयं होइ जस्स पुरिसस्स । सो पच्छिमम्मि काले सूलेण विवजए पुरिसो॥ ___अङ्गुष्ठकस्य मूले काकपदं भवति यस्य पुरुषस्य । स पश्चिमे काले शूलेन विपद्यते पुरुषः ॥ जिस पुरुषके अंगूठेके मूलमें काकपद हो वह बुढापेमें शूली पाकर मरे । ( ३५ ) दाहिणहत्थंगुट्ठयमज्झे अ जवेण जाण दिण जायं । वामंगुट्ठजवेणं णूणं जाणिज णिसि जायं ॥ दक्षिणहस्ताङ्गुष्ठकमध्ये च यवेन जानीहि दिने जातम् । वामाङ्गुष्ठयवेन नूनं जानीयात् निशि जातम् ॥ दाहिने अंगूठेके मध्यमें यव होय तो दिनमें उसका जन्म हुआ है ऐसा जानो, और बायें अंगूठेके यवसे रात्रिका जन्म समझो । For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं १३ ( ३६ ) काणाङगुलि-अधस्तनरेखाफलम्काणंगुलीइ हिढे रेहाश्रो जस्स जत्तिश्रा इंति। तत्तियमित्ता महिला महिलाण वि तत्तिश्रा पुरिसा॥ कनिष्ठाङ्गुलेः अधः रेखाः यस्य यावन्त्यः भवन्ति । तावन्मात्राः वनिताः वनितानामपि तावन्तः पुरुषाः ॥ कनिष्ठिका अंगुलीके नीचे जिसके जितनी रेखाएँ हों उसके उतनी ही स्त्रियां होती हैं और स्त्रियोंके उतने ही पुरुष होते हैं। ( ३७ ) दीहाहि कोमारी धरिया फलिपाहि तो विश्राणिजा । सुण्णाहि असोहग्गं फुडिअाहिं विइ हवे जाण ॥ दीर्घाभिः कुमारिका धृता फलिताभिः विजानीयात् । । शून्याभिः असौभाग्यं स्फुटिताभिः व्रती भवेत् जानीहि ॥ यदि ये रेखाएं दीर्घ हों तो जानो कुमारी-पाणिग्रहण हो, यदि फलित हों तो भी यह फल जानो। यदि शून्य हों तो असौभाग्य जानो और फूटी हों तो व्रती होना जानो। ( ३८ ) काण-अगुलिमूलरेखाफलम्काणंगुलिमूलोवरि रेहाश्रो जस्स तिषिण चत्तारि । सो होइ पुण्णभागी रायाईणं पि णमणिज्जो ॥ ___ कनिष्ठाङ्गुलिमूलोपरि रेखाः यस्य तिस्रः चतस्रः । स भवति पुण्यभागी राजादीनामपि नमनीयः ॥ कनिष्ठिका अंगुलीके मूलमें जिसके तीन या चार रेखाएं हों वह बड़ा पुण्यभागी होता है, राजा आदिक भी उसे नमस्कार करते हैं । ( ३९ ) जइ ताउ दाहिणकरे आमूलाग्रो वि होइ जणपुज्जो। अह वामे तो पच्छा सव्वेसि सेवणिजइयो॥ For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं यदि ताः दक्षिणकरे आमूलतः अपि भवन्ति जनपूज्यः । अथ वामे तत्पश्चात्सर्वेषां सेवनीयः ( सेवकः ) ॥ यदि ये रेखाएँ दाहिने हाथमें हों तो प्रारम्भसे ही लोग उसकी पूजा करें और यदि बायें हाथमें हों तो पीछे अर्थात् बुढ़ापेमें सब लोग उसकी सेवा करें। व्रतरेखाफलविषये गाथाजिट्ठाप्रणामित्राणं मझायो णिग्गयाउ वयरेहा । तम्मूले जाश्रो पुण ताश्रो इह धम्मरेहाश्रो॥ ज्येष्ठानामिकयोः मध्ये निर्गता. व्रतरेखाः । तन्मूले याः पुनः ताः इह धर्मरेखाः ॥ ज्येष्ठा और अनामिकाके बीचसे निकलने वाली 'व्रतरेखाएँ कहलाती हैं, तथा जो उनके मूल में प्रकट होती हैं वे 'धर्मरेखाएँ' कहलाती हैं। ( ४१ ) मार्गणरेखातासुवरि तिरित्था जा सा पुण मग्गत्तणे भवे रेहा । अप्फुडिआपल्लवदीहराहिं सो चेव तत्थ थिरो॥ तस्याः उपरि तिर्यवस्था या सा पुनः मार्गत्वेन भवेत् रेखा । अस्फुटितापल्लवितदीर्घाभिः स एव तत्र स्थिरः ॥ धमरेखाके ऊपर जो तिरछी रेखा हो वह 'मार्गण' अर्थात् खोज करने वाले की सूचक रेखा है । जिसके यह अस्फुटित, अपल्लवित और दीर्घ हो वह उसी कार्यमें स्थिर रहे। ( ४२ ) कुलरेहाए उवरि मूलम्मि पएसिणीइ जा रहा। गुरुदेवसमरणं तस्स सा वि णिदेसइ पुरिसस्स ॥ __ कुलरेखायाः उपरि मूले प्रदेशिन्याः' या रेखा । गुरुदेवस्मरणं तस्य सापि निर्दिशति पुरुषस्य ॥ ४२-१ प्रतौ 'प्रवेशिनी' इति पाठः । For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं कुल रेखाके ऊपर, प्रदेशिनीके मूलमें, जो रेखा हो वह उस पुरुषके गुरु और देवताका स्मरण रहेगा यह बतलाती है । ( ४३ ) अङ्गलि-अङ्गुष्ठाग्रस्थभ्रमराणां फलम्अंगुलिअंगुठुवरिं हवंति भमराउ दाहिणावत्ता। धणभागी जणपुज्जो धम्ममई बुद्धिमंतो अ॥ अङ्गुल्यङ्गुष्ठोपरि भवन्ति भ्रमराः दक्षिणावर्ताः । धनभागी जनपूज्यः धर्मरतिः बुद्धिमान् च ॥ अँगुलियों और अंगूठेके ऊपर जिसके दाहिनी ओर घूमने वाली भौंरी हो वह धनका भोग करनेवाला, लोगोंमें पूज्य, धर्ममें मति रखने वाला और बुद्धिमान् होवे। ( ४४ ) पावइ पच्छा सुक्खं पच्छिममुहसंठिए सुणह संखे । अभंतराणणे पुण होहीसि णिरंतरं सोक्खं ॥ प्राप्नोति पश्चात् सौख्यं पश्चिममुखसंस्थितः शृणु शङ्खः । अभ्यंतरानने पुनः भविष्यति निरन्तरं सौख्यम् ॥ यदि अंगुलियों और अंगूठेपर पश्चिममुख स्थित शंख हो तो बुढ़ापेमें सुख मिले और यदि शंखका मुख भीतर को हो तो निरंतर सुख मिले । ___( ४५ ) नखानां फलम्मज्झुण्णया य सोणा अप्फुडिया जस्स हुति करणहरा। सो राया धणवंतो विज्जाहिवई पसिद्धो अ॥ मध्योन्नताः च श्रोणा अस्फुटिताः यस्य भवन्ति करनखाः । स राजा धनवान् विद्याधिपतिः प्रसिद्धश्च ॥ जिसके हाथके नख बीचमें उठे हुए, लाल और अस्फुटित हों वह राजा होय, धनवान् होय, विद्यावान् होय और प्रसिद्ध होय । For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं वराहमिहिरने नखोंके स्वरूपका फल इस प्रकार बताया है-जिनके नख तुषके समान ( अर्थात् धानके वल्कलके समान बहुरेखायुक्त और रूखे ) हों वे नपुंसक होते हैं, जिनके चपटे और फटे हों वे धनहीन, जिनके बुरे विवर्ण ( आभा रहित ) हों वे परमुखापेक्षी तथा जिनके ताम्रवर्ण हों वे सेनापति होते हैं । ( बृहत्संहिता ६७, ४१) ( ४६ ) मत्स्यादिफलविषये गाथासप्तकम् - बाहिरमुहसंठाणे मच्छपये' मीनसे (?) फलं होइ। अभंतराणणे पुण होहत्ति णिरंतरं सुक्खं ॥ बहिर्मुखसंस्थाने मत्स्यपदे मीनसे (१) फलं भवति । अभ्यन्तरानने पुनः भविष्यति निरन्तरं सौख्यम् ॥ यदि बाहरको मुख किये हुए मछलीका चिह्न हो तो बुढ़ापेमें (१) फल दे और यदि भीतरको मुखवाली मछली हो तो निरन्तर सुख होवे । ( ४७ ) वरपउमसंखसत्तियभदासणकुंकुमत्थिभयकुंभं। वसहगयछत्तचामर दीसहइ वज्जं च मगरं च ॥ वरपद्मशङ्खस्वस्तिकभद्रासनकुङ्कुमजलकुम्भाः । वृषभगजछत्रचामराणि दृश्यते वज्रं च मकरश्च ।। ( ४८ ) तोरण-विमाण-केऊ जस्सेए होंति करयले पयडा। तस्स पुण रज्जलाहो होही अचिरेण कालेण ॥ तोरणविमानकेतवः यस्य एते भवन्ति करतले प्रकटाः । तस्य पुनः राज्यलाभः भवति अचिरेण कालेन ॥ श्रेष्ठ पद्म, शंख, स्वस्तिक, भद्रासन, कुंकुम, जलकुंभ, बैल, गज, छत्र, चामर, वज्र, मगर, तोरण, विमान और केतु ये जिसके करतलमें दिखायी पड़ें उसे बहुत शीघ्र राज्य मिले। ४६-१ प्रतौ 'संठाणयम्मि मच्छपय' इति पाठः । ४४-१ प्रतौ 'वज्जमगरं च' इति पाठः। For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org करलक्खणं ( ४९ ) पानं कुंते सोभग्गभोयलाहं च । मच्छे दामेण जुवल सिंहे सेावई होइ ॥ मत्स्येन अन्नपानं कुन्तेन सौभाग्यं भोगलाभं च । दाम्ना ऋजुबलित्वं सिंहे सेनापतिः भवति ॥ मछली अन्नपान मिलता है, कुन्त अर्थात् भालेसे सौभाग्य और भोगोंका लाभ, मालासे खूब बल तथा सिंहसे सेनापति होता है । ( ५० ) होइ धणं धरणं व अ आ वसहे वि सत्थए सुक्खं । चक्केण होइ वरसर सरवत्थे इच्छया भोया ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवति धनं धान्यमपि च आज्ञा वृषभेऽपि स्वस्तिकैः सौख्यम् । चक्रेण भवति वरश्रीः श्रीवत्से ईप्सिताः भोगाः ॥ बैल के चिह्न से धन-धान्य और आज्ञा ( हुकूमत ) मिलते हैं । स्वस्तिक से सुख, चक्र से उत्तम लक्ष्मी और श्रीवत्ससे इच्छित भोग । ( ५१ ) रजाभिसे पट्टे पावs भद्दासणं भवे जस्स । पावइ अांतसोक्खं गयचामरवज्जुबत्तेहिं ॥ ; वराहमिहिर के अनुसार वज्राकार रेखाओंसे मनुष्य धनी होता है; मीनपुच्छसे विद्यावान् शंख, छत्र, शिविका, गज, अश्व और पद्माकार रेखाओंसे राजा ; कलश, मृणाल, पताका, अंकुशाकार रेखाओंसे ऐश्वर्यवान् ; चक्र, असि, परशु, तोमर, शक्ति, धनुष और कुन्तके आकारवाली रेखाओं से सेनापति ; ऊखलाकारसे यज्वान; मकर, ध्वजा, कोष्ठागारके आकार से महाधनी वेदीसदृशसे अग्निहोत्री और वापी, देवकुलादि त्रिकोणाकार रेखाओंसे धर्मवान् होता है । ( बृहत्संहिता ६७, ४४-४८ ) राज्याभिषेकपट्ट ं प्राप्नोति भद्रासनं भवेद् यस्य । प्राप्नोति अनन्तसौख्यं गजचामरवज्रछत्रैः ॥ १७ जिसके भद्रासनका चिह्न हो वह राज्याभिषेकपट्ट पावे; तथा गज, चामर, वज्र और छत्र चिह्नोंसे अनन्त सुख पावे | ३ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं मयरेण सहस्सधणं पउमे पुण लक्खधणवई होइ। संखेण दहकोडिवई चक्कण णिहीसरो होइ ॥ मकरेण सहस्रधनं पद्मन पुनः लक्षधनपतिः भवति । शवेन दशकोटीपतिः चक्रेण निधीश्वरः भवति । मगरसे हजारोंका धन मिले ; तथा पद्मसे लाखोंका धनपति होय । शंखसे दश करोडका स्वामी होय और चक्रसे निधीश्वर हो जाय । ___जघन्यफलविषये गाथाद्वयम्कागपयं च सुलिहिअं करस्स मज्झम्मि दीसए जस्स । खिप्पं सो धणमाइ पुणो वि णासइ खणे दव्वं ॥ काकपदं च सुलिखितं करस्य मध्ये दृश्यते यस्य । क्षिप्रं स धनमर्जयति पुनरपि नाशयति क्षणे द्रव्यम् । जिसके हाथके बीच स्पष्ट 'काकपद' लिखा दिखता हो वह जल्दी धन कमायेगा और फिर जल्दी ही गमायेगा। हुँति धणा वि हु अधणा बहुरेहारेहिएहिं हत्थेहिं । आलिअकरा मणुस्सा परपीडपरायणा हुति॥ ___भवन्ति धनाः अपि खलं अधनाः बहुरेखारेखितैः हस्तैः । अरेखाकरा मनुष्याः परपीडापरायणाः भवन्ति । बहुरेखावाले हाथोंसे धनी भी निधन हो जाते हैं; तथा जिनके हाथमें रेखाएं नहीं हैं वे मनुष्य दूसरोंको पीडा देनेमें तत्पर रहते हैं । फुडिया पगूढगुप्पा विरलंगुलिविसमपब्वसंपण्णा। णिम्मंसा कठिणतला एए परकम्मकरा होंति ॥ स्फुटिताः प्रगूढगुल्माः विरलाङ्गुलिविषमपर्वसम्पन्नाः । निर्मासा कठिनतलाः एते परकर्मकराः भवन्ति ॥ ५४. १ प्रतौ 'स्फुटं' इति पाठः। For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org करलक्खणं जो हाथ फैले फटे हों, जिनके गुल्म खूब गठे हुए हों, अंगुलियां विरली और विषमपर्व हो, जो बहुत मांसवाले न हों और जिनका तलुआ कड़ा हो वे हाथ दूसरोंके कार्य करनेवाले (अर्थात् परोपकारी या नौकरी करनेवाले) होते हैं। धनादिरेखाविषयेसूई अग्गिसिहा वा सत्ति वा सिरी भजए जस्स । धणसाउरेहं तारिसयं णिदिसे तस्स ॥ सूची अमिशिखा वा शक्तिः वा श्री: भज्यते यस्य । धनवंशआयुरेखाभिः तादृशं निर्दिशेत्' तस्य ॥ सूची या अग्निशिखा या शक्ति या श्री जिसके हाथमें विभाजित पड़ी हो उसकी धन, वंश और आयुकी रेखाएँ उसी अनुसार फल बताती हैं। ( ५७ ) धनविषयेजिअरेहाउ कुलरेहमागया जस्स होइ अखंडा। रेहा अप्फुडिया से धणवुड्डी होइ पुरिसस्स ॥ जीवरेखा कुलरेखामागता यस्य भवति अखण्डा । रेखा अस्फुटिता तस्य धनवृद्धिः भवति पुरुषस्य ॥ जिसकी जीवरेखा कुलरेखासे आ मिली हो और अखंड हो, तथा रेखा फूटी न हो, उस पुरुषके धनवृद्धि होती है । ( ५८ ) सामान्यहस्तरेखाफलम्वरपउमपत्तसरिसा अच्छिण्णा मंसला य संपुण्णा। ससणिद्धरत्तरेहा धणकणगपडिच्छिा हत्था ॥ वरपद्मपत्रसदृशाः अच्छिन्नाः मांसलाः च सम्पूर्णा । सस्निग्धरक्तरेखा धनकनकप्रतीप्सकाः हस्ताः ॥ जो हाथ उत्तम कमलपत्रके समान, अच्छिन्न, चिकने, संपूर्ण तथा चिकनी और लाल रेखाओं वाले हों वे धान्य और सुवर्णके ग्राहक होते हैं। ५६. १ प्रतौ 'निर्दिशति' इति पाठः। ५७.१ प्रतौ 'जिअलोहा' इति पाठः। २. प्रतौ 'अस्फुटिताः' इति पाठः। For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं ( ५९ ) पूति पाणिरेहा णिद्धा जा होति पउमसंकासा। अक्खंडांजलिणिद्धा अच्छिण्णा कोमला जस्स ॥ पूजयन्ति पाणिरेखाः स्निग्धाः याः भवन्ति पद्मसङ्काशाः । अखण्डाञ्जलिस्निग्धाः अच्छिन्नाः कोमलाः यस्य ॥ जिसकी हस्तरेखाएँ कमलके समान स्निग्ध, अखंड, अच्छिन्न और कोमल होती हैं, वे पूजी जाती हैं। वाचनाचार्यादिपदसूचिका गाथासो हवइ वायणारी कणिट्ठियाहिडिमागया जवा जस्स । उज्झाउ अणमित्राए जिट्टाहिट्ठायतो सूरी॥ स भवति वाचनाचार्यः कनिष्ठिकाधः आगताः यवाः यस्य । उपाध्यायः अनामिकया ज्येष्ठाधः आयतः सूरिः । जिसकी कनिष्ठिकाके नीचे यव निकल आये हों यह वाचनाचार्य होता है, अनामिकाके नीचे यव निकलनेसे उपाध्याय और ज्येष्ठाके नीचे यव निकलनेसे सूरि होता है। ( ६१ ) इय करलक्खणमेयं समासो दंसिनं जइजणस्स । पुव्वायरिएहिं णरं परिक्खिऊणं वयं दिज्जा॥ इति करलक्षणमेतत् समासतः दर्शितं यतिजनस्य । पूर्वाचार्यैः नरं परीक्ष्य व्रतं दीयेत ॥ इस प्रकार पूर्वाचार्योंने यतियोंको करलक्षण, संक्षेपमें, बताये हैं। इनके द्वारा मनुष्यकी परीक्षा करके व्रत देना चाहिये । इति करलक्षणम् । * इति सामुद्रशास्त्रं समाप्तम् * For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका चक ५०, ५२ चामर ४७, ५१ चोरित धन २५ छत्र ४७, ५१ छिन्न १५ अखंड १७, २२, ३१ अग्निशिखा ५६ अच्छिन्न १७, ५८, ५९ अनामिका ४, १९, ४०, ६० अपल्लव १७, ४१ अभ्यन्तरानन ४४, ४६ अर्थकरी १८ अर्थक्षय ३३ अस्फुटित १७, २२, ४१, ४५, ५७ अंगुलि ५, २०, ४३ अंगुष्ठ १३, २६, २८, २९, ३१, ३२, ३४, ३५, ४३ अंतरघन ४, ५ आ आचार्य १६ आयत १७ आयु १२, ५६ जीव रेखा ५७ ज्येष्ठा ४०, ६० तनुरेखा २८ तिर्यस्था ४१ तोरण ४८ - दक्षिणावर्त ४३ दाम ४९ दारिका २९, ३० दीर्घ ४१ ctor ईश्वर १० . उपाध्याय ६० 45 धन १२, २४, २५, ५६ । धन व्यय २४ धनेश्वर ११, २७, ५२ धर्मरेखा ४० ऊर्ध्वरेखा १२, १७ is नख ४५ निर्मास ५५ निविण्ण २५ नीति २४ नील २३, २५ कनिष्ठिका ५, २१, ६० करलक्षण १, ६१ काकपद ३४, ५३ काणंगुलि २२, ३६, ३८ कुल १२, १४, ५७ कुलरेखा ४२ कुंकुम ४७ कुन्त ४९ कुम्भ ४७ केदार ३२, ३३ कोमल ५९ क्रोडपति ५२ पद्म ४७, ५२, ५७, ५८, ५९ परिक्षिप्त ९, १०, ११, २६, २७ पर्व ६, ५५ पल्लवित २३, २४ पश्चात् ३९, ४४ पश्चिम काल ३४ पश्चिम मुख ४४ प्रदेशिनी ४, १३, १४, २१, २२, ४२ पार्थिव ९, २६ प्राणरेखा ५९ गज ४७, ५१ गुरुदेवस्मरण ४२ गुल्म ५५ For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ पुत्र २९ पूर्वकर्म १२ पूर्वाचार्य ६१ बहिर्मुख ४६ बंधन २५, ३३ बंधु १४ वाचनाचार्य ६० विच्छिन्ना २३, २४ विद्या १२ विप्र १८ विभव २० विमान ४८ विरला २३, २४ विरलांगुलि ५५ विवर्ण २३, २५ विषमा २३, २४, ५५ विज्ञान १३ वेदकरी १८ वैश्य १८ भगिनी २८ भद्रासन ४७, ५१ भ्रमर ४३ भ्राता २८ भिन्न १५ श मकर ४७, ५२ मणिबंध ७, ९, १०, ११, १३, १४, १६, १९ मत्स्य ४९ मधुपिंगल ८ मध्यमा ४, १६ महादुःख २४ मार्गत्व ४१ मांसल ५८ मीन ४६ मूल ४० शक्ति ५६ शंख ४७,५२ शास्त्र १३ शूद्र १८ शून्य ३७ शूल ३४ श्री ५६ श्रीवत्स ५० श्रेष्ठी ११, २० यति ६१ यव २६, ३१, ३५, ६० यव माला ९, १०, ११, २७ रक्त८,५८ राजमंत्री १० राज्य ३२ राज्यकरी १८ रूक्ष २३, २५ रेखात्रिक १२ समत्वमूल ८. समास ६ संपूर्ण ५८ सिंह ४९ सुखकरी १८ सूची ५६ सूरि ६० सूक्ष्म ८ सोण ४५ स्वस्तिक ४७, ५० स्फाटित ३७ स्निग्ध ५८, ५९ स्फुटित २३, २५, ३७, ५५ स्थूल रेखा २८ हरित २३, २५ लक्षण ३ लक्षपति ५२ वज्र ४७, ५१ वंश १५, ५६ व्रत ६१ व्रतरेखा ४० वृषभ ४७, ५० Ap क्षत्रिय ९, १८, २६, ३२ For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय ज्ञानपीठ काशी के प्रकाशन [प्राकृत ग्रन्थ] १ महाबन्ध-(महाधवल सिद्धान्त शास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टीका सहित । पक्की जिल्द । कवर पर बाहुबलि का सुन्दर चित्र । द्वादशाङ्ग से साक्षात् सम्बन्ध रखने वाली, भगवंत भूतबलि की सैद्धान्तिक कृति, जिसकी समाज सदियों से प्रतीक्षा कर रहा था । सं०-६० सुमेरुचन्द्र दिवाकर शास्त्री । ग्रन्थ साइज के पृ० ४५० । मूल्य १२) २ करलक्खण--(सामुद्रिक शास्त्र ) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञान का नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । ग्रन्थ साइज के पृ० ४० । मूल्य १) [ संस्कुत ग्रन्थ ] ३ मदनपराजय-कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेव के काम के पराजय का सरस रूपक । स्वाध्याय के योग्य । सम्पादक और अनुवादक-पं० राजकुमार जी साहित्याचार्य । ग्रन्थ साइज के पृ० २३० । मूल्य ८). [हिन्दी ग्रन्थ ] ४ जैनशासन-जैनधर्म का परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्दू विश्वविद्यालय के जैन रिलीजन के एफ० ए० के पाठ्यक्रम में निर्धारित । कवरपर महावीर स्वामी का तिरंगा चित्र । लेखक-t० सुमेरुचन्द्र दिवाकर शास्त्री । पृ० ४२० । मूल्य ४/-) ५ हिन्दी जैन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास तथा परिचय | लेखक-कामता प्रसाद जैन | पृ० २८८ । मूल्य २||-) ६ अाधुनिक जैन कवि-वर्तमान कवियों का कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । सं० रमा जैन | . पृ० २९६ । मूल्य ३।।) ७ मुक्तिदूत-अञ्जना-पवनञ्जय का पुण्य चरित्र (पौराणिक रोमांस) लेखक-वीरेन्द्रकुमार जैन. एम. ए. । लेखक ने इस उपन्यास में अपनी आत्मा उड़ेल दी है। पृ० ३४० । मूल्य ४|||) ८ दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ-( जैन कहानियाँ ) लेखक-डा. जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए. पी-एच. डी. | पृ० २१२ । व्याख्यान तथा प्रवचनों में उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३). ६ पथचिह्न-(हिन्दी साहित्य की अनुपम पुस्तक ) स्मृति-रेखाएँ और निबन्ध । लेखक-सुप्रसिद्ध साहित्यिक श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी । पृ० १२८ । मू० २) १० पाश्चात्त्य तर्कशास्त्र-(पहला भाग) एफ. ए. के लाजिक के पाठ्यक्रम की पुस्तक । लेखक भिक्ष जगदीश जी काश्यप, एम. ए., पालि अध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय काशी । पृ०३८४ । मूल्य ४||) २१ जैन भौगोलिक सामग्री और जैनधर्म का प्रसार-प्राचीन जैन नगरों की प्रामाणिक खोज । लेखक-डॉ. जगदीशचन्द्र जैन एम. ए., पी-एच. डी. बंबई | पृ० ४० । मूल्य |) १२ कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्न-लेखक श्री गोपालदासजी पटेल। अनुवादक-पं० शोभाचन्द्रजी भारिल न्यायतीर्थ, व्यावर | पृ० १६० । मूल्य २)। For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिसम्बर सन् १९४७ तक प्रकाशित होने वाले ग्रन्थ १२ न्यायविनिश्चय विवरण प्रथम भाग तथा न्यायविनिश्चय विवरण द्वितीय भाग सटिप्पण, प्रस्तावना आदि सहित । अकलङ्क देव के न्यायविनिश्चय पर वादिराजसूरि की विस्तृत टीका । सम्पादक-पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ।। ३ तत्त्वार्थवृत्ति-श्रुतसागर सूरि विरचित । हिन्दी सार सहित । सम्पादक-पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य । ४ कन्नड प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थ सूची-(हिन्दी) मूडबिद्री के जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्त वसदि तथा अन्य फुटकर ग्रन्थभण्डार, कारकल और अलियूर के अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्थों का सविवरण परिचय। प्रत्येक मन्दिर में तथा शास्त्रभण्डार में विराजमान करने योग्य । सम्पादक-40 के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री । - प्रचारार्थ पुस्तक मंगानेवाले महानुभावोंको विशेष सुविधा । भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड, बनारस। For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय ज्ञानपीठ, काशी हिन्दी प्रकाशन १ मुक्तिदूत (एक पौराणिक रोमांस) ४m) २ दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ (प्राचीन आगम ग्रंथों से) ३ पथचिह्न (स्मृति रेखाएँ और निबन्ध) २) ४ आधुनिक जैन कवि३ ॥) ५ हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास २॥ ६ जैनशासन ४/-) कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्न (पंचास्तिकाय प्रवचनसार और समयसार का विषय परिचय) पाश्चात्य तर्क-शास्त्र प्रथम भाग ४॥) २) डडड-SSC-SSC- SSCPSIA For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Codication Cards 201 6 - भारतीय ज्ञानपीठ, काशी उद्देश्य ज्ञानकी विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्रीका अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोकहित-कारी मौलिक साहित्य का निर्माण आरताय EiLI वातपाल BY-काशी R850 BHARATIYA JNANAP AJNANA PITHI944 अध्यक्षा संस्थापक सेठ शान्तिप्रसाद जैन श्रीमती रमा जैन 'ఈతకము - మతమవుతునరుతుంది For Private and Personal Use Only