Book Title: Jinsutra Lecture 45 Jivan Taiyari Hai Mrutyu Pariksha Hai
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
Catalog link: https://jainqq.org/explore/340145/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां प्रवचन जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ c. com . COM प्रश्न-सार भगवान श्री की आंखों से निरंतर आशीर्वाद की वर्षा। उनके दृष्टिपात मात्र से शरीर में कंपन व अंतर्तम में बी की चुभन। मृत्यु घटित होती-सी लगना। फिर भी आत्यंतिक-मृत्यु क्यों नहीं? भगवान श्री के सानिध्य से भीतर प्रेम-प्रवाह प्रारंभ हर व्यक्ति, हर वस्तु के प्रति।। प्रेमपूरित होकर किसी से गले लगने को बढ़ने पर दूसरे द्वारा संकोच व अनुत्साह, प्रश्नकर्ता का पीछे हट जाना। मार्गदर्शन की मांग! तूने आटा लगाया और फंसाया। अब हम अकेले तड़प रहे हैं! जिम्मेवार कौन? भगवान श्री, तेरी रज़ा पूरी हो। SHREE 2010_03 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न: आपकी आंखों से निरंतर आशीर्वाद | होता है। जहां तुम मिटे, परमात्मा हुआ। तुम्हारे मिटे बिना वह बरसता-सा प्रतीत होता है, मधुर और सलोना। | हो भी नहीं सकता। तुम बहुत जगह घेरे हो। उसके लिए श्रोताओं पर आपकी आंखें घूमती हैं और जैसे ही | अवकाश नहीं है भीतर आने को। मिटो, मरो, विदा होओ, मुझ पर पड़ती हैं, लगता है कोई बी मेरे अंतर्तम में छिद ताकि वह आ सके। और तुम ही तुम्हारी बीमारी हो। लेकिन इस गयी। सारा शरीर कांप जाता है। मृत्यु-सी घटित होती है। बीमारी को तुमने अपना शृंगार समझा है। इस अहंकार को तुमने लेकिन आत्यंतिक-मत्य क्यों नहीं घट जाती? अपनी आत्मा समझा है। इससे भल हो रही है। जो मेरे पास आयेंगे, वे चाहे किसी कारण से मेरे पास आ रहे वह भी घटेगी। थोड़ी प्रतीक्षा, थोड़ी बाट जोहनी होगी। प्रारंभ हों, मैं उन्हें पास मरने के लिए ही बुला रहा हूं। मैं उन्हें स्वाद देना हो गया है। धीरे-धीरे मरने की कला आती है। इतना साहस नहीं चाहता हूं मृत्यु का। एक बूंद भी तुम चख लो मृत्यु की, तो मृत्यु होता कि एक छलांग में आदमी मर जाए। रत्ती-रत्ती छटता है। के द्वार से ही अमत की पहली झलक मिलती है। मत्य के लेकिन एक-एक कदम से चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो आवरण में छिपा है अमृत। मृत्यु की ओट में छिपा है परमात्मा। जाती है। इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं है। जब मंसूर को सूली लगी, तो वह आकाश की तरफ देखकर और ध्यान निश्चित ही मृत्यु जैसा है। क्योंकि जिसे हमने खिलखिलाकर हंसने लगा। किसी ने पूछा उस भीड़ में से जो जीवन कहा है वह जीवन नहीं है। और जिसे हमने अब तक मृत्यु उसकी हत्या कर रही थी कि क्या देखकर हंस रहे हो? तो मंसूर समझा है वह मृत्यु नहीं है। हम बड़े धोखे में हैं। जिसे हम जीवन ने कहा, तुम जिसे मृत्यु समझ रहे हो, वह मेरे परमात्मा से मेरा कहते हैं, वह केवल एक सपना है। और जिसे हम मृत्यु कहते मिलन का द्वार है। उसे मैं खड़ा देख रहा हूं। वह हाथ फैलाये हैं, वह है केवल इस सपने का टूट जाना। लेकिन चूंकि सपने को बाहुओं में लेने को तत्पर है। तुम यहां मुझे मारो कि वहां मैं उसके हम सत्य मानते हैं, जोर से पकड़ते हैं उसे, छाती से लगाये रखते | आलिंगन में गिरा। इसलिए हंस रहा हूं कि तुम्हें किसी को हैं उसे। जीवन को जोर से पकड़ने के कारण ही मौत दुखदायी | दिखायी नहीं पड़ता! वह बिलकुल सामने खड़ा है। इधर मेरे मालूम होती है। अन्यथा मृत्यु में कोई दुख नहीं है। मृत्यु विश्राम | मरने की देर है कि उधर मिलन हुआ। जल्दी करो, देर क्यों लगा है, विराम है। जीवन को गलत समझा है, इसलिए मृत्यु के | रहे हो? संबंध में भी गलत दृष्टि बन गयी है। जिन्होंने भी स्वयं को जाना, उन्होंने जाना, मृत्यु कचरे को ले ध्यान है मृत्यु को ठीक-ठीक जानना, पहचानना। अहंकार को जाती है, सोने को तो छोड़ जाती है। व्यर्थ को बहा ले जाती है, धीरे-धीरे डुबाना और खोना। जहां तुम नहीं होते, वहीं परमात्मा सार्थक को तो निखार जाती है, साफ-सुथरा कर जाती है। मृत्यु 263 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MENT जिन सत्र भाग: वरदान है। और जिसे मृत्यु में भी वरदान दिख गया, उसे फिर फिर चूकोगे, फिर उतरोगे जन्म के गड्डे में, फिर भटकोगे इन्हीं कहां वरदान न दिखेगा! जिसने मृत्यु में भी परमात्मा के हाथ देख अंधेरी गलियों में, फिर इन्हीं कंटकाकीर्ण मार्गों पर, फिर इन्हीं लिये, स्वभावतः जीवन में तो उसके हाथ देख ही लेगा। उसने वासनाओं की, इन्हीं क्रोध-कामनाओं की, लोभ, मद-मत्सर की भीड़ में फिर खो जाओगे। जब तक तुम मृत्यु में जीवन का सूत्र न खोज लोगे, तब तक इसलिए कहता हूं, ध्यान मृत्यु है। और अगर तुमने मुझे गौर से तुम्हें बार-बार जन्मना होगा, मरना होगा। तुम फिर-फिर भेजे | देखा, तो उस गौर के क्षण में ध्यान की थोड़ी-सी झलक तुम्हें जाओगे, क्योंकि परीक्षा में तुम उत्तीर्ण नहीं होते। जीवन तैयारी | आयेगी। अगर तुमने शांत होकर मुझे देखा, तो शांति के क्षण में है, मृत्यु परीक्षा है। परीक्षा अंत में है, स्वभावतः। जीवनभर | बी चुभेगी। चुभनी ही चाहिए। वही प्रयोजन है मेरा और तैयारी करते हैं हम, तैयारी किसलिए? कभी सोचा मृत्यु अंत में | तुम्हारा यहां होने का कि मैं तुम्हें थोड़े मृत्यु के दर्शन दे दूं। और क्यों आती है? परीक्षा को अंत में आना ही होगा। मृत्यु जीवन | एक बार तुम्हें मृत्यु की झलक आने लगे और रसधार बहने लगे, की समाप्ति नहीं है। जीवनभर में तुमने कुछ सीखा, कुछ जाना, और तुम देखो कि अरे, कैसा नासमझ था, मृत्यु तो वरदान है, कुछ निचोड़ा, कुछ सार हाथ आया, इसकी परीक्षा है। अगर अब तक मैंने अभिशाप समझा! बस, फिर तुम्हें कोई डिगा न कुछ सार हाथ आया हो, तो मृत्यु तुम्हें मार नहीं पाती। अगर सकेगा। फिर तुम चल पड़े सीधी डगर पर। फिर मिली राह। कुछ भी हाथ न आया हो, तो मृत्यु तुम्हें मार पाती है। फिर फेंके | अब तुम्हारी दिशा उचित हुई। जाते हो जन्म में। जो मृत्यु से चूका, फिर जन्मेगा। जैसे-जैसे मृत्यु का रस बढ़ने लगेगा, वैसे-वैसे जिसे तुम मृत्यु से चूकने के कारण ही जन्म है। जो मृत्यु को जागकर जी | जीवन कहते हो, इससे हाथ छूटने लगेंगे। मैं तुमसे यह नहीं लिया, सौभाग्य से जी लिया, जिसने मृत्यु को आत्मसात कर कहता कि त्यागो। मैं तो सिर्फ इतना ही कहता हूं, जागो। लिया; जो मरा तन्मयता से, आनंद से, अहोभाव से, जिसने जैसे-जैसे जागोगे, त्याग घटता है। किया त्याग भी कोई त्याग मृत्यु में भी परमात्मा के हाथ फैले देख लिये, फिर उसका कोई | है! करना पड़े, बात ही व्यर्थ हो गयी! हो जाए। दृष्टि से हो, जन्म नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं, ध्यान तो मृत्यु को ही सीखना | दर्शन से फले, बोध का परिणाम हो। इधर तुम जागो, उधर है। स्वेच्छा से सीखना है। और अभी तुम न सीखोगे तो मौत | जागने की छाया की तरह त्याग भी घटे। स्वाभाविक है कि जब जब आयेगी, तो अचानक तुम अपने को तैयार न कर पाओगे। | कोई चीज व्यर्थ दिखायी पड़ जाए, हाथ से छूट जाए; मुट्ठी खुल मौत तो अचानक आती है, अकस्मात, कोई खबर नहीं देती, | जाए, गिर जाए। उसे त्याग क्या कहना! छूट गयी। छोड़ा, ऐसा कोई पूर्व-संदेशा नहीं भेजती। एक दिन अचानक द्वार पर खड़ी क्या कहना! छोड़ने जैसा क्या है! कचरे में न पकड़ने जैसा है हो जाती है : तुम अस्त-व्यस्त! तुम चलने को तैयार भी नहीं | कुछ, न छोड़ने जैसा है कुछ। लेकिन यह तो मृत्यु के स्वाद से ही होते, बोरिया-बिस्तर भी बांधा नहीं होता, व्यर्थ से सार्थक को | संभव होगा। छांटा नहीं होता, सार से असार को अलग नहीं किया होता, सब तो यहां मेरे पास जब होओ, तब सच ही मेरे पास हो जाओ। उलझा पड़ा होता है-बीच में मौत आकर खड़ी हो जाती है। तब कोई दूरी मत रखो। तब बीच में विचारों का व्यवसाय न क्षणभर का समय भी नहीं देती कि तुम जमा लो, कि तुम तैयारी | चलने दो। तब चिंतन की धारा मत बहने दो। तब हटाकर सब कर लो, कि तुम पाथेय जुटा लो, कि आनेवाली लंबी यात्रा के बदलियों को सीधा-सीधा मुझे देखो! यहां मैं नहीं हूं। जैसे ही लिए तुम अपने को तत्पर कर लो, एक क्षण का अवकाश नहीं; तुम सीधा-सीधा मुझे देखोगे, नहीं होने की एक लहर तुममें भी मौत आयी-समय गया। मौत के आते ही समय नहीं बचता। उठेगी। इधर मैं मिटा हूं, अगर मेरे साथ संगसाथ क्षणभर को भी अकस्मात आनेवाली यह मत्य, इसकी अगर तुमने जीवन में साधा, तो उधर तुम भी पाओगे कि मिटने लगे। रोज-रोज तैयारी न की, तो जैसा पहले भी इसने तुम्हें गैर-तैयार | सत्संग का इतना ही अर्थ है, किसी ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में पाया, इस बार भी पायेगी। | मिटने की कला सीख लेना, जो मिट गया हो। किसी शून्य के 264 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है पास बैठकर शून्य होने का अनुभव ले लेना। शुरू-शुरू में हाथ से हाथ भी छू जाएगा, तो छुरी लगेगी। हाथ में हाथ पकड़ जरूरत है सहारे की। अकेले तो तुम बहुत घबड़ाओगे। इधर मैं | आ जाएगा, तो आत्यंतिक मृत्यु भी घटेगी। अब तुम जिनको भी हूं, तो तुम्हें भरोसा है कि आदमी मिट भी जाए तो भी होता है, | ऐसा हो रहा हो— उन्हें जानना चाहिए कि सौभाग्यशाली हैं, घबड़ाने की कोई बात नहीं। वस्तुतः जितना मिट जाए, उतना ही कुंजी हाथ में आने लगी। देर न लगेगी ताले खोल लेने में। प्रगाढ़ता से होता है। जब कोई आदमी बिलकुल शून्य हो जाता छोटी-सी कुंजी होती है, बड़े से बड़े विराट महलों के ताले खुल सकते हो। बिना इस आश्वासन के तुम बहुत डरोगे। तुम नाव यह जो अभी छोटी-सी छुरी की तरह छिदती मालूम पड़ती है, को किनारे से छोड़ोगे नहीं। तुम किनारे को जकड़े रहोगे। यह कुंजी है। इसी राह चले चले, तो महामृत्यु घटेगी। भागना ठीक हो रहा है। छुरी चुभती है, चभने दें। और आकांक्षा भी | भर मत। घबड़ाना भर मत। ठीक है। वह आकांक्षा सूचक है कि छुरी को चुभने दिया है। साधक अपनी मृत्यु खोज रहा है। परमात्मा का तो हमें पता पूछा है, आत्यंतिक-मृत्यु कब घटित होगी? घबड़ाओ मत, वह नहीं। इतना ही पता है कि हम जो हैं, गलत हैं। इस गलत को भी होगी। चले चलो। राह पर हो। मिटाने के लिए साधक आकांक्षा कर रहा है। इस आशा में कि सत्संग का जिसे सुख आ गया, उसकी भावदशा ऐसी हो जाती | जब गलत मिटेगा, तो जो शेष रहेगा, ठीक होगा। प्रकाश का हमें कुछ पता नहीं, यह अंधेरा हमें खूब भटका लिया है, इतना कुछ न हुआ, न हो हमें पता है। यह अंधेरा न रहेगा, तो जो बचेगा वह प्रकाश होगा, मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल यही हम सोच सकते हैं, यही हम कामना कर सकते हैं। पास तुम रहो। साधक ने जीवन तो देखा-तुम सब ने जीवन देखा—चारों मेरे नभ के बादल यदि न कटे तरफ जीवन का सपना तुम्हारे फैला है, पाया क्या? सब पा चंद्र रह गया ढंका, लिया हो तो भी कुछ नहीं मिलता। जो कुछ नहीं पा पाते वे तो तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे नंगे रह ही जाते हैं, खाली रह ही जाते हैं, जो सब पा लेते हैं वे भी लेश गगन भास का, खाली रह जाते हैं। इस जीवन की जैसे ही समझ साफ होती, वैसे रहेंगे अधर हंसते, पथ पर, तुम ही आदमी सोचता है कि यह जीवन तो देख लिया, अब मृत्यु को हाथ यदि गहो। भी देख लें। शायद जो यहां नहीं, वहां हो। इधर खोजा, इस राह कुछ न हुआ, न हो पर खोजा, नहीं मिला, विपरीत राह पर खोज लें। अपने से दूर रहेंगे अधर हंसते, पथ पर, तुम जाकर देख लिया, अब अपने पास आकर देख लें। बाहर जाकर हाथ यदि गहो। देख लिया, अब भीतर आकर देख लें। विचार करके, बह रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा चिंतन-मनन करके देख लिया, अब ध्यान करके देख लें। होने मंद सबों ने कहा, की प्रगाढ़ आकांक्षा करके देख ली, अब न होने की कामना करके मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा देख लें। वह न होने की कामना ही प्रार्थना है। ज्ञान, जहां का तहां रहा, जैसे-जैसे मृत्यु इंच-इंच तुममें प्रवेश करेगी, तुम पाओगे मृत्यु रहे, समझ है मुझमें पूरी, तुम के बहाने परमात्मा तुम्हारे भीतर आने लगा। वह सदा मृत्यु के कथा यदि कहो। बहाने ही आता है। वह केवल उनके पास ही आता है, जो मरने अगर, तुमने फैलाया अपने प्राणों का सेतु मेरी तरफ, तुमने को तत्पर हैं। जो कहते हैं तेरे बिना जीना, इसके लिए हम राजी अगर हाथ मेरी तरफ बढ़ाया-मेरा हाथ बढ़ा ही है-मैं तुम्हारे नहीं। तेरे साथ मरने को राजी हैं, तेरे बिना जीने को राजी नहीं। हाथ गहने को तैयार हूं। प्रतीक्षा है बस तुम्हारे हाथ के बढ़ने की। जो ऐसा दांव लगाता है, वही उसे पाता है। 265 ___ 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या! मौत सीखकर गये, तो तुमने कुंजी ले ली। जैसे-जैसे उसकी थोड़ी-सी किरणें तुम्हारे भीतर प्रवेश करती हमने भारत के परम रहस्यवादी ग्रंथों को उपनिषद कहा है। हैं, तो पहले तो किरणें मारती हैं, मिटाती हैं, जलाती हैं। उपनिषद का अर्थ होता है, गुरु के पास होना। उपनिषद का अर्थ तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या! होता है, पास बैठना। बस इतना। तारक में छवि प्राणों में स्मृति पास बैठने से क्या हो जाएगा? पलकों में नीरव पद की गति जो मिट गया है, उसके पास बैठने से तुम्हारे भीतर भी मिटने लघु उर में पुलकों की संसृति का साहस जगेगा। जो मिट गया है उसके पास बैठने से, उसकी भर लायी हूं तेरी चंचल खाई में झांकने से, उसकी अतल गहराई में झांकने से तुम भी और करूं जग में संचय क्या! खिंचने लगोगे अतल गहराई की तरफ। जो मिट गया है उसे थोड़ा-सा परमात्मा संचय कर लो देखकर तुम्हें पता चलेगा कि जो मिट गया है, कैसा कमलवत हो भर लायी हूं तेरी चंचल गया है; मरकर कैसे महाजीवन का अवतरण हो जाता है! लघु उर में पुलकों की संसृति इस जगत में सबसे कठिन बात यह भरोसा है कि मरकर भी मैं और करूं जग में संचय क्या! बचूंगा। यह बड़ी से बड़ी श्रद्धा है कि मरकर मैं बचूंगा। जिसको तेरा अधर-विचंबित प्याला यह भरोसा आ गया, वही धार्मिक है। और जो इस भरोसे के तेरी ही स्मित-मिश्रित हाला सहारे पर चल पड़ा, साधक है। जो पहुंच गया, उसे हम सिद्ध तेरा ही मानस मधुशाला; कहते हैं। फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी! रोम-रोम में नंदन पुलकित देते हो मधुमय विषमय क्या! सांस-सांस में जीवन शत-शत परमात्मा का हाथ तुम्हारे पहचानने में आने लगे, फिर तुम न | स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित पूछोगे। मझमें नित बनते मिटते प्रिय फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या; देते हो मधुमय विषमय क्या! फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी! फिर उस प्याली में जो भी हो; मृत्यु सही, तो महाजीवन है। देते हो मधुमय विषमय क्या! जहर अमत है। फिर मिटा डाले वह तो यही तम्हारे निर्माण की मत्य दे रहा हं तम्हें, ले लेना। दो खयाल रखना। एक, प्रक्रिया है। नष्ट कर डाले, प्रलय में डाल दे तुम्हें, तो यही घबड़ाकर बचाने में मत लग जाना। उस बचाने की प्रक्रिया में तुम्हारा सृजन है। | तुम्हारे भीतर हजार तर्क उठते हैं, हजार संदेह उठते हैं। वे तर्क सुनार सोने को आग में डालता है। अगर सोने के पास भी और संदेह केवल निमित्त मात्र हैं, वस्तुतः गहरे में तुम बचना थोड़ी बुद्धि होती, तो चिल्लाता, तड़फता, कहता यह क्या करते चाहते हो, भागना चाहते हो। भागने के लिए कोई हो, मार ही डालोगे क्या? लेकिन सोने को पता भी कैसे हो कि रेशनलाइजेशन, कोई बुद्धिगत उपाय खोजते हो। तो एक तो यही शुद्ध स्वर्ण बनने की प्रक्रिया है। ऐसे, आग में गुजरकर ही इससे बचना। और दूसरी बात, स्वाभाविक है कि आकांक्षा उठे जो शेष रह जाएगा, वही कुंदन है। मरकर भी तुम्हारे भीतर जो कि थोड़ी-थोड़ी मृत्यु घटती है, ऐसा रस आ रहा है, पूरी क्यों नहीं मरता, वही आत्मा है। मिटकर भी जो तुम्हारे भीतर नहीं नहीं घट जाती! उसकी बहुत ज्यादा चाहना मत करना। उसकी मिटता, वही तुम्हारा वास्तविक होना है। | प्रतीक्षा करना, चाहना नहीं। क्योंकि चाहने से बाधा पड़ेगी। मृत्यु से गुजरना ही होगा। मेरे पास तुम अगर और कुछ | और देर लगेगी। सीखकर गये, तो तुम कूड़ा-कर्कट बीनकर चले गये। अगर कुछ ऐसा है कि जहां से चाह आती है, वह मृत्यु का स्रोत नहीं 266 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है है। जहां से चाह आती है, वहीं जीवेषणा है। एक क्षण को तुमने रखना ही जीवेषणा है। तो मौत नहीं घटेगी, देर लग जाएगी। मेरी आंख में देखा, या मैंने तुम्हें देखा। एक धक्का लगा, एक मांगा, तो देर लग जाएगी। सुख की तरंग उठी, कुछ चुभा हृदय में। पीड़ा भी हुई, लेकिन छोड़ो परमात्मा पर, जो दे रहा है उसके लिए धन्यवाद दो। जो मीठी हुई। जो पीड़ा को देखेगा सिर्फ, वह भाग खड़ा होगा। जो नहीं दे रहा है, जानो कि अभी तैयारी न होगी। क्योंकि जब मिठाई को देखेगा सिर्फ, वह और की मांग करने लगेगा। लेकिन फसल के पकने का समय आ जाता है, फसल पकती ही है। दोनों डांवाडोल हो गये। सभी चीजें अपने समय पर पक जाती हैं। तुमने सुना, जीसस को जब सूली लगी तो उनके दोनों तरफ दो और हर बात की घड़ी, हर बात का बंधा हुआ क्रम है। छलांगें चोरों को भी सूली दी गयी। जीसस बीच में थे, सूली पर लटके, नहीं लगती। क्रमिक, धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता तैयारी दोनों तरफ दो चोरों को भी सूली दी गयी थी। जिनने ऐसा होती है। क्योंकि तुम अगर तैयार न हो और कुछ तुम्हें मिल आयोजन किया था, उनका तो केवल अर्थ इतना ही था कि वे जाए, तो तुम गंवा दोगे। तुम अगर तैयार न हुए और कुछ तुम्हारी जीसस को भी एक चोर-लफंगे से ज्यादा नहीं समझते। इसलिए अपात्रता में गिरा, तो नष्ट हो जाएगा। दो चोरों के साथ-साथ सूली दी थी। लेकिन, ईसाई संतों ने बड़ी | धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता चुभने दो इस छुरी को। इसकी अनूठी बात इस साधारण-सी घटना में खोज ली। यह पीड़ा को भी स्वीकार करो, इसके प्यार को भी स्वीकार करो। साधारण-सी घटना एक गहरा बोध-प्रसंग बन गयी। इसकी पीड़ा भी, इसकी मिठास भी। तुम चुनो मत। जितना हो जैकब बहुमे ने कहा है कि जीसस के दोनों तरफ दो चोर खड़े रहा है, उसके लिए धन्यवाद; जो नहीं हो रहा है, उसके लिए हैं, लटके हैं सूली पर, अगर तुम जरा बायें झुककर नमस्कार भरोसा कि होगा। ऐसी श्रद्धा से जो चलता है, वह एक दिन मिट किये तो चोर को नमस्कार हो गयी, दायें झुककर नमस्कार किये भी जाता है और मिटकर सर्वांग सुंदर भी हो जाता है। तो चोर को नमस्कार हो गयी। ठीक बीच में रहे तो ही तम्हारा नमस्कार जीसस को पहंचेगा। यह तो बड़ी मीठी बात कही बहमे दूसरा प्रश्न : जबसे आपके शिष्यों का, आपके साहित्य का ने। जरा इधर-उधर हुए कि चूके। सत्य मध्य में है। दोनों तरफ और अंततः आपका ही संपर्क उपलब्ध हुआ है, मेरे जीवन में चोर हैं। दोनों तरफ असत्य है। परमात्मा मध्य में है, दोनों तरफ प्रेम का प्रवाह आरंभ हो गया है। हर आदमी, हर चीज अच्छी शैतान है। लगने लगी है। परंतु कई बार जब मैं प्रेम से भरकर दूसरे के तो न तो भाग जाना घबड़ाकर, न बहुत वासना से भरकर मेरी गले मिलना चाहता हूं, तो वह दूसरा संकुचा जाता है और फिर तरफ भागने लगना। दोनों हालत में चूक हो जाएगी, क्योंकि मैं पीछे हट जाता हूं। कृपया बतायें कि ऐसे समय में मैं क्या दोनों अतियां हैं। तुम जहां हो वहीं शांति से, स्वीकार-भाव से | करूं? प्रतीक्षा करना। वहीं नत हो जाना, वहीं तुम्हारा सिर झुके। न तो तुम कहना कि मैं चाहता हूं ऐसा हो, न तुम कहना मैं चाहता हूं प्रेम नाजुक बात है। प्रेम को अगर ठीक से समझा, तो उसमें वैसा हो। तुम कहना, अब मैं कुछ चाहता ही नहीं। चाह को तुम यह बात समाहित है कि दूसरे का ध्यान रखना। प्रेम का अर्थ ही हटा लेना। क्योंकि चाह डांवाडोल कर देगी। चाह कंपित कर यह होता है कि दूसरे का ध्यान रखना। देगी। तुम बेचाह होकर, जो घटे उसके स्वीकार-भाव से भरना। तुम किसी के गले लगना चाहते हो, लेकिन दूसरा लगना इसे समझो। चाह में अस्वीकार है। बेचाह में स्वीकार है। चाहता है या नहीं? इतना काफी नहीं है कि तुम गले लगना जब तुम कहते हो, जो हो उसके लिए मैं राजी हूं, तो मृत्यु, चाहते हो। शुभ है कि तुम्हारे हृदय में गले लगने का भाव जगा। आत्यंतिक-मृत्यु भी जल्दी घटेगी। लेकिन तुमने कहा कि जल्दी धन्यभागी हो! आभारी बनो प्रभु के। लेकिन इतने से जरूरी नहीं घटे, तुम यह कह रहे हो कि मैं अपनी आकांक्षा जो घट रहा है है कि दूसरे को तुम्हारे कंधे लगना ही पड़ेगा। तब तो प्रेम न उसके ऊपर रखता हूं। यह अपनी आकांक्षा को घटने के ऊपर हुआ, तब तो बलात्कार हुआ। तब तो तुमने दूसरे के साथ 267 2010 03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 जबर्दस्ती की, यह तो हिंसा हो गयी। यह तो प्रेम के बहाने हिंसा राष्ट्रपति हो गया, तो यह अहंकार की ही यात्रा हुई प्रेम के द्वारा। हो गयी। यह प्रेम नहीं। यह प्रेम के पीछे महत्वाकांक्षा का रोग है। प्रेम तो प्रेम तो रत्ती-रत्ती संभलकर चलता है, इंच-इंच संभलकर कुछ भी नहीं मांगता, देता है।। चलता है। प्रेम तो देखता है कि दूसरा कितने दूर तक चलने को पत्नी कहती है, मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। पति कहता है, मैं तुम्हें राजी है, उससे इंचभर ज्यादा नहीं चलता। क्योंकि प्रेम का अर्थ प्रेम करता हूं। और जैसे-जैसे प्रेम के जाल में दूसरा फंसता है, ही है कि तुम्हें दूसरे का खयाल आया। दूसरे का मूल्य! दूसरा पता चलता है कि यह तो फांसी हो गयी। पत्नी स्वतंत्रता मार साध्य है, साधन नहीं! तुम गले लगना चाहते हो; दूसरा लगना डालती है पति की बिलकुल। हिलने-डुलने योग्य भी नहीं रहने चाहता है या नहीं? दूसरे को देखकर कदम उठाना। और देती-पंगु कर देती है। पक्षाघात! पति पत्नी की स्वतंत्रता मार धीरे-धीरे कदम उठाना, अन्यथा दूसरा घबड़ा ही जाएगा। तब डालता है। दोनों एक-दूसरे के गुलाम हो जाते हैं। तुम्हारा प्रेम आक्रमण जैसा मालूम पड़ेगा। तुमने दूसरे की चिंता प्रेम गुलामी देता है? प्रेम स्वतंत्रता देता है। प्रेम स्वतंत्रता में ही न की। तुम इतनी देर भी न रुके कि पूछ तो लेते कि मैं पास सहारा देता है। प्रेम चाहता है, तुम्हें जो सुखद हो, करो। यह प्रेम आता हूं, आ जाऊं? | नहीं है, कुछ और है। यह प्रेम के नाम पर दूसरे पर मालकियत प्रेम सदा द्वार पर दस्तक देता है। पूछता है, क्या भीतर आ| करने का सुख है। यह हिंसा है। दूसरे को वस्तु बन सकता हूं? अगर इनकार आये, तो प्रतीक्षा करता है, नाराज नहीं परिग्रह बना लेना हिंसा है। हो जाता। क्योंकि यह दूसरे की स्वतंत्रता है। दूसरे का स्वत्व है, पति-पत्नी निरंतर कलह में लगे रहते हैं। कलह क्या है? अधिकार है कि वह कब तुम्हारे गले लगे, कब न लगे। तुम्हें प्रेम कलह यही है कि कौन किस पर मालकियत करके दिखा दे! का अवरतण हुआ है, उसे तो नहीं हुआ। तुम्हारे भीतर प्रेम कौन छोटा है, कौन बड़ा है? फैलना शुरू हुआ है, उसे तो तुम्हारे प्रेम का कोई पता नहीं। और जीवनभर संघर्ष चलता है पति-पत्नी में। संघर्ष एक ही बात वह दूसरा व्यक्ति तो प्रेम के नाम पर इतने धोखे खा चुका है कि का है कि मालिक कौन है? ऐसे पत्नी क के नाम पर ही लोगों को सताया गया है, इसलिए लोग सकुच भी पैर पकड़ने से शुरू करती है, गर्दन पर समाप्त करती है। गये हैं। मां ने किया प्रेम, बाप ने किया प्रेम, भाई ने किया प्रेम, आखिर में गर्दन दबा लेती है। पत्नी ने किया प्रेम, मित्रों ने किया प्रेम, और सबने प्रेम के नाम प्रेम से इतने कांटे चुभे हैं लोगों को, और प्रेम के नाम पर पर चूसा, और सबने प्रेम के नाम पर तुम्हारी छाती पर पत्थर इतना-इतना दुख लोगों ने पाया है कि जब भी तुम कहोगे कि मुझे मुझे तुमसे प्रेम है, उसी से तुम डरने लगे। क्योंकि अब कुछ और आश्चर्य नहीं है। दूसरे का ध्यान रखना। और एक खयाल होगा! इस प्रेम के पीछे छिपा हुआ कोई न कोई रोग होगा। रखना कि प्रेम जब भी आक्रामक होता है, तो दूसरे को घबड़ा | रोगी आदमी के प्रेम में भी रोग होता है। स्वाभाविक है। कुछ देता है। प्रेम में आक्रमण होना ही नहीं चाहिए। आक्रमण होते और होता है! बाप अपने बेटे से कहता है कि तू देख, ही प्रेम में हिंसा समाविष्ट हो जाती है। अब राह चलते किसी पढ़-लिख, बड़ा बन, प्रतिष्ठित हो। तुझसे मेरा प्रेम है इसलिए अजनबी को तुम जबर्दस्ती गले लगाकर आलिंगन कर लो, तो यह कह रहा हूं। लेकिन बेटा अगर अप्रतिष्ठित हो जाए, बड़े वह पुलिस-थाने में खबर करेगा कि यह आदमी पागल है। कुछ पदों पर न पहुंचे, तो प्रेम खो जाता है। तो प्रतिष्ठा से प्रेम होगा, लेना-देना नहीं है मुझसे! बेटे से कहां प्रेम है! महत्वाकांक्षा से प्रेम होगा; शायद, मेरा तुम्हारे भीतर प्रेम का अवतरण हुआ है, लेकिन जब तुम दूसरे बेटा है, खूब प्रशंसा पाये, इससे प्रेम होगा, क्योंकि इसके बहाने को आलिंगन करते हो तो दूसरा भी समाविष्ट हुआ। तुम अकेले मेरा अहंकार भी तृप्त होगा। मेरा बेटा प्रधानमंत्री हो गया, न रहे। हां, तुम एकांत अपने कमरे में बैठकर प्रेम के गीत 268 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है गनगनाना, नाचना, कोई मनाही नहीं है। अन्यथा तुमने प्रेम का वासना की आंख से देखा जाना किसी को भी पसंद नहीं। प्रेम गलत अर्थ समझा। और फिर इस बात का भी डर है कि तुम | की आंख से देखा जाना सभी को पसंद है। तो दोनों आंखों की जिसे प्रेम कह रहे हो, वह प्रेम है? या कि वासना ने नये रूप परिभाषा समझ लो। वासना का अर्थ है, वासना की आंख का रखे? या वासना नये ढंग लेकर आयी? या वासना ने प्रेम का अर्थ है कि तुम्हारी देह कुछ ऐसी है कि मैं इसका उपयोग करना आवरण पहना? क्योंकि मेरी नजर ऐसी है कि जब भी तुम चाहूंगा। प्रेम की आंख का अर्थ है, तुम्हारा कोई उपयोग करने किसी व्यक्ति की तरफ वासना से भरकर देखते हो, तो दूसरा का सवाल नहीं, तुम हो, इससे मैं आनंदित हूं। तुम्हारा होना, सकचाता है. डरता है, घबडाता है क्योंकि वासना तो एक / अहोभाग्य है। बात खतम हो गयी। प्रेम को कछ लेना-देना नहीं कारागृह है। और घबड़ाहट स्वाभाविक है। क्योंकि वासना का है। वासना कहती है, वासना की तृप्ति में और तृप्ति के बाद सुख अर्थ ही यह होता है कि तुम दूसरे व्यक्ति का उपयोग करना होगा; प्रेम कहता है, प्रेम के होने में सुख हो गया। इसलिए प्रेमी चाहते हो। कोई भी नहीं चाहता उसका उपयोग किया जाए। की कोई मांग नहीं है। उपयोग का मतलब हुआ कि तुमने दूसरे व्यक्ति को वस्तु में तब तो तुम अजनबी के पास से भी प्रेम से भरे निकल सकते बदल दिया। उसकी आत्मा मार डाली। उपयोग तो वस्तुओं का हो। कुछ करने का सवाल ही नहीं है। हड्डियों को हड्डियों से होता है, व्यक्तियों का नहीं। कर्सी का उपयोग होता है, टेबल लगा लेने से कैसे प्रेम हो जाएगा। प्रेम तो दो का उपयोग होता है, मकान का उपयोग होता है, व्यक्तियों का तो निकट होना है। और कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि जिसके नहीं। जब भी तुम वासना से किसी की तरफ देखते हो, तब तुमने पास तुम वर्षों से रहे हो, बिलकुल पास रहे हो, पास न होओ; | इस ढंग से देखा कि तम कामवासना के लिए इस दसरे व्यक्ति और कभी ऐसा भी हो सकता है कि राह चलते किसी अजनबी के का उपयोग करना चाहते हो। दूसरा तत्क्षण सचेत हो जाता है, साथ तत्क्षण संग हो जाए, मेल हो जाए, कोई भीतर का संगीत सावधान हो जाता है। वह अपनी रक्षा में लग जाता है। बज उठे, कोई वीणा कंपित हो उठे। बस काफी है। उस क्षण आक्रामक प्रेम में डर है कि कहीं कामवासना छिपी हो। परमात्मा को धन्यवाद देकर आगे बढ जाना। पीछे लौटकर भी वास्तविक प्रेम तो प्रार्थनापूर्ण होता है, वासनापूर्ण नहीं होता। देखने की प्रेम को जरूरत नहीं है। पीछे लौट-लौटकर वासना वास्तविक प्रेम को दूसरे को गले लगाना जरूरी भी नहीं है। देखती है। और वासना चाहती है कि दूसरा मेरे अनुकूल चले। वास्तविक प्रेम तो एक आशीर्वाद है। तुम किसी के पास से अब जिन मित्र ने पूछा है, वह कहते हैं कि दूसरा हट जाता है गुजरे, आशीर्वाद से भरे हुए गुजरे, काफी है। आत्मा आत्मा को अगर मैं आलिंगन करना चाहता हूं। इतनी तो स्वतंत्रता दूसरे को गले लग गयी, शरीर को शरीर से लगाने से क्या प्रयोजन है! दो, अन्यथा यह तो बलात्कार हो जाएगा। यह तो एक तरह की कभी-कभी आत्मा के गले लगने के साथ-साथ शरीर का गले तानाशाही हो जाएगी। तुम दूसरे को इतना भी नहीं मौका देते कि लगना भी घट जाए, तो शुभ है। लेकिन वह घटे, घटाया न वह हट सके। दूसरा सकुचा रहा है, वह इस बात की खबर दे जाए। कभी ऐसा होगा कि तुम बड़े आशीर्वाद से भरे हुए किसी रहा है कि तुम्हारे प्रेम में अभी प्रार्थना का स्वर नहीं है। अभी प्रेम के पास से निकलते थे और उसके हृदय में भी तुम्हारे आशीर्वाद में कहीं छिपी वासना है; कहीं दुर्गंध है। कहीं देह की बदबू है। की तरंगें पहुंची और दोनों एक-साथ किसी अनजानी शक्ति के आत्मा की सुवास नहीं। अभी वह तुम्हारे से हटकर यह खबर दे वशीभूत होकर एक-दूसरे के गले लग गये। रहा है तुम्हें कि तुम अभी उस परिशुद्धि को उपलब्ध नहीं हो, तो तुम गले लगे ऐसा नहीं, दूसरा गले लगा ऐसा नहीं, प्रेम ने जहां अजनबी भी तुम्हारे हाथों में, तुम्हारी बाहों में आये और दोनों को गले लगा दिया। यह बड़ी और घटना है। जब तुम समा जाए। तो इसका संकेत समझना। लगते हो गले, तो वासना है। तुम्हारी वासना के कारण दूसरा दूसरे व्यक्ति की परिपूर्ण स्वतंत्रता को सदा स्वीकार करना। हटेगा। कृपा करके ऐसा आक्रमण किसी पर मत करना। तुम और इतना काफी है कि तुम पास से निकल गये। दूसरा दिखा, दूसरे को भयभीत कर दोगे। दूसरे में तुम्हें परमात्मा दिखा, परमात्मा का रूप दिखा, तुम 269 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 अहोभाव से गुजर गये। कभी-कभी ऐसा हो जाएगा कि दोनों के परमात्मा तुम्हारी तलाश में आया इस बहाने, इस निमित्त—तुम हृदय में एक-साथ कोई तीसरी शक्ति-परमात्मा कहो, प्रेम | इस छोटे-से बच्चे को ढांचों में मत ढालना। तुम इस तरह की कहो-एक साथ उठेगी, समवेत, और तुम दोनों एक-दूसरे के | कोशिश मत करना, कि यह तुम्हारे पीछे-पीछे चले, तुम्हारी हां आलिंगन में गिर जाओगे। लेकिन वह आलिंगन तुम्हारा नहीं में हां मिलाये। तुम जो कहो, वही करे। तुम इसे मार मत होगा, न दूसरे का होगा, वह आलिंगन परमात्मा का होगा। उस डालना। परमात्मा तुम्हारे घर आया है, तुम इस बच्चे को क्षण की प्रतीक्षा करो। तब तक जल्दी मत करना। प्रेम बड़ी परमात्मा की प्रतिष्ठा देना। इसकी स्वतंत्रता को स्वीकार करना। पवित्र घटना है। हां, अपना अनुभव इसे दे देना। लेकिन वह अनुभव आदेश न जब तुम प्रेम करने की चेष्टा करने लगते हो, तभी अपवित्र हो | हो। तुमने जो जाना है, उसकी संपत्ति इसे सौंप देना। लेकिन जाता है प्रेम। तुम्हारा कृत्य नहीं है प्रेम-प्रेम है समर्पण, चुनाव का हक इसी को देना कि वह चुन ले–राजी हो, न हो परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ देना। पहले परमात्मा का राजी। न राजी हो तो नाराज मत होना। राजी हो तो प्रसन्न मत आलिंगन तो कर लो। फिर, परमात्मा के बहुत रूप हैं, इनका होना। क्योंकि प्रसन्नता और नाराजगी की राजनीति से ही हम आलिंगन भी हो जाएगा। और हुआ या नहीं, उसका कोई बच्चों के ऊपर जबर्दस्ती करते हैं। बाप एक बात कहता है बेटे प्रयोजन नहीं है। प्रेम पाप नहीं है, लेकिन प्रेम को थोपना पाप से, कहता है तेरी जो मर्जी हो वैसा कर। लेकिन अगर बाप की है। प्रेम तो बड़ा पुण्य है। फिराक की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं- मर्जी के खिलाफ करता है, तो बाप दुखी मालूम पड़ता है। तो कोई समझे तो एक बात कहूं बेटा बाप को सुखी करना चाहता है कि चलो! अगर बाप की इश्क तौफीक है गुनाह नहीं मर्जी के अनुसार करता है, तो बाप प्रसन्न होता है। तो बेटा बाप प्रेम तो प्रसाद है-तौफीक। प्रभु-प्रसाद, प्रभु-कृपा, को प्रसन्न करना चाहता है कि चलो! ऐसे-ऐसे धीरे-धीरे बेटे की अनुकंपा; न मालूम कितने पुण्यों का फल है। इश्क तौफीक है | आत्मा खो जाती है। गुनाह नहीं। अपराध नहीं है प्रेम, लेकिन तुम प्रेम के साथ भी | इसीलिए तो दुनिया में इतनी भीड़ है और इतने आत्महीन लोग दुर्व्यवहार कर सकते हो। तुम इसे पाप बना सकते हो। आदमी | हैं। आत्मा कहां? आत्मा तो स्वतंत्रता में पनपती है, फैलती है, ने यही तो किया, प्रेम को पाप बना दिया। तुम श्रेष्ठतम को भी फूलती है। तो चाहे अजनबी, चाहे जिनको तुम अपने कहते निकृष्टतम कीचड़ में घसीट सकते हो। और तुम श्रेष्ठतम को हो...अपने जिनको कहते हो वे भी अजनबी हैं। जो बेटा तुम्हारे निकृष्ट कीचड़ से निकाल भी सकते हो। तुम पर निर्भर है। घर पैदा हुआ है, उसे तुम जानते हो, कौन है? कहां से आया तो सदा ध्यान रखना, दूसरे की स्वतंत्रता पर आंच न आने है? क्या संदेश लाया है? क्या उसकी नियति है? तुम्हें कुछ पाये। और यह मैं अजनबियों के लिए ही नहीं कह रहा हूं, | भी तो पता नहीं! सिर्फ तुम्हारे घर पैदा हो गया है, तुम्हें माध्यम जिनको तम अपना मानते हो, उनके संबंध में भी खयाल रखना। चुन लिया है। तुम इससे ज्यादा पागलपन से मत भर जाना कि तुम्हारी पत्नी की स्वतंत्रता को आंच न आने पाये। तुम्हारे पति | उसकी गर्दन दबाने लगो। अजनबी तो अजनबी है। की स्वतंत्रता को आंच न आने पाये। जहां आंच आने लगे, इसीलिए तो सारे धर्मशास्त्र कहते हैं, यहां कौन अपना है? समझना प्रेम पाप होने लगा। आलोक तो मिले, आंच न आये। अपने ही हम अपने नहीं हैं, दूसरे की तो बात ही मुश्किल है। प्रकाश तो मिले, लेकिन ताप पैदा न हो। चांद की तरह हो प्रेम, अपना ही हमें पता नहीं कि हम कौन हैं, तो किस को हम सूरज की तरह नहीं। जला न दे, झुलसा न दे। चांद की पहचानें। न, पास हों लोग कि दूर हों, अपने हों कि पराये हों, से. अमत बरसे. सोमरस बहे। शीतलता दे। स्वतंत्रता को मत तोड़ना। जहां प्रेम स्वतंत्रता तोड़ता है, वहीं पाप तो ही प्रेम पुण्य है। हो जाता है। अन्यथा प्रेम तो इस जगत में, इस अंधेरे जगत में जो तुम्हारे बहुत पास हैं, तुम्हारा बेटा, तुम्हारी बेटी-छोटा | परमात्मा की किरण है। इस गहन अंधकार में प्रेम ही एकमात्र बच्चा तुम्हारे घर पैदा हुआ है, परमात्मा ने एक रूप लिया, ज्योतिशिखा है। 270 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है फिर किसी के सामने चश्मे-तमन्ना झुक गयी पानी पर खींची लकीर है। लेकिन प्रेम, प्रेम सत्य है। प्रेमपात्र शौक की शोखी में रंगे-एहतिराम आ ही गया बदल जाते हों, प्रेम नहीं बदलता। बचपन में अपनी मां को कोई बारहा ऐसा हुआ है याद तक दिल में न थी प्रेम करता है; पिता को प्रेम करता है; थोड़ा बड़ा होकर बारहा मस्ती में लब पर उनका नाम आ ही गया भाई-बहन को प्रेम करता है; पास-पड़ोस, मित्रों को प्रेम करता जिंदगी के खाका-ए-सादा को रंगी कर दिया है; और थोड़ा बड़ा होकर किसी स्त्री को प्रेम करता है; और हुस्न काम आये न आये इश्क काम आ ही गया थोड़ा बड़ा होकर बच्चों को प्रेम करता है; और थोड़ा बड़ा होकर सौंदर्य साथ दे या न दे, प्रेम सदा साथ देता है। सौंदर्य काम किसी दिन किसी मंदिर में, किसी मस्जिद में झुकता है किसी आये न आये, प्रेम सदा काम आ जाता है। अज्ञात प्रेमपात्र के लिए। प्रेमपात्र बदलते रहते हैं, लेकिन प्रेम जिंदगी के खाका-ए-सादा को रंगी कर दिया नहीं बदलता। बचपन से लेकर अंत तक, जन्म से लेकर मृत्यु वह जिंदगी की जो सादी-सी रूपरेखा है, सादा रेखाचित्र है, | तक अगर कोई एक चीज तुम्हारे भीतर सदा चलती रहती है, तो उसे रंगीन कर देता है प्रेम। प्रेम है। जैसे सांस सदा चलती रहती है। सांस शरीर को संभाले जिंदगी में जो हरियाली दिखायी पड़ती है, वह प्रेम की आंखों रखती है, प्रेम आत्मा को संभाले रखता है। के कारण। जो फूल खिलते हैं, वह प्रेम की आंखों के कारण। प्रेम सौभाग्य है! लेकिन भूलकर भी दूसरे पर उसे मत जीवन के कंकड़-पत्थरों में जो कभी-कभी हीरे दिखायी पड़ जाते थोपना। अपने भीतर संभालकर! बाहर उछालने की जरूरत भी हैं, वह प्रेम के कारण। पदार्थ में परमात्मा की थोड़ी-सी जो नहीं है। दिखावा करने का, प्रदर्शन करने का कोई कारण भी नहीं झलक मिलने लगती है, वह प्रेम के कारण। अगर प्रेम न हो, तो | है। कबीर ने कहा है-हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बनाओ मंदिर, मस्जिद, गरुद्वारे. सब व्यर्थ होंगे। बार-बार क्यों खोले? हीरा मिल जाता है किसी को रास्ते पर प्रेम के कारण ही मंदिर की पत्थर की प्रतिमा में परमात्मा की पड़ा, जल्दी से गांठ में गठियाकर संभालकर चल पड़ता है, फिर झलक मिलती है। प्रेम के कारण ही काबे का साधारण-सा इधर बार-बार थोड़े ही खोलकर देखता है? अगर कभी शक भी पत्थर परमात्मा का प्रतीक हो जाता है। कितने लोगों ने चूमा है हो तो थोड़ा हाथ डालकर समझ लेता है कि है, फिर अपना चल उस पत्थर को! किसी और पत्थर को इतने लोगों ने नहीं चूमा पड़ता है। होगा। धन्यभागी है काबा का पत्थर! करोड़ों-करोड़ों लोग प्रेम का हीरा तुम्हें मिला-हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको जनम-जनम प्रतीक्षा करते हैं उस पत्थर के पास जाकर चूम लेने बार-बार क्यों खोले? अब इसमें कोई दिखाना थोड़े ही है, की। इतने लोगों के चुंबन ने अगर उस पत्थर को परमात्मा नहीं बाजार में जाकर घोषणा थोड़े ही करनी है कि हम एक बड़े प्रेमी बना दिया है, तो फिर परमात्मा हो ही नहीं सकता। इतने लोगों ने | हो गये, कि जो मिलता है उसको गले लगते हैं। संभाल लो प्रेम बरसाया है, पत्थर भी परमात्मा हो ही जाएगा। भीतर, बांध लो गांठ और जितना भीतर छिपा सको उतना भीतर जब तुम मंदिर में जाकर, किसी और के मंदिर में जाकर मूर्ति | छिपा दो। तुम पाओगे, वह हीरा बीज बन जाता है। उसमें अंकुर देखते हो, तो मत कहना पत्थर की है। तुम्हारे लिए पत्थर की आते हैं। यह हीरा कोई पत्थर नहीं है, यह हीरा तो प्राण का होगी, क्योंकि प्रेम की तुम्हारे पास आंख नहीं। लेकिन जो भक्ति सारभूत अंश है। इसे छिपा दो अपने अचेतन की गहराइयों में। से, श्रद्धा से भरकर उसी मंदिर में जाता है, उसे पत्थर की प्रतिमा इसे बाहर मत उछालते फिरो, अन्यथा गंवा दोगे। मुस्कुराती लगती है कभी, कभी आंस बहाती लगती है। उसे बीज तो जमीन में छिपा देने को होता है। बाहर रखे रहोगे, पत्थर की प्रतिमा जीवंत मालूम होती है। खराब हो जाएगा। छिपा दो अपनी चेतना की भूमि में। गहन जिंदगी के खाक-ए-सादा को रंगीं कर दिया, तल में डाल दो। वहां से फूटेगा, वहां से निकलेंगी कोंपलें, वहां हस्न काम आये न आये इश्क काम आ ही गया से उगेगा अंकर, और एक बीज में लाखों-करोड़ों बीज लगेंगे। सौंदर्य तो आज नहीं कल खो जाता है। सौंदर्य तो सपना है। यह जो छोटा-सा प्रेम का दीया जला है, इसे हवाओं में लेकर 271/ 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 मत भटको यहां-वहां, बुझ जाएगा। इसे तो संभालकर रखो।। | कांटे से लड़ो मत। कहीं भीतर लड़ाई चल रही होगी। कहीं अब यह सूरज बन सकता है। भी लग रहा होगा कि यह कहां उलझ गये। यह कांटा तो पीड़ा दे रहा है! पीड़ा तो होगी। सभी निखार पीड़ा से संभव होते हैं। यह तीसरा प्रश्न : तने आटा लगाया और हमें फंसाया। अब हम प्रसव-पीड़ा है। अनेक बार गर्भवती स्त्री को मन में खयाल कष्ट पा रहे हैं और अकेले-अकेले तड़फ रहे हैं, इसका आता है, कहां उलझ गये! बोझ बढ़ता जाता है पेट में, वमन जिम्मेवार कौन? होने लगता है, भोजन पचता नहीं, रात नींद नहीं आती, एक लंबी यातना हो जाती है। कितनी बार नहीं गर्भवती स्त्री सोचती होगी आटे का लोभ। आटे के लोभ ने फंसा दिया। न करते लोभ, कि अच्छा होता कि प्रेम में पड़े ही न होते! लेकिन इस पीड़ा को न फंसते। अब जब फंस ही गये हो, तो पीड़ा कांटे के कारण नहीं झेल लेती है, तो मां बन जाती है। और मां बने बिना कोई स्त्री हो रही है। अभी भी कांटे से संघर्ष चल रहा होगा, इसीलिए हो पूर्ण नहीं होती। रही है। पुरुष तो बाप बनने से कुछ बहुत नहीं पाता-थोड़ी बहुत अब कांटे के साथ ही हो लो। अब कांटे से राजी हो जाओ। | झंझटें पाता होगा क्योंकि बाप होना पुरुष का कोई निसर्ग नहीं जिससे हम राजी हो जाते हैं, उसी से पीड़ा होनी बंद हो जाती है। है, सामाजिक व्यवस्था है। प्रकृति में आदमी को छोड़कर और पीड़ा से भी राजी हो जाओ, तो पीड़ा समाप्त हो जाती है। | तो बाप कहीं होता नहीं। मां तो सभी जगह होती है। पशु में, इसे समझना। | पक्षी में, सब जगह मां होती है। मां नैसर्गिक व्यवस्था है। बाप जब तक हम लड़ते रहते हैं किसी चीज से, तभी तक पीड़ा सामाजिक व्यवस्था है। इसी कारण मार्क्स जैसे विचारकों ने तो होती है। जब स्वीकार कर लिया, कहा कि चलो, सौभाग्य कि यह भी कहा कि जब समाजवाद पूरी तरह व्यवस्थित हो जाएगा, इस योग्य समझे गये कि फंसाये गये, कि इस योग्य समझे गये तो बाप की संस्था खो जाएगी। क्या जरूरत रह जाएगी? राज्य कि कांटा हमारे लिए डाला गया। जीसस ने कहा है, परमात्मा | काम कर देगा बाप का। वैसे कर ही रहा है धीरे-धीरे। शिक्षा अपना जाल फेंकता है मछुवे की भांति। उसमें बहुत-सी मुफ्त, अस्पताल मुफ्त, तो बाप का काम छिनता जा रहा है। एक मछलियां फंस जाती हैं, लेकिन सभी चुनी नहीं जाती। जिनको | न एक दिन कम्युनिज्म जब पूरी तरह फैल जाएगा-ऐसा मार्क्स व्यर्थ पाता है, उन्हें वापस सागर में छोड़ देता है। जिन्हें सार्थक का खयाल-बाप समाप्त हो जाएगा। मां समाप्त नहीं होगी। पाता है, उन्हें घर ले जाता है। मां को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। अगर फंस गये होओ मेरे जाल में, कांटा छिद गया, तो बाप को तो थोड़ी झंझट-सी ही होती है बाप बनकर, लेकिन सौभाग्यशाली हो। परमात्मा का लोभ रहा होगा। आटे का लोभ मां बड़ी सौभाग्य से भर जाती है। मां बने बिना स्त्री ऐसी ही होती उसी को मैं कह रहा हूं। आत्मा को पाने का लोभ रहा है जैसे कि कोई वृक्ष जिस पर फूल नहीं आया, फल नहीं होगा-आटे का लोभ! वह लोभ भी सौभाग्य है! धन के | लगे-बांझ। प्रसाद नहीं होता। मां बनते ही स्त्री के भीतर से लोभी तो बहुत हैं, धर्म के लोभी कहां? पदार्थ के लोभी तो बहुत | एक आभा फूटती है। जीवनदात्री ! लेकिन वह जीवनदात्री बनने हैं, परमात्मा के लोभी कहां? कंकड़-पत्थर बीननेवाले तो बहुत के लिए पीड़ा सहनी पड़ती है। हैं, करोड़ों हैं, हीरों के पारखी कहां? उसी को आटे का लोभ | और इसलिए ठीक भी है कि बाप को तो कोई पीड़ा सहनी नहीं कह रहा हूं। नहीं तो मेरे पास आ नहीं सकते थे। मेरे पास आने पड़ती। इसलिए बच्चा पैदा हो जाता है, इससे बाप को तो कोई में बाधाएं तो बहुत हैं, सुविधाएं कहां हैं? जो सब तरह की पीड़ा सहनी नहीं पड़ती। बाप तो करीब-करीब बाहर खड़ा रह बाधाओं को तोड़कर आ सकता है, वही आ सकता है। जाता है। बाप का कोई बहुत बड़ा सहयोग नहीं है। जो बाप यह कांटा जो तुम्हें छिद गया है, यह तुम्हारे जन्मों-जन्मों का | करता है वह एक इंजेक्शन भी कर सकता है। इससे कोई, बाप पुण्य ही हो सकता है, अन्यथा छिद नहीं सकता था। अब इस | का कोई ऐसा आत्यंतिक साथ नहीं है। झेलना तो मां को पड़ता 272 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है है। एक नये जीवन का आरोपण, उस नये जीवन का भीतर की तरफ! पहले जमीन पर ही आंखें भी गड़ी थीं। एक तालमेल बढ़ना। फिर वह उसी बच्चे के लिए जीती है। नौ महीने तक था। दुकान पर थे तो दुकान पर थे। अब पैर दुकान पर होंगे, उसी के लिए सांस लेती है, उसी के लिए भोजन करती है, उसी आंखें मंदिर में। अब करते होओगे भोजन, स्मरण आत्मा का। के लिए उठती-बैठती है। स्वभावतः एक गहन सृजन की प्रक्रिया | अब गिनते होओगे रुपये और भीतर याद परमात्मा की। अब होती है, लेकिन पीड़ा! फिर बच्चे का पैदा होना और बड़ी अड़चन हुई। अब एक द्वंद्व शुरू हुआ। एक महाद्वंद्व, एक प्रसव-पीड़ा है। संघर्ष, जिसको गीता कहती है-कुरुक्षेत्र। अब एक धर्मक्षेत्र, तो जैसे-जैसे तुम मेरे जाल में फंसोगे, वैसे-वैसे पीड़ा बढ़ेगी। कुरुक्षेत्र, उपद्रव शुरू हुआ! अब एक बड़ा संघर्ष है। तुम गर्भित हुए। सत्य ने तुम्हारे भीतर जगह बनायी। अब तुम्हें आज भी है 'मज़ाज़' खाकनशीं बहुत-सी पीड़ाएं होंगी जो तुम्हें कभी भी न हुई थीं। वह सत्य को | और नजर अर्श पर है क्या कहिये जन्म देने की पीड़ाएं हैं। और वे बढ़ती जाएंगी क्रमशः, जैसे-जैसे। फिर वही रहगुजर है क्या कहिये नौ महीने का समय करीब आयेगा वे बढ़ती जाएंगी। और जिंदगी राह पर है क्या कहिये आखिरी क्षण में तो महापीड़ा होगी। लेकिन उस पीड़ा से गुजरे आह तो बेअसर थी बरसों से बिना कोई सत्य को जन्म नहीं दे पाता। नग्मा भी बेअसर है क्या कहिये सत्य को जन्म देना हो, तो गर्भ धारण करना ही होगा। जिसको हुस्न है अब न हुस्न के जलवे तुम अभी कांटा कह रहे हो, वह तुम्हारे भीतर पड़ गया गर्भ का | अब नज़र ही नज़र है क्या कहिये बीज है। चुभता है, इसलिए कांटा कहते हो, ठीक। गड़ता है, धीरे-धीरे, सौंदर्य तो सब खो जाएगा, दिखायी पड़नेवाली इसलिए कांटा कहते हो, ठीक। लेकिन उसी कांटे में तुम्हारा चीजें तो सब खो जाएंगी, रूप तो सब खो जाएगा, आकार तो सारा भविष्य, तुम्हारी सारी नियति निर्भर है। अगर सत्य तुमसे सब खो जाएगा, आंख ही बचेगी। शुद्ध। जन्म ले ले, तो वही तुम्हारा जन्म होगा। और निश्चित ही यह | अब नजर ही नजर है क्या कहिये / पीड़ा साधारण प्रसव की पीड़ा से बहुत ज्यादा है। क्योंकि उसी को तो हमने दर्शन कहा है, द्रष्टा की स्थिति कहा है, धारण प्रसव की पीड़ा में तो तुम दूसरे को जन्म देते हो, नौ साक्षीभाव कहा है। सब खो जाएगा। सब दृश्य खो जाएंगे। महीने में झंझट खतम हो जाती है। यहां तो तुम्हें अपने को जन्म | सिर्फ आंख। पहले तो बड़ा सूनापन, बड़ा सन्नाटा लगेगा। देना है। समय का कुछ पक्का नहीं कितना लगेगा। नौ महीने भी तो पूछा है, अकेले-अकेले तड़फ रहे हैं, इसका जिम्मेवार लग सकते हैं, नौ वर्ष भी लग सकते हैं, नौ जन्म भी लग सकते कौन? मुझे पता है, जब व्यक्ति परमात्मा की तरफ चलता है, हैं। तुम पर निर्भर है। कितनी त्वरा, कितनी प्यास, और झेलने तो पहले तो संसार छूटने लगता है हाथों से, भीड़ विदा होने की कितनी क्षमता! अहोभाव से झेलने की क्षमता, आनंदभाव लगती है, अकेला रह जाता है। परमात्मा मिले, इसके पहले से झेलने की क्षमता, नाचते हुए झेलने की क्षमता, इस पर निर्भर बिलकुल अकेला हो जाता है। जब बिलकुल अकेला हो जात करता है; उतना ही समय कम होता जाएगा। | है, तभी तो परमात्मा के योग्य बनता है। महावीर ने उस पीड़ा स्वाभाविक है। लेकिन उस पीड़ा को सौभाग्य बनाने की | अकेलेपन को कैवल्य कहा है। जब बिलकुल केवल तुम ही रह चिंता करो। गये, तुम्हारा होना ही रह गया। आज भी है 'मज़ाज़' खाकनशीं हुस्न है अब न हुस्न के जलवे, और नजर अर्श पर है क्या कहिये अब नज़र ही नज़र है क्या कहिये! जैसे ही तुम मेरे करीब आये, एकदम से तुम आसमान पर तो न पीड़ा होगी। बड़ी गहन रात्रि मालूम होगी। पर सूरज के ऊगने पहुंच जाओगे। रहोगे तो तुम जमीन पर, सिर्फ नजर आकाश की के पहले रात तो गहन अंधेरी हो ही जाती है। तरफ उठेगी। अड़चन शुरू हुई। पैर जमीन पर, आंख आकाश | इस एकांत को अकेलापन मत समझो। इस एकांत को उसे ___ 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 पाने की तैयारी समझो। जरा-सी दृष्टि बदलने की बात है, जरा | मिटते हुओं को देखकर क्यों रो न दे 'मज़ाज़' दृष्टिकोण बदलने की बात है और सब अर्थ और हो जाता है। आखिर किसी के हम भी मिटाये हुए तो हैं अकेलापन अकेलापन मालूम होता है अगर उन लोगों का सीने में उनके ज़ल्वे छुपाये हुए तो हैं खयाल करो, जिनने कल तक घेरा था और अब वे दूर हटते चले | हम अपने दिल को तूर बनाये हुए तो हैं गये हैं। स्वभावतः अगर पति ध्यान करेगा, पत्नी थोड़ी दूर होने बस इतना ही खयाल रहे कि रोशनी जलती रहे। दिल का दीया लगेगी। पत्नी ध्यान करेगी, पति थोड़ा दूर होने लगेगा। जलता रहे। भीतर होश बना रहे। संसार तो छूटेगा, छूटना ही घर-द्वार, बच्चे, अपने, दूर होने लगेंगे। ऐसा बाहर से दूर हों है। लाख उपाय करो, पकड़कर रखा जा सकता नहीं। कोई नहीं ऐसा जरूरी नहीं, लेकिन भीतर। भीतर कोई सरकने लगेगा पार, रख सका, तुम भी न रख सकोगे। कोई अपवाद नहीं है। गहरे में जाने लगेगा। बाहर से आंख झपकने लगेगी, भीतर | जो कल छूटना ही है, उसे अपने हाथ से छोड़ देना कला है। आंख खुलने लगेगी। शान है उसमें। गरिमा है, गौरव है। यही तो संन्यासी का गौरव रोज ऐसा होता है। है। संन्यासी का गौरव क्या है? यही कि संसारी को जबर्दस्ती रात तुम सोते हो, तब तुम्हें पत्नी की याद रह जाती है? पति | छुड़ाया जाता; संन्यासी खुद ही कह देता है कि ठीक है, जो की याद रह जाती है? बेटे-बेटी की याद रह जाती है? छूटना है, छूट गया। संसारी बड़ी पीड़ा से छोड़ता है, रो-रोकर मित्र-प्रियजन की याद रह जाती है? कुछ भी नहीं। आंख बंद छोड़ता है, दीन होकर छोड़ता है। लगता है जैसे लूटा जा रहा है। हुई, संसार गया। तुम अपने भीतर डूबे। ध्यान में तो यह घटना | संन्यासी यह देखकर कि यहां तो सभी लुट जाते हैं, खुद खड़ा और भी गहरी घटेगी। तो अकेलापन आयेगा। अगर तुमने होकर लट जाता है। कहता है, ठीक है। पीड़ा होगी, भीड़ विदा बाहर पर नजर रखी, तो यह लगेगा अकेलापन; अगर भीतर पर होगी, अकेलापन आयेगा, उसी अकेलेपन की राह से परमात्मा नजर रखी तो यह लगेगा एकांत। एकांत और अकेलेपन में बड़ा | आयेगा। अकेलापन तो सेतु है उसके आने के लिए; हमने पुल फर्क है। भाषाकोश में कोई फर्क नहीं है। भाषाकोश में तो दोनों बनाया। इसे इस तरह देखोगे, तो इस पीड़ा में भी सुख होगा। का अर्थ एक ही लिखा है। जीवन के कोश में बड़ा फर्क है। जब तुम कुछ निर्माण कर रहे होते हो, तो माथे से पसीना बहता एकांत का अर्थ तो बड़ा आनंदपूर्ण है। अकेलेपन का बड़ा | रहे, तो भी सुख होता है। क्योंकि तुम जानते हो, यह तो श्रम है। दुखपूर्ण है। तुम गलत व्याख्या मत करो। इसे अकेलापन मत और इस श्रम के पीछे फल है। यह तो श्रम है, सृजन है। इसके कहो, इसे कहो एकांत। इसे कहो शुद्ध अपना होना। इसे कहो पीछे अहोभाव चला आ रहा है। इसके पीछे उपलब्धि है। तैयारी। प्रभु के पास जा रहे हैं, तो भीड़ लेकर तो कोई कभी गया | इस एकांत से ही परमात्मा तुम्हारे पास आयेगा। जिस दिन तुम नहीं। एकाकी। अकेले ही जाना पड़ता है। उस मंदिर में दो तो मौन हो जाओगे, उस दिन वह बोलेगा। जिस दिन तुम अकेले हो कभी साथ प्रविष्ट हुए नहीं। एक ही प्रविष्ट होता है। तो इसे जाओगे, उसी दिन उसके हाथ तुम्हारे हाथ में आ जाते हैं। वह तैयारी समझो। और जितना एकांत बढ़ने लगेगा उतना जानना कोई दूर थोड़े ही है। पास ही है, लेकिन तुम भीड़ में इतने उलझे कि प्रभु पास आ रहा है, संसार दूर हो रहा है। एक क्रांति घट रही हो कि उसे देख नहीं पाते। है। पहले-पहले तो यह मिटने-जैसा ही लगेगा। इसीलिए तो खुद दिल में रह के आंख से परदा करे कोई इसको मैं मृत्यु कहता हूं। हां, लुत्फ जब है पा कर भी ढूंढा करे कोई मिटते हुओं को देखकर क्यों रो न दे ‘मज़ाज़' ऐसा ही लुत्फ चल रहा है। पाया ही हुआ है, उसी को ढूंढ रहे | आखिर किसी के हम भी मिटाये हुए तो हैं हैं। उसे कभी खोया नहीं है, लेकिन भीड़ में आंखें उलझ गयी जो मेरे पास आ रहे हैं, वह समझेंगे। वह इस बात को हैं। भीड़ में आंखें उलझने के कारण वह तुम्हारे पास ही खड़ा है, समझेंगे। जब वह दूसरे को मिटते, एकांत की पीड़ा में उतरते कंधे से कंधा सटाये, तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है, तुम्हारी सांसों देखेंगे, तो वह समझेंगे। में चल रहा है, बह रहा है, दिखायी नहीं पड़ता। इधर से अकेले 274 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है। हुए, भीड़ को विदा किया, वह दिखायी पड़ने लगेगा। एक दफा रखकर ले जाएगा। उसे खोजना कोई आदमी का ही अकेले दिखायी पड़ जाए, फिर मैं तुमसे नहीं कहता कि भीड़ को छोड़ो, कृत्य थोड़े ही है। उसकी भी कुछ जिम्मेवारी है। दोतरफा फिर मैं कहता हूं, उतर जाना संसार में। फिर तुम्हें सभी के भीतर जिम्मेवारी है। हम उसे खोजें, वह हमें खोजे। और ऐसा ही चल वही दिखायी पड़ने लगेगा। फिर भीड उसी की भीड है। लेकिन | रहा है। अभी भीड़ उसी की नहीं है। अभी तो अपने भीतर भी उसे नहीं परमात्मा तो हमें खोज ही रहा है। जिस दिन हम खोजने लगते जाना, तो दूसरे के भीतर कैसे जानना हो सकता है! हैं, उसी दिन हममें और उसमें तालमेल हो जाता है। 'तरु' का प्रश्न है। रोयें न अभी अहले-नजर हाल पर मेरे आखिरी प्रश्न : भगवान श्री, तेरी रज़ा पूरी हो! होना है अभी मुझको खराब और जियादा आवारा-ओ-मजनू ही पे मौकूफ नहीं कुछ . चैतन्य भारती ने पछा है। ‘पछना' कहना ठीक नहीं. कहा मिलने हैं अभी मुझको खिताब और जियादा है। 'तेरी रज़ा पूरी हो।' यही प्रार्थना का मूलमंत्र है। इसमें ही तो तरु से मैं कहता हूं, अभी घबड़ा मत, अभी तो और | पग जाओ पूरे-पूरे, तो कुछ और करने को नहीं है! मुसीबतें आने को हैं। और कोई तुझसे सहानुभूति दिखायें तो | जीसस को सूली हुई, आखिरी क्षण उन्होंने आकाश की तरफ उनसे कह देना मुंह उठाकर कहा कि हे परमात्मा, यह क्या दिखा रहा है! एक रोयें न अभी अहले-नजर हाल पे मेरे संदेह उठ आया होगा कि मैं तेरे लिए जीआ, तेरी प्रार्थना में होना है अभी मुझको खराब और जियादा जीआ, तेरी पूजा में जीआ, तेरे नाम को फैलाने के लिए जीआ आवारा-ओ-मजनू ही पे मौकूफ नहीं कुछ और यह तू मुझे क्या दिखा रहा है! एक शिकायत आ गयी मिलने हैं अभी मुझको खिताब और जियादा होगी-हलकी-सी बदली, छोटी-सी बदली जीसस की छाती लेकिन मजनू हुए बिना कौन लैला को पा सका! और मजनू पर तैर गयी। एक क्षण को सूरज ढक गया होगा। लेकिन हुए बिना कोई परमात्मा को कैसे पा सकता है! आवारा हुए जीसस तत्क्षण पहचान लिये कि चूक हो गयी, भूल हो गयी। बिना! आवारा का अर्थ है जिसका अब कुछ भी नहीं; रिक्त, तत्क्षण कहा, क्षमा कर, यह मैंने क्या कहा! तेरी रज़ा पूरी हो! तू खाली, अकेले। ऐसा हुए बिना कौन उसे निमंत्रण दे सका! जो दिखा रहा है, वही ठीक है। तेरी रज़ा से ऊपर मेरे र मेरी रजा नहीं जीसस निरंतर कहते थे कि कोई गड़रिया अपनी भेड़ों को है। तेरी इच्छा से ऊपर मेरी इच्छा नहीं है। तू जो चाहता है, वही लेकर आता। सांझ का अंधेरा घिरने लगा, सूरज ढल गया, मैं चाहूं, बस इतनी ही मेरी इच्छा है। यह मैंने कैसे कहा! अचानक देखता कि एक भेड़ खो गयी। तो सभी भेड़ों को उस | आखिरी क्षण! बिलकुल स्वाभाविक है। बड़ी पीड़ा जीसस अंधेरी रात में किसी वृक्ष के तले छोड़कर, उस भेड़ को खोजने को दी गयी। सूली पर लटकाया गया। स्वाभाविक है, निकल जाता है जो खो गयी। मिले हुओं को छोड़कर उसे खोजने मानवीय। इस बात से सिद्ध होता है कि जीसस परमात्मा के बेटे निकल जाता जो खो गयी। अंधेरी रात में पुकारता, टेरता, और तो थे ही, आदमी के बेटे भी थे। इससे कुछ और सिद्ध नहीं जब वह मिल जाती, तो पता है क्या करता? उसे कंधे पर रख होता। इससे सिर्फ आदमियत सिद्ध होती है। लौटता। खो गये को कंधे पर रखकर लौटता है। और जीसस और जीसस ने बहुत बार बाइबिल में जगह-जगह कहा, कहीं कहते थे, मैं भी ऐसा ही गड़रिया हूं। | वह कहते हैं मैं आदमी का बेटा हूं, कहीं कहते हैं परमात्मा का अगर हम सच में ही रो उठे, तो उसके हाथ तुम्हारे आंसू तक बेटा हूं। वह दोनों हैं। सभी दोनों हैं। उन्हें याद आ गयी, सभी पहुंच ही जाएंगे, पोंछ देंगे तुम्हारे आंसू। अगर हम सच ही पीड़ा को याद नहीं आयी है। से भर जाएं, तो वह दौड़ा चला आयेगा। हम अगर भटक ही तो आदमी का बेटा बोला, यह क्या दिखा रहा है मुझे! लेकिन जाएं उसको खोजते-खोजते, तो आयेगा जरूर, और कंधे पर तभी उन्हें स्मरण आ गया होगा कि अरे! मैं आदमी का बेटा ही 275 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 नहीं, परमात्मा का भी बेटा हूं। फिर बाप की जो मर्जी! फिर का छोड़ देने का ही अर्थ है, 'तेरी रज़ा पूरी हो।' इस चिंता को उसकी जो रज़ा! वह कुछ बुरा तो न चाहेगा। उससे ज्यादा तभी कोई छोड़ सकता है जब अहंकार को छोड़ दे। जब कह दे समझदार मैं तो नहीं हो सकता। अगर उसने यही चाहा है, तो कि अब मैं नहीं हूं, तू ही है। यही ठीक होगा, इसीलिए चाहा है। उसकी चाह का निर्णय मैं जिसके हृदय में यह दीया जल जाए कि उसकी मर्जी पूरी हो, कौन हूं करनेवाला? और मैं अपनी मर्जी को उसके विरोध में खड़ा न करूंगा, पूछा है, 'तेरी रज़ा पूरी हो।' इसे मैं कहता हूं प्रार्थना का लड़ाऊंगा नहीं, मैं धार के खिलाफ, धारे के खिलाफ बहूंगा नहीं, मूलमंत्र। अगर यही तुम्हारे जीवन पर छा जाए, इसी रंग में तुम नदी जहां ले जाएगी वहीं जाऊंगा, समर्पित करता हूं, अपने को रंग जाओ, तो यही गैरिक-वस्त्र है, यही गेरुआ रंग है। यही छोड़ता हूं उसकी धारा में डुबाये तो डूबूंगा और डूबने को ही संन्यासी की भावदशा है। हर घड़ी जो भी हो, तुम यही जानना किनारा समझंगा। बचाये तो बचूंगा। ऐसी चित्तदशा में दुख हो कि परमात्मा ने किया, ठीक ही किया होगा। बुरा हो तो, भला हो सकता है? पीड़ा हो सकती है? ऐसी चित्तदशा में नर्क हो तो, सुख मिले तो, दुख मिले तो, कांटे मिलें तो, फूल मिलें तो, | सकता है? असंभव। स्वर्ग खुल गया। तुम सभी उसी को समर्पित करते चले जाना। तुम सभी उसको बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दीये अर्पित करते चले जाना। कहना, जो तेरी रज़ा। तुम प्रसन्न इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है रहना। तुम बोझ अपने सिर पर न ढोना। तुम नाहक ही अपने | आस्था के दीये बुझते गये। और यह सबसे बड़ा दीया है सिर पर बोझ रखे हो। करनेवाला वही। तुम व्यर्थ करने की आस्था का। यही आस्तिकता है। झंझट अपने सिर पर ले लिये हो। बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दीये सुनी है तुमने कहानी? एक सम्राट आता था। राह पर उसने इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है एक भिखारी को देखा। दूर है गांव। सम्राट को दया आ गयी, | और जैसे-जैसे आस्था के दीये बझते गये हैं वैसे अंधेरा गहन उसने भिखारी को कहा, तू भी आ, रथ में बैठ जा। वह भिखारी | होता गया है। और यह सबसे महत्वपूर्ण दीया है। आस्था बैठ तो गया, लेकिन अपनी पोटली जो सिर पर रखे था, सिर पर | का-तेरी रज़ा, तेरी मर्जी, तेरी इच्छा पूरी हो। मैं समर्पित। मैं ही रखे रहा। वह सम्राट ने कहा पोटली नीचे रख दे, अब इसको बहंगा। मैं तैरूंगा भी नहीं। मैं पतवार न चलाऊंगा। मैं नाव में सिर पर क्यों रखे है ? उसने कहा कि नहीं मालिक, इतना ही क्या पाल बांध दिया हूं अब, तेरी हवाएं जहां ले जाएं। कम है कि आपने मुझे बैठने दिया; अब पोटली का बोझ भी रामकृष्ण कहते थे, दो तरह से नदी पार हो सकती है। या तो आपके रथ पर रख। नहीं, नहीं, ऐसा मैं कैसे कर सकता है। पतवार चलाओ, या पाल खोल दो। पाल जो खोल देता है, वही लेकिन तुम रथ पर बैठे हो, पोटली सिर पर रखे हो, क्या सोचते भक्त है। पतवार जो चलाता है, वह भक्त नहीं है। वह अभी भी हो रथ पर बोझ नहीं है? बोझ तो रथ पर ही है, चाहे तुम सिर पर | अपने पर भरोसा किये है। वह अभी भी अपनी बाहुओं के बल रखो, चाहे तुम नीचे रख दो। पर जी रहा है। अभी सोचता है, अगर मैं न कुछ किया, तो उस परमात्मा कर्ता है। सारा कृत्य उसका है। वस्तुतः परमात्मा का पार पहुंचूंगा नहीं। भक्त कहता है, अगर इस पार रखा है, तो कोई और अर्थ नहीं है। इस सारे खेल का जो इकट्ठा जोड़ है। यह पार भी उसी का है। तो इस पार ही रहेंगे। उस पार पहुंच ही इस सारे कर्म के महत प्रवाह का जो केंद्र है, वही तो परमात्मा है। गये। इसी पार रहते हुए उस पार पहुंच गये। लेकिन हम सब अपनी-अपनी पोटली सिर पर रखे हैं, हम कहते दूर कितने भी रहो तुम, पास प्रतिपल, हैं, मैं कर रहा हूं। हम कहते हैं, अब इतना बोझ परमात्मा पर क्योंकि मेरी साधना ने पल निमिष चल, क्या डालना! चांद-तारे जो चला रहा है, वह तुम्हें नहीं चला पायेगा! सारी प्रकृति कैसे लयबद्ध-स्वर में बह रही है। एक विश्व में तुम और तुम में विश्व भर का प्यार! तुम्हीं चिंता लिये बैठे हो कि तुम्हें स्वयं को चलाना है। इस चिंता हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार। 2761 2010_03 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है इस गांव एक काशी, उस गांव एक काबा, हो। हर घड़ी; निमिष-पल; रात-दिन; सुख में, दुख में; हार इसका इधर बुलावा, उसका उधर बुलावा, में, जीत में; सम्मान में, अपमान में; इसे याद रखना, और गहरे इससे भी प्यार मुझको, उससे भी प्यार मुझको, इसे दोहाराते रहना तेरी रजा परी हो। और जब दोहराओ. तो किसको गले लगाऊं, किससे करूं दिखावा; केवल शब्द ही मत दोहराना, इसमें अपनी आत्मा उंडेल देना। परजात क्यों बनाऊं, दीवार क्यों उठाऊं, इस एक मंत्र में सारे मंत्र समा जा सकते हैं। हर घाट जल पीआ है, गागर बदल-बदल कर जीसस ने कहा है, 'दाई किंग्डम कम, दाई विल बी डन', जिसे दिखायी पड़ने लगा, सभी घाट उसके हैं। बहुत बार | प्रभु, तेरा राज्य उतरे; प्रभु तेरी रज़ा पूरी हो। शरीर बदले, वह सिर्फ गागर का बदलना है। बहुत बार इच्छाएं बदलीं, वह भी सिर्फ गागर का बदलना है। बहुत बार मन आज इतना ही। बदला, वह भी सिर्फ गागर का बदलना है। प्यास एक है और उस प्यास को तृप्त करनेवाला जल एक है। हर घाट जल पीआ है, गागर बदल-बदलकर। और एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए, यह दिखायी पड़ने लगे-थोड़ी-सी भी झलक आ जाए कि सारे कृत्यों के पीछे वही है, सारे घाटों के पीछे वही है: प्यास में भी वही, जल में भी वही; जो तुम्हें चला रहा है, वही सबको चला रहा है; जो तुम्हें राह पर चलने का सुझाव दे रहा है, वही तुम्हारे राह पर पत्थर भी रख रहा है; तो जरूर दोनों में कुछ तालमेल होगा। बिना पत्थरों के चुनौती न होगी। इसलिए पत्थर भी रख रहा है। तुम्हें पुकार भी रहा है कि आओ और चलो, और राह को दुर्गम भी बना रहा | है। क्योंकि दर्गम राह पर चलोगे तभी तम्हारा निर्माण होगा. सृजन होगा। तुम्हें आनंद की आकांक्षा से भी भरा है, और हजार-हजार तरह के दख भी पैदा कर रहा है, क्योंकि उन दखों के बीच ही अगर तुम आनंदित हो सको, तो ही आनंद का कोई अर्थ है। अगर दुख न होते और तुम आनंदित होते, तो उस आनंद में कोई रीढ़ न होती, कोई बल न होता। विपरीत स्थिति पैदा करके चुनौती पैदा की गयी है। संघर्ष का मौका तुम्हें निखारने का उपाय है। समझने की कोशिश हर घटना, हर पल में करना। और जैसे ही कभी तुम भूलने-भटकने लगो; और मन होने लगे कहने का कि हे प्रभु! यह क्या दिखा रहा है, तो तत्क्षण जाग जाना, चौंकना! अपने को झकझोर लेना और कहना, तेरी मर्जी पूरी हो। तेरी रज़ा पूरी हो। यह तुम्हारा मंत्र बन जाए-महामंत्र। इसे तुम ओंकार समझो। राम-राम जपने से जो लाभ न होगा, वह लाभ इस एक सूत्र को पकड़ लेने से होगा-तेरी रज़ा पूरी ___ 2010_03 www.jainelibrar org