________________ जिन सूत्र भागः2 ऐसा मत सोचना कि बस, त्राता के पैर पकड़ लिए तो त्राण हो | सहारे की आकांक्षा थी, वह नहीं मिल रहा है। असहायता गया। नकारात्मक है। अशरणता विधायक है। ऐसा ईसाइयत मानती है कि जीसस ने सबके पाप हल कर इसे ऐसा समझो, जैसा मैं निरंतर कहता हूं। एक आदमी अपने दिए। अब इससे बड़ा झूठ भी कोई हो सकता है? जीसस को कमरे में अकेला बैठा है, अकेलापन अनुभव कर रहा है गए दो हजार साल हो गए। अगर जीसस ने सभी के पाप समाप्त अकेलेपन का अर्थ हुआ कि वह चाहता है कोई साथ होता। कर दिए तो दो हजार साल से फिर क्या हो रहा है दुनिया में? किसी की याद आ रही है। किसी की मौजूदगी चाहिए। किसी पाप नहीं हो रहे? इन दो हजार सालों में जितने पाप हुए हैं, उतने की मौजूदगी नहीं है, अनुपस्थिति खल रही है, तो अकेलापन, शायद ईसा के पहले कभी भी न हुए हों। ये दो हजार साल लोनलीनेस। आदमी के दुख, पीड़ा, घावों के, पाप के, घृणा के, हिंसा के, और फिर एक आदमी ध्यान में मग्न अकेला बैठा है, उसको युद्धों के साल हैं। आदमी खूखार से खूखार होता चला गया। अकेलापन नहीं कह सकते—एकांत, अलोननेस। उसे किसी और ईसाइयत फिर भी दोहराए चली जाती है कि ईसा ने सबको की याद नहीं आ रही है, वह अपनी ही पुलक से भरा है, अपने मुक्त कर दिया। ही आनंदं में लवलीन डूबा है। यह बड़ी झूठी बात है। मगर इस झूठ के पीछे तर्क है। आदम दोनों अकेले हैं बाहर से देखने पर। लेकिन एक पर की याद से ने पाप किया था सबके लिए, उसकी वजह से सब पापी हो गए भरा है और एक स्वयं की स्मृति में जगा है। दोनों बड़े भिन्न हैं। थे! अब कोई किसी दूसरे के पाप से कैसे पापी हो सकता है? | ऐसा ही अशरण और असहाय। असहाय का अर्थ है, सहारे तो जब आदम ने पाप किया, सब पापी हो गए। जीसस ने सभी की जरूरत है, सहारे की आदत है; और सहारा नहीं मिल रहा के लिए पुण्य कर दिया, सब पुण्यात्मा हो गए। अब इतना ही है। तो आदमी असहाय मालूम पड़ रहा है। अब डूबा, तब जरूरी है हर आदमी को कि वह ईसाई हो जाए, बस पर्याप्त। डूबा। क्या करूं, क्या न करूं? कहां जाऊं? यह बड़ी सस्ती बात हो गई। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण रास्ते में रुक के दम ले लं, मेरी आदत नहीं मत गहना। चरण छू लेना लेकिन शरण मत गहना। झुकना, लौटकर वापस चला जाऊं, मेरी फितरत नहीं शिष्य बनना, दीक्षित होना, सीखना, लेकिन यात्रा तुम्हीं को और कोई हमनवा मिल जाए यह किस्मत नहीं करनी पड़ेगी। तुम त्राता को त्राण मत समझ लेना। त्राता से ऐ गमे-दिल क्या करूं? सिर्फ इशारे मिलते हैं। चलना पड़ेगा। ऐ वहशते-दिल क्या करूं? शास्त्र को सत्य मत समझ लेना और शास्ता को मंजिल मत | दिल में एक शोला भड़क उठा है आखिर क्या करूं? समझ लेना। मेरा पैमाना छलक उठा है आखिर क्या करूं? इसलिए विरोधी बात कहते मालूम पड़ते हैं। एक तरफ दीक्षा जख्म सीने में महक उठा है आखिर क्या करूं? देते हैं, एक तरफ कहते हैं अशरण रहो। ऐ गमे-दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल क्या करूं लौटकर वापिस चला जाऊं मेरी फितरत नहीं आखिरी प्रश्नः अशरण होने और असहाय होने के भावों में | रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं क्या भेद है? और क्या दोनों के बीच कुछ समानता भी है? और कोई हमनवा मिल जाए यह किस्मत नहीं लौटकर जा नहीं सकता; जाने का उपाय नहीं। रुक जाऊं, समानता भी है. भेद भी है। अशरण होने का अर्थ होता है. ऐसी आदत नहीं। कोई संगी-साथी मिल जाए ऐसी किस्मत अपने पैरों पर खड़े होना। असहाय होने का अर्थ होता है, दूसरों नहीं। ऐ गमे-दिल क्या करूं? ऐ वहशते-दिल क्या करूं? | के पैरों की आशा थी, वह छूट गई, लेकिन अपने पैरों पर खड़े तो फिर आदमी बड़ा असहाय मालूम पड़ता है। जैसे कोई होने का बल नहीं आया। असहाय होने का अर्थ होता है, अभी | सागर में डूब रहा है। तिनके का भी सहारा नहीं। नाव तो दूर, 408 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org