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________________ बीसवां प्रवचन गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थंकर For Private Personal Use Only
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________________ MAHARAN प्रश्न-सार मक्खली गोशाल के जीवन पर प्रकाश डालने की कृपा करें। महावीर का अशरण-उपदेश और उनका शिष्यों को दीक्षा देना इनमें क्या अंतर्विरोध नहीं है? अशरण-भाव और असहाय-भाव में क्या भेद है? EENNER 20 2010_03
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________________ 1 हला प्रश्नः मक्खली गोशालक के जीवन के चूंकि उसने कोई दर्शन नहीं बनाया, इसीलिए उसकी कोई 1 अनेक प्रसंग जैन शास्त्रों में मिलते हैं, लेकिन परंपरा नहीं बन सकी। लोग तो सुरक्षा चाहते हैं। लोग तो कोई उनका उल्लेख किसी आदर के साथ नहीं किया सिद्धांत चाहते हैं। सत्य की किसको चिंता है? लोग चाहते हैं, गया है। गोशालक को वे कलहप्रिय और उद्धत कहने के साथ कोई सिद्धांत हाथ में आ जाए, जिससे हम जीवन के उलझाव को ही साथ विलक्षण भी बताते हैं। आप तो उसका नाम आदर के किसी भांति सुलझा लें। सुलझे, न सुलझे, हमें भरोसा आ जाए साथ लेते हैं। क्या गोशालक का अपना कोई दर्शन था? और कि सुलझ गया, तो हम निश्चित हो जाएं। रंपरा के मर जाने से जैनियों ने उसके साथ लोग अपनी चिंता मिटाना चाहते हैं। इसलिए गोशालक जैसे अन्याय किया? इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें। | व्यक्ति लोगों को प्रीतिकर नहीं लगते। क्योंकि वे तुम्हारी चिंता | मिटाने का कोई उपाय नहीं करते। वे तो तुमसे कहते हैं, तुम्हारी नक का निश्चित ही एक जीवन-दष्टिकोण था। दर्शन चिंता ही व्यर्थ है। वे कहते हैं. हल कोई नहीं है. चिंतित होना कहना उसे उचित नहीं, क्योंकि शास्त्रबद्ध, सूत्रबद्ध जीवन- व्यर्थ है, यह समझ लो। बस इतना काफी है। प्रणाली बनाने में उसका कोई भरोसा नहीं था। उसकी दृष्टि यही | हम प्रश्न पूछते हैं, हम उत्तर की अपेक्षा करते हैं। हम कहते हैं, थी कि जीवन इतना बड़ा रहस्य है कि दर्शन में समा सके यह | संसार किसने बनाया? यह प्रश्न हमारे भीतर कांटे की तरह संभव नहीं है; जीवन का कोई दर्शन हो सकता है, यह संभव चुभता है। कोई कह देता है, ईश्वर ने बनाया। यद्यपि कुछ हल नहीं है। नहीं होता। क्या हल होगा? कोई अंतर नहीं पड़ता। इसलिए सभी दर्शन किसी न किसी रूप में मनुष्य की फिर अगर तुम पूछना चाहो तो पूछ सकते हो, ईश्वर को कल्पनाएं हैं और जबर्दस्ती जीवन के ऊपर आरोपित किए जाते | किसने बनाया? लेकिन एक तरह की राहत मिलती है कि हैं। जीवन बड़ा है, शब्द बड़े छोटे हैं। सत्य बहुत बड़ा है, सिद्धांत चलो...। वह जो एक भीतर कांटे की तरह चुभता प्रश्न था, बहुत छोटे हैं। सत्य को फांसी लग जाती है सिद्धांतों में डालने हल हुआ। ईश्वर ने बनाया। से। शब्दों में समाने की चेष्टा में ही विराट सत्य मर जाता है। गोशालक जैसे व्यक्ति, जब तुम उनसे पूछो, जगत किसने इसलिए मक्खली गोशाल दार्शनिक तो नहीं है। कोई परंपरा बनाया, तो कंधा बिचका देते हैं। वे कहते हैं, हमें नहीं मालूम बनानेवाला भी नहीं है। पर उसकी एक जीवन-दृष्टि है। दर्शन और किसी को नहीं मालूम। इस फर्क को समझना। मैं उस नहीं कहता, सिर्फ जीवन-दृष्टि है। और जीवन-दृष्टि दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। एक, जो कहते हैं, ईश्वर ने उसकी बड़ी बहुमूल्य है, समझने जैसी है। बनाया; हमें मालूम है। दूसरे, जो कहते हैं, ईश्वर ने नहीं 393 ___JainEducation International 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 बनाया; हमें मालूम है। लेकिन उन दोनों में एक बात समान है। कि जानते हैं। जैनों का जो सबसे बड़ा आग्रह है, वह खयाल में दोनों कहते हैं, हमें मालूम है। रखो। वह है कि जैन साधना-पद्धति से गुजरकर जो व्यक्ति गोशालक कहता है, किसको पता? कौन जानता है? कैसे परम स्थिति को पहुंचता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है। यह जैनों का कोई जान सकता है? इतना निश्चित है, कभी अगर बनाया हो सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत है-सर्वज्ञ। किसी ने, तो हम तो मौजूद न थे। क्योंकि हम तो बनाने के बाद तो गोशालक से ठीक बिलकुल विपरीत हो गई बात। ही मौजूद हो सकते हैं। हम तो बनाये गए। हम तो मौजूद न थे, गोशालक कहता है जो जानता है, वह तो जानता है कि कुछ भी जब बनाया गया होगा। तो अब उपाय कहां है जानने का, कि नहीं जानता। गोशालक से सुकरात की दोस्ती बन जाती है। किसने बनाया? और अगर किसी ने बनाया तो जिसने बनाया गोशालक से सार्च और कामू की और काफ्का की दोस्ती भी बन वह तो मौजूद ही रहा होगा बनाने के पहले। तो कुछ तो था ही। जाती है। नीत्से भी गोशालक के पास बैठता तो मैत्री अनुभव प्रश्न हल नहीं होता। बनानेवाले को किसने बनाया? करता। लेकिन जैन तो कैसे मैत्री अनुभव कर सकते हैं? यह तो गोशालक कहता है, उत्तर नहीं है, प्रश्न व्यर्थ है। प्रश्न निरर्थक | उनसे ठीक विपरीत है। है। तुम कृपा करो और प्रश्न को गिर जाने दो। तुम जरा देखो कि जैनों का तो आग्रह यही है कि जब कोई व्यक्ति परम तुमने एक ऐसा प्रश्न पूछ लिया है, जिसके कारण तुम झंझट में जागरूकता को उपलब्ध होता है तो वह सर्वज्ञ हो जाता है। सब पड़ोगे। या तो आस्तिक बन जाओगे या नास्तिक बन जाओगे। जानता है। तीनों काल जानता है। जो हुआ, वह जानता है। जो दोनों हालत में तुम जीवन के विराट को इंकार कर दोगे। दोनों | हो रहा है, वह जानता है। जो होगा, वह जानता है। उसके लिए हालत में जीवन का रहस्य टूट जाएगा। तुम बीच में सिद्धांत की कुछ भी अज्ञात नहीं रह जाता। एक दीवाल खड़ी कर लोगे। दोनों हालत में तुम अपने अज्ञान इसका अर्थ हुआ कि जो व्यक्ति जैनों के हिसाब से समाधि को को छिपा लोगे। उपलब्ध होता है, उसके लिए कुछ रहस्य नहीं रह जाता। सब गोशालक कहता है, कुछ पता नहीं बनाया, नहीं बनाया! | रहस्य खुल गया। पोथी पूरी खोलकर देख ली, पढ़ ली।। सच तो यह है, यह भी पक्का नहीं है कि है भी? हो सकता है | गोशालक कहता है, पोथी का पहला पाठ ही पढ़ना असंभव सपना ही हो। है। पोथी खुलती ही नहीं। इसमें पहली लकीर क, ख, ग भी तो गोशालक कोई दर्शन नहीं देता, एक दृष्टि देता है। उत्तर | समझ में नहीं आते। तो सर्वज्ञ का दावा तो व्यर्थ है। सर्वज्ञता तो देखने की एक समझ देता है। इसलिए परंपरा हो नहीं सकती। यहां तो हम उसी को जाननेवाला कहेंगे, जिसने नहीं बनी। और ऐसे व्यक्ति के पीछे कैसे अनुयायी इकट्ठे हों? | जान लिया कि कुछ जानने का उपाय नहीं है। हां, कुछ लोग गोशालक जिंदा था तो इकट्ठे हो गए थे। वह चूंकि यह सर्वज्ञता से बिलकुल विपरीत दृष्टि थी, जैन बड़े उसके व्यक्तित्व की गरिमा रही होगी। उसके उत्तर तो थे ही नहीं नाराज हुए। जैन जितने नाराज गोशालक से हुए, किसी से भी कुछ। कुछ हिम्मतवर लोग उसके साथ हो लिए होंगे। लेकिन | नहीं हुए। वह चमत्कार रहा होगा उसके अपने होने का; जिसको करिश्मा इससे एक बात तो यह भी सिद्ध होती है कि महावीर के सामने. कहते हैं। वह उसका प्रसाद रहा होगा। | विशेष कर महावीर के अनुयायियों के सामने जो सबसे बड़ा इसलिए जैन शास्त्र विरोध भी करते हैं और उसे विलक्षण भी प्रतिद्वंद्वी रहा होगा वह गोशालक था। और भी बड़े विचारक कहते हैं। विलक्षण तो पुरुष था ही। क्योंकि बिना सिद्धांत के, मौजूद थे। बौद्ध ग्रंथों में छह विचारकों के नाम उल्लेख किए गए बिना उत्तर दिए अगर लोग आकर्षित हो गए थे तो आदमी में कुछ हैं-अजित केशकंबल, पूर्णकाश्यप, प्रबुद्ध कात्यायन, संजय जादू तो था ही। वह जादू बौद्धिक नहीं था, वह जादू व्यक्तित्व वेलट्ठीपुत्त, मक्खली गोशाल और निगंठनाथ पुत्त। निगंठनाथ का था, अस्तित्व का था। पुत्त महावीर का नाम है। लेकिन इनमें से किसी का भी विरोध जैन शास्त्र उसके विरोध में हैं, क्योंकि जैन शास्त्र तो जानते हैं जैन शास्त्रों में नहीं है। सिर्फ गोशालक का विरोध है। . 394 2010_03
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________________ गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थंकर तो एक बात तो निश्चित है कि गोशालक ठीक विपरीत ध्रुव की चरित्र का अर्थ ठीक से समझ लेना। चरित्र का अर्थ होता है: भांति महावीर के सामने खड़ा हुआ होगा। दावा भी उसका है कि अभ्यासजन्य जीवन की शैली। एक आदमी चेष्टा कर-करके, कुछ जाना नहीं जा सकता। अज्ञान का इतना बड़ा समर्थक कभी चेष्टा कर-करके रोज पांच बजे सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठ आता है। कोई हुआ ही नहीं। तो जैनों को सबसे ज्यादा कष्ट इस आदमी अभ्यास बना लेता है। ऐसा जड़ अभ्यास बना लेता है कि किसी से रहा होगा। इसको जैन कहते हैं, उदंड, कलहप्रिय, विवादी। दिन अगर पड़ा भी रहना चाहे बिस्तर पर, तो भी पड़ा नहीं रह यह जैनों की व्याख्या है। यह कहलप्रिय जैनों को मालूम हुआ सकता। पुरानी आदत उसे उठाकर खड़ाकर देती है। होगा। क्योंकि जैन दावा कर रहे थे कि हमारा गुरु सर्वज्ञ है। इसका अर्थ हुआ कि चरित्र केवल अभ्यास है, आदत है। जो और यह आदमी कह रहा था सर्वज्ञ? अल्पज्ञ होना भी संभव व्यक्ति बोधपूर्वक जीता है, वह चरित्र से नहीं जीता, वह बोध से नहीं, अज्ञ होना भी संभव नहीं। जीता है। आदत से नहीं जीता, सहजता से जीता है। आज सुबह _ और इसकी बात में वजन है। इसकी बात में गहराई है। तो यह | अगर उठने का लगता है उसे, आज का ब्रह्ममुहूर्त अगर उसे विवादी मालूम पड़ा होगा। यह उइंड मालूम पड़ा होगा। लेकिन | जगाता है तो जगता है। लेकिन आज की घड़ी अगर सोने जैसी साथ-साथ उन्हें स्वीकार तो करना ही पड़ा कि इसके पास लगती है तो सोता है। विचक्षण प्रतिभा है। प्रतिपल चीजें बदलती रहती हैं। कभी कोई स्वस्थ है, कभी प्रतिभा तो थी। बिना सिद्धांत के लोग आकर्षित हुए। और अस्वस्थ है। कभी वर्षा है, कभी शीत है, कभी ताप है। कभी इस आदमी के पास कोई चरित्र भी नहीं था। यह भी थोड़ा सोच कोई जवान है, कभी कोई बूढ़ा है। कभी कोई रात देर से सोया लेने जैसा है। | है, कभी कोई जल्दी सोया है। कभी दिन में बहुत श्रम किया और गोशालक के पास कोई लोकमान्य चरित्र नहीं था कि कोई कह ज्यादा सोने की जरूरत है। और कभी दिन में उतना श्रम नहीं सके कि इस आदमी की जीवन-व्यवस्था अनुशासन की है, किया, कम सोने से चल जाएगा। सत्य की है, अहिंसा की है, योग की है, ध्यान की है; ऐसा कहने तो जो व्यक्ति बोध से जीता है, वह तो प्रतिपल तय करता है का भी कोई कारण नहीं था। जिसको हम चरित्रहीन कहें, ऐसा कि कैसे जीऊं। जीना प्रतिपल तय होता है। जो व्यक्ति आदत से व्यक्ति है गोशालक। जीता है, वह प्रतिपल तय नहीं करता। तय तो उसने सदा के लिए लेकिन तुम समझ सकते हो, आधुनिक युग में मनोविज्ञान ने कर लिया है। उसने तो लकीर खींच दी है चरित्र की। अब एक बड़ी ऊंची खोज की है, बड़ी गहरी खोज की है कि जो इस उसका अनुगमन करना है। विल्हेम रेक कहता है कि चरित्रवान जगत में सर्वाधिक चरित्रवान लोग होते हैं, वे साधारण अर्थों में व्यक्ति—जिनको हम चरित्रवान कहते हैं—अक्सर मुर्दा चरित्रहीन होते हैं। जीसस भी चरित्रहीन मालूम पड़े लोगों को। व्यक्ति हैं, जो मर चुके। अब तो सिर्फ मरी हुई लाश चल रही इसीलिए तो सूली लगी। सुकरात पर यही तो जुर्म था कि वह है। एक नियम जिंदा हो गया है, आदमी तो मर चुका। आत्मा तो खुद तो भ्रष्ट है ही, दूसरों को भ्रष्ट कर रहा है। उसकी बातें | मर चुकी, सिद्धांत जिंदा हो गया है। प्रभावशाली हैं और दूसरे लोग भी उसकी बातों में आकर भ्रष्ट | गोशालक का कोई चरित्र नहीं है। विल्हेम रेक गोशालक से हो रहे हैं। मिल जाता तो तत्क्षण सिर झुकाकर नमस्कार करता। इस सदी का एक बहुत बड़ा विचारक विल्हेम रेक अमरीका के जैन नाराज हैं। क्योंकि जैनों का तो सारा आधार चरित्र है. कारागृह में मरा। अमरीका में उसे जबर्दस्ती पागल करार दे दिया अभ्यासजन्य। इंच-इंच हिसाब बांधकर चलना है। जरा-सी गया। क्योंकि वह कुछ ऐसी बातें कह रहा था, जो नीतिवादियों | भूल-चूक न हो जाए। सिद्धांत से यहां-वहां चित्त न हो जाए। के बड़े विपरीत थीं। उसके बुनियादी सिद्धांतों में एक था, | सब सम्हालकर लीक पर चलना है। इसलिए जैन मुनि से मुर्दा जिसका गोशालक से मेल हो सकता है। वह कहता था, चरित्र | आदमी तुम दुनिया में दूसरा नहीं खोज सकते। वह बिलकुल केवल उन्हीं के पास होता है, जो मुर्दा होते हैं। मरा हुआ है। उसका कोई भविष्य नहीं है। उसका सिर्फ अतीत ___ 2010_03
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________________ जिन सत्र भाग: 21 REATORIANDRAMA है। जो उसने तीस.साल पहले तय किया था उसी को दोहरा रहा | वह बहने के पक्ष में था, तैरने के पक्ष में नहीं। संघर्ष के पक्ष में है। वह पुनरुक्ति है। उसके भीतर नए का कोई आविर्भाव नहीं नहीं, समर्पण के पक्ष में। अगर गोशालक को क्रोध हो जाए तो होता। सुबह होती ही नहीं। एक यांत्रिक पुनरुक्ति है, जो वह वह कहता, क्रोध हुआ। मैं क्या करूं? प्रेम हो जाए तो कहता, दोहराये चला जाता है। रोज वही करता है, जो कल भी किया प्रेम हुआ। मैं क्या करूं? गोशालक कोई दायित्व स्वीकार नहीं था, परसों भी किया था। लकीर का फकीर है। करता था। वह कहता था, इतने विराट में मैं एक छोटा-सा गोशालक बड़ा स्वतंत्र है। अनुशासनमुक्त, आदतशून्य कलपुर्जा हूं। कहां जा रहा है यह विराट, मुझे पता नहीं। कहां से व्यक्ति था। अनप्रेडिक्टेबल। उसके बाबत कुछ घोषणा नहीं की। आ रहा है, मुझे पता नहीं। क्यों मेरे भीतर क्रोध होता है इसका जा सकती कि गोशालक कल क्या करेगा। कल ही तय होगा। भी मुझे पता नहीं।। कल आने दो। क्षण-क्षण जीनेवाला था। __इसको थोड़ा खयाल से समझने की कोशिश करना। इसका मेरे लिए तो बहुत मूल्य की बात है यह। गोशालक मेरे लिए अर्थ हुआ, आदमी के किए कुछ भी न होगा। पुरुषार्थ कुछ भी तो मील का पत्थर है मनुष्य-जाति के इतिहास में। इसलिए मैं नहीं है। कृष्ण की गीता से मेल खाएगी यह बात। कृष्ण भी यही सम्मान से उसका नाम लेता हूं। मेरे लिए तो वह उतना ही कह रहे हैं, लेकिन जरा और ढंग से। कृष्ण कहते हैं, ईश्वर कर मूल्यवान है, जितने मूल्यवान महावीर। उनसे रत्तीभर भी कम | रहा है। गोशालक उतनी बात भी बीच में नहीं लाता। वह कहता मूल्य नहीं है। लेकिन अनुयायी महावीर का है, उसको तो बड़ी है, कहां पता है कि ईश्वर है? कौन कर रहा है यह तो मुझे पता अड़चन है। नहीं। इतना पता है कि मेरे किए कुछ भी नहीं हो रहा है। कृष्ण तो जैन शास्त्र गोशालक के संबंध में बड़ी निंदा से भरे हैं। कहते हैं, ईश्वर पर छोड़ दो। गोशालक कहता है, छोड़ दो। ऐसी गालियों से भरे हैं कि कभी-कभी आश्चर्य होता है कि ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं। लेकिन इसे ढोने की कोई भी अहिंसा को माननेवाले लोग इतनी गालियां निकाल कैसे सके? जरूरत नहीं है। सब ढोना नासमझी है। करुणा, प्रेम, अहिंसा की बात करनेवाले लोग इतनी क्षुद्रता पर यह गोशालक की दृष्टि अगर सही हो तो अहंकार बिलकुल उतर कैसे आए ? गोशालक बुरा भी रहा हो तो भी ये भले लोग समाप्त हो जाएगा। बचने का उपाय नहीं बचेगा। इतनी गालियां कैसे दे सके? बुरे आदमी को भी इतनी गालियां शायद कृष्ण की गीता का माननेवाला भी किसी पीछे के देना भले आदमी का लक्षण नहीं। अगर विरोध था तो सैद्धांतिक दरवाजे से अहंकार को बचा ले। वह कहे कि ईश्वर मेरा उपयोग विरोध करके पूरा कर लेते। लेकिन विरोध भावात्मक मालूम कर रहा है, में उपकरण हूं। इससे भी अहंकार बच सकता है। पड़ता है, सैद्धांतिक नहीं है। महावीर के मुकाबले, महावीर के क्योंकि मुझे उपकरण चुना है, तुमको तो नहीं चुना। मैं हूं अनुयायियों को लगा होगा, एक ही व्यक्ति खड़ा है प्रखर, जो माध्यम। मैं हूं निक्ति। ठीक विपरीत बात कह रहा है : न कोई चरित्र, न कोई ज्ञान। कृष्ण की बात सुनकर अर्जुन यह तो समझ भी ले कि चलो, मैं और इस सबसे भी कठिन बात, पर बड़ी महत्वपूर्ण, गोशालक | बीच में नहीं आता। लेकिन ईश्वर ने मुझे चुना है धर्म-युद्ध के का जो दृष्टिकोण था वह था, अकर्मण्यतावाद। वह कहता था, | लिए। तो अहंकार नए रूप में खड़ा होगा। दुर्योधन को तो नहीं किए से कुछ भी नहीं होता। वह कहता किए से न पाप होता है, | चुना है। किसी और को तो नहीं चुना है, अर्जुन को चुना है। न किए से पण्य होता है। वह कहता था. करना नासमझी की | परमात्मा का हाथ अर्जन के कंधे पर है। बात है। करने से कभी कुछ हुआ ही नहीं है। जो होना है, वही | यह भी खतरनाक हो सकती है बात। इसका मतलब हुआ, होता है। जो होना था, वही हुआ। जो होना है, वही होगा। वह मेरी जिम्मेवारी भी न रही, और जो मुझे करना है वह तो मैं करूंगा परम नियतिवादी था। वह कहता था, सब हो रहा है। हमारे | ही। अब ईश्वर का समर्थन और सैंक्शन भी मिल गया। अब किए का कुछ सार नहीं है, इसलिए जीवन से संघर्ष करने का | ईश्वर भी मेरे हाथ में है। अब मैं अपनी बात को सही सिद्ध करने कोई प्रयोजन नहीं है। के लिए ईश्वर का भी सहारा ले लूंगा। और ईश्वर तो मौन है। 396 2010_03
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________________ गोशालक: एक अस्वीकृत तीर्थकर | वह आकर कभी कहता नहीं कि किसको मैंने चुना। महासूर्य हैं, जो रात में तारों की तरह दिखाई पड़ते हैं। फासले के महात्मा गांधी को यह खयाल था कि ईश्वर ने उन्हें उपकरण की कारण छोटे दिखाई पड़ते हैं। हमारे सूरज से करोड़ों गुने बड़े भांति चना है। वह गीता से ही उनको सनक सवार हई। गीता | सरज हैं। और अब तक कोई दो अरब सर्यों का पता चल चका पढ़-पढ़कर ही उनको यह खयाल बैठ गया कि ईश्वर ने उनको है। आगे भी होंगे। यह पृथ्वी हमारी तो कुछ भी नहीं है। इस चुना है; वे माध्यम हैं। लेकिन कौन सिद्ध कर सकता है कि पृथ्वी पर हम और भी नाकुछ हैं। गोडसे को ईश्वर ने नहीं चुना था? गोडसे को भी यही खयाल है। गोशालक यह कहता है, जरा अपना अनुपात तो सोचो। फिर कि वह कर क्या सकता है ? ईश्वर ने चुना है। और तुम सोचते तुम जो करते हुए मालूम पड़ते हो, वह भी प्रकृति ही तुमसे करा हो, जिन्ना को यह खयाल नहीं था? रही है। एक स्त्री निकली तुम्हारे सामने से और तुम्हारे मन में | कौन निर्णय करेगा कि कौन वस्ततः चना गया है? यह तो वासना उठी। यह वासना तमने उठाई? तम कैसे उठाओगे? ईश्वर के बहाने, आदमी जो करना चाह रहा है, उसके लिए होती न, तो उठती कैसे? प्रकृति ने उठाई। प्रकृति ने दी ही हुई ईश्वर की मोहर ले लेता है। है। तुम पैदा इस वासना के साथ हुए हो। गोशालक उतनी भी जगह नहीं छोड़ता। गोशालक कहता है, इसलिए गोशालक की दृष्टि परम स्वीकार की है। वह कहता कोई ईश्वर है, पता नहीं। इतना तय है कि आदमी के पुरुषार्थ से है, जो है, है। बुरा तो बुरा; भला तो भला। न यहां हार का कोई कुछ भी नहीं होता। जो होता है, वही होता है। कभी हो जाता है | उपाय है, न जीत का कोई उपाय है। गोशालक परम भाग्यवादी तो तुम सोचते हो, हम जीत गए। कभी नहीं होता तो तुम सोचते है। और मजा यह है कि भगवान भी नहीं है गोशालक के विचार हो, हम हार गए। लेकिन जो होना था, वही होता है। जब हो में। मार्क्स भी राजी हो जाता गोशालक से। क्योंकि वह भी परम जाता है, तुम अकड़ जाते हो। जब नहीं होता, तुम सिकुड़ जाते भाग्यवादी है। वह कहता है, भगवान तो कोई भी नहीं है। हो। तुम नाहक अकड़ते-सिकुड़ते हो। तुम नाहक जीतते-हारते लेकिन जगत एक नियम से चल रहा है। उसको मार्क्स कहता हो। जो होना है वही होता है। | है, इतिहास का नियम। नाम कुछ भी दो। गोशालक कहता है, इसका अर्थ समझना। अगर यह बात खयाल में बैठ जाए कि इतना तय है आदमी नहीं चला रहा है, चल रहा है। जो होना है वही होता है, तो तुम तत्क्षण तनाव से मुक्त हो गए। यह अकर्मण्यतावाद तो और भी महावीर के विपरीत पड़ता है। ध्यान फलित हो जाएगा। अहंकार से मुक्त हो गए। जब मेरे क्योंकि महावीर का तो सारा बल इस बात पर है कि पुरुषार्थ; किए कुछ होता ही नहीं तो मैं कहां खड़ा हो सकता हूं? कृष्ण तो इसीलिए तो नाम महावीर है। करो, तो पा सकोगे। लड़ोगे, तो कहते हैं, कम से कम तुम निमित्त हो सकते हो। गोशालक जीतोगे। बहे, तो गए। तैरो। धारे के विपरीत तैरो। इंच-इंच कहता है, निमित्त भी नहीं हो सकते। तुम हो ही कहां? लड़ोगे तो ही किसी दिन पहुंचोगे। सिद्धि मुफ्त नहीं मिलती। यह तो ऐसा ही है कि एक हाथी निकलता था, एक पुल के बड़ा गहन संघर्ष करना है। ऊपर से। वजनी हाथी, पुराना जीर्ण-शीर्ण पुल! कंपने लगा महावीर गोशालक के विरोध में रहे हों, ऐसा तो मुझे मालूम पुल। एक मक्खी बैठी थी हाथी के ऊपर। जब वे दोनों पुल पार नहीं होता। महावीर तो गोशालक के विरोध में नहीं हो सकते। कर गए तो उसने कहा, बेटा! मक्खी ने कहा हाथी से, बेटा! लेकिन महावीर का माननेवाला अड़चन में पड़ा होगा। अगर हमने पुल को बुरी तरह हिला दिया। | महावीर सही हैं तो गोशालक गलत होना ही चाहिए। अगर हम तो मक्खी से भी छोटे हैं। इस विराट को जरा सोचो तो! गोशालक सही है तो महावीर गलत हो जाएंगे। इसमें हमारा होना न होना क्या फर्क रखता है? हमारे होने न होने अनुयायी की बुद्धि तो बड़ी छोटी होती है। वह दो विरोधों के से कितना फर्क पड़ता है! आदमी इस पृथ्वी के मुकाबले ही बहुत बीच किसी तरह का समन्वय नहीं देख पाता। महावीर के मार्ग छोटा है। पृथ्वी खुद भी बहुत छोटी है। सूरज साठ हजार गुना से भी आदमी पहुंचता है। गोशालक के मार्ग से भी पहुंच सकता बड़ा है। और सूरज खुद ही बहुत साधारण है। इससे बड़े-बड़े है। महावीर के मार्ग पर संकल्प का आखिरी उपाय करना होता 395 ___ 2010_03
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________________ - जिन सत्र भाग: 2 है। इस उपाय को करते-करते ही एक दिन संकल्प टूटकर गिर नर्क बनाया किसलिए? न कोई पाप करता, न कोई आता। हमें जाता है। अहंकार को निखारना पड़ता है; पवित्र करना पड़ता नाहक अटका रखा है। बंद करो यह दुकान। हमें छुट्टी दो या है। एक ऐसी घड़ी आती है पवित्र होते-होते ही, जैसे कपूर उड़ आदमी भेजो। जाता है, ऐसा अहंकार उड़ जाता है। शुद्ध अहंकार कपूर की तो परमात्मा ने कहा, ठीक है घबड़ाओ मत। मैं जल्दी ही बुद्ध तरह उड़ जाता है। | के रूप में अवतार लूंगा और लोगों के मन भ्रष्ट करूंगा। फिर जैसे तुम रात दीया जलाते हो तो पहले दीये की ज्योति तेल को उन्होंने बुद्ध की तरह अवतार लिया, लोगों को भ्रष्ट किया। लोग जलाती है। फिर तेल चुक जाता है तो बाती को जलाती है। फिर नर्क जाने लगे। अब तो नर्क में ऐसी भीड़ है कि वहां जगह ही बाती भी चक जाती है, तो फिर ज्योति भी बझ जाती है। तो | नहीं बची। लोग क्यू लगाए खड़े हैं सदियों से। जगह नहीं मिल ज्योति ने पहले तेल को जलाया, फिर बाती को जलाया, फिर रही है अंदर जाने के लिए, इतना धक्कम-धुक्का है। जब सब जल गया तो खुद भी बच नहीं सकती। इतनी शुद्ध हो | यह सब बुद्ध की कृपा से हुआ! हिंदू यह भी नहीं कह सके कि गई कि खो जाती है। | बुद्ध भगवान नहीं हैं। यह तो बड़ा झूठ होता। इतने बड़े सत्य को महावीर के मार्ग पर अहंकार को शुद्ध करने की प्रक्रिया है। झुठलाना संभव न हुआ। तो मान लिया कि भगवान तो हैं, शरीर छूटेगा पहले, फिर मन छूटेगा। फिर एक दिन तुम पाओगे लेकिन आए हैं पाप करवाने, लोगों को भ्रष्ट करने। अचानक, तेल भी जल गया, बाती भी जल गई, फिर लपट जो तो तरकीब समझे? तरकीब यह हुई कि बुद्ध को स्वीकार कर रह गई थी, वह कोरे आकाश में खो गई। लिया कि हैं भगवान के रूप ही। दसवें अवतार हैं। और साथ में शद्ध हो-होकर अहंकार कपूर की भांति उड़ जाता है। बात भी बता दी कि कोई इनकी मानना मत, नहीं तो नर्क गोशालक के मार्ग पर शुद्ध करने का कोई सवाल ही नहीं है। जाओगे, बुद्ध-धर्म का अनुगमन मत करना। यह भगवान की शुद्ध करने की चेष्टा को गोशालक कहता है, व्यर्थ है। जो है ही | एक शरारत है। यह भगवान की एक चालबाजी है। यह नहीं, उसे शुद्ध क्या करना? इतना जान लेना काफी है कि नहीं | भगवान का एक षड्यंत्र है। हैं तो भगवत-रूप। है। अभी घट सकती है बात। जैनों ने भी कृष्ण को नर्क भेजा, सातवें नर्क में डाला। लेकिन तो जैनों को कठिनाई हुई। गोशालक ने बड़ा गहरा विवाद थोड़ी बेचैनी लगी होगी। क्योंकि इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति, अनुयायियों के लिए खड़ा कर दिया होगा। इसलिए जैन बड़े इतना महिमावान, ऐसा तेजोद्दीप्त! इसको नर्क में डालने में हाथ नाराज हैं। और चूंकि गोशालक के कोई शास्त्र नहीं हैं, इसलिए कंपा होगा। शास्त्र लिखनेवाले को भी डर लगा होगा। उसको और सुविधा हो गई। | भी लगा होगा कि यह थोड़ी ज्यादती हुई जा रही है। तो तम ऐसा ही समझो कि अगर हिंदओं के सब शास्त्र खो जाएं शास्त्रकारों ने जैन शास्त्रों में लिखा है कि अगली सष्टि में जब और कृष्ण के संबंध में सिर्फ जैनों के शास्त्र बचें तो कृष्ण के यह प्रलय होकर सब समाप्त हो जाएगा, फिर से सृष्टि का संबंध में क्या स्थिति बनेगी? लोग क्या सोचेंगे? लोग सोचेंगे, निर्माण होगा, कृष्ण पहले जैन तीर्थंकर होंगे। इससे राहत हो आदमी महानारकीय रहा होगा, क्योंकि शास्त्र में लिखा है कि गई। इधर चांटा मारा, इधर पुचकार लिया। सातवें नर्क में गया। अगर विरोधी का ही शास्त्र बचे तो निर्णय करना मुश्किल है। अगर बुद्ध के संबंध में बौद्धों के शास्त्र खो जाएं, सिर्फ हिंदुओं यही असुविधा है गोशालक के लिए। खुद का कोई शास्त्र नहीं के शास्त्र बचें तो उन शास्त्रों से क्या पता चलेगा? हिंदू शास्त्र है। खुद कुछ लिखा नहीं है। करने को ही जो नहीं मानता था, कहते हैं कि परमात्मा ने नर्क बनाया। लेकिन सदियां बीत गईं, वह लिखे क्यों? कुछ बोलाचाला होगा। कुछ दिन तक लोगों कोई पाप करे ही नहीं। नर्क कोई जाए ही नहीं। तो नर्क में बैठे थे को याद रही होगी, फिर बिसर गई। जो पहरेदार, और व्यवस्थापक, और मैनेजर, वे थक गए। कोई शास्त्रों में जहां उल्लेख है—या तो बौद्ध शास्त्रों में उल्लेख आता ही नहीं! ऊब गए। उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की, यह है। लेकिन बौद्ध शास्त्रों में सम्मानपूर्वक उल्लेख है। उसका 3981 | JainEducation International 2010_03
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________________ गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थकर कारण भी स्पष्ट है। सब कारण राजनैतिक हैं। बौद्ध शास्त्रों में महावीर तो प्रतिष्ठित थे। तीस साल फासला था। इस प्रतिष्ठित सम्मानपूर्वक उल्लेख है, क्योंकि बौद्ध शास्त्रों का असली संघर्ष आदमी को झगड़े अपने समय के प्रतिष्ठित लोगों से रहे महावीर से है। | होंगे-बुद्ध तो अभी उठ ही रहे थे। बुद्ध की महिमा तो बाद में गोशालक तो मर चका। अब बद्ध और महावीर के बीच तीस सिद्ध हई. जब महावीर जा चके। साल का अंतर है। गोशालक महावीर से उम्र में बड़ा था। लेकिन एक बात सदा स्मरण रखना कि महावीर ने ऐसा कहा इसलिए जब महावीर जवान रहे होंगे और उनके विचार का हो, इसकी कम संभावना है। बुद्ध ने ऐसा मजाक उड़ाया हो प्रभाव फैल रहा होगा, उस समय तक गोशालक की प्रतिष्ठा हो महावीर का, इसकी भी कम संभावना है। ये तो अनुयायियों के चुकी थी। इसलिए महावीर का संघर्ष तो प्रतिष्ठित गोशालक से | द्वारा डाले गए शब्द हैं उनके मुंह में। और शास्त्र बहुत बाद में रहा। प्रतिष्ठित से संघर्ष होता है। | लिखे गए। महावीर ने एक शब्द भी बुद्ध के खिलाफ नहीं बोला। वे बूढ़े | बुद्ध के मरने के पांच सौ साल बाद शास्त्र लिखे गए। महावीर थे। जब बुद्ध की प्रतिष्ठा आनी शुरू हुई तब तक महावीर तो पूरी | के मरने के चार सौ साल बाद शास्त्र लिखे गए। चार सौ साल तरह लोकमान्य हो चुके थे। उन्होंने एक शब्द बुद्ध के खिलाफ | तक अनुयायियों के मस्तिष्क में रहे शास्त्र। उनकी स्मृति में रहे। नहीं बोला। लेकिन महावीर के अनुयायी उल्लेख करते | उन्होंने खूब कांट-छांट की होगी। हैं—ऐसा उल्लेख करते हैं कि गोशालक के संबंध में महावीर ने | जैनों का ही एक वर्ग-दिगंबर-मानता है कि सब जैन बड़ा विरोध किया है। शास्त्र झूठे हैं। क्योंकि चार सौ साल में सब गड़बड़ हो गया। बौद्ध ग्रंथों में महावीर का विरोध है। और निश्चित ही जब जिन्होंने याद रखा, उन्होंने अपना हिसाब जोड़ दिया। और ऐसा महावीर का विरोध है तो अपने शत्रु का शत्रु अपना मित्र हो जाता सच मालूम होता है। कुछ बातें महावीर की रह गई होंगी, कुछ है। तो गोशालक का सम्मानपूर्वक उल्लेख है। महावीर के जुड़ गई होंगी, कुछ छूट गई होंगी। संबंध में तो बहुत मजाक बौद्ध शास्त्रों में है। | इसलिए मैंने जब महावीर के सत्रों पर बोलना शरू किया तो मैं बौद्ध शास्त्र कहते हैं, एक हैं सर्वज्ञ—एक ही थे सर्वज्ञ का सभी सूत्रों पर नहीं बोल रहा हूं। मैंने वे सब सूत्र अलग कर दिए दावा करनेवाले—एक हैं सर्वज्ञ; वे कहते हैं, उन्हें तीनों काल हैं जो महावीर के योग्य नहीं हैं। छोड़ ही दिए मैंने। वे महावीर के का पता है। भविष्य, वर्तमान, अतीत, सब उन्हें मालूम है। लिए अयोग्य हैं। तीनों लोक उन्हें मालूम हैं, लेकिन ऐसी घड़ियां रही हैं कि सुबह | गोशालक को गाली महावीर ने दी हो, यह बात ही अशोभन के अंधेरे में कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ गया। जब कुत्ता भौंका तब है। इसलिए छोड़ ही दी, वह बात ही नहीं उठाई है। कोई कह सर्वज्ञ को पता चला कि अरे! यहां कुत्ता सो रहा है। तीनों लोक | सकता है कि मैं महावीर के साथ ज्यादती कर रहा हूं। सब सूत्रों के ज्ञाता हैं!' पर नहीं बोल रहा हूं। मैंने चुन लिए हैं। 'कभी ऐसा भी हुआ है कि ऐसे दरवाजे पर भीख मांगने खड़े लेकिन मैं कहता हूं, कि मैं ज्यादती नहीं कर रहा हूं। ज्यादती हो गए जहां कोई रहता ही नहीं। जब लोगों ने, पास-पड़ोसियों ने पहले बहुत हो चुकी। मैं गलत को छोड़े दे रहा हूं। जो मुझे कहा, यहां क्या खड़े हैं ? इस घर में कोई रहता नहीं; तब पता लगता है कि महावीर जैसी चेतना को उपलब्ध व्यक्ति के मुंह में चला। तीनों काल का ऐसे उन्हें पता है, और यह भी पता नहीं कि शोभा नहीं देगा, वह मैं छोड़ देता हूं। गोशालक के संबंध में जैन सामने घर में कोई रहता है कि नहीं रहता? वहां भीख मांगने | शास्त्र क्या कहते हैं, सुनकर तुम हैरान होओगे। जैन शास्त्र निंदा, गर्हित निंदा से भरे हैं। और निंदा भी सज्जन, सांस्कृतिक ऐसे बहुत मजाक बौद्ध शास्त्रों में महावीर के लिए हैं। लेकिन चेतना की नहीं है—अत्यंत ओछी, गंदी। गोशालक का कोई विरोध नहीं है। गोशालक का तो सम्मान से एक उल्लेख खयाल में रखने जैसा है। जैन शास्त्र कहते हैं कि उल्लेख है। जैन शास्त्रों में बुद्ध का कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जब गोशालक मरा तो मरते वक्त उसे समझ में आया कि मैंने 1399 ___ 2010_03
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________________ जिन सत्र भागः2 बड़ी भूल की, जो तीर्थंकर महावीर का जीवनभर विरोध महावीर को सहानुभूति से देखो, बुद्ध को सहानुभूति से देखो, किया-मरते वक्त समझ में आया उसको कि मैंने जीवनभर जो | कृष्ण को सहानुभूति से देखो, क्योंकि और समझने का कोई तीर्थंकर महावीर का विरोध किया, बड़ी भूल की। पापी को उपाय नहीं है। वैसे ही कहता हूं, गोशालक को भी सहानुभूति से अपना पाप अनुभव हुआ, पश्चात्ताप हआ। देखो। नकारात्मक नहीं, विधायक दृष्टि से देखो। तो उसने क्या कहा? उसने अपने पास जो दो-चार-दस शिष्य विधायक दृष्टि का यह अर्थ हआ कि अगर मेरे किए कछ भी थे, दो-चार-दस! क्योंकि ज्यादा तो जैन मान नहीं सकते कि रहे | नहीं होता तो तुम्हारी चिंता कहां बचेगी? चिंता तो इसीलिए होंगे। दो-चार-दस जो शिष्य थे, उनसे कहा, सुनो, मैंने | उठती है कि मेरे किए कुछ हो सकता है। मैं कुछ करूंगा तो कुछ जीवनभर जो कहा, वह गलत था। महावीर जो कहते हैं, फर्क हो सकता है, इसलिए मन में तनाव पैदा होता है। इसलिए शत-प्रतिशत ठीक कहते हैं। वही तीर्थंकर हैं। मैं तो एक झठा, अशांति पैदा होती है, चिंता पैदा होती है। धोखेबाज आदमी था। खैर! मैं मर रहा हूं, लेकिन मेरी बात याद और कभी-कभी तुम्हारे मंतव्य में और जगत की गति में रखना। तुम सब अब महावीर के अनुयायी हो जाना। और मैंने कभी-कभी संयोगवशात मेल पड़ जाता है तो तुम अहंकार से जो पाप किया है जीवनभर में, उसके पश्चात्ताप के लिए तुमसे मैं भर जाते हो। कभी अधिक मौकों पर मेल नहीं पड़ता तो तुम दुख कहता हूं, कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी अर्थी मत निकालना, रास्ते और विषाद से भर जाते हो। पर मझे खींचना। मेरे ऊपर थंकना। कत्तों से मेरे ऊपर पेशाब। अगर गोशालक की बात सही है तो न दख का कोई क करवाना। और पूरे नगर में मेरी लाश को सड़क पर खींचते ले न सुख का कोई कारण है। जो होना था, हुआ है। जो हो रहा है, जाना, ताकि सारे देश को पता चला जाए कि गोशालक ने | वही होना है। जो होना है, वही होगा। तुम अपने आप शांत हो पश्चात्ताप कर लिया है। | जाते हो। न कोई तनाव, न कोई चिंता, न कोई दौड़, न कोई ये जैन शास्त्र इस तरह की बात करें, यह थोड़ा विचारणीय है। संघर्ष, न कोई अकड़, न कोई हार, न कोई जीत, न कोई विषाद, गोशालक जैसा व्यक्ति हमारे लिए खो गया है। अब जो न कोई संताप। उल्लेख रह गए हैं, वे विरोधियों के हैं। विरोधियों से कभी भी इस संतापशून्य अवस्था में जिसका तुम्हें अनुभव होगा, निर्णय मत लेना। एक बात पक्की है कि विरोधियों ने जो कहा है, | गोशालक उसी को ध्यान कहता है। वह करने की बात नहीं है; वह तो सही हो ही नहीं सकता। तो बड़ी छानबीन करके तुम्हें जब करना छूट जाता है, तब जो शेष रह जाता है वही ध्यान है। खोजना पड़ेगा। बौद्ध और जैन ग्रंथों में देखकर कुछ बातें जो लेकिन गोशालक ध्यान शब्द का भी उपयोग नहीं करता। साफ होती हैं, उनमें एक बात सबसे महत्वपूर्ण है, वह है: क्योंकि ध्यान शब्द से भी क्रिया का पता चलता है। हम कहते हैं, अकर्मण्यतावाद का सिद्धांत। ध्यान करने जा रहे हैं। गोशालक कहता है, करने से क्या 'प्राणियों में दुख का कोई हेतु नहीं है, न विशुद्धि का कोई हेतु | होगा? और तुमने अगर ध्यान किया होगा तो तुम्हें पता होगा। है। पुरुषार्थ और पराक्रम काम नहीं आते। नियति या भाग्य ही करने से क्या होता है? उछलो-कूदो, शोरगुल मचाओ, या सब कुछ है। जो हुआ, वह होना था। जो होना है, वह होगा। आंख बंद करके बैठो। करने से होता क्या है? हां, कभी-कभी जो हो रहा है, वही हो सकता है। सब कुछ नपा-तुला है। और | ऐसा होता है कि हो जाता है। हो सकता है कि करने के समय ही कर्म से, पाप या पुण्य से कोई भेद नहीं पड़ता है।' | कभी-कभी हो जाए। इसको अगर नकारात्मक दृष्टि से लें तो इसका अर्थ हुआ कि गोशालक कहता है, वह संयोग मात्र है। तुम अगर ध्यान न आदमी को अधार्मिक होने की बड़ी सुविधा दे दी। क्योंकि भी कर रहे होते तो उस वक्त होता। वह यह नहीं कह रहा है कि पाप-पुण्य से कोई फर्क नहीं पड़ता, तो करो जो करना है। तुम ध्यान मत करो। वह इतना ही कह रहा है, तुम्हारी दृष्टि करने लेकिन यह गोशालक को विरोधी की दृष्टि से देखना होगा। | से ऊपर उठे, होने पर जगे। और जिस व्यक्ति को करने का बोझ गोशालक को सहानुभूति से देखो। जैसा मैं तुमसे कहता हूं, उतर गया, जिसने सारी चिंता छोड़ दी अस्तित्व पर, उसका ध्यान 400 2010_03
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________________ गोशालक: एक अस्वीकृत तीर्थकर हो गया। नहीं होता। तो मुझे तो गोशालक उतना ही बहुमूल्य है, जितने महावीर। उस दिन तुम्हारे ऊपर सदज्ञान उतरा। उस दिन तुम्हारी समाधि गोशालक एक तीर्थंकर है। सहज-समाधि उसका योग है। पकी। उस दिन फसल काटने के दिन आए। जिस दिन तुमको सहज-स्वीकार जीवन का उसकी साधना है। नकार नहीं, | लगा, मेरे किए भी नहीं होता, उस दिन समर्पण हुआ। अभी तो अस्वीकार नहीं, विरोध नहीं, दमन नहीं। जैसा जीवन आ जाए, तुम समर्पण भी करते हो, तो कहते हो कि मैंने समर्पण किया। उसे वैसा ही आलिंगन कर लेना स्वागत से। यही उसकी अब समर्पण भी कोई कर सकता है? अगर तुमने किया, तो जीवन-दृष्टि है। | समपेण हुआ ही नहीं। तुम्हारी किए समर्पण होगा? तो यह अगर तुम गोशालक का विधायक रूप समझो तो कृष्णमूर्ति से तुम्हारा कृत्य रहा। तुम्हारा कृत्य तो तुम किसी भी दिन वापस ले बहुत मिलेगा, मेल खाएगा। लेकिन जैन तो उस विधायक रूप | सकते हो। एक दिन तुमने कहा, समर्पण किया, दूसरे दिन तुमने को नहीं समझ सकते थे। कहा, अच्छा वापस लेते हैं। नहीं करते। तो कोई क्या करेगा? विरोधी का हम विधायक रूप देखते ही नहीं। विरोधी में तो मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम आप पर समर्पण करते हम बुरा-बुरा देखते हैं। अपने में भला-भला देखते हैं, विरोधी हैं। मैंने कहा, जब तक करते हो, तब तक तुम अपने पास ही में बुरा-बुरा देखते हैं। जब तक हमारे मन में यह भाव है कि रखो। क्योंकि यह की हुई चीज झंझट है हमारी अपनी कोई दर्शन-परंपरा है, शास्त्र है, सिद्धांत है, तब किसी भी दिन तुम आ गए कि लाओ, वापस दो। तक हम सम्यक रूप से देख ही नहीं सकते। जो किया गया है, वह लौटाना पड़ सकता है। लेकिन जो हुआ एक जैन मित्र राजस्थान से आए। तो मुझसे कहने लगे, एक है, उसे तुम लौटा नहीं सकते। जैन मुनि ने कहा, कहां जा रहे हो? वह आदमी तो गोशालक प्रेम होता है। तुम कहते हो, किसी से प्रेम हो गया। तुम्हारे है। मैंने कहा, बात तो उन्होंने ठीक कही। मुझमें कोई खोजना करने जैसा कुछ भी नहीं है। इसलिए जीसस ठीक कहते हैं कि चाहे तो गोशालक को बिलकुल खोज ले सकता है। मैंने उनसे परमात्मा प्रेम जैसा है; होता है, किया नहीं जाता। कहा, बात तो उन्होंने ठीक कही। ध्यान प्रेम जैसा है; होता है, किया नहीं जाता। लेकिन वे बेचारे बड़े परेशान थे। क्योंकि वे भी जैन हैं। और उनको कर-करके जब तक थकोगे न, जब तक तुम ठीक से दौड़ाए न लगा, यह तो बड़ी गाली हो गई। गोशालक कह दिया। मुझसे जाओगे, तब तक तुम विश्राम कर ही नहीं सकते। तुम जब थक कहने लगे, आप कुछ कहेंगे नहीं? इसमें आप कोई वक्तव्य दें जाओगे दौड़-दौड़कर, तुम्हारे पैर जब जवाब दे देंगे, तुम्हारा कि उन्होंने आपको गोशालक कहा। अहंकार जब खुद ही गिर जाएगा, थककर गिर जाएगा कि अब मैंने कहा, गलत तो कहा नहीं। ठीक ही कहते हैं। मुझमें कुछ कुछ नहीं होता; तुम बैठ जाओगे, उसी घड़ी कुछ होगा। लक का हिस्सा है। मैं भी मानता हं, आदमी के किए कछ ऐसा ही बद्ध को हआ। शायद बौद्ध शास्त्रों में गोशालक का होता नहीं। अगर तुमसे करने को भी कहता हूं तो सिर्फ इसलिए जो सम्मान से उल्लेख है, इसका एक कारण बुद्ध की समाधि भी कि कर-करके ही तुम जानोगे कि करने से कुछ नहीं होता। बिना रही होगी। क्योंकि बुद्ध ने छह साल तक ऐसा ही किया, जैसा किए शायद मन में कोई भाव रह जाए कि कर लेते तो शायद हो महावीर ने बारह साल तक किया। सब तरह से चेष्टा की। फिर जाता। तो मैं कहता हूं, कर लो। करके देख लो। चलो, यह थक गए। कुछ पाया नहीं। तो छह साल के बाद ऊबकर, खुजलाहट है, यह भी कर लो। परेशान होकर छोड़ दिया। और जिस रात छोड़ा, उसी रात तो तमसे कहता हं, ध्यान करो. प्रार्थना करो, पजा करो। बाकी समाधि घटी। उसी रात बद्धत्व उपलब्ध हआ। करने से कभी कुछ हुआ नहीं। कर-करके ही एक दिन तुम्हें तो शायद गोशालक की बात बुद्ध को समझ में आती रही अचानक बुद्धि आएगी-अगर बुद्धि है तो जरूर एक दिन होगी, कि कहता तो यह आदमी ठीक है। हालांकि बड़ी आएगी कि अरे! यह मैं क्या कर रहा हूँ? मेरे किए तो कुछ भी खतरनाक बात है। अगर नकरात्मक रूप से लें तो बड़ी ___ 2010_03 www.jainelibrarorg
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________________ जन सत्र भाग: 2 BELS MSR5 TIMERNAM खतरनाक है। क्योंकि उसका मतलब होगा, तो फिर कुछ करने ऐसा कभी नहीं होता कि जो आदमी एक दफे जेल गया हो, वह की जरूरत नहीं। चोर चोरी करे। हत्यारा हत्या करे। बेईमान फिर न गया हो। वह जेल से बाहर आते से फिर वही कृत्य करता बेईमान रहे। शराबी शराब पीए। करने से तो कुछ होता नहीं। है। हां, अब पहले से ज्यादा कुशलता से करता है। तब तुमने गलत अर्थ ले लिया। शराबी से पूछो, कितनी बार तो मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं, ये तुम्हारे कारागृह लोगों को पाप छोड़ने की कोशिश नहीं कर चुका है। कहां छूटती? और | से रोकते नहीं हैं, पाप का शिक्षण देते हैं। ये विश्वविद्यालय हैं जिसकी छूट गई हो, उससे पूछो कि क्या तेरी कोशिश से छूटी? पाप के। और तुम सोचते हो दंड देने से कुछ होता है। कोड़े अगर वह ईमानदार आदमी हो तो कहेगा, कोशिश तो बहुत की, मारो, भूखा मारो, अंधेरी कोठरियों में बंद करो, इससे कुछ होता न छुटी। जब छूटनी थी, छूट गई। एक दिन ऐसा हुआ कि छूट है। तुम सोचते हो, शायद इससे रुकावट होगी। गई। वह जो कोशिश कर रहा है और थकता है और नहीं इंग्लैंड में ऐसा था सौ साल पहले तक कि जो भी चोर चोरी छूटती...अक्सर तो ऐसा होता है, कोशिश से और पकड़ती है। करता, उसको चौरस्ते पर खड़ा करके कोड़े मारते थे; ताकि पूरा जिसे तुम भुलाने की कोशिश करते हो, उसकी और याद आती गांव देख ले कि चोर की क्या हालत होती है। फिर उनको वह है? भुलाने में भी तो याद ही आती है। करोगे भी क्या? बंद करनी पड़ी प्रथा। क्योंकि पाया गया कि पूरा गांव इकट्ठा हो किसी को भुलाना चाहते हो, उतार देना चाहते हो मन से कि जाता और वहीं जेब कट जाती। एक आदमी को चोरी की वजह अब याद न आए, तकलीफ होती है, कांटा चुभता है याद का; न से कोड़े मारे जा रहे हैं, उसकी चमड़ी उधेड़ी जा रही है, आए याद। लेकिन जब भी तुम सोचते हो न आए याद, तभी तो लहूलुहान हो रहा है और भीड़ उत्सुकता से देख रही है। लोग याद कर ली। न याद करने में याद फिर हो गई। तो यह तो याद ऐसे तन्मय हो जाते देखने में।। बढ़ती चली जाएगी। हां, ऐसा कभी होता है एक दिन कि याद हिंसा जहां हो रही हो, वहां लोगों का बड़ा ध्यान लगता बिसर जाती है, नहीं आती। है—जिसको महावीर अधर्म ध्यान कहते हैं। एकदम लोग तत्पर गोशालक इतना ही कह रहा है कि जीवन में सब सहज हो रहा हो जाते हैं। जिनकी कभी एकाग्रता नहीं सधी, वह भी सध जाती है। यहां तुम चेष्टा को बीच में मत लाओ। है। उसी वक्त जेब कट जाती। और उसकी बात सही है। क्योंकि कितनी अदालतें हैं। कितने आखिर समझ में आया कि यह तो कोई सार नहीं। हम सोचते चोरों को दंड दिए गए, कौन-सी बदलाहट हुई है? चोर बढ़ते हैं, लोगों को शिक्षा मिलेगी। वहीं जेब काटनेवाले मौजूद हैं। वे गए, जैस-जैसे कानन बढ़े। तम कानुन बनाओ, चोर और | इस अवसर को भी नहीं चकते। वकील बढ़ते हैं और कुछ नहीं होता। ज्यादा कानून बनाओ, वह अपराध और दंड की अब तक की जो व्यवस्था रही है, वह और ज्यादा चोर, और ज्यादा वकील। कानून से कुछ रुकता तो बिलकुल व्यर्थ है। उससे हो सकता है, समाज को थोड़ा सुख नहीं। कारागृह बनाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता। मिल जाता हो कि जिसने हमारा नियम तोड़ा उसको हमने सता अब तो मनोवैज्ञानिक पश्चिम में कहने लगे हैं कि कारागृह लिया। हिंसा का थोड़ा मजा आ जाता हो। है तो मूढ़तापूर्ण। रनाक हैं, क्योंकि इनसे और चोर निष्णात होकर निकलते हैं। एक आदमी किसी की हत्या करता है, हम उसको फांसी की सजा नए सिक्खड़ आते हैं, किसी ने किसी की जेब काट ली, पकड़ देते हैं। यह तो बड़े मजे की बात हुई। यही पाप उसने किया। गया। पहुंच गया जेल, छह महीने की सजा हो गई। वहां मिलते यही पाप हम करते हैं और हम कहते हैं, चूंकि तुमने किसी को हैं महागुरु। कोई बीस साल से काट रहे हैं, कोई पंद्रह साल से मारा इसीलिए हम तुम्हें मारेंगे। काट रहे हैं। छह महीने सत्संग हो जाता है। उस सत्संग में वह एक छोटे स्कूल में एक शिक्षक अपने बच्चों से पूछ रहा था कि और मजबूत होकर बाहर आ जाता है। वह सब सीखकर आ| तुम पशुओं को सताते तो नहीं? तुम जाता है कि पकड़ा क्यों गया। कहां भूल हो गई? कहां चूक हो सुरक्षा दी? करुणा की? एक लड़के ने हाथ हिलाया। उसने गई? अब कभी न होगी। कहा, हां, एक दफा। एक लड़का कुत्ते को मार रहा था तो मैंने 2010_03
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________________ लकः एक अस्वीकृत तीर्थकर उसकी ऐसी मरम्मत की लडके की। कत्ते पर तो दया हो गई। सकता है. गोशालक के साथ तो कोई आड न चलेगी। मगर वस्तुतः कुत्ते पर दया हुई? लड़के की मरम्मत कर दी तुम चकित होओगे जानकर कि महावीर नग्न रहे, गोशालक उसने। वह कुत्ते को मार रहा था, उसने लड़के की मारपीट कर भी नग्न रहा। गोशालक भी दिगंबर था। लेकिन महावीर की दी। अब वह सोच रहा है कि बड़ी करुणा हुई। नग्नता के पीछे कारण था कि जो भी सभ्यता, संस्कृति, संस्कार लेकिन तुम्हारी अदालतें भी यही कर रही हैं, कानून भी यही समाज ने दिया है उसका त्याग। उस सबको छोड़ देना है। कर रहा है। दंड किसी को अपराध से रोक नहीं पाया, न रोक संसार से जो मिला है वह सब छोड़ देना है। वस्त्र भी संसार से पाएगा। चेष्टा से कौन बदलता है? मिले हैं। वस्त्रों के साथ बहुत-सी बातें जुड़ी हैं। वे सब छोड़ तुम कभी अपने जीवन पर विचार तो करो। चालीस-पचास देनी हैं। आदमी को भीतर जाना है, बाहर का सब छोड़ देना है। साल तुम जी लिए हो दुनिया में। कितनी चेष्टा तुमने की है, कोई शरीर ही छोड़ देना है तो वस्त्र तो और भी शरीर के बाहर हैं। बदलाहट हुई है या कि तुम ठीक वैसे के वैसे हो? तब तुम्हें अंतर्मुखी होना है। गोशालक की अंतर्दृष्टि समझ में आएगी। लेकिन इस बदलने / गोशालक भी नग्न था। गोशालक के नग्न होने का कारण की चेष्टा में तुमने चिंता बहुत उठाई, तनाव बहुत झेला। और बिलकुल दूसरा था। वह कहता था नग्न ही आए हैं, नग्न ही गोशालक कहता है, हो सकता है उसी चिंता और तनाव के जाना होगा। तो बीच में यह कपड़ों का उपद्रव क्यों? कारण तुम इतने ज्यादा व्यस्त रहे अपने को बदलने में, कि अगर क्यों? बच्चे जब पैदा हुए थे तो नग्न थे। तो ठीक है, वही विश्व की ऊर्जा तुम्हें बदलने भी आयी होगी तो लौट गई होगी। स्वीकार है। तुम ग्राहक न रहे होओगे। महावीर की नग्नता में अनुशासन मालूम होता है, गोशालक छोड़ो चिंता। छोड़ो अस्तित्व पर। जैसा होता है, उसे चुपचाप | की नग्नता में सहजता मालूम होती है। अगर तुम्हें महावीर नग्न होने दो। तुम एक दफा प्रयोग करके देखो गोशालक का भी। मिल जाएं तो तुम नमस्कार करोगे। क्योंकि महावीर की नग्नता महावीर, बुद्ध और कृष्ण और पतंजलि तो दुनिया में स्वीकृत में योग मालूम होगा, साधना मालूम होगी, तपश्चर्या मालूम तीर्थंकर हैं। गोशालक अस्वीकृत तीर्थंकर है। लेकिन स्वीकृत होगी। गोशालक नग्न मिल जाए तो तुम कहोगे, हिप्पी है। तीर्थंकारों से दुनिया कुछ अच्छी हुई, ऐसा मालूम पड़ता नहीं। क्योंकि गोशालक कहता है, नग्न आए हैं, नग्न जाएंगे। इसलिए कभी-कभी मैं सोचता हूं, जो अस्वीकार हो गए हैं उन | गोशालक यह भी नहीं कहता, इसमें कुछ गौरव है नग्न होने पर भी ध्यान देना जरूरी है। हो सकता है, उनके पास कुछ कुंजी में। वह कहता है तुम्हें कपड़े पहनना ठीक लगता है, चलो हो। जिन्हें हमने स्वीकार किया है, हो सकता है हमने उन्हें ठीक। हमें नंगा रहना ठीक लगता है, यही ठीक। हमें हम रहने इसीलिए स्वीकार किया कि हमारे रोग से उनका कुछ तालमेल | दो, तुम तुम रहो। हम तुम्हें आदेश नहीं देते, तुम कृपा करके हमें बैठता था। हमारा रोग है, कर्ता होने का रोग। आदेश मत दो। महावीर कहते हैं, करो ध्यान, करो तप। जंचती है बात। गोशालक इतना ही कहता है, प्रत्येक अपनी प्रकृति के गोशालक कहता है करने से क्या होगा? बात जंचती नहीं। अनुकूल चले, सहज रहे। महावीर जब कहते हैं करो / करो, तो तम्हें ऐसा लगता है, हां, अपने गोशालक न तो स्वर्ग की बात करता है, न नर्क की। बल में कुछ है, अपने बस में कुछ है। गोशालक कहता है, किसी के बस में कुछ नहीं। तुम चाहते नहीं है कहीं, लेकिन महावीर कहते हैं, सात नर्क हैं। गोशालक हो, यह आदमी चुप रहे। यह न बोले। क्योंकि यह तुम्हारी से कोई पूछता है, कितने नर्क हैं? वह कहता है, सात सौ। वह असलियत खोल रहा है। यह तुम्हारी दीनता जाहिर कर रहा है। सिर्फ मजाक कर रहा है। वह यह नहीं कह रहा कि सात सौ हैं। महावीर के साथ तो अहंकार बच सकता है, गोशालक के साथ वह यह कह रहा है, पागल हुए हो? न कोई नर्क है, न कोई स्वर्ग | कैसे बचाओगे? महावीर के साथ तो धर्म की आड़ में बच है। बस तुम हो और तुम्हारा चैतन्य है। बाकी सब सिद्धांतों के | 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 M ANNAINAAMIRPERSONNELHARI HTRA जाल हैं। सांत्वना नहीं देता। वाइजे-सादालोह से कह दो, छोड़ उकबा की बातें __ तुम पूछो आत्मा अमर है? वह कहेगा, जब तक मरे नहीं, इस दुनिया में क्या रक्खा है, उस दुनिया में क्या होगा? पता कैसे चले? जब मैं मर जाऊं तब पछना। अभी तो मैं जिंदा वह भोले-भाले धर्मगुरु से कह दो कि छोड़ परलोक की बातें। हूं। या तुम मरोगे तब जान लेना। अभी पहले से जानकर भी इस दुनिया ही में कछ नहीं रक्खा है तो उस दुनिया में क्या क्या होगा? और पहले जानने का उपाय भी कहां है? जानने के होनेवाला है? पहले जानने का उपाय कहां है? अभी तो जी लो, फिर मौत भी वाइजे-सादालोह से कह दो, छोड़ उकबा की बातें | आएगी, देख लेना। होगी अमरता तो मिल जाएगी, न होगी तो इस दुनिया में क्या रक्खा है, उस दुनिया में क्या होगा? नहीं मिलेगी। इसकी चिंता भी क्या करना? अक्सर जो तुम्हें बताते हैं, उस दुनिया में बहुत कुछ रक्खा है, गोशालक ने खूब झकझोर दिया होगा भारत को। इसीलिए प्रभावित करते हैं क्योंकि तुम्हारे लोभ को जगाते हैं। वे जैन शास्त्र बड़े परेशान रहे हैं। उसने सारे सिद्धांतों की बुनियाद कहते हैं, यहां तो कुछ नहीं है लेकिन वहां है। क्या बाहर भटक उखाड़ दी होगी। उसने आदमी को रहे हो? क्या कंकड़-पत्थर इकट्टे कर रहे हो? क्या ठीकरे जोड़ संदेश दिया कि सिद्धांत, धर्म और शास्त्र और परंपरा का कोई रहे हो? कामिनी-कांचन में कुछ भी नहीं; लेकिन वहां है स्वर्ग उपाय नहीं रह गया। में। वे तम्हारे लोभ को जगाते हैं, तुम्हारे भय को जगाते हैं। वे कल मैं एक गीत पढ़ता था: तुम्हारी बीमारियों को उकसाते हैं। हवा हूं हवा मैं वासंती हवा हूं भय को उकसाते हैं। वे तुम्हें केवल तुम हो जाओ स्वयं, सहज, गिरी धम्म से फिर चढ़ी आम ऊपर प्रकृति के साथ चलने लगो, निसर्ग तुम्हारी व्यवस्था हो जाए, उसे भी झकोरा किया कान में कू इतनी बात कहते हैं। इसलिए बहत संप्रदाय बन नहीं सकते। उतरकर भगी मैं हरे खेत पहंची तकदीर कुछ ही, काविसे-तदबीर भी तो है वहां गेहुंओं में लहर खूब मारी तखरीब के लिबास में तामीर भी तो है पहर दोपहर क्या अनेकों पहर तक जुलमात के हिजाब में तनवीर भी तो है ऐसे व्यक्ति-गोशालक जैसे व्यक्ति तेज आंधी की तरह आ मुंतजिर-ए-इस्रते-फर्दे इधर भी आ आते हैं। तकदीर कुछ ही, काविसे-तदबीर भी तो है हवा हूं हवा मैं वासंती हवा हूं किस्मत तो थोड़ी है; ज्यादा तो पुरुषार्थ है। चढ़ी पेड़ महुआ थपाथप मचाया तखरीब के लिबास में तामीर भी तो है वे आदमी की चेतना को खूब थपथपाते हैं, झकझोर देते हैं। और विनाश तो है, लेकिन उसमें छिपा निर्माण भी तो है। गिरी धम्म से फिर चढ़ी आम ऊपर जुलमात के हिजाब में तनवीर भी तो है उसे भी झकोरा किया कान में कू अंधेरा है माना. लेकिन बडा प्रकाश है। सबह जल्दी करीब आ उतरकर भगी मैं हरे खेत पहुंची रही है। जगत में दुख है माना, लेकिन स्वर्ग में बड़ा सुख भी है। वहां गेहुओं में लहर खूब मारी आ मुंतजिर-ए-इस्रते-फर्दे इधर भी आ पहर दोपहर क्या अनेकों पहर तक ओ आगामी कल के सुख! मेरी तरफ भी दृष्टि दे। ऐसे व्यक्ति धूल-धवांस झाड़ जाते हैं चेतना की। ऐसे व्यक्ति आदमी ऐसे जीता है-लोलुपता में, भरोसे में, आशा में। संप्रदाय निर्मित नहीं करते। ऐसे व्यक्तियों का धर्म बड़ा शुद्ध है। गोशालक जैसे तीर्थंकरों के पास आशा का कोई उपाय नहीं। ऐसे व्यक्ति ऐसे हैं, जैसे शुद्ध सोना। आभूषण बनाने हों तो कुछ 404 2010_03
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________________ - गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थंकर बनते। फिर बीस कैरेट, अठारह कैरेट-कुछ मिलाना पड़ता किए जा सकते हैं। है-तांबा, कुछ और। नहीं तो सोना बहुत नर्म है। जैसे-जैसे लेकिन मैं उनसे कहता हूं, मोक्ष इतना सस्ता नहीं है कि पानी | संप्रदाय बनता है, सोने के आभूषण बनते हैं, वैसे-वैसे अशुद्धि छानने से मिल जाए। मोक्ष इतना सस्ता नहीं है, यह शुभ है। मिलती है। जितना व्यवस्थित संप्रदाय बनता है, उतना ही विकृत नहीं तो जितने लोग पानी छानकर पी रहे हैं, ये मोक्ष में रहेंगे। संप्रदाय हो जाता है। | तुम थोड़ा सोचो। उस मोक्ष में तुम रहना पसंद करोगे, जहां सब जैन संप्रदाय बहुत व्यवस्थित है। छोटा है, लेकिन बहुत पानी छाननेवाले पहुंच गए ? वह बड़ा बेरौनक होगा। वह बड़ा नियोजित है, व्यवस्थित है। एक-एक रेखा साफ है, सीमा पर | उदास होगा। वहां कोई जीवन का उल्लास, आनंद न होगा। बंधी है। द्वार, दरवाजे, आंगन, बागुड़, सब साफ है। जैन | गोशालक बहुत मस्त आदमी था। मस्त फकीर! संप्रदाय गणित जैसा सुस्पष्ट है। और गोशालक जैसे व्यक्ति | नाचता-गाता आदमी था। जैन शास्त्रों में इसलिए भी बड़ा काव्य जैसे हैं-अस्पष्ट, धुंधले, रहस्यपूर्ण। | विरोध है। क्योंकि कभी-कभी ऐसा हो जाता कि गोशालक के फिर हम यहां रास्ता खोज रहे हैं। हम चाहते हैं कोई रास्ता बता | पास महफिल जमी है, नाच रहे लोग। एक गांव में वेश्या ने दे। हमें रास्ता पता नहीं है। गोशालक रास्ते पर मिल जाए तो निमंत्रण दे दिया, और गोशालक वहीं चला गया नाचते हुए। वह कहता है, रास्ता है ही नहीं। क्या खोज रहे हो? इससे हमें अब जैन शास्त्रों में उसका विरोध होना स्वाभाविक है। चैन नहीं होता। हम कहते हैं हटो। हमें रास्ता पूछना है। हम कहते हैं वह मरा-जैन शास्त्र कहते हैं तो एक वेश्या के बेचैन हैं बिना रास्ते के। हम चाहते हैं, जीवन का लक्ष्य क्या है? घर ही टिका हआ था। पता नहीं, यह सच हो या न हो। क्योंकि गोशालक मिल जाए, वह कहता है कोई लक्ष्य है ही नहीं। जैन शास्त्रों की बात मानने का कोई भी कारण नहीं है। मगर यह अलक्ष्य जीवन चल रहा है। कहीं पहुंचना थोड़े ही है! हो भी सकता है। क्योंकि गोशालक जैसे व्यक्ति को पापी में जीवन नृत्य जैसा है, यात्रा जैसा नहीं। इसमें कोई अंतिम और पुण्यात्मा में कोई फर्क नहीं है। गोशालक जैसे व्यक्ति को पड़ाव नहीं है। ही है। हां, बीच में बहुत पड़ाव हैं, वे विश्राम के लिए वेश्या में भी वही परमात्मा नजर आता है-वही शुद्ध, जो हैं। सुबह उठे फिर चल पड़ना है। यह अनंत यात्रा है। पुण्यात्मा में है; कोई भेद नहीं है। मगर इससे हमारे मन में भरोसा नहीं आता। कोई चाहिए, जो भेद ओछी दृष्टियों के हैं। भेद नासमझों के हैं। गोशालक हमें बता दे स्पष्ट कि कहां हम जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं? तो निश्चित अभेद में रहा होगा। परमहंस था। निश्चितता हो जाए, भय मिटे। हिसाब बैठ जाए। तो हम क्या करें और क्या न करें। तो क्या करने से रास्ते पर रहेंगे और क्या | दूसरा प्रश्नः महावीर अशरण का उपदेश देते थे और शिष्य करने से रास्ते से बिछुड़ जाएंगे! भी बनाते थे। क्या ये दोनों बातें परस्पर-विरोधी नहीं हैं? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप कुछ मर्यादा क्यों नहीं देते? साफ-साफ अनुशासन क्यों नहीं देते? आप हमें दिखती विरोधी हैं; हैं नहीं। और इस जगत में जो भी सत्पुरुष ठीक-ठीक बता दें क्या हम करें और क्या हम न करें? बस, हुए हैं, वे हमेशा विरोधाभासी दिखाई पड़ेंगे। जीवन फिर हम निपट लेंगे। मगर आप कुछ कहें तो! साफ-साफ सूत्र विरोधाभासी है। तो जो भी इस जीवन को झलकाएगा इसकी | सचाई में, वह भी विरोधाभासी होगा। वे मुझसे चाहते हैं कि मैं उन्हें आश्वासन दे दूं कि इतनी बातें सिर्फ पंडित विरोधाभासी नहीं होते। तुम पूरी करते रहोगे, पानी छानकर पीओगे तो मोक्ष निश्चित है। होंगे। क्योंकि ज्ञानी छांटता नहीं। वह जिंदगी पर कोई ढांचा नहीं मांसाहार न करोगे, मोक्ष निश्चित है। खेती-बाड़ी न करोगे, रोकता। उसके लिए जिंदगी जैसी है, स्वीकार है। वह सिर्फ मोक्ष निश्चित है। तो फिर वे इतने काम करना शुरू कर दें। ये जिंदगी को झलका देता है। फिर जो भी जिंदगी में है, वह सब काम बंद कर दें। यह कोई बहुत कठिन तो नहीं है। ये काम बंद उसमें झलक जाता है। वह दर्पण का काम करता है। 405 ___ 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः 2 अब यह बात महावीर कहते हैं, अशरण। किसी की शरण मत पकड़कर छाती से लगाकर बैठा है कि मिल गई दिल्ली। दिल्ली जाओ। लेकिन महावीर के पास शिष्य आते हैं। शिष्य कहते हैं, लिखा है पत्थर पर। हालांकि लिखा है, हजार मील दूर कि दो 'सिद्धे शरणं पवज्झामि।' हे सिद्ध पुरुष! हम तुम्हारी शरण हजार मील दूर। वह उसकी फिकर नहीं कर रहा है। आते हैं। 'अरिहंते शरणं पवज्झामि।' हे पहुंचे हुए पुरुष! हम तुम कभी मील के पत्थर के पास बैठकर यह नहीं कहते कि | तुम्हारी शरण आते हैं। बड़ा विरोधाभास है, दिल्ली लिखा है और दो हजार मील भी महावीर इनको स्वीकार भी करते हैं। तब तो बड़ी उलटी बात लिखा है! दिल्ली है तो ठीक, पत्थर ठीक। अगर दो हजार मील मालूम पड़ती है। महावीर कहते हैं अशरण! और ये शरण | तो यहां दिल्ली क्यों लिखते हो? फिर दो हजार मील वहीं आनेवाले लोग भी स्वीकार हो जाते हैं। इनकी भी महावीर दीक्षा | लिखना दिल्ली। करते हैं। इनको संन्यस्त करते हैं। इनको सत्य के मार्ग का इंगित | महावीर कहते हैं, शिष्य बनना एक बात है, शरण जाना दूसरी करते हैं। | बात है। शिष्य बनने का अर्थ इतना है, कोई पहुंचा, किसी ने तो विरोध दिखाई पड़ता है, लेकिन सिर्फ दिखाई पड़ता है। जाना, कोई जागा, उसका लाभ ले लो। कोई बहुत भटका, तब जब महावीर शिष्य बनाते हैं तो वे इतना ही कह रहे हैं कि मैं तुमसे उसे मार्ग मिल गया, तुम उससे थोड़ा समझ लो। मगर रहना जरा ऊंचाई पर खड़ा हूं। तुम वृक्ष के नीचे हो, मैं वृक्ष पर खड़ा अपने पैरों पर। झुको उसके सामने, जो जानता है। लेकिन झुको हूं। यहां से मुझे जरा दूर तक दिखाई पड़ता है। जैसे मैं इस वृक्ष इसीलिए कि उठकर चलना है। झुके ही मत रह जाना कि फिर पैर पर चढ़ आया है, उतने दूर तक तुम मेरे सूचन का उपयोग कर पकड़ लिए तो छोड़ेंगे नहीं। सकते हो। तुम भी इस वृक्ष पर चढ़ आ सकते हो। | तो तुम तो चल ही न पाओगे, तुम किसी चलनेवाले को भी तुम रास्ते पर किसी से पूछते हो, नदी का रास्ता कहां है? कोई रोक लोगे। शिष्य गुरुओं के द्वारा पहुंचते हैं कि नहीं पता नहीं, आदमी बता देता है, तो क्या तुम्हारा गुरु हो गया? क्या तुम बहुत से गुरुओं को डुबाते हैं यह पक्का है। इतने जोर से पकड़ उसकी शरणागति हो गए? तुम उसे धन्यवाद देकर नदी की लेते हैं कि न तो खुद जाते हैं, न उसे जाने देते हैं।। तरफ चले जाते हो। तुम ऐसा थोड़े ही, कि उसके चरण पकड़ तो महावीर कहते हैं कि जाग्रत पुरुष से सीखो। वह वृक्ष पर लेते हो कि अब मैं तुम्हें कभी भी न छोडूंगा महाराज! क्योंकि बैठा है, उसे दूर का दृश्य दिखाई पड़ता है। तुम नीचे खड़े हो आपने नदी का रास्ता बताया। वह कहेगा, अगर नदी का रास्ता अंधेरे में, घाटी में। वह पर्वत के शिखर पर खड़ा है। उसकी बताया तो कोई गलती तो नहीं की। जाओ नदी। दृष्टि का विस्तार बड़ा है। उसकी सुन लो, समझ लो। सोचो, नदी का रास्ता पूछने में तो हम ऐसी भूल नहीं करते, लेकिन | विचार कर लो। तुम्हारी बुद्धि उससे राजी हो जाए, तुम्हारा हृदय परमात्मा का रास्ता पूछने में अक्सर ऐसी भूल करते हैं। इसलिए | उसके साथ धड़के, तो फिर चलो। महावीर कहते हैं, सुन लो, समझ लो, मैं जो कहता हूं उसे गुन | लेकिन ध्यान रखना, चलना तुम्हें ही होगा। लो। फिर पकड़ो अपनी गैल। जाओ अपनी डगर पर। फिर मेरे | इसीलिए कहते हैं, अशरण। किसी और के पैर से तुम न चल पैर पकड़कर मत रुको। मैंने कोई कसूर तो किया नहीं। मुझे क्यों | सकोगे। चलना तुम्हें ही होगा इस बात पर बार-बार जोर देने के सताते हो? जाओ। जितना मैं जानता हूं, कह दिया। इसका | लिए कहते हैं कि मार्ग कोई भी बता दे, नक्शा कोई भी तुम्हें दे दे, कुछ उपयोग करना हो, कर लो। चलना तुम्हें ही पड़ेगा। तो एक तरफ महावीर कहते हैं, अशरण। क्योंकि वे जानते हैं, हम साधारण जीवन में सदा सहारा मांगते रहते हैं। कोई पति आदमी बड़ा पागल है। का सहारा, पत्नी का सहारा, बाप का, बेटे का सहारा, मित्र का आदमी ऐसा पागल है कि मील के पत्थरों को पकडकर रुक सहारा। सहारे के हम आदी हो गए हैं। हम बैसाखियों पर ही जाता है। हालांकि मील के पत्थर पर लगा है तीर, कि चलो चलने के आदी हो गए हैं। तो जब हम धर्म के जीवन में प्रवेश आगे। जाओ आगे। दिल्ली बहुत दूर है। मगर वह पत्थर करते हैं, पुरानी आदत कहती है, सहारा ! कोई गुरु का सहारा। 14061 2010_03
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________________ 'गोशालक: एक अस्वीकृत तीर्थकर पर हाय यह सहारे की सतत खोज तुम्हें आत्मवान न बनने देगी। तुम | दिखाई पड़ता है उससे आशा ले लो, उससे श्रद्धा ले लो; लेकिन अपने सहारे कब बनोगे? अपने पैर कब खड़े होओगे? अपनी उसके कारण थककर बैठ मत जाना। यह मत कहना, अब मुझे आंखों से कब देखोगे? अपने कानों से कब सुनोगे? यह सहारे क्या करना! तारा तो है। यह मत कहना महावीर से कि तीर्थंकर की खोज तो तुम्हें पंगु बना दी है। | तो तुम हो, अब मुझे क्या करना ! तुम तो पहुंच गए, अब तुम ही छोटे बच्चे की मां चलाती है। हाथ पकड़कर चलाती है। | मुझे पहुंचा दोगे। लेकिन यह कोई सदा के लिए इंतजाम नहीं है। यह कोई स्थिर | इसलिए महावीर कहते हैं, शरण मत खोजना। शरण खोजने व्यवस्था नहीं है। हाथ पकड़कर चलाती है ताकि उसे भरोसा आ के कारण धर्म भ्रष्ट हआ। जाए कि वह चल सकता है। फिर तो बच्चा खुद ही हाथ छुड़ाने ये जो दुनिया में इतने मंदिर, मस्जिद, इतने गुरुद्वारे, इतनी लगता है। कलह दिखाई पड़ती है, यह शरण की कलह है। तुमने देखो? बच्चा खुद ही कहता है, मत पकड़ो मेरा हाथ। न्याय के हे देवता! कब सिखाओगे मनुष्यों को और जो मां बच्चे के हाथ को जोर से पकड़ती है, वह मां नहीं है। कि आप अपनी वे रक्षा करें और जो बच्चा, जब चलना भी सीख गया तब भी मां का पल्लू त्राण वैसे तो उन्हें हैं मिले लाखों बार पकड़े रहता है, वह कभी प्रौढ़ न हो पाएगा। पर हर बार त्राता ने उन्हें बेच डाला है तो विरोध दिखता है। मां एक दिन कहती है, मेरा हाथ पकड़, न्याय के हे देवता! रोक रक्खो रक्षकों को स्वर्ग में चल। फिर धीरे-धीरे हाथ को सरकाती जाती है। फिर हाथ को | देव, त्राता मानवों का और मत भेजो अलग कर लेती है। फिर बच्चा पकड़ना भी चाहे तो वह दूर हो लोग रोते, त्राण तो हम पा गए जाती है। वह कहती है, अब तू चल। थोड़ी दूर खड़ी हो जाती है खों मर रहे जाकर; कहती है, आ। बच्चा उसकी तरफ आना शुरू करता और वह कहताः / है। एक दफा बच्चे को भरोसा आ जाए कि मेरे पास पैर हैं, मेरे बहुत-सी पक रही हैं कल्पना की पूड़ियां पैर हैं, तो प्रौढ़ता आनी शुरू होती है। मेरे पिता के गेह में सत्य के जगत में भी ऐसा ही है। गुरु थोड़ी दूर तक हाथ | धीरज धरो, फिर पेट भर खाना पकड़कर चला देता है। क्योंकि तुम जन्मों से चले नहीं। तुम लोग कहते भूल ही गए कि तुम्हारे पास पैर हैं। तुम जन्मों से उड़े नहीं, भूल | एक टुकड़ा दे सकते नहीं हमें सामान्य रोटी का ही गए कि तुम्हारे पास पंख हैं। थोड़ी देर उड़ा देता है, थोड़े | हुक्म वह देताः आकाश में तम्हें पंखों का थोड़ा खयाल आ जाता है। फिर तमसे नहीं, बैकुंठ चलकर ही तुम्हें भोजन मिलेगा कहता है, जाओ। दूर अनंत आकाश है, उड़ो। वह पूरा आकाश और वह सामान्य क्यों? तुम्हारा है। दावा करो। अदभुत, अमूल्य, अपूर्व होगा मैंने सोचा था कि दुश्वार है मंजिल अपनी न्याय के हे देवता! कब सिखाओगे मनुष्यों को एक हंसी बाजू-ए-सीमी का सहारा भी तो है कि आप अपनी रक्षा वे स्वयं करे दश्ते-जुल्मात से आखिर को गुजरना है मुझे ...कि अपनी आप वे रक्षा करें। कोई रुखशंदा और ताबीदा सितारा भी तो है महावीर त्राता हैं, लेकिन त्राण के आधार पर तुम्हारे प्राणों को पहले ठीक है। शुरू-शुरू चलते हैं तो किसी रजत बांह का | नष्ट नहीं करना चाहते। सभी सदगुरु यही कहेंगे। सहारा हो, अच्छा। कोई चमकता हुआ सितारा हो, अच्छा। झुको जरूर। झुके बिना कोई सीखता नहीं। दश्ते-जुल्मात से आखिर को गुजरना है मुझे शिष्य बनो जरूर। विनम्र हुए बिना कोई सीखता नहीं। लेकिन अंततः तो अंधेरे से खुद ही गुजरना है। वह दूर जो तारा फैलाओ झोली, लेकिन अपने पैरों का भरोसा मत खो देना। 407 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः2 ऐसा मत सोचना कि बस, त्राता के पैर पकड़ लिए तो त्राण हो | सहारे की आकांक्षा थी, वह नहीं मिल रहा है। असहायता गया। नकारात्मक है। अशरणता विधायक है। ऐसा ईसाइयत मानती है कि जीसस ने सबके पाप हल कर इसे ऐसा समझो, जैसा मैं निरंतर कहता हूं। एक आदमी अपने दिए। अब इससे बड़ा झूठ भी कोई हो सकता है? जीसस को कमरे में अकेला बैठा है, अकेलापन अनुभव कर रहा है गए दो हजार साल हो गए। अगर जीसस ने सभी के पाप समाप्त अकेलेपन का अर्थ हुआ कि वह चाहता है कोई साथ होता। कर दिए तो दो हजार साल से फिर क्या हो रहा है दुनिया में? किसी की याद आ रही है। किसी की मौजूदगी चाहिए। किसी पाप नहीं हो रहे? इन दो हजार सालों में जितने पाप हुए हैं, उतने की मौजूदगी नहीं है, अनुपस्थिति खल रही है, तो अकेलापन, शायद ईसा के पहले कभी भी न हुए हों। ये दो हजार साल लोनलीनेस। आदमी के दुख, पीड़ा, घावों के, पाप के, घृणा के, हिंसा के, और फिर एक आदमी ध्यान में मग्न अकेला बैठा है, उसको युद्धों के साल हैं। आदमी खूखार से खूखार होता चला गया। अकेलापन नहीं कह सकते—एकांत, अलोननेस। उसे किसी और ईसाइयत फिर भी दोहराए चली जाती है कि ईसा ने सबको की याद नहीं आ रही है, वह अपनी ही पुलक से भरा है, अपने मुक्त कर दिया। ही आनंदं में लवलीन डूबा है। यह बड़ी झूठी बात है। मगर इस झूठ के पीछे तर्क है। आदम दोनों अकेले हैं बाहर से देखने पर। लेकिन एक पर की याद से ने पाप किया था सबके लिए, उसकी वजह से सब पापी हो गए भरा है और एक स्वयं की स्मृति में जगा है। दोनों बड़े भिन्न हैं। थे! अब कोई किसी दूसरे के पाप से कैसे पापी हो सकता है? | ऐसा ही अशरण और असहाय। असहाय का अर्थ है, सहारे तो जब आदम ने पाप किया, सब पापी हो गए। जीसस ने सभी की जरूरत है, सहारे की आदत है; और सहारा नहीं मिल रहा के लिए पुण्य कर दिया, सब पुण्यात्मा हो गए। अब इतना ही है। तो आदमी असहाय मालूम पड़ रहा है। अब डूबा, तब जरूरी है हर आदमी को कि वह ईसाई हो जाए, बस पर्याप्त। डूबा। क्या करूं, क्या न करूं? कहां जाऊं? यह बड़ी सस्ती बात हो गई। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण रास्ते में रुक के दम ले लं, मेरी आदत नहीं मत गहना। चरण छू लेना लेकिन शरण मत गहना। झुकना, लौटकर वापस चला जाऊं, मेरी फितरत नहीं शिष्य बनना, दीक्षित होना, सीखना, लेकिन यात्रा तुम्हीं को और कोई हमनवा मिल जाए यह किस्मत नहीं करनी पड़ेगी। तुम त्राता को त्राण मत समझ लेना। त्राता से ऐ गमे-दिल क्या करूं? सिर्फ इशारे मिलते हैं। चलना पड़ेगा। ऐ वहशते-दिल क्या करूं? शास्त्र को सत्य मत समझ लेना और शास्ता को मंजिल मत | दिल में एक शोला भड़क उठा है आखिर क्या करूं? समझ लेना। मेरा पैमाना छलक उठा है आखिर क्या करूं? इसलिए विरोधी बात कहते मालूम पड़ते हैं। एक तरफ दीक्षा जख्म सीने में महक उठा है आखिर क्या करूं? देते हैं, एक तरफ कहते हैं अशरण रहो। ऐ गमे-दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल क्या करूं लौटकर वापिस चला जाऊं मेरी फितरत नहीं आखिरी प्रश्नः अशरण होने और असहाय होने के भावों में | रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं क्या भेद है? और क्या दोनों के बीच कुछ समानता भी है? और कोई हमनवा मिल जाए यह किस्मत नहीं लौटकर जा नहीं सकता; जाने का उपाय नहीं। रुक जाऊं, समानता भी है. भेद भी है। अशरण होने का अर्थ होता है. ऐसी आदत नहीं। कोई संगी-साथी मिल जाए ऐसी किस्मत अपने पैरों पर खड़े होना। असहाय होने का अर्थ होता है, दूसरों नहीं। ऐ गमे-दिल क्या करूं? ऐ वहशते-दिल क्या करूं? | के पैरों की आशा थी, वह छूट गई, लेकिन अपने पैरों पर खड़े तो फिर आदमी बड़ा असहाय मालूम पड़ता है। जैसे कोई होने का बल नहीं आया। असहाय होने का अर्थ होता है, अभी | सागर में डूब रहा है। तिनके का भी सहारा नहीं। नाव तो दूर, 408 2010_03
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________________ P गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थंकर तिनका भी नहीं। डूबने का खतरा है। लेकिन उस खतरे और जोखिम से गुजरे तो असहाय अवस्था तो नकारात्मक है। अशरण अवस्था | बिना कोई परम मंजिल तक पहुंचता नहीं है। तो अशरण। विधायक है। अशरण का अर्थ कि मेरे पास अपने पैर हैं। अब डर यही है कि अशरण का तुम यह अर्थ मत समझ लेना अशरण का अर्थ हुआ कि तैरूंगा, नाव चाही ही नहीं, तिनके का कि किसी से कुछ सीखना ही नहीं है। तैरना तो सीखना है। वह कोई सवाल ही नहीं। किसी तैरनेवाले से सीख लो। जिसको तुमने सागर में तैरते देखा जो अशरण भाव को उपलब्ध हुआ है, उसे तुम नाव बताओ हो, उससे सीख लो। फिर तैरकर ही जाना। फिर तैरनेवाले के भी, तो वह कहेगा कि नहीं, क्षमा करें। धन्यवाद! हम तैरकर | | कंधे का सहारा मत मांगना। निकल जाएंगे। क्योंकि कोई बाहर का सहारा क्या लेना! जब | इसलिए महावीर कहते हैं, शिष्य तो बनो, लेकिन शरण को तैर सकते हैं तो नाव में क्या बैठना! धन्यवाद! बड़ी कृपा, मत गहो। शरणागति नहीं। सीखने के लिए तैयारी रखो, मन को आपने याद किया। लेकिन हम तैरकर चले जाएंगे। बंद मत करो। सीखते ही, जो जान लिया उसका उपयोग करो। अशरण का अर्थ है तैरने पर बल।। जो जान लिया उसके सहारे चलो। और कोई सहारा मत मांगो। असहाय का अर्थ है : खोजते थे नाव, मिलता नहीं तिनका। | अपने सहारे जो चलता है, धीरे-धीरे बलशाली होता जाता है। भ्रम रखने को भी कुछ आसरा नहीं रहा। तो असहाय अवस्था में धीरे-धीरे उसके भीतर से भय गिर जाते हैं, असुरक्षा गिर जाती आदमी रोता है, चीखता-चिल्लाता है, पुकारता है। अक्सर है, शंकाएं गिर जाती है। और एक, जिसको गुरजिएफ ने कहा असहाय अवस्था में आदमी प्रार्थना करने लगता है, पूजा करने है, आत्मिक केंद्रीकरण, क्रिस्टलाइजेशन उपलब्ध होता है। लगता है। भगवान की याद करने लगता है। यह भगवान केवल आत्मश्रद्धा ही अंततः आत्मा को पाने का द्वार बनती है। भय पर आधारित है। आत्मश्रद्धा पर बल देने के लिए महावीर कहते हैं, अशरण अशरण भावना में आदमी में ध्यान जगता है। और अशरण | भावना। लेकिन जिन्होंने आत्मा को पा लिया हो उनसे सीखने भावना में आदमी अपने बल पर इस भांति आश्वस्त हो जाता है, | को बहुत कुछ है। सच तो यह है, जो उनकी शरण गह लेते हैं आत्मविश्वास ऐसा सजग हो जाता है, स्वयं पर श्रद्धा ऐसी गहन उनको सीखने को कुछ भी नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सीखकर हो जाती है कि सागर कितना ही बड़ा हो, ये दो हाथ सागर से क्या करेंगे? अब आप तो हैं। ज्यादा बड़े मालूम होते हैं। आकाश कितना ही बड़ा हो, ये दो मैंने सुना है एक आदमी अंधा था। उसके आठ लड़के थे, पंख सारे आकाश को पार कर लेंगे, ऐसे भरोसे से भरे होते हैं। आठ बहुएं थीं। चिकित्सकों ने कहा कि तुम्हारी आंख ठीक हो जो व्यक्ति अशरण को उपलब्ध हुआ उसे तुम प्रसन्न पाओगे, सकती है, आपरेशन करना होगा। उसने कहा, क्या करेंगे? नाचता हुआ पाओगे। असहाय को तुम दुखी, परेशान, तलाश फायदा क्या है? मेरी पत्नी के पास दो आंखें हैं, मेरे आठ करता हआ पाओगे। फिर कोई सपना मिल जाए, फिर कोई लड़कों के पास सोलह आंखें हैं, मेरी आठ बहुओं के पास सहारा मिल जाए। सोलह आंखें हैं। ऐसी चौतीस आंखें मुझे उपलब्ध हैं। दो न हुईं महावीर कहते हैं, असहाय मत बनना, अशरण बनना। मेरी, क्या फर्क पड़ता है? असहाय अवस्था में तो हम हैं। इसीलिए हम कहीं भी सहारे लेकिन संयोग की बात! जिस दिन उसने यह इंकार किया उसी खोजते हैं—मंदिर में, मस्जिद में, शास्त्र में, पुराण में, कुरान में, रात घर में आग लग गई। वे चौतीस आंखें भागकर बाहर गुरु में। कोई मिल जाए जो हमें कह दे, कि तुम घबड़ाओ मत। निकल गईं। अंधा चिल्लाता रहा, टटोलता रहा रास्ता। लपटों कहीं ताबीज, गंडा मिल जाए, बांध लें और निश्चित हो जाएं। में जल-भुनकर गिरकर मर गया। मरते वक्त एक ही भाव उसके महावीर कहते हैं, सत्य इतना सस्ता नहीं। खोजना होगा। मन में था, अपनी आंख अगर आज होती... ! जो बाहर कीमत चुकानी होगी। भागकर निकल गए-पत्नी, बेटे, बहुएं, उनको याद आयी तैरना होगा इस विराट झंझावात से भरे सागर में। लहरें हैं, | उसकी, लेकिन बाहर जाकर याद आयी। जब अपने प्राण संकट 409 2010_03 www.jainelibran.org
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 में पड़े हों तो किसको किसकी याद आती है? इसलिए महावीर कहते हैं. अपनी आंख। आंखवालों से सीख लेना, मगर अपनी आंख के अतिरिक्त किसी और की आंख को अपना सहारा मत बनाना। अपनी आंख जब तक न मिल जाए, सीखना, साधना; लेकिन चेष्टा यही रखना कि अपनी आंख मिल जाए। अपनी आंख से ही कोई सत्य का दर्शन कर पाता है। सत्य के साक्षात के लिए स्वयं की आंख के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। आज इतना ही। 410 2010_03