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________________ 'गोशालक: एक अस्वीकृत तीर्थकर पर हाय यह सहारे की सतत खोज तुम्हें आत्मवान न बनने देगी। तुम | दिखाई पड़ता है उससे आशा ले लो, उससे श्रद्धा ले लो; लेकिन अपने सहारे कब बनोगे? अपने पैर कब खड़े होओगे? अपनी उसके कारण थककर बैठ मत जाना। यह मत कहना, अब मुझे आंखों से कब देखोगे? अपने कानों से कब सुनोगे? यह सहारे क्या करना! तारा तो है। यह मत कहना महावीर से कि तीर्थंकर की खोज तो तुम्हें पंगु बना दी है। | तो तुम हो, अब मुझे क्या करना ! तुम तो पहुंच गए, अब तुम ही छोटे बच्चे की मां चलाती है। हाथ पकड़कर चलाती है। | मुझे पहुंचा दोगे। लेकिन यह कोई सदा के लिए इंतजाम नहीं है। यह कोई स्थिर | इसलिए महावीर कहते हैं, शरण मत खोजना। शरण खोजने व्यवस्था नहीं है। हाथ पकड़कर चलाती है ताकि उसे भरोसा आ के कारण धर्म भ्रष्ट हआ। जाए कि वह चल सकता है। फिर तो बच्चा खुद ही हाथ छुड़ाने ये जो दुनिया में इतने मंदिर, मस्जिद, इतने गुरुद्वारे, इतनी लगता है। कलह दिखाई पड़ती है, यह शरण की कलह है। तुमने देखो? बच्चा खुद ही कहता है, मत पकड़ो मेरा हाथ। न्याय के हे देवता! कब सिखाओगे मनुष्यों को और जो मां बच्चे के हाथ को जोर से पकड़ती है, वह मां नहीं है। कि आप अपनी वे रक्षा करें और जो बच्चा, जब चलना भी सीख गया तब भी मां का पल्लू त्राण वैसे तो उन्हें हैं मिले लाखों बार पकड़े रहता है, वह कभी प्रौढ़ न हो पाएगा। पर हर बार त्राता ने उन्हें बेच डाला है तो विरोध दिखता है। मां एक दिन कहती है, मेरा हाथ पकड़, न्याय के हे देवता! रोक रक्खो रक्षकों को स्वर्ग में चल। फिर धीरे-धीरे हाथ को सरकाती जाती है। फिर हाथ को | देव, त्राता मानवों का और मत भेजो अलग कर लेती है। फिर बच्चा पकड़ना भी चाहे तो वह दूर हो लोग रोते, त्राण तो हम पा गए जाती है। वह कहती है, अब तू चल। थोड़ी दूर खड़ी हो जाती है खों मर रहे जाकर; कहती है, आ। बच्चा उसकी तरफ आना शुरू करता और वह कहताः / है। एक दफा बच्चे को भरोसा आ जाए कि मेरे पास पैर हैं, मेरे बहुत-सी पक रही हैं कल्पना की पूड़ियां पैर हैं, तो प्रौढ़ता आनी शुरू होती है। मेरे पिता के गेह में सत्य के जगत में भी ऐसा ही है। गुरु थोड़ी दूर तक हाथ | धीरज धरो, फिर पेट भर खाना पकड़कर चला देता है। क्योंकि तुम जन्मों से चले नहीं। तुम लोग कहते भूल ही गए कि तुम्हारे पास पैर हैं। तुम जन्मों से उड़े नहीं, भूल | एक टुकड़ा दे सकते नहीं हमें सामान्य रोटी का ही गए कि तुम्हारे पास पंख हैं। थोड़ी देर उड़ा देता है, थोड़े | हुक्म वह देताः आकाश में तम्हें पंखों का थोड़ा खयाल आ जाता है। फिर तमसे नहीं, बैकुंठ चलकर ही तुम्हें भोजन मिलेगा कहता है, जाओ। दूर अनंत आकाश है, उड़ो। वह पूरा आकाश और वह सामान्य क्यों? तुम्हारा है। दावा करो। अदभुत, अमूल्य, अपूर्व होगा मैंने सोचा था कि दुश्वार है मंजिल अपनी न्याय के हे देवता! कब सिखाओगे मनुष्यों को एक हंसी बाजू-ए-सीमी का सहारा भी तो है कि आप अपनी रक्षा वे स्वयं करे दश्ते-जुल्मात से आखिर को गुजरना है मुझे ...कि अपनी आप वे रक्षा करें। कोई रुखशंदा और ताबीदा सितारा भी तो है महावीर त्राता हैं, लेकिन त्राण के आधार पर तुम्हारे प्राणों को पहले ठीक है। शुरू-शुरू चलते हैं तो किसी रजत बांह का | नष्ट नहीं करना चाहते। सभी सदगुरु यही कहेंगे। सहारा हो, अच्छा। कोई चमकता हुआ सितारा हो, अच्छा। झुको जरूर। झुके बिना कोई सीखता नहीं। दश्ते-जुल्मात से आखिर को गुजरना है मुझे शिष्य बनो जरूर। विनम्र हुए बिना कोई सीखता नहीं। लेकिन अंततः तो अंधेरे से खुद ही गुजरना है। वह दूर जो तारा फैलाओ झोली, लेकिन अपने पैरों का भरोसा मत खो देना। 407 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340151
Book TitleJinsutra Lecture 51 Goshalak Ek Aswikrut Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size39 MB
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