Book Title: Jinsutra Lecture 41 Dukh ki Swikruti Mahasukh ki Nimv
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रवचन दुख की स्वीकृतिः महासुख की नींव Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार प्रवचन में आप द्वारा एक हाथ से तो हम पर करारी चोट और दूसरे हाथ से सुगंध व फूल लुटाना। दोनों से एक-साथ गुजरने में आपको कठिनाई नहीं होती? समता व आनंद के दीये का अधिक समय तक स्थिर रहने के बावजूद भी __कभी-कभी टिमटिमाने लगना। निर्माण की भूमिका अथवा किसी शिथिलता का परिणाम? अकंप सम्यकत्व व आनंद हेतु भगवान से मार्ग-प्रकाशन की मांग। HERE HEADLINE हर प्रातः भगवान को देखने व सुनने के लिए आना, पर दोनों रस एक-साथ न ले पाना। सुनने में आंख का बंद होना, देखने पर सुनने का कम होना। कैसे दोनों का साथ-साथ आस्वादन हो? समर्पण व अंधानुकरण में अंतर क्या? H सिद्ध होकर आपको क्या मिला? क्या ईश्वर निश्चयपूर्वक है? 2010_03 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ग हला प्रश्न : प्रवचन में आप एक हाथ से हम पर सम्हालो ही, ताकि तुम्हारे सामने मेरी स्थिति साफ-साफ हो न करारी चोट करते हैं और दूसरे हाथ से फूल और जाए। मैं दोनों करता हूं तो तुम्हारे सामने मेरी स्थिति साफ नहीं सुगंध बांटते हैं। बांटते क्या हैं, लुटाते हैं! क्या होती। तुम मुझे छोड़कर भी नहीं भाग सकते, क्योंकि सहारा भी आपको इन दोनों से एक-साथ गुजरने में कठिनाई नहीं होती? | देता हूं। तुम मेरे साथ पूरे खड़े भी नहीं हो पाते, क्योंकि चोट भी करता हूं। तुम्हारे मन में मेरे प्रति स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाती, दोनों में विरोध नहीं है, दोनों में सहयोग है। दोनों एक-दूसरे के रहस्य बना रहता है। विपरीत नहीं हैं, एक-दूसरे के परिपूरक हैं। कुम्हार को देखा | अगर मैं सहारा ही दूं तो तुम मेरे साथ हो जाओ। लेकिन वह है? एक हाथ से सम्हालता है और दूसरे हाथ से थपकी देता है। साथ होना किस काम का! तुम मुर्दे की तरह साथ हो जाओगे। एक हाथ से मिट्टी को सम्हालता है, गिर न जाए, भीतर से तुम्हें मैंने चुनौती न दी। तुम अनगढ़ पत्थर रह जाओगे, मूर्ति न सम्हालता है, बाहर से चोट देता है। भीतर से न सम्हाले तो बनोगे। क्योंकि मूर्ति बनाने के लिए तो छेनी उठानी ही पड़ेगी। मिट्टी की देह निर्मित न हो पायेगी, गिर जाएगी। बाहर से चोट न तुम्हें काटना ही होगा। और अगर मैं सिर्फ चोट ही करूं, तो तुम्हें दे, तो भी न सम्हल पायेगी, तो भी घड़ा बन न पायेगा। भागने में सुविधा हो जाए। चोट खाने को कौन बैठा रहता है? | - जो कुम्हार कर रहा है, वही मैं भी कर रहा हूं। वह मिट्टी के तुम या तो भाग जाओ या तुम सुनो ही न, या सुनते हुए भी तुम साथ कर रहा है, मैं आत्मा के साथ कर रहा हूं। सहारे की भी बहरे बने रहो। लेकिन संबंध टूट जाए। जरूरत है, चोट अकेली काफी नहीं। अकेला सहारा भी काफी मैने तुम्हें दुविधा में डाला। न तुम छोड़कर भाग सकते हो, नहीं, चोट की भी जरूरत है। सहारे देनेवाले तुम्हें बहुत मिल क्योंकि एक हाथ से मैं तुम्हें बुला भी रहा हूं; और तुम मेरे पास जाएंगे, लेकिन वे चोट नहीं करते। कुछ चोट करनेवाले भी हैं, आने में भी डरते हो, क्योंकि मैं चोट भी कर रहा हूं। लेकिन यही लेकिन वे सहारा नहीं देते। दोनों ही हालत में तुम्हारी आत्मा का एकमात्र उपाय है तुम्हें निर्मित करने का। बस, तुम कुम्हार को पात्र निर्मित न हो पायेगा। | जाकर देख आना-घड़ा बनाते कुम्हार को-तुम्हें मेरी बात मेहर बाबा सहारा देते हैं, चोट नहीं करते। कृष्णमूर्ति चोट समझ में आ जाएगी। कुम्हार के लिए विरोध नहीं है। शायद करते हैं, सहारा नहीं देते। ये अधूरे उपाय हैं। घड़े को अड़चन भी होती हो कि क्या कर रहे हो, उल्टी बातें मैं दोनों को एक-साथ सम्हाल रहा हूं। मुझे अड़चन नहीं है एक-साथ कर रहे हो? सहारा देते हो तो सहारा दो, चोट करते सम्हालने में, क्योंकि मेरे लिए दोनों परिपूरक हैं। अड़चन तुम्हें | हो तो चोट करो, यह तुम क्या कर रहे हो? बड़ी विसंगति है, | होगी। वह मैं जानता हूँ। तुम चाहते हो या तो चोट ही करो, या बड़ा विरोध है। 183 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 2 मेरी बातें तुम्हें विसंगतिपूर्ण मालूम पड़ेंगी। आज कुछ कहता अंकुरित होता है। कच्चा बीज तो अंकुरित नहीं होता। चोट न हूं, कल कुछ कहता हूं। क्योंकि जब सहारा देना होता है, तब खायी, पकोगे नहीं; कच्चे रह जाओगे। जिनके जीवन में चोटें तुम्हें पुचकार लेता हूं; जब चोट करनी होती है, तब फिर नहीं पड़तीं, वे सदा कच्चे रह जाते हैं। धन्यभागी हैं वे जिन्हें निर्ममता से चोट भी करता हूं। तुम तय नहीं कर पाते कि जिसके | जीवन बहुत चोट देता है। अभागे हैं वे जिन्हें जीवन सिर्फ सहारा पास आये हो वह मित्र है, या शत्रु है ? जिसके साथ चल पड़े देता है, चोट नहीं देता। वे नपुंसक रह जाते हैं। इसीलिए तो हो, वह पहुंचायेगा या भटकायेगा? तुम साफ नहीं कर पाते। बहुत सुविधा में, संपन्नता में पले हुए लोगों में प्रतिभा नहीं होती। तुम्हारी दुविधा साफ है। मुझे कोई दुविधा नहीं है। मैं जो कर रहा प्रतिभा के लिए थोड़ी चोट चाहिए। जीवन का तप, जीवन का हूं बिलकुल स्पष्ट है, संगतिपूर्ण है। | ताप चाहिए। तूफान और आग चाहिए। और अगर तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाए, तो तुम्हारे लिए भी | मैंने सुना है, एक किसान ने बड़े दिन तक परमात्मा से पूजा संगति का दर्शन हो जाएगा। उस दर्शन से बड़ा लाभ होगा। की, प्रार्थना की। परमात्मा ने दर्शन दिये, तो उसके सामने कहा फिर तुम चोट में भी छिपे सहारे को देखोगे। सहारे में भी छिपी कि बस, मुझे एक ही बात तुमसे कहनी है। तुम्हें किसानी नहीं चोट को देखोगे। अकेली करुणा से न होगा। करुणा को कठोर आती। बेवक्त बादल भेज देते हो। जब बादल की जरूरत होती होना होगा, तो ही काम हो सकेगा। तुम्हें बनाना भी है, बहुत है, हम तड़फते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं, तब बादलों का कोई कुछ तुम में मिटाना भी है। तुम एक जीर्ण-जर्जर भवन की तरह पता नहीं! कभी ऐसी वर्षा कर देते हो कि बाढ़ आ जाती है, कभी हो। एक खंडहर! पहले तुम्हें मिटाना भी है, फिर नये भवन की ऐसा खाली छोड़ देते हो कि पानी को तरस जाते हैं। फसल खड़ी नींव भी रखनी है। तुम जैसे हो ऐसे ही परमात्मा के योग्य नहीं होती है-तूफान, आंधी, ओले! तुम्हें कुछ पता है? खेती हो। तुम परमात्मा के योग्य हो सकते हो। लेकिन उसके पहले तुमने कभी की नहीं। तो कम से कम खेती के संबंध में तुम मेरी बड़ी अग्नियों से गुजरना होगा। संभावना है तुम्हारी परमात्मा, | सलाह मानो। परमात्मा हंसा उस भोले किसान पर। उसने कहा, सत्य नहीं। तुम बीज हो अभी। टूटोगे, तोड़े जाओगे, मिट्टी में ठीक! तो तू क्या चाहता है ? एक साल तेरी मर्जी से होगा। गिरोगे, बिखरोगे, तो ही किसी दिन फूल खिल पायेगा। किसान ने कहा, तब ठीक है। पुष्ट बीज, एक साल किसान ने मर्जी से जो चाहा, जिस दिन चाहा, वैसा सुष्ट खेत, हुआ। जब उसने पानी मांगा, पानी गिरा। जब उसने धूप मांगी, साथी संगी समेत, तब धूप आयी। गेहूं की बालें इतनी बड़ी कभी भी न हुई थीं। सुसमय बोइये, आदमी ढंक जाए, खो जाए, इतनी बड़ी गेहूं की बालें हुईं। उसने सींचिए सुसाध से, कहा, अब देख! सोचा मन में, अब दिखाऊंगा परमात्मा को। रात दिन बालें तो बहुत बड़ी हुई, लेकिन जब फसल काटी, तो बालों के बात बिन भीतर गेहूं बिलकुल न थे, पोच थे। बहुत परेशान हुआ। खेत को रखाइये। परमात्मा से कहा, यह क्या हुआ? क्योंकि मैंने इतनी सुविधा काल थक जाए जब, दी। जब पानी की जरूरत थी, तब पानी; जब धूप की जरूरत धान पक जाए जब, थी, तब धूप। आंधी, तूफान, ओले इत्यादि तो मैंने काट ही होकर इकडे फिर, दिये। कोई तकलीफ तो दी ही नहीं। लेकिन बीज आये ही नहीं! काटिये कटाइये। हुआ क्या है? पुष्ट बीज-पहले तो बीज को पुष्ट होना पड़ता, पकना | परमात्मा ने कहा, पागल! सिर्फ सुविधा से कहीं कोई चीज पड़ता। कच्चे बीज को बोने से कुछ सार न होगा। धूप में, | बनी है, निर्मित हुई है? सुविधा के साथ साधना भी चाहिए। तूने सूर्य-आतप में, तप में बीज को पकना होता है। पका बीज ही सुविधा तो दे दी, लेकिन साधना का कोई अवसर न दिया। तूने 184 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासुख की नींव सम्हाला तो, लेकिन चोटें-चपेटें न दीं। आंधी भी चाहिए, ओले जाता है। भीड़ में रहनेवाले आदमी की आत्मा खो जाती है। भी चाहिए, तूफान भी चाहिए; सहारा भी चाहिए। इन दोनों के दोनों के बीच में। अकेले रहना है, भीड़ में रहना है। और भीड़ में बीच में गेहूं पैदा होता, पकता। बल पैदा होता है चुनौती से। रहना है और अकेले रहना है। घूमो, चलो बाजार में, लेकिन पुष्ट बीज भीतर हिमालय का एकांत बना रहे। तो पहली तो बात है कि बीज पुष्ट हो। संबंधों से भागो मत। क्योंकि संबंधों के थपेड़े जरूरी हैं। सुष्ट खेत क्रोध, संघर्ष, चोट, चुनौती जरूरी हैं। भीतर ध्यान को साधो, फिर खेत तैयार हो। ऐसे हर कहीं बीज फेंक देने से कहीं | बाहर प्रेम के धागे को पकड़े रहो। फसल नहीं काटी जाती। पत्थर, कूड़ा-कर्कट, घास-पात अलग | पुष्ट बीज करना होगा। खाद खेत में डालनी होगी। श्रम करना होगा। सुष्ट खेत पुष्ट बीज साथी-संगी समेत सुष्ट खेत सुसमय बोइये साथी-संगी समेत ठीक समय पर बोना पड़ेगा। चाहे ठीक समय आधी रात अकेले भी न हो पायेगा। जीवन में कुछ भी तो अकेले नहीं हो आये। चाहे ठीक समय भर-दोपहरी में आये। ठीक समय जो पाता। जीवन है ही संग-साथ में। हम समाज में पैदा होते, भी मांगे, देना होगा। ठीक समय की प्रतीक्षा करनी होगी, सजग समाज में जीते, समाज में विदा होते। हमारा होना सामाजिक है। प्रहरी की तरह, आंखें खोले। झपकी न लेनी होगी। क्योंकि संबंधों में है। जैसे मछली सागर में जन्मती है, ऐसे हम संबंधों के ठीक समय पर पड़े बीज ही ठीक समय पर फूलेंगे, फलेंगे। सागर में जन्मते हैं। बिना मां के, बिना पिता के कौन पैदा जरा-सा समय चूक गये, तो जो जरा-सा समय चूक गया, वह होगा? कैसे पैदा होगा? बिना भाई-बहन के, बिना मित्र-शत्रु सदा के लिए बाधा बन जाता है। फिर उसे पूरा करने का कोई के कौन बढ़ेगा, कैसे बढ़ेगा? उपाय नहीं। पुष्ट बीज पुष्ट बीज, सुष्ट खेत सुष्ट खेत, साथी संगी समेत साथी संगी समेत, इसलिए मेरा बहुत जोर है कि तुम ध्यान भी साधो और प्रेम भी | सुसमय बोइये, साधो। ध्यान का अर्थ है, तुम अकेला होना साधो। और प्रेम का | सींचिए सुसाध से, अर्थ है. तम संबंधों में भी माधर्य को निर्मित करो। ऐसा न हो कि रात दिन तुम अकेले-अकेले रह जाओ। तो तुम सूख जाओगे। कुछ बड़ा | बात बिन बहुमूल्य तुम्हारे भीतर मर जाएगा। जंगल में भाग गये संन्यासी | खेत को रखाइये। का कुछ बहुमूल्य मर जाता है। भीड़ में ही रहनेवाले आदमी का काल थक जाए जब, भी कुछ बहुमूल्य मर जाता है। दोनों अधूरे हैं। भीड़ में रहनेवाले धान पक जाए जब, आदमी को अपने घर का पता खो जाता है। वह अपने | होकर इकडे फिर, मन-मंदिर तक लौट ही नहीं पाता। भीड़ में ही भटक जाता है। काटिये कटाइये। याद ही नहीं रहती कि मैं कौन हूं? अकेला जो चला गया, उसे जीवन ऐसा ही है। सभी कुछ सुविधा से मिलता होता, तो अपनी तो याद आने लगती है, लेकिन दूसरे का स्मरण भूल जाता सभी को मिल गया होता। सुविधा काफी नहीं है। साधना भी है। और दूसरे के स्मरण के बिना अहंकार खूब मजबूत हो जाता जरूरी है। और अगर अकेली साधना से ही मिलता होता, तो भी है। एकांत में रहनेवाले व्यक्ति का अहंकार खूब बलशाली हो बहुत अड़चन न थी। साधना के भीतर सुविधा भी आवश्यक 185 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ comments जिन सूत्र भागः है। साधना, सुविधा में विरोध दिखायी पड़ता है। लेकिन उन्हीं सदा स्थिर रहे, यह वासना ही क्यों करते हो? कल की बात ही को, जिन्होंने जीवन के गणित को समझा नहीं। क्यों उठाते हो? आज काफी है। अभी, यही क्षण काफी है। दिनभर तुम श्रम करते हो, रात सो जाते हो, विरोध का खयाल | एक क्षण से ज्यादा तो एक बार तुम्हें मिलता नहीं। एक-साथ दो नहीं किया? तुम यह नहीं कहते कि कल भी मुझे काम करना है, क्षण तो कभी मिलते नहीं। रात सो जाऊंगा, शिथिलता आ जाएगी। जागा रहूं रातभर। एक क्षण भी अगर समता का दीया ठहरा रहता है, फिकिर क्योंकि कल भी तो जागना है। तो जागने का अभ्यास जारी छोड़ो। इसी क्षण को जी लो पूरा, भरपूर। निचोड़ लो पूरा सार, रखू। अगर तुम रातभर जागे, तो कल सोओगे फिर। जाग न रस। यह जो क्षण का अंगूर है, बना लो इसकी सुरा। यही क्षण सकोगे। जीवन का गणित यही है कि विपरीत से मिलकर बना है काफी है। जैसे ही तुमने सोचा, यह जो आनंद अभी मिल रहा है, जीवन। दिनभर जागे हो, रातभर सो जाओ। रातभर ठीक से सदा रहेगा? तुम्ही ने हवा के कंप पैदा कर दिये। दीया नहीं कंप सोये, तो सुबह कल फिर ठीक से जाग सकोगे। अगर श्रम रहा है; तुम्हारे मन ने ही दीये को कंपा दिया। आनंद नहीं कंप किया है, तो विश्राम कर लो। श्रम ही श्रम करते रहे, तो भी रहा है, तुम भविष्य को बीच में ले आये। तुमने कल की चिंता पागल हो जाओगे। विश्राम ही विश्राम करते रहे, तो जीवन की बीच में डाल दी। कल है कहां? और कल जब आयेगा तब सारी संपदा खो जाएगी। श्रम और विश्राम का संतुलन है आज की तरह आयेगा। तुम आज को सम्हाल लो। जीवन। दोनों को एक-साथ साधना है। जिसने आज को सम्हालना जान लिया, उसने शाश्वत को कुछ लोग सुविधा को साधते हैं, इनको ही हम सांसारिक कहते सम्हाल लिया। लेकिन हमारी अड़चन क्या है? जो हमारे हैं। कुछ लोग साधना को साधते हैं, इन्हीं को हम संन्यासी कहते सामने होता है, अगर कभी आनंद आता है, तो हम घबड़ाते हैं रहे हैं। कि छुट तो न जाएगा? अभी आया है इसे भोगते नहीं, चिंता मेरे संन्यासी को मेरा आदेश बड़ा भिन्न है। मैं कहता हूं, करते हैं कि कहीं छूट तो नहीं जाएगा? तो आनंद छूट ही गया। सुविधा में साधना को साधना। साधना और सुविधा को तोड़ना यह मौका चूक ही गया। तुमने सोचा कि छूट तो नहीं जाएगा, मत, जोड़ना। जब साधना से थक जाओ, सुविधा में डूब जाना। कि गया। छूट ही गया। तुम टूट गये, अभी। दीया कंप गया। जब सुविधा से थक जाओ, तैयार हो जाओ, विश्राम पा लो, फिर आनंद आये, तो भोगो। कल को क्यों उठाते हो? कल से साधना में लग जाना। लेना-देना क्या है? जहां से आज आया है, वहीं से कल भी जीवन विपरीत को विपरीत की तरह नहीं देखता। वहां विपरीत आता रहेगा। फिर कल जब आयेगा, तब देख लेंगे। अभी तो परिपूरक है। यह अवसर मिला है, इसे भोग लें। अभी तो यह क्षण मिला है, इसे नाच लें। अभी तो यह गीत की कड़ी उतरी है, गुनगुना लें। दसरा प्रश्नः भीतर समता का, आनंद का दीया अधिक अभी तो पैर थिरकें, मदंग बजे। इस क्षण तो जो मिला है, इसमें समय स्थिर रहने पर भी कभी टिमटिमाने लगता है। क्या यह / से रत्तीभर भी न चूके, इसकी चिंता लो। क्योंकि क्षण भागा जा मेरे निर्माण की भूमिका है, अथवा मेरी किसी शिथिलता का रहा है। हाथ से फिसलता जाता है। निकलता जाता है। तुमने परिणाम? यह ठीकपन या सम्यकत्व का आनंद सदा अकंपित अगर जरा-ही इधर-उधर देखा कि चूके। दायें-बायें देखा कि रहे, इसके लिए अपने अनुभव से मेरा मार्ग प्रकाशित करने की गये! इतनी देर कहां है? तुमने पूछा कि यह क्षण चला तो नहीं कृपा करें। जाएगा-यह जा चुका! यह गया! तुम्हारे हाथ में नहीं है अब। | इतना भी अवकाश कहां है कि तुम सोचो? एक क्षण से ज्यादा का विचार ही मत करो। उसी के कारण __ भोगो! सोचने से काम न चलेगा। और जैसे ही तुम इस क्षण दीया टिमटिमाने लगता है। एक क्षण से ज्यादा तुम्हारे हाथ में को भोग लोगे, इस क्षण ने बुनियाद रखी आनेवाले क्षण की। नहीं है। सदा अकंपित रहे, यह आकांक्षा ही क्यों करते हो? इस क्षण को तुमने भोगा, रस की धार बही, तुम और रस की धार 11861 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासख की नींव Mindsamananews को भोगने के योग्य बने। अगला क्षण और भी वासंती, और भी भी बीच में विचार मत लाओ कि यह रुकेगी? मधुमय होकर आयेगा। अगला क्षण और गहरा नृत्य लायेगा। झेन कहानी है : अगला क्षण और भी बरसायेगा अमृत तुम पर। लेकिन यह एक मंदिर के द्वार पर दो भिक्षुओं में विवाद हो रहा है कि मंदिर तुम्हारी चिंता का कारण नहीं है, यह सहज ही होता है। यह के ऊपर लगी पताका को कौन हिला रहा है? पताका हिल रही नियम की बात कह रहा हूं, तुमसे सोचने को नहीं कह रहा हूं। है। एक भिक्षु कहता है, हवा हिला रही है। दूसरा भिक्षु कहता यह तो एक शाश्वत नियम है कि जो तुमने इस क्षण में भोगा, | है, पताका स्वयं हिल रही है। गुरु मंदिर के बाहर आता है, वह उसको तुम्हारी अगले क्षण में भोगने की क्षमता बढ़ जाती है। | कहता है : नासमझो, न हवा हिला रही, न पताका हिल रही, अभी तुमने क्रोध किया, तो अगले क्षण तुम्हारी क्रोध की क्षमता | तुम्हारा मन! तुम्हारा मन हिल रहा है। इसलिए तुम्हें हिलती बढ़ जाएगी। पताका दिखायी पड़ रही है, हिलती पताका में तुम्हें रस आ गया तुमने कभी खयाल किया? सुबह से उठकर अगर क्रोध हो है। तुम चिंता-विचार में पड़ गये हो। मन को ठहरा लो, फिर जाए तो लोग कहते हैं दिनभर क्रोध हो जाता है। इसलिए पराने हवा भी चलती रहे. तो भी पताका न हिलेगी। पताका हिलती भी दिनों में लोग सुबह राम का नाम लेकर उठते थे। उस गणित में | रहे, तो भी न हिलेगी। मन थिर हुआ, तो सब थिर हुआ। थोड़ा मनोविज्ञान है। क्योंकि जो हम सुबह-सुबह करते हैं, वह | ठीक कहा उसने। हमने नींव रख दी दिनभर के लिए। अगर सुबह-सुबह राम का मैं एक अमरीकी लेखक का जीवन पढ़ रहा था। उसने लिखा स्मरण किया, तो इस स्मरण में स्नान हो जाएगा। उस स्मरण के है कि मैं कैलिफोर्निया की सुंदर सुरम्य घाटी में पैदा हुआ। एक साथ यात्रा शुरू हुई, तो अगला क्षण उसी से तो आने को है। मछुवे के घर पैदा हुआ। सुंदर झीलों में, नदियों में, वादियों में उसी की तो शृंखला बनेगी। जो राम का नाम लेते हुए उठा, | मछलियां पकड़ते बचपन बीता। अगर किसी ने उसे गाली दी, तो एकदम से गाली उसके भीतर से उसने लिखा है कि जब मैं मछलियां पकड़ने के लिए बंसी बांधे न उठेगी-राम का नाम आड़े पड़ेगा। जो गाली देते ही उठा, हुए किसी सुरम्य झील के पास बैठा होता था, ऊपर से हवाई उसको तो कोई गाली न भी दे, तो भी गाली सुनायी पड़ जाएगी। जहाज गुजरते थे, तो मेरे मन में एक ही कामना उठती थी कि कब वह गाली से भरा है। वह तलाश ही कर रहा है, कहीं कोई मिल ऐसा समय आयेगा कि मैं भी पायलट बनूं! आकाश में उडूं! जाए कारण, तो वह टूट पड़े, बरस पड़े। वह बहाना ही खोज कैसा आनंद न होगा उस आकाश में! मैं कहां यहां बैठा रहा है। मछलियां मारने में समय गंवा रहा हूं। * इसको ही अगर तुम ठीक से समझो, तो कर्म का, संस्कार का संयोग की बात, वह आदमी बाद में पायलट बना। तब उसने पूरा सिद्धांत है। तुमने जो कल किया था, वह तुम्हारे आज को देखा कि मैं बड़ा हैरान हुआ! अब मैं पायलट होकर उसी घाटी प्रभावित करेगा। अब कल तो गया, अब कल को तो बदलने | के ऊपर से हवाई जहाज लेकर उड़ता हूं, नीचे झांककर देखता हूं, का कोई उपाय नहीं, इतनी कृपा करो कि आज को बदल लो, | मेरे मन में खयाल उठता है, हे भगवान! कब रिटायर होऊंगा कि क्योंकि आज फिर कल सतायेगा। जो तुमने पिछले जन्म में फिर उन्हीं सुरम्य घाटियों में बैलूं, मछली मारूं, विश्राम करूं! किया था, वह तुम अभी भोग रहे हो। और अभी तुम अगले तब वह चौंका कि यह मैं कर क्या रहा हूं, क्योंकि मैं जब घाटी में जन्म का विचार कर रहे हो, और यह जन्म भी हाथ से जा रहा था तब मुझे घाटी का सौंदर्य न दिखायी पड़ा। तब मुझे हवाई है। यह खाली-खाली गया हुआ जन्म, फिर अंधेरे से भरे हुए जहाज में बैठे हुए पायलट की महिमा मालूम पड़ी। अब मैं रास्ते पर तुम्हें भटका देगा। पायलट हूं, तो विश्राम की आकांक्षा कर रहा हूं। और फिर सोच पूछते हो कि समता का दीया सदा कैसे जलता रहे? बस, | रहा हूं उन्हीं घाटियों की जिनमें मैंने कभी सुख न पाया था। अब क्षणभर तुम उसे भोगो। जब समता घनी हो, गुनगुनाओ, नाचो, | नीचे फैली हरी घाटी बड़ी सुंदर मालूम पड़ती है! ताल-तलैये, डूबो उसमें। जब समता घनी हो, पीओ, फिर देर न करो। इतना सरोवर स्फटिक-मणि जैसे चमकते हैं। उनके किनारे बैठने की 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 फिर आकांक्षा है। कि तुम महासुख को पाने की नींव रख लो। उस दुख के क्षण में और पक्का मानना, उनके किनारे पहुंचते ही फिर आकांक्षा तुम घबड़ाना मत कि अरे! वह सुख मिला था, गया; यह फिर कहीं और चली जाएगी। मन बड़ा अदभुत है। तुम जहां होते हो, दुख आ गया! जो सुख दुख के आने से गिर जाए, वह सुख वहां तुम्हें नहीं होने देता। मन की सारी पकड़ यही है कि तुम जहां धोखा था। वह पकड़ने योग्य ही न था। जो सुख दुख के आने हो वहां नहीं होने देता। तम्हें कहीं और ले जाता है। और ध्यान पर भी बदले न दुख आ जाए, फिर भी तुम कहो, ठीक, यह भी का कुल इतना ही अर्थ है कि जहां हो, वहीं हो रहो। मन को यह स्वीकार; तुम्हारी स्वीकृति में रंचमात्र कोई बाधा न पड़े, तुम इसे खेल न खेलने दो। मन को कह दो कि मैं जहां हूं, वही रहूंगा। भी धन्यभाव से, कृतज्ञभाव से स्वीकार कर लो; तुम परमात्मा अभी मन सधा है, समता बनी है, पीओ इसे! अगर पीना को सुखों के लिए तो धन्यवाद दो ही, वह तुम्हें जो दुख देता है सीख गये, शाश्वत हो जाएगी। अगर सोचने लगे कि कहीं हिल उनके लिए भी धन्यवाद दे सको, फिर कौन हिला सकेगा? फिर तो न जाएगा, कहीं खो तो न जाएगा, कहीं यह क्षणभर का सपना तुम पार हुए। जब दुख भी तुम्हें दुखी न कर सकेगा, तभी सुख तो न हो जाएगा, कल कहीं चिंता फिर तो न पकड़ेगी, कहीं फिर थिर होगा। तभी सख शाश्वत होगा। अशांति के क्षणों को भी विषाद तो न आयेगा-आ ही गया, कल की कहां जरूरत रही! शांति से अंगीकार कर लो। आ ही गया, तुम चिंता में पड़ ही गये। तुम्हारी इस चिंता के शांति अशांति के आने से नहीं मिटती, अशांति को अस्वीकार कारण ही कंप जाती है लौ। करने से मिटती है। अशांति के आने से अगर शांति मिटती पूछते हो, भीतर समता का आनंद का दीया अधिक समय होती, तो शांति का बल ही क्या है फिर! अशांति के आने से नहीं स्थिर रहने पर भी कभी-कभी टिमटिमाने लगता है। स्थिरता की मिटती, तुम अशांति को अस्वीकार करते हो, धकाते हो; नहीं, बात ही भूल जाओ। स्थिरता मन की ही आकांक्षा है। स्थिर नहीं चाहिए; चिल्लाते हो कि यह क्या हुआ, फिर अशांति आ करने की चेष्टा क्यों करते हो? पत्थर होना चाहते हो? जलधार गयी! इस चिल्लाने, चीख-पुकार करने से शांति मिटती है! रहो। बहते-बहते अपने को पकड़ो, पहचानो। घबड़ाओ मत अब जब दुबारा तुम्हारे दीये की लौ कंपे, तो कंपने का भी रूपांतरण से, परिवर्तन से। अगर कभी लौ कंप भी जाए, तो आनंद लेना। क्या बुरा है। बिजली का बल्ब नहीं कंपता, कंपने का भी आनंद लो। नहीं तो यह नये आध्यात्मिक लोभ | लेकिन दीये का मजा ही और है। दीये की लौ कंपती है। बिजली हुए। यह नयी आध्यात्मिक वासना जगी कि अब कंप न जाए का बल्ब बिलकुल नहीं कंपता। लेकिन दीया जिंदा है, बिजली लौ! कहीं ऐसा तो न होगा कि कंप जाएगी ! कभी कंप भी जाए, का बल्ब मुर्दा है। दीया जीवंत-धारा है। ठहरता भी, कंपता उसे भी स्वीकार करो। तो समता पैदा हुई। भी। लौ में प्राण हैं। बिजली का बल्ब बिलकुल यांत्रिक है। अब इसे तुम समझना, यह थोड़ा जटिल हुआ। उसमें प्राण नहीं हैं। घबड़ाना मत। कभी-कभी कंपेगी ही! ठीक अगर समता कंप जाए, तो भी तुम्हारे भीतर कोई परेशानी न है, स्वीकार है। तुम्हारा स्वीकार-भाव सदा बना रहे, तो हो, तम कहो ठीक है। यह भी ठीक है, कभी-कभी कंपती है. धीरे-धीरे तम पाओगे, जब तम कंपन को भी स्वीकार करने लगे इसको भी स्वीकार कर लो, तो समता वास्तविक समता पैदा | तो कंपन कम होने लगा। एक दिन तुम पाओगे, जिस दिन हुई। जब विषमता को भी स्वीकार करने की कला आ जाए, तो स्वीकार पूरा हो गया, उस दिन कंपन समाप्त हो गया। उस दिन समता पैदा हुई। लोग कहते हैं, सुख खो तो न जाएगा! नहीं, दीये की लौ सतत, शाश्वत होकर जलने लगती है। जब दुख में भी तुम दुख न देखोगे; जब दुख भी आयेगा तब भी। लेकिन खयाल रखना, शाश्वत और स्थिर में फर्क है। नित्य तुम कहोगे, यह भी ठीक है, इसे भी स्वीकार करते हैं, यह भी और स्थिर में फर्क है। स्थिर में तो आकांक्षा है मन की, कि स्थिर परमात्मा का प्रसाद है, तब फिर सुख कभी न हटेगा। हो जाए। शाश्वत घटना है, मन की आकांक्षा नहीं है। स्थिर की मेरी बात समझे? सुख कभी-कभी हटेगा, दुख आयेगा, वह तो चिंता पैदा होती है, शाश्वत की कोई चिंता नहीं। वस्तुतः ऐसा दुख परीक्षा है। वह दुख चुनौती है। वह दुख तुम्हें एक अवसर है | समझो कि स्थिर के लिए सोच-सोचकर तुम लहर को कंपा जाते 1881 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख की स्वीकृति : महासुख की नींव हो। जब तुम क्षण को जीते हो, तब परिणाम में नित्यता उपलब्ध | बांधना, अन्यथा टूट जाएंगे, बिखर जाएंगे, अति कोमल हैं, होती है। धीरे-धीरे-धीरे लौ थिर हो जाएगी। समता ऐसी सध | अति सूक्ष्म हैं, नाजुक हैं। इन पर झपट्टा मत मार देना। अन्यथा जाएगी कि तुम्हें पता ही न चलेगा कि समता भी है। जब तक झपट्टे में ही नष्ट हो जाएंगे। इनके लिए तो बड़ी शांत, मौन, पता चले समता का, तब तक जानना अभी विषमता के बीज स्वीकार की भावदशा चाहिए। तुम जब कुछ भी नहीं करते तब मौजूद हैं। जब तक सुख का पता चले, तब तक जानना कि दुख ही यह घटते हैं। जैसे ही तुमने कुछ किया कि गड़बड़ शुरू हुई। अभी संभव है। जब तक शांति का पता चले, तो समझना कि अगर क्षणभर को भी कभी समता का सूत्र बंध जाता है, तो अभी शांति अशांति के विपरीत संघर्ष कर रही है। भोग लो उसे। बस। पूरी तरह भोग लो। उस क्षण को शाश्वत महावीर से पूछो-तुम अगर उनसे पूछोगे कि क्या आप शांत हो जाने दो। उस क्षण में ऐसे डूबो कि समय ही मिट जाए। उस हैं, तो वह कंधा बिचका देंगे। वे कहेंगे, शांत! बहुत दिन से क्षण में समय की याद न रहे-न बीता, न आगा। न जा चुका अशांत ही नहीं हुए, तो शांति का पता कैसे चले? स्वास्थ्य का | याद रहे, न आनेवाला याद रहे। भूलो सब। खुल गया द्वार प्रभु पता चलता है बीमारी में, बीमारी के कारण। अगर कोई आदमी | का। वहीं कपाट खुलते हैं मंदिर के। सदा ही स्वस्थ रहे, तो उसे स्वास्थ्य का पता चलना बंद हो जाता | धीरे-धीरे तुम पाओगे, जैसे-जैसे साफ होने लगेगी बात, है। पता चलने के लिए विपरीत चाहिए। पता चलता ही विपरीत आंखों का धुंधलका हटेगा, तुम पाओगे द्वार के कपाट सदा ही के कारण है। तो जिस दिन समता पूरी होगी, उस दिन तो समता खुले रहते हैं। तुम्हारे ही विचार के कारण द्वार बंद होता मालूम का पता ही नहीं चलेगा। | पड़ता है। लेकिन स्थिरता की और थिर होने की मांग मत करो। थिर होना परिणाम है। तुम सिर्फ जीओ। सार बात इतनी कि जब तीसरा प्रश्न : प्रति प्रातः आपको देखने व सुनने आता हूं, समता हो, समता को भोगो; जब लहर आ जाए, ज्योति कंपने परंतु दोनों रस एक-साथ नहीं ले पाता। सुनता हूं तो आंखें बंद लगे, तब कंपने को भोगो। दोनों में कहीं भी तुम्हारा विरोध और हो जाती हैं और देखता हूं तो सुनना कम हो जाता है। कृपया कहीं भी तुम्हारी आसक्ति न हो। समता से आसक्ति मत | बतायें कि दोनों लाभ एक-साथ कैसे ले सकू? बनाओ। यह मत कहो कि अब मिल गयी समता, अब कभी न छोड़ेंगे। यह तो फिर नया बंधन हुआ वासना का। समता प्रेम में अकसर ऐसा होगा। स्वाभाविक है। इसे समस्या मत अपने-आप बढ़ती जाएगी। तुम समता के मालिक मत बनो। बनाओ। दोनों को एक-साथ साधना अभी आसान न होगा। तम उसे तिजोडी में बंद करने की चेष्टा मत करो। धीरे-धीरे हो जाएगा। कुछ चीजें हैं, जो तिजोड़ी में बंद नहीं की जा सकती हैं। तुमने | अभी तो ऐसा करो, कभी आंख खोलकर देखने का सुख ले बंद की, बंद करते ही मर जाती हैं। सुबह की ताजी हवा को लिया, कभी आंख बंद करके सुनने का सुख ले लिया। अभी तिजोड़ी में बंद कर सकोगे? सुबह सूरज की किरणों को तिजोड़ी दोनों हाथ लड्ड की आकांक्षा मत करो। उसमें दोनों चूक जाएंगे। में बंद कर सकोगे? फूलों को, फूलों की गंध को तिजोड़ी में बंद धीरे-धीरे, जैसे-जैसे रस बढ़ेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे, कर सकोगे? जैसे ही तिजोड़ी बंद की, हवा गंदी होनी शुरू हो | आंख बंद है, तुम सुन भी रहे हो, बंद आंख से देख भी रहे हो। गयी। जैसे ही तिजोड़ी बंद की, सूरज की किरणे बाहर ही छूट | कोई देखने के लिए खुली आंख ही थोड़े ही जरूरी है? अगर गयीं। जैसे ही तिजोड़ी बंद की, फल कम्हलाने लगे, मरने खली आंख से ही देखना संभव होता तो जो भी यहां खली आंख सड़ने लगे। कुछ चीजें हैं जो खुले आकाश की हैं। करके बैठे हैं वे सभी देख लेते। लेकिन यह सभी के लिए प्रश्न समता, सम्यकत्व, शांति, आनंद, ध्यान, प्रार्थना, प्रेम, तो नहीं है, प्रश्न किसी एक का है। किसी को ऐसा हो रहा है। भूलकर इन्हें तिजोड़ी में बंद मत करना। ये आकाश, खुले कान का खुला होना ही थोड़े ही सुनने के लिए काफी है। आकाश के फूल हैं। इन्हें मुक्त रखना। इन्हें मुट्ठी में भी मत जीसस बार-बार कहते हैं अपने शिष्यों से, आंख हो तो देख 189 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 लो। कान हों तो सुन लो। फिर पीछे मुझसे मत कहना। उनके यह ऐसा ही है, कभी तुमने अगर साइकिल चलानी सीखी हो, सभी की आंखें थीं, सभी के कान थे, यह बात क्या? बार-बार या मोटर कार चलानी सीखी हो-साइकिल चलानेवाले जीसस कहते हैं, कान हो तो सुन लो, आंख हो तो देख लो। वे सीखनेवाले को जो अड़चन आती है, वह यही। पैर पर ध्यान ही कान, वे ही आंख तुम्हारे भीतर जन्म ले रहे हैं। जन्म की इस रखे, तो हैंडिल भूल जाता। सड़क पर देखे, तो पैडिल भूल | घड़ी को लोभ की घड़ी मत बनाओ। कभी आंख बंद कर ली जाता। बड़ी दुविधा खड़ी होती है। कार चलानेवाले को भी वही और सुनने का रस ले लिया। क्योंकि सुन भी तुम मुझ ही को रहे | अड़चन होती है। एक्सीलेटर को सम्हाले, सड़क को देखे, ब्रेक हो। उससे भी तुम मुझसे ही जुड़ रहे हो। वह भी एक द्वार से मेरे को देखे, गियर को बदले, तो एक चीज की तरफ तो लग जाता पास आना है। फिर कभी आंख खोल ली, देखने का रस ले है; लेकिन जैसे ही दूसरे की तरफ जाता है, पहली चीज चूक लिया। छोड़ दिया सुनने को। तब भी तुम मुझसे ही जुड़े हो। जाती है। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे-जैसे कशलता आने लगती है. और शुरू-शुरू में अलग-अलग ही करना होगा। क्योंकि आत्मविश्वास बढ़ता है, अपने पर श्रद्धा बढ़ती है कि ठीक है, मैं एक-एक इंद्रिय जब पहली दफा पूरी तरह से आंदोलित होती है, चला लेता हूं, फिर कोई याद रखने की जरूरत नहीं रह जाती। तो सारी ऊर्जा वहीं चली जाती है। फिर वह रेडियो भी सुनता रहता है, गीत भी गुनगुनाता रहता है, तुमने देखा? अंधे आदमियों के कान बड़े प्रबल हो जाते हैं, | कार भी चलाता रहता है; बात भी करता रहता है। एक दफा बड़े कुशल हो जाते हैं। अंधा आदमी जिस कुशलता से सुनता | तुम्हारी कुशलता के बढ़ जाने की बात है। है, आंखवाले कभी सुनते ही नहीं। __ तो शुरू में तो तुम ऐसा ही करो। जब सुनने का मन हो, सुन इसलिए गैर-आंखवालों का सुर-बोध गहन हो जाता है। अंधे लिये। जब देखने का मन हो, देख लिये। अभी दोनों को साथ संगीतज्ञ हो जाते हैं। अंधे की वाणी मधुर हो जाती है। क्योंकि साधने की कोशिश मत करना। धीरे-धीरे अपने आप सध अंधे की सारी ऊर्जा आंख से हटकर कान पर बहने लगती है। जाएगा। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि सुनते-सुनते आंख बंद है, जैसे-जैसे उसका स्वर-बोध गहरा होता है, वह छोटी-छोटी लेकिन मैं दिखायी भी पड़ने लगा। मुझे देखने के लिए आंख का चीजों को भी स्वर से पहचानता है। वह लोगों के पैरों की खुला होना जरूरी नहीं है। फिर तुम पाओगे कि आंख खुली है, आवाज से भी लोगों को पहचानने लगता है-कौन आ रहा है। तुम मुझे देख भी रहे हो, और सुनायी पड़ने लगा। और यहां ही आंखवाले नहीं पहचान सकते। आंखवालों ने कभी इतने गौर से नहीं, तुम अपने घर लौट जाओगे, अगर मेरे चित्र पर भी तुम सुना ही नहीं। आंखवालों को पता ही नहीं कि पैर भी लोग आंख खोलकर बैठ गये, तो तुम्हें मेरी आवाज सुनायी पड़ने अलग-अलग ढंग से रखते हैं। चलते भी लोग अलग-अलग लगेगी। लेकिन यह घटित होगा। थोड़ी प्रतीक्षा करो, और / जैसे अंगूठों के निशान अलग-अलग हैं, ऐसे ही हर जल्दी मत करो। अभी तो जिस तरह डूबना हो जाए, डूबो! चीज अलग-अलग है। अंधा तुम्हारी आवाज सुनकर ही अभी तो डूबना सीख लो। पहचान लेता है कौन हो। वर्षों बाद भी मिलने जाओ उससे, फिर मेरे लब पे कसीदे हैं लबो-रुखसार के आवाज पहचानते ही पहचान लेता है। क्योंकि उसकी पहचान फिर किसी चेहरे पे ताबानी सी ताबानी है आज ही आवाज से है। चेहरे का उसे कुछ पता नहीं। अर्जिशे-लब में शराबो-शेर का तूफान है। तो जब तुम सुनते हो पूरी तरह से, तो स्वभावतः आंख बंद हो जुबिशे-मिजगां में अफसूने-गजलख्वानी है आज जाएगी। क्योंकि सारी ऊर्जा कान ले रहा है। आंख को देने को है | वो नफस की जमजमा-संजी नजर की गुफ्तगू नहीं। अगर तुमने सुनने और देखने की एक-साथ कोशिश की, सीना-ए-मासूम में इकतर्फा तुगयानी है आज तो आधी-आधी बंट जाएगी। तो न तो तम ठीक सेसन पाओगे, वो इशारे हैं बहक जाना ही ऐने-होश है न ठीक से देख पाओगे। जब तुम देखोगे, सारी ऊर्जा आंख पर | होश में रहना यकीनन सख्त नादानी है आज आ जाएगी। शुरू में ऐसा होगा। अभी होश की बात ही मत करो। अभी तो बेहोश हो लो। 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासुख की नींव MAHIMRANTAR वो इशारे हैं बहक जाना ही ऐने-होश है चौथा प्रश्न : समर्पण और अंधानुकरण में क्या अंतर है? अभी तो बहक लो मेरे साथ। अभी तो यही होश है कि तुम मेरे | साथ बहको। कि मेरे साथ पागल हो लो। अंतर है भी और नहीं भी। दोनों बातें समझ लें। होश में रहना यकीनन सख्त नादानी है आज अंधानुकरण का अर्थ है, अपने स्वानुभव के बिना किसी बात आज तो होश की बातें मत करो। आज तम गणित मत को माने चले जाना। जैसे तम जैन-घर में पैदा हए या हिंद-घर बिठाओ कि सुन भी लू, देख भी लूं, बुद्धि को भी समझ में आ में पैदा हुए, या मुसलमान-घर में पैदा हुए, और तुम अपने को जाए, हृदय में भी रस उतर जाए। अभी तुम गणित मत बिठाओ, मुसलमान माने चले जाते हो, यह अंधानुकरण है। न तो मुहम्मद अभी तर्क मत बिठाओ। अभी तो बहक लो। जहां से बहकना से तुम्हारा कोई संबंध बना, न कोई सत्संग हुआ। न मुहम्मद की आ जाए, वहीं से सही। अभी तो तुम मेरे साथ मस्त हो लो। यह | आभा से तुम्हारा कोई मिलन हुआ। जैन-घर में पैदा हो गये हो। घड़ी अगर मस्ती में बीत जाए, तो धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम मस्ती | महावीर से कोई मेल-जोल नहीं है। महावीर से कुछ लेन-देन की गहराइयों से परिचित होने लगोगे, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि नहीं हुआ। महावीर से कोई साक्षात्कार नहीं हुआ। महावीर की सभी इंद्रियों को एक-साथ जोड़ा जा सकता है। तब न केवल | वाणी के फल तम्हारे हृदय में खिले नहीं। महावीर की वीणा का किसी-किसी को वैसा अनुभव होता है। कोई मेरे पास होता | हुए हो। इसलिए बचपन से जैन-धर्म की बात सुनी, जैन-शास्त्र है, तो उसे एक खास तरह की गंध आने लगती है। उसका अर्थ | सुना, जैन-मंदिर गये, महावीर का नाम सुना बार-बार, है, वह केवल मुझे सुन ही नहीं रहा, देख ही नहीं रहा, मुझे सूंघ सुनते-सुनते स्मृति में बैठ गया। तुम कहते हो, मैं जैन हूं। यह भी रहा है। और कुछ थोड़े-से लोग हैं, बहुत थोड़े-से अंधानुकरण है। जो लोग महावीर के समय में महावीर की आभा लोग---कोई दो-चार लोगों ने मुझे कभी कहा है कि सुनते-सुनते से आंदोलित होकर महावीर के चुंबक से खींचे गये थे जिन्होंने उनके कंठ में एक तरह का स्वाद भी आने लगता है। तो चौथी महावीर को भर-आंख देखा था; जिन्होंने महावीर को पूरे कानों भीतर टपक गयी हो। उनसे भी कम कुछ लोग हैं—एकाध ही उस पीने में जाना था कि ठीक है, यही मार्ग ठीक है, और उस कभी किसी ने मुझे कहा है कि सुनते-सुनते सारे शरीर में एक मार्ग पर चल पड़े थे, तब समर्पण था, अंधानुकरण नहीं। अनठे स्पर्श का बोध होता है। एक तरंग। जैसे मैंने उनके सारे समर्पण तो जीवित सदगुरु के पास ही हो सकता है। इसलिए | शरीर को आलिंगन में ले लिया हो / तो पांचों इंद्रियां सम्मिलित दुनिया में सौ में से निन्यानबे लोग तो अंधानुकरण में हैं। महावीर हो गयीं। अभी तो एक-एक को साधो। दो को एक-साथ जब गांव से गुजरे थे, तो उनमें से कोई कृष्ण को मानता था, साधना मत। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे सभी इंद्रियां एक-साथ सजग इसलिए सुनने नहीं गया। कोई राम का भक्त था, इसलिए कैसे होकर मेरे पास हो जाएंगी। महावीर के पास जाता! वे अंधानुकरण में थे। लेकिन उन्हीं राम जिस दिन सभी इंद्रियां सजग होकर मेरी निकटता में आ और कृष्ण-भक्तों में से कुछ हिम्मतवर थे, जो महावीर को सुनने जाएंगी, उस दिन सत्संग शुरू हुआ। उसके पहले सत्संग तो है, गये थे। उन्होंने अपने अंधानुकरण को एक तरफ रखा। उन्होंने लेकिन सीमित है। किसी का आंख का सत्संग है, किसी के कान कहा, परंपरा परंपरा है, परंपरा मेरी आत्मा नहीं। किसी घर में का सत्संग है, लेकिन सीमित है। तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व का पैदा हुआ हूं, यूं ठीक है; लेकिन जो धर्म मैंने नहीं चुना, वह मेरे सत्संग नहीं हो रहा है। प्राणों को कैसे स्पंदित करेगा? धर्म चुनाव है-सजगता से, पर जल्दी की भी नहीं जा सकती। यह तो धीरे-धीरे...कला | गहन सोच-विचार से, चिंतन-मनन से, ध्यान-निदिध्यासन से, है, जो धीरे-धीरे आती है। आते ही आते आती है। ऐसा नहीं कि अपने जीवन को दांव पर लगाना है। धर्म उधार नहीं मिलता। तुम उसे ले आओगे। तो जो धर्म तुम्हें घर के कारण, परिवार के कारण, समाज के 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ women जिन सूत्र भाग: 2 कारण मिल गया हो, वह अंधानुकरण है। दिया, वर्तमान को चुना। मृत को इनकार कर दिया, जीवंत को नानक के गीत को सुनकर जो उनके पास पहुंच गये थे, वे चुना। जीवंत के साथ खतरा था, पता नहीं महावीर ठीक हों, न सिक्ख हैं। बाकी सब नाम के सिक्ख हैं। सिक्ख शब्द का अर्थ हों। और पता नहीं तुम्हें जो प्रतीति हो रही है वह ठीक हो, न हो। होता है, शिष्य। वह शिष्य का ही विकत रूप है। जो नानक के हो सकता है तम सम्मोहित हो गये हो। हो सकता है इस महावीर पास गये थे, जिन्होंने नानक का गीत सुना, और जिनको नानक | के वचनों ने तुम्हें घेर लिया। तुम किसी जाल में उलझ गये। की झलक मिली। जिन्होंने उनके पास उस अमृत लोक का | खतरा है। संदेह के साथ कदम उठाने पड़ेंगे। पहला सपना देखा, जिनका सत्संग हुआ, जिनके हृदय का सेतु | लेकिन साहसी उठाता है कदम। पुराने रास्तों की बड़ी प्रतिष्ठा नानक से जुड़ गया, जो क्षणभर को नानक की आंख से देख | है—प्राचीन हैं, हजारों लोग चले हैं, तीर्थ हैं, मंदिर हैं, तुम लिये, नानक के पैरों से नाच लिये, नानक के कंठ से गुनगुना जाकर पता लगा सकते हो कि इन रास्तों से लोग पहुंचे या नहीं लिये क्षणभर को सही-जिनकी धुन नानक से मिल गयी, पहंचे? तो लोकोक्तियां हैं कि इस रास्ते पर हजारों लोग सिद्ध उन्होंने समर्पण किया। यह उनका स्वयं का अनुभव था। इस / हो गये हैं। अब महावीर अचानक आकर खड़े हुए, या मुहम्मद, स्वयं के अनुभव पर उन्होंने अपना सिर झुका दिया। अभी तो कोई इनके पास सिद्ध हुआ नहीं; अभी तो कोई पहुंचा अब सिक्ख हैं, उनका नानक से क्या लेना-देना! सिक्ख घर नहीं, अभी तो परंपरा बनने में हजारों साल लगेंगे, हजारों साल में पैदा हुए, तो सिक्ख हैं। हिंदू घर में पैदा होते तो हिंदू होते। के बाद कमजोर लोग इनका अनुसरण करेंगे। हिम्मतवर लोग मुसलमान घर में पैदा होते तो मुसलमान होते। किसी हिंदू बच्चे जीवंत सदगुरु का साथ पकड़ लेते हैं। वह साथ पकड़ लेना ही को मुसलमान के घर में रख दो, वह मुसलमान हो जाएगा। समर्पण है। जो तुमने किया, वह समर्पण, जो तुमसे तरकीबों से बचपन से मुसलमान के बच्चे को जैन के घर में रख दो, वह करवा लिया गया है, वह अंधविश्वास। अगर तुममें थोड़ा भी अहिंसक हो जाएगा। शाकाहारी हो जाएगा। लेकिन यह होना | बल और हिम्मत है, अगर तुम थोड़े भी आत्मवान हो, तो तुम कोई होना है! जो तुमने स्वयं नहीं चुना। इनकार कर दोगे उन सारे संस्कारों को जो दूसरों ने तुम पर डाले। तो जो तम्हारे पास उधार है. वह अंधानकरण है। जो निज का तम कहोगे. तम कौन हो? है, वही समर्पण है। जो तुमने किया, जो अतीत से नहीं मिला, | रूस में सभी नास्तिक हैं, क्योंकि सरकार नास्तिकता पिला रही जो तुमने स्वयं साहस करके-दुस्साहस कहना चाहिए, क्योंकि है। हिंदुस्तान में सभी आस्तिक हैं, क्योंकि समाज आस्तिकता अतीत से जो मिलता है वह तो हजारों साल चिंतन किया गया है, पिला रहा है। न इस आस्तिकता का कोई मूल्य है, न उस उस पर शास्त्र लिखे गये हैं, टीकायें लिखी गयी हैं; पंडित हैं, नास्तिकता का कोई मूल्य है। दोनों दो कौड़ी की हैं। और दोनों पुजारी हैं, मंदिर हैं, बड़ी लंबी परंपरा है, परंपरा की प्रतिष्ठा है; एक-जैसी हैं। मेरे देखे कोई फर्क नहीं है। तुमको आस्तिकता लेकिन जब तुम किसी नये सदगुरु के, जीवित सदगुरु के पास पिलायी जा रही है दूध के साथ, तुम आस्तिकता पीये जा रहे हो। आते हो तो न तो कोई परंपरा है पीछे, न वेद-कुरान-बाइबिल का उनको नास्तिकता पिलायी जा रही है, वे नास्तिकता पीये जा रहे कोई सहारा है। कोई संदर्भ नहीं है। जीवित सदगरु सीधा तुम्हारे | हैं। रूस में जो हिम्मतवर है, वह हटाकर रख सामने खड़ा है। हां, तुम्हीं अगर हिम्मतवर हो, तो समर्पण कर पिला रही है। वह सोचेगा अपनी तरफ से। तुममें जो हिम्मतवर सकोगे। और तो कोई भी कारण नहीं है समर्पण करने का। है, वह भी हटाकर रख देगा जो समाज पिला रहा है। वह महावीर के पास जाकर जो झुक गये, महावीर के सारे बड़े सोचेगा अपनी तरफ से। वह कहेगा, भटक जाऊं तो भी एक शिष्य, ग्यारह शिष्य, सभी के सभी ब्राह्मण थे। साधारण ब्राह्मण सुख तो रहेगा कि अपनी ही अभीप्सा के कारण भटका। गिरूं न थे, महापंडित थे। वेद में पारंगत थे। उनके खुद के सैकड़ों खड्ड में, तो कम से कम एक तो बात रहेगी मेरे साथ कि अपने ही शिष्य थे जब वे महावीर के पास आये। लेकिन परंपरा को चुनाव से चला था, गिरा तो किसी की जिम्मेवारी नहीं। हटाकर रख दिया। सत्य को चुना। अतीत को पोंछकर रख ध्यान रखना, दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती तुम स्वर्ग भी पहुंचा दिये 1920 Jair Education International 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति H महासुख की नींव गये, तो तुम स्वर्ग न पहुंचोगे। स्वयं चलकर ही तुम पहुंचोगे, तो | तक जो मैं पकड़े हुए हूं, उसको पकड़ने के लिए मैंने कोई जीवन ही स्वर्ग संभव है। यह कुछ ऐसी संपदा नहीं कि कोई दे दे। यह दांव पर लगाया है? कोई ध्यान किया है? कोई प्रेम किया है? कोई हस्तांतरण नहीं हो सकती। तो तुमने जो भी मान रखा हो या सिर्फ संस्कृति ने, समाज ने, सभ्यता ने जो दिया है, उसे पकड़े परंपरा से, दूसरों के द्वारा समझा-बुझाकर तुम्हें राजी कर लिया हुए हूं! दूसरों ने दिया है। उनको भी किन्हीं औरों ने दिया था, गया हो, वह सभी अंधानुकरण है। जो तुम चुनो, वही समर्पण उनको भी किन्हीं औरों ने दिया था। सुनी हुई बात है। अपना है। यह तो भेद है दोनों का। | दर्शन कुछ भी नहीं। ऐसे कचरे को हटाओ। वह अंधविश्वास और एक अर्थ में भेद नहीं भी है। उस दूसरे अर्थ को भी समझ है। दूसरे को अंधविश्वासी कहने मत जाना। लेना जरूरी है। लोग बड़े शब्दों के उपयोग में चालाक हैं। अगर इसमें एक बात और भी खयाल में ले लेने की है। दूसरा तुम करो तो समर्पण है; अगर दूसरा करे तो अंधविश्वास! अगर | जितना समर्पित होगा, उतना तुम्हें अंधा मालूम होगा। क्योंकि तुम आकर मेरे पास संन्यास ले लो, तो तुम कहोगे, समर्पण। प्रेम में एक तरह का अंधापन है। इसलिए तो हम कहते हैं प्रेमी तुम्हारे पास-पड़ोसवाले, तुम्हारे मित्र कहेंगे, गिरा अंधविश्वास को, अंधा! क्योंकि जो प्रेमी नहीं है, वह समझ ही नहीं पाता कि में! इसे तुमने कभी खयाल किया? राम के भक्त कहते हैं, यह आदमी कर क्या रहा है? मजनू से लोग पूछते थे, तू पागल विभीषण परम भक्त है राम का; रावण के मित्रों से भी तो पूछो! है? इस लैला में कुछ भी रखा नहीं! मजनू कहता, मेरी आंख से दगाबाज है! धोखेबाज ! गद्दार! अगर हिंदू मुसलमान हो जाए, देखो। लैला देखनी है तो मेरी आंख से देखो। लैला को और गद्दार! अगर मुसलमान हिंदू हो जाए, तो हिंदू कहते हैं, कोई देखने का ढंग हो भी नहीं सकता। एक ही ढंग है, वह मजनू समझदार! अकल आ गयी। बड़ा बुद्धिमान है। की आंख है। एक जैन-मुनि थे, गणेशवर्णी। उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, अगर किसी के प्रेम को देखना है, तो प्रेमी की आंख से देखो। जैनियों में। क्योंकि वे जन्म से हिंदू थे और जैन हुए। तो जैन अगर तुम मीरा को जैन की आंख से देखोगे, तो गड़बड़ हो गयी। कहते, बड़ा प्रतिभाशाली है। ऐसा संत सदियों में होता है। मीरा को देखना है, तो मीरा की आंख से देखो। मीरा के भाव को हिंदुओं से पूछो? गद्दार! धोखेबाज! यह सदा से होता आया समझना है, तो भक्त के भाव से समझो। जो भक्त नहीं हैं, उनसे है। तुम अपने लिए तो अच्छे शब्दों का उपयोग कर लेते हो, | पूछना मत; वे तो कहेंगे कि यह अंधापन है। दूसरे के लिए गलत शब्दों का उपयोग करते हो। जब तुम करोगे, | कहते हैं, अलबर्ट आइंस्टीन की पत्नी ने विवाह के बाद अपनी तो समर्पण। दूसरा करेगा तो अंधविश्वास। कछ कविताएं अलबर्ट आइंस्टीन को दिखायीं। वह कछ कविता | इसलिए खयाल रखना, जो तुम अपने लिए मौका देते हो, वह | करती थी। अब आइंस्टीन तो गणितज्ञ, भौतिकशास्त्री! तथ्य | दूसरे को भी देना। तुम्हें कोई हक नहीं है किसी दूसरे के बाबत पर उसका जोर! तथ्य और काव्य का क्या मिलना! निर्णय करने का कि वह अंधविश्वासी है, या समर्पित हुआ | जमीन-आसमान का फर्क! उसने पहली ही कविता देखी, वह व्यक्तित्व है। तुम इसकी चिंता छोड़ो। तुम कर भी नहीं सकते सिर हिलाने लगा। उसकी पत्नी ने पूछा कि क्या मामला है ? निर्णय। तुम दूसरे के हृदय में उतरोगे कैसे? जानोगे कैसे? तुम उसने कहा, यह हो ही नहीं सकता, यह कभी हो ही नहीं सकता, तो अपनी ही सोच लो। इतना ही देखो अपने भीतर कि अब तक बिलकुल गलत है। बात क्या है? तुम अंधविश्वास से जी रहे हो, या समर्पण से जी रहे हो। बस, कविता में पत्नी ने लिखा है—प्रेम की कविता है, प्रेमी के लिए वहीं निर्णय कर लो, दूसरों की फिकिर छोड़ दो। अन्यथा तुम्हारे लिखी है कि मेरे प्रेमी का जो चेहरा है वह चांद-जैसा सुंदर सभी निर्णय गलत होंगे। जीसस ने कहा है, निर्णय करो ही मत; है। आइंस्टीन ने कहा, हो ही नहीं सकता! चांद-जैसा! हो ही दूसरे के संबंध में न्यायाधीश बनो ही मत।। नहीं सकता। क्योंकि चांद बहुत बड़ा है। कहां आदमी का सिर, तो जिन मित्र ने पूछा है, अगर अपने लिए पूछते हों, तो ठीक। | और कहां चांद! फिर चांद सुंदर भी नहीं है। बड़े खाई-खड्ड हैं। दूसरों की चिंता छोड़ दें। अपने भीतर ही देख लेना है कि अब इससे कोई तुलना बैठती ही नहीं। 193 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 अब यह दो अलग भाषाएं हैं। आइंस्टीन गणित की भाषा है। लेकिन यह गणित का संबंध नहीं है। आइंस्टीन ठीक कहता बोल रहा है। कहां सिर, कहां चांद! कोई हिसाब भी तो हो! | है, और उसकी पत्नी भी ठीक कहती है। दोनों ठीक कहते हैं। अंधेर कर रहे हो यह प्रतीक बनाकर। पत्नी भी चौंकी होगी। लेकिन दोनों के ठीक, दो अलग-अलग भाषाओं के ठीक हैं। दो कोई भी कवि चौंकता। क्योंकि कवि सदियों से यही करते रहे अलग-अलग आयाम, दो अलग-अलग व्यवस्थाओं के ठीक हैं। चांद से ज्यादा सुंदर उन्होंने कुछ पाया ही नहीं अपनी प्रेयसी हैं। इसे खयाल रखना। के चेहरे का निरूपण करने के लिए। __ जो आदमी प्रेम में पड़कर समर्पित हो जाता है, शेष सबको __ इतना ही नहीं कि उन्होंने चांद से प्रेयसी के चेहरे का निरूपण | अंधा मालम होगा ही। क्योंकि वे गणित से चलनेवाले लोग. किया है, कोई तो अंधे और भी आगे निकल गये, उन्होंने चांद का तर्क से चलनेवाले लोग; यह क्या पागलपन है! अब तुम निरूपण अपनी प्रेयसी के चेहरे से किया है। वे कहते हैं, चांद जाओगे गैरिक-वस्त्रों में घर लौटकर, माला पहने हुए, लोग | मेरी प्रेयसी के चेहरे-जैसा सुंदर।। | तुम्हें पागल कहेंगे। तुम चांदमारे। मेरे नाम का अर्थ चांद ही है! मगर क्या तुम कहोगे वह गलत कहते हैं! वह देखने का ढंग लूनाटिक-अब तुम पड़े मुश्किल में! अब तुम समझा न और! वह शैली और! वह भाषा और! वह आयाम और! वे पाओगे। तुम समझाने बैठोगे तो तुम हारोगे, यह भी पक्का भी ठीक कहते हैं। कुछ है मेल चांद में और प्रेयसी के चेहरे में। समझना। क्योंकि तर्क से कैसे समझाओगे? वह कहेंगे, पागल वह मेल वजन का नहीं है, न आयतन का है, न क्षेत्र का है, न हो गये हो। अगर तुमने समझाने की कोशिश की, तो उससे खाई-खड्डों का है, कुछ और है। कुछ एक सम्मोहन है। जो चांद सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि तुम गलत हो। कुछ सिद्ध न हो की तरफ देखकर आंखें ठगी रह जाती हैं। बस वैसी ही आंखें सकेगा। तुम समझाना मत। तुम खुद ही स्वीकार कर लेना कि | ठगी प्रेयसी के चेहरे पर भी रह जाती हैं। चांद में कुछ है जो | ठीक पहचाना, पागल हो गये हैं। इसके पहले कि वे हंसें, तुम तुम्हारे हृदय को आंदोलित कर देता है। बेसुध कर देता है। वैसा | खिलखिलाकर हंसना। तुम पाओगे कि वे गंभीर हो गये। इसके ही कुछ प्रेमी के चेहरे में भी है, जो तुम्हें बेसुध कर देता है। उस पहले कि वे कुछ कहें, कि तुम गुनगुनाना गीत, कि नाचना। वे अनजान की तुलना है। चांद से कुछ सुरा बहती है। इसीलिए तो अपने घर चले जाएंगे सोचकर कि ये महा...समझाने-बुझाने की चांद का दूसरा नाम है, सोम। सोमरस बहता है चांद से। बात ही न रही! इसलिए तो चांद के दिन को हम सोमवार कहते हैं। सोमरस | एक समझ की दुनिया है, जहां सीढ़ी-सीढ़ी तर्क चलता है। एक बहता है चांद से। कुछ है, जो चांदनी रात में होता है, फिर कभी प्रेम की दुनिया है, जहां छलांगें चलती हैं, कुलांचें चलती हैं। दोनों नहीं होता। जो पूरे चांद की रात में होता है, फिर कभी नहीं की चाल इतनी अलग है कि दोनों कभी साथ नहीं चल पाते। होता। कुछ पागल कर देनेवाला, कुछ मतवाला कर देनेवाला। तर्क पदार्थ तक पहंच पाता, प्रेम परमात्मा तक। परमात्मा का तुम जानकर चकित होओगे कि पूर्णिमा की रात को दुनिया में कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा का एक ही प्रमाण है, वे लोग जो जितने लोग पागल होते हैं और किसी रात को पागल नहीं होते। उसके प्रेम में पागल हो गये। और कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा इसलिए तो पागलों के लिए एक पुराना शब्द है-चांदमारा। | को जानना है तो परमात्मा के प्रेम में पागल हो गये लोगों से अंग्रेजी में भी पागल के लिए शब्द है-लूनाटिक। वह भी चांद पूछना पड़े। कोई तर्क नहीं है। कोई सिद्धांत नहीं है। कोई उपाय से बनता है-लूनार, चांद-और लूनाटिक-वह भी नहीं सिद्ध करने का। लेकिन, जब किसी व्यक्ति में वैसे प्रेम का चांदमारा। चांद में कुछ है! सागर को आंदोलित कर देता है जन्म होता है, तो जिनको हम आंखें कहते हैं वे तो बंद हो जाती चांद। उठते हैं ज्वार। बड़ी लहरें आकाश छूने को! ठीक वैसा हैं, लेकिन कोई और आंख खुलती है—उसी को तो तीसरी ही कुछ मनुष्य के हृदय-सागर में भी होता है। पूर्णिमा की रात | आंख कहते हैं—कोई और आंख खुल जाती है। वह किसी और को कुछ घटता है। पूरे चांद के साथ कुछ तुम्हारे भीतर काव्य, | ढंग से देखने लगता है। संगीत, नृत्य का जन्म होता है। वैसा ही प्रेयसी को देखकर होता | तो स्वभावतः जिनको नहीं घटा है प्रेम, उन्हें प्रेमी पागल मालूम 194 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासुख की नींव Salmation पड़े, अंधा मालूम पड़े; मगर अगर तुममें थोड़ी भी करुणा हो, तो | की नजर में आते ही हीरा हो जाता है। उसके पहले तो पत्थर ही भूलकर ऐसे शब्दों का प्रयोग मत करना। था। और तुम्हारे पास जौहरी की नजर न हो, तो तुम्हारे लिए भी इतना ही कहना : मुझे अभी घटा नहीं, मैं कुछ कह सकता | पत्थर है। नहीं। जिसको घटा है, वह जाने। और धन्यभाग समझना कि मराहूं हजार मरण कछ लोग हैं, जिनको परमात्मा अभी भी घटता है। क्योंकि उन्हीं पायी तब चरण-शरण में आशा है उन लोगों के लिए भी, जो अभी तर्क के जाल में और भक्त तो कहता हैव्यामोह में भटक रहे हैं। जो तुम्हें जाद-ए-मंजिल का पता देता है भक्त से पूछो, वह कहेगा अपनी पेशानी पे वो नक्शे-कदम लेके चलो मरा हूं हजार मरण अपने माथे पर रख लो वे चरण, जिससे तुम्हें मार्ग मिला, पायी तब चरण-शरण जिससे तुम्हें राह मिली। तुम कहोगे, अंधा है। वह कहता है, हजारों बार मरकर यह जो तुम्हें जाद-ए-मंजिल का पता देता है चरण मिले हैं। बड़ी मश्किल से मिले हैं। जिसने तुम्हें खबर दी मंजिल की। मरा हूँ हजार मरण अपनी पेशानी पे वह नक्शे-कदम लेके चलो पायी तब चरण-शरण लेकिन दूसरों को तो पागल ही लगेगा। दूसरे की तो समझ के बड़ी कीमत से पायी है उसने। जन्मों-जन्मों जिस हीरे को बाहर होगा कि यह क्या हो रहा है? खोजा, अब पाया है। तुम कहोगे, पत्थर लिये बैठा है। हीरे को दूसरे की चिंता मत करें। अगर समर्पण घटा हो, तो वह इतना देखने के लिए जौहरी की आंख चाहिए। बहुमूल्य है कि सारी दुनिया भी कहती हो कि तुम अंधे हो, तो मैंने सुना है, एक आदमी अपने गधे के गले में एक हीरा | समर्पित व्यक्ति कहेगा, अंधा होने को राजी हूं, लेकिन समर्पण लटकाये चला जा रहा था। एक जौहरी ने देखा, चकित हो छोड़ने को नहीं। अगर न घटा हो समर्पण अब तक जीवन में, तो गया! लाखों का हीरा होगा और यह गधे के गले में लटकाये हुए जरा खोजबीन करना कि क्या पाया है समर्पण-हीन जीवन में? है! उसने पूछा, क्या लेगा इस पत्थर का? उस आदमी ने कहा, | क्या पाया है? कचरा ही कचरा, राख ही राख पाओगे। अंगारा एक रुपया दे दें। उस जौहरी ने कहा, चार आने में देना है? | भी न मिलेगा जलता हुआ एक। शास्त्रों की राख मिलेगी, सत्य पत्थर है, करेगा क्या? उसने कहा अब चार आने तो रहने दो का अंगारा न मिलेगा। परंपरा की धूल मिलेगी, परमात्मा का बच्चे खेल लेंगे! उस जौहरी ने सोचा कि आयेगा, चार आने भी दर्पण न मिलेगा। तो अपने भीतर ही खोजना कि अब तक कौन देनेवाला है इसको! जौहरी जरा दो-चार कदम आगे चला अंधविश्वास से जीये हैं, तो अब एक बार समर्पण की आंख से गया, तभी तक दूसरा जौहरी आया। उसने एक हजार रुपये में भी जीकर देख लें, यह नयी शैली भी अपना कर देख लें। वह खरीद लिया पत्थर। लौटकर जौहरी आया भागा हआ, कहा समर्पित व्यक्ति को तो धीरे-धीरे पता चलता है कि जो चरण क्या हुआ, बेच दिया? कितने में बेच दिया? उसने कहा, हजार उसने पकड़े थे, वह पराये चरण न थे; और जिसका हाथ अपने रुपये में। पहले जौहरी ने कहा, पागल हए हो! अरे, वह लाखों | हाथ में लिया था, वह पराया हाथ न था। और जिसके साथ चल का हीरा था! उस गधे के मालिक ने कहा कि मैं पागल होऊ या पड़े थे, वह अपनी ही नियति थी,अपना ही भविष्य था। न होऊं, मुझे तो पता नहीं कि वह हीरा था, इसलिए हजार में बेच निराकार! जब तुम्हें दिया आकार, स्वयं साकार हो गया दिया: तझे तो पता था कि हीरा है, एक रुपये में लेने को त राजी यग-यग से मैं बना रहा था मर्ति तम्हारी अकल, अलेखी न हुआ! आज हुई पूरी तो मैंने शकल खड़ी अपनी ही देखी। हीरा अपने-आप में थोड़े ही हीरा है! पड़ा रहता है हजारों वर्ष / लेकिन इससे भी बढ़कर अपराध कर गयी पूजन-बेला, तक, जब तक कि किसी जौहरी की नजर में नहीं आता। जौहरी तुम्हें सजाने चला फूल जो, मेरा ही शृंगार हो गया। 1195 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 2 तुम जिसे पकड़ रहे हो, वह तुम्हारे ही होने की संभावना है। पाया! पाया कुछ भी नहीं। खोया जरूर। पूछनेवाला चकित अगर मेरे पास तुम्हें कुछ रस मिला है, तो रस मुझसे नहीं मिला हुआ, उसने पूछा, खोया! पाया कुछ भी नहीं? बुद्ध ने कहा, है, वह तुम्हारे भीतर ही झरा है। अगर मेरे पास तुम्हें कुछ पाया तो वही जो पहले से ही मिला हुआ था। पता न था, दिखायी पड़ा है, तो वह तुम्हारा ही भविष्य है, वह तुम्हारा ही पहचान हुई। इसलिए उसको पाया, ऐसा कहना तो ठीक नहीं। आनेवाला कल है, वह तुम्हारी ही संभावना है; तुम्हारी नियति, | जो जेब में ही पड़ा था, भूल गये थे, हाथ डाला, मिल गया। तुम्हारा भाग्य! अगर तुम मेरे सामने झुके हो, तो वह तुम अपने पाया क्या! था अपना, सदा से, पता न था, पता हुआ। बोध ही भविष्य के सामने झुके हो, जैसे बीज अपने ही फूल के सामने हुआ। उसी बोध से तो शब्द बुद्ध बना। बुद्ध ने कहा, परमात्मा झुक जाए। | को पाना नहीं है, सिर्फ बोध करना है। है तो है ही। मौजूद ही है। निराकार! जब तुम्हें दिया आकार स्वयं साकार हो गया वही तुम्हें भरे है। वही तम्हें घेरे है—बाहर-भीतर, सब दिशाओं तुमने अगर किसी को महिमा दी, तुम महिमावान हो गये। में, चहुं-ओर-चहुं दिशाओं में। पाना नहीं है। पाने में तो ऐसा तुमने अगर किसी को प्रभु कहकर पुकारा, उसी क्षण तुम्हारा प्रभु लगता है जैसे कि कहीं जाना है; जो है नहीं, उसे पाना है। नहीं, जन्मा। तुम अगर किसी चरण में झुके, तो तुम्हारे चरण किसी के सिर्फ जागना है। जानना है, प्रत्यभिज्ञा करनी है। लिए झुकने योग्य होने लगे। और बुद्ध ने कहा, खोया बहुत। वह सब खोया, जो मेरे पास निराकार! जब तुम्हें दिया आकार स्वयं साकार हो गया / नहीं था और सोचता था कि है। इसे थोड़ा समझना, बड़ा युग-युग से मैं बना रहा था मूर्ति तुम्हारी अकल, अलेखी विरोधाभास है। जो सोचता था कि नहीं है, वह था। और जो आज हुई पूरी तो मैंने शकल खड़ी अपनी ही देखी। सोचता था कि है, वह नहीं है। अहंकार खोता है, आत्मा मिलती जिस दिन तुम मेरे बिलकुल करीब आ जाओगे और मुझे ठीक है। अहंकार कभी भी नहीं है, और आत्मा सदा है। से जान लोगे, उस दिन तुम पाओगे, अरे! पकड़ने दूसरे को मुझसे पूछते हो, आपने सिद्ध होकर क्या पाया? पाया कुछ चला था, यह तो अपने को ही पा लिया। भी नहीं, खोया। पाने को यहां कछ है ही नहीं। पाने की दौड़ ही लेकिन इससे भी बढ़कर अपराध कर गयी पूजन-बेला संसार है। जब तक तुम पाने के पीछे पड़े हो, तब तक तुम संसार तुम्हें सजाने चला फूल जो, मेरा ही शंग में रहोगे। इसलिए सांसारिक आदमी अगर धार्मिक भी होने तुमने जो भी श्रद्धा से, समर्पण से कहीं चढ़ाया है, वह तुम्हीं पर लगता है, तो भी पूछता है, मिलेगा क्या? चढ़ गया है। तुम जहां भी श्रद्धा और समर्पण से आंख उठाये हो, | मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं ध्यान तो करें, लेकिन वह तुम्हारे ही भविष्य का गृह है। वह तुम्हारे ही भविष्य, तुम्हारी | मिलेगा क्या? स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। तुम पूछो ही संभावनाओं का सूत्र है। वह तुम्हारी नियति है। तुलसीदास को कि क्या मिलता है? राम की कथा कहे चले जा रहे हो, पाया क्या? स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। वह आखिरी प्रश्नः आपने सिद्ध होकर क्या पाया? और क्या कहेंगे, मौज है, मजा है, पाने का कोई सवाल ही नहीं। यह आप निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि परमात्मा है? आनंद-भाव है। यह आनंद में खिले फूल हैं। पाने के लिए नहीं। यह कोई वासना नहीं है। कोई लोभ नहीं है। कोई पाने की सिद्ध होकर कुछ पाया नहीं जाता। सब खो जाता है। कुछ दौड़ नहीं, कोई चाह नहीं है। बचता ही नहीं। वही पाना है। शून्य मिलता है सिद्ध होकर। मिला कुछ भी नहीं, खोया बहुत। खोया सब। पूरा का पूरा लेकिन वही शून्य पूर्ण का आवास है। पाने की भाषा में तो पूछो | खोया। लेकिन उस खो जाने में ही उसका आविर्भाव होता है, जो ही मत, क्योंकि वह लोभ की भाषा है। क्या पाया? कुछ भी | दबा था। इस कूड़े-कर्कट में जो दबा था हीरा, वह प्रगट हुआ। नहीं पाया। | अपने से पूछो! मुझसे पूछते हो, सिद्ध होकर क्या पाया? मैं बुद्ध से किसी ने यही सवाल पूछा था। तो बुद्ध ने कहा, तुमसे पूछता हूं, संसारी होकर क्या पाया? 196 2010_03 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासख की नींव लड में घुमाया जाए। संभ पीड़ा ही मिली तुम दौड़े चले जाते हो इतने परेशान, इतने सब्जा-ओ-बर्गो-लाला-ओ-सर्वो-समन को क्या हुआ उसका नाम-धाम भी उसे पता न रहा। वह युद्ध के भी किसी सारा चमन उदास है, हाय चमन को क्या हुआ काम का न रहा। लेकिन उसे भेजें कहां? उसके घर का भी कोई मैं तुमसे पूछता हूं, इतने उदास हो, तुम्हें हुआ क्या? इतने | पता नहीं। फिर किसी ने सलाह दी—मनोवैज्ञानिक ने कि दुखी, इतने कातर, इतने हारे-थके, इतने निराश! इंग्लैंड कोई बहुत बड़ा देश नहीं है, इसको ट्रेन में बिठाकर सारे सारा चमन उदास है, हाय चमन को क्या हुआ इंग्लैंड में घुमाया जाए। संभव है अपने गांव के स्टेशन पर पहुंचे मैं तुमसे पूछं, इतने बीमार, इतने रोते, इतने परेशान, इतने तो याद आ जाए। बात काम कर गयी। उसे ले जाया गया पीड़ित, फिर भी तुम दौड़े चले जाते हो उन्हीं रास्तों पर, जिनसे स्टेशन-स्टेशन। जो लोग ले गये थे वे भी थक गये। क्योंकि हर पीड़ा ही मिली है। फिर भी दौड़े चले जाते हो उन्हीं पटरियों पर | स्टेशन पर ले जाकर उसको उतारकर खड़ा कर देते, वह खड़ा जिन पर नर्क ही मिला! फिर भी दौड़े चले जाते उसी क्रोध, उसी देखता रह जाता। माया, उसी लोभ, उसी मोह में, जिनसे सिवाय...सिवाय कांटों | लेकिन एक छोटे गांव के स्टेशन पर उतारना न पड़ा। जैसे ही के और कुछ भी न छिदा! तुम मुझसे पूछते हो कि आपको क्या | उसे गांव की तख्ती दिखाई पड़ी, अरे! उसने कहा, मेरा गांव! मिला? तुम्हारा दुख खो गया, वह मेरे पास नहीं है। तुम्हारे कांटे | वह नीचे उतरकर भागने लगा। लोगों ने उसे रोकना भी चाहा, खो गये हैं, वे मेरे पास नहीं। तुमसे मैं अगर ठीक से कहूं, तो | उसने कहा, रोको मत! अब मुझे जाने दो। मेरा गांव आ गया। तुम्हारे पास जो है, वह मेरे पास नहीं है। इतना तो पक्का! वह | जो मनोवैज्ञानिक उसे लेकर घूम रहे थे, वह उसके पीछे गये। खोया। कोई चाह नहीं, कुछ पाने की यात्रा नहीं, कोई दौड़ नहीं। वह सीधा भागता हुआ, गांव की गलियों को पार करता हुआ, अपने घर आ गये। अपने घर के द्वार पर पहुंच गया। उसने कहा, यह रहा मेरा घर। नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिये वह मेरी मां बैठी है। घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात क्या हुआ? पड़ी थी याददाश्त गहन में। वह नामपट स्टेशन नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिए! का चोट कर गया। तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, यह जो शराब का तूफान तुम्हारे | इसीलिए तो जाननेवालों ने कहा है, परमात्मा को पाना थोड़े ही सामने है? है, सिर्फ स्मरण करना है। सुमिरण कीजै। सुरति जगाइये। नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिए स्मृति भरिये। पड़ा है गहन में तुम्हारे, पुकारिये, चिल्लाइये, घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात आवाज लगाइये। किसी क्षण मेल खा जाएगा, किसी क्षण * शराब बरसी। मधुशाला मिली। लेकिन यह मिलन कुछ ऐसा | स्मरण पकड़ जाएगा, किसी क्षण तुम्हारी पुकार के कुंदे में उलझा नहीं कि अपना न था, पहचान हई। सदा से अपना ही था। हुआ ऊपर आ जाएगा। भागने लगोगे—यह रहा घर, यह आ खजाना अपना था, चाभी अपने हाथ में थी, ताला खोलना भूल | गया घर; खोया संसार, पाया उसे जो मिला ही हुआ था। गये थे। याद आ गयी, स्मरण हुआ, सुरति आयी। संसार नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिये खोया, परमात्मा मिला, ऐसा कहना गलत होगा। परमात्मा घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात। मिला ही हुआ था। संसार की उधेड़-बुन में भूल गये थे घर की | पानेवाले को कुछ नहीं मिलता। खोनेवाले को सब कुछ याद। बाजार में खो गये थे। मिलता है। पानेवाले भटकते हैं, रोते हैं, झीखते हैं; खोनेवाला ऐसा हुआ दूसरे महायुद्ध में। एक आदमी चोट खाकर गिरा | | भर जाता है, पूरा हो जाता है। युद्ध के स्थल पर, उसकी स्मृति खो गयी। जब युद्धस्थल से उसे तुझे ढूंढ़ता हूं तेरी जुस्तजू है उठाकर लाया गया, तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गयी। युद्धस्थल | मजा है कि खुद गुम हुआ चाहता हूं में उसका तगमा, उसका नंबर भी कहीं गिर गया। और उसकी तम अगर दंढ ही रहे हो, खोज ही रहे हो. तो न पा सकोगे। स्मृति भी खो गयी। अब वह कौन है, यह भी न बता सके। मजा है कि खुद गुम हुआ चाहता हूं 197 __ 2010_03 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 SA परमात्मा की खोज अपने को खोने की खोज है। परमात्मा को पाने का उपाय स्वयं को डुबाना और मिटाना है। तुम जब तक हो, परमात्मा न हो सकोगे। तुम्हीं तो बैठे परमात्मा की छाती पर पत्थर होकर। हटो, जगह खाली करो! तुम पत्थर की तरह हटे कि परमात्मा का झरना फूटा। अब तुम पूछते हो, 'आप निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि परमात्मा है?' निश्चयपूर्वक तो नहीं कह सकता। उसका कारण है। क्योंकि निश्चयपूर्वक हम उन्हीं बातों को कहते हैं, जिनका कुछ अनिश्चय होता है। सरलतापूर्वक कह सकता हूं कि परमात्मा है, निश्चयपूर्वक नहीं। क्योंकि अनिश्चय मुझे जरा भी नहीं है, तो निश्चय किसके खिलाफ खड़ा करूं? जब हम कहते हैं, दृढ़ता से, तो उसका मतलब यह होता है कि भीतर कुछ कमजोरी पड़ी है। जब हम कहते हैं निश्चय से, तो उसका मतलब यह होता है कि भीतर कुछ अनिश्चय है। सरलता से कहता हूं। ध्यान रखना मेरा वचन, सरलता से कहता हूं-परमात्मा है। परमात्मा ही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। आज इतना ही। 198] 2010_03