________________ जिन सूत्र भागः 2 अब यह बात महावीर कहते हैं, अशरण। किसी की शरण मत पकड़कर छाती से लगाकर बैठा है कि मिल गई दिल्ली। दिल्ली जाओ। लेकिन महावीर के पास शिष्य आते हैं। शिष्य कहते हैं, लिखा है पत्थर पर। हालांकि लिखा है, हजार मील दूर कि दो 'सिद्धे शरणं पवज्झामि।' हे सिद्ध पुरुष! हम तुम्हारी शरण हजार मील दूर। वह उसकी फिकर नहीं कर रहा है। आते हैं। 'अरिहंते शरणं पवज्झामि।' हे पहुंचे हुए पुरुष! हम तुम कभी मील के पत्थर के पास बैठकर यह नहीं कहते कि | तुम्हारी शरण आते हैं। बड़ा विरोधाभास है, दिल्ली लिखा है और दो हजार मील भी महावीर इनको स्वीकार भी करते हैं। तब तो बड़ी उलटी बात लिखा है! दिल्ली है तो ठीक, पत्थर ठीक। अगर दो हजार मील मालूम पड़ती है। महावीर कहते हैं अशरण! और ये शरण | तो यहां दिल्ली क्यों लिखते हो? फिर दो हजार मील वहीं आनेवाले लोग भी स्वीकार हो जाते हैं। इनकी भी महावीर दीक्षा | लिखना दिल्ली। करते हैं। इनको संन्यस्त करते हैं। इनको सत्य के मार्ग का इंगित | महावीर कहते हैं, शिष्य बनना एक बात है, शरण जाना दूसरी करते हैं। | बात है। शिष्य बनने का अर्थ इतना है, कोई पहुंचा, किसी ने तो विरोध दिखाई पड़ता है, लेकिन सिर्फ दिखाई पड़ता है। जाना, कोई जागा, उसका लाभ ले लो। कोई बहुत भटका, तब जब महावीर शिष्य बनाते हैं तो वे इतना ही कह रहे हैं कि मैं तुमसे उसे मार्ग मिल गया, तुम उससे थोड़ा समझ लो। मगर रहना जरा ऊंचाई पर खड़ा हूं। तुम वृक्ष के नीचे हो, मैं वृक्ष पर खड़ा अपने पैरों पर। झुको उसके सामने, जो जानता है। लेकिन झुको हूं। यहां से मुझे जरा दूर तक दिखाई पड़ता है। जैसे मैं इस वृक्ष इसीलिए कि उठकर चलना है। झुके ही मत रह जाना कि फिर पैर पर चढ़ आया है, उतने दूर तक तुम मेरे सूचन का उपयोग कर पकड़ लिए तो छोड़ेंगे नहीं। सकते हो। तुम भी इस वृक्ष पर चढ़ आ सकते हो। | तो तुम तो चल ही न पाओगे, तुम किसी चलनेवाले को भी तुम रास्ते पर किसी से पूछते हो, नदी का रास्ता कहां है? कोई रोक लोगे। शिष्य गुरुओं के द्वारा पहुंचते हैं कि नहीं पता नहीं, आदमी बता देता है, तो क्या तुम्हारा गुरु हो गया? क्या तुम बहुत से गुरुओं को डुबाते हैं यह पक्का है। इतने जोर से पकड़ उसकी शरणागति हो गए? तुम उसे धन्यवाद देकर नदी की लेते हैं कि न तो खुद जाते हैं, न उसे जाने देते हैं।। तरफ चले जाते हो। तुम ऐसा थोड़े ही, कि उसके चरण पकड़ तो महावीर कहते हैं कि जाग्रत पुरुष से सीखो। वह वृक्ष पर लेते हो कि अब मैं तुम्हें कभी भी न छोडूंगा महाराज! क्योंकि बैठा है, उसे दूर का दृश्य दिखाई पड़ता है। तुम नीचे खड़े हो आपने नदी का रास्ता बताया। वह कहेगा, अगर नदी का रास्ता अंधेरे में, घाटी में। वह पर्वत के शिखर पर खड़ा है। उसकी बताया तो कोई गलती तो नहीं की। जाओ नदी। दृष्टि का विस्तार बड़ा है। उसकी सुन लो, समझ लो। सोचो, नदी का रास्ता पूछने में तो हम ऐसी भूल नहीं करते, लेकिन | विचार कर लो। तुम्हारी बुद्धि उससे राजी हो जाए, तुम्हारा हृदय परमात्मा का रास्ता पूछने में अक्सर ऐसी भूल करते हैं। इसलिए | उसके साथ धड़के, तो फिर चलो। महावीर कहते हैं, सुन लो, समझ लो, मैं जो कहता हूं उसे गुन | लेकिन ध्यान रखना, चलना तुम्हें ही होगा। लो। फिर पकड़ो अपनी गैल। जाओ अपनी डगर पर। फिर मेरे | इसीलिए कहते हैं, अशरण। किसी और के पैर से तुम न चल पैर पकड़कर मत रुको। मैंने कोई कसूर तो किया नहीं। मुझे क्यों | सकोगे। चलना तुम्हें ही होगा इस बात पर बार-बार जोर देने के सताते हो? जाओ। जितना मैं जानता हूं, कह दिया। इसका | लिए कहते हैं कि मार्ग कोई भी बता दे, नक्शा कोई भी तुम्हें दे दे, कुछ उपयोग करना हो, कर लो। चलना तुम्हें ही पड़ेगा। तो एक तरफ महावीर कहते हैं, अशरण। क्योंकि वे जानते हैं, हम साधारण जीवन में सदा सहारा मांगते रहते हैं। कोई पति आदमी बड़ा पागल है। का सहारा, पत्नी का सहारा, बाप का, बेटे का सहारा, मित्र का आदमी ऐसा पागल है कि मील के पत्थरों को पकडकर रुक सहारा। सहारे के हम आदी हो गए हैं। हम बैसाखियों पर ही जाता है। हालांकि मील के पत्थर पर लगा है तीर, कि चलो चलने के आदी हो गए हैं। तो जब हम धर्म के जीवन में प्रवेश आगे। जाओ आगे। दिल्ली बहुत दूर है। मगर वह पत्थर करते हैं, पुरानी आदत कहती है, सहारा ! कोई गुरु का सहारा। 14061 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org