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________________ जिन सूत्र भाग : 2 फिर आकांक्षा है। कि तुम महासुख को पाने की नींव रख लो। उस दुख के क्षण में और पक्का मानना, उनके किनारे पहुंचते ही फिर आकांक्षा तुम घबड़ाना मत कि अरे! वह सुख मिला था, गया; यह फिर कहीं और चली जाएगी। मन बड़ा अदभुत है। तुम जहां होते हो, दुख आ गया! जो सुख दुख के आने से गिर जाए, वह सुख वहां तुम्हें नहीं होने देता। मन की सारी पकड़ यही है कि तुम जहां धोखा था। वह पकड़ने योग्य ही न था। जो सुख दुख के आने हो वहां नहीं होने देता। तम्हें कहीं और ले जाता है। और ध्यान पर भी बदले न दुख आ जाए, फिर भी तुम कहो, ठीक, यह भी का कुल इतना ही अर्थ है कि जहां हो, वहीं हो रहो। मन को यह स्वीकार; तुम्हारी स्वीकृति में रंचमात्र कोई बाधा न पड़े, तुम इसे खेल न खेलने दो। मन को कह दो कि मैं जहां हूं, वही रहूंगा। भी धन्यभाव से, कृतज्ञभाव से स्वीकार कर लो; तुम परमात्मा अभी मन सधा है, समता बनी है, पीओ इसे! अगर पीना को सुखों के लिए तो धन्यवाद दो ही, वह तुम्हें जो दुख देता है सीख गये, शाश्वत हो जाएगी। अगर सोचने लगे कि कहीं हिल उनके लिए भी धन्यवाद दे सको, फिर कौन हिला सकेगा? फिर तो न जाएगा, कहीं खो तो न जाएगा, कहीं यह क्षणभर का सपना तुम पार हुए। जब दुख भी तुम्हें दुखी न कर सकेगा, तभी सुख तो न हो जाएगा, कल कहीं चिंता फिर तो न पकड़ेगी, कहीं फिर थिर होगा। तभी सख शाश्वत होगा। अशांति के क्षणों को भी विषाद तो न आयेगा-आ ही गया, कल की कहां जरूरत रही! शांति से अंगीकार कर लो। आ ही गया, तुम चिंता में पड़ ही गये। तुम्हारी इस चिंता के शांति अशांति के आने से नहीं मिटती, अशांति को अस्वीकार कारण ही कंप जाती है लौ। करने से मिटती है। अशांति के आने से अगर शांति मिटती पूछते हो, भीतर समता का आनंद का दीया अधिक समय होती, तो शांति का बल ही क्या है फिर! अशांति के आने से नहीं स्थिर रहने पर भी कभी-कभी टिमटिमाने लगता है। स्थिरता की मिटती, तुम अशांति को अस्वीकार करते हो, धकाते हो; नहीं, बात ही भूल जाओ। स्थिरता मन की ही आकांक्षा है। स्थिर नहीं चाहिए; चिल्लाते हो कि यह क्या हुआ, फिर अशांति आ करने की चेष्टा क्यों करते हो? पत्थर होना चाहते हो? जलधार गयी! इस चिल्लाने, चीख-पुकार करने से शांति मिटती है! रहो। बहते-बहते अपने को पकड़ो, पहचानो। घबड़ाओ मत अब जब दुबारा तुम्हारे दीये की लौ कंपे, तो कंपने का भी रूपांतरण से, परिवर्तन से। अगर कभी लौ कंप भी जाए, तो आनंद लेना। क्या बुरा है। बिजली का बल्ब नहीं कंपता, कंपने का भी आनंद लो। नहीं तो यह नये आध्यात्मिक लोभ | लेकिन दीये का मजा ही और है। दीये की लौ कंपती है। बिजली हुए। यह नयी आध्यात्मिक वासना जगी कि अब कंप न जाए का बल्ब बिलकुल नहीं कंपता। लेकिन दीया जिंदा है, बिजली लौ! कहीं ऐसा तो न होगा कि कंप जाएगी ! कभी कंप भी जाए, का बल्ब मुर्दा है। दीया जीवंत-धारा है। ठहरता भी, कंपता उसे भी स्वीकार करो। तो समता पैदा हुई। भी। लौ में प्राण हैं। बिजली का बल्ब बिलकुल यांत्रिक है। अब इसे तुम समझना, यह थोड़ा जटिल हुआ। उसमें प्राण नहीं हैं। घबड़ाना मत। कभी-कभी कंपेगी ही! ठीक अगर समता कंप जाए, तो भी तुम्हारे भीतर कोई परेशानी न है, स्वीकार है। तुम्हारा स्वीकार-भाव सदा बना रहे, तो हो, तम कहो ठीक है। यह भी ठीक है, कभी-कभी कंपती है. धीरे-धीरे तम पाओगे, जब तम कंपन को भी स्वीकार करने लगे इसको भी स्वीकार कर लो, तो समता वास्तविक समता पैदा | तो कंपन कम होने लगा। एक दिन तुम पाओगे, जिस दिन हुई। जब विषमता को भी स्वीकार करने की कला आ जाए, तो स्वीकार पूरा हो गया, उस दिन कंपन समाप्त हो गया। उस दिन समता पैदा हुई। लोग कहते हैं, सुख खो तो न जाएगा! नहीं, दीये की लौ सतत, शाश्वत होकर जलने लगती है। जब दुख में भी तुम दुख न देखोगे; जब दुख भी आयेगा तब भी। लेकिन खयाल रखना, शाश्वत और स्थिर में फर्क है। नित्य तुम कहोगे, यह भी ठीक है, इसे भी स्वीकार करते हैं, यह भी और स्थिर में फर्क है। स्थिर में तो आकांक्षा है मन की, कि स्थिर परमात्मा का प्रसाद है, तब फिर सुख कभी न हटेगा। हो जाए। शाश्वत घटना है, मन की आकांक्षा नहीं है। स्थिर की मेरी बात समझे? सुख कभी-कभी हटेगा, दुख आयेगा, वह तो चिंता पैदा होती है, शाश्वत की कोई चिंता नहीं। वस्तुतः ऐसा दुख परीक्षा है। वह दुख चुनौती है। वह दुख तुम्हें एक अवसर है | समझो कि स्थिर के लिए सोच-सोचकर तुम लहर को कंपा जाते 1881 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340141
Book TitleJinsutra Lecture 41 Dukh ki Swikruti Mahasukh ki Nimv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size33 MB
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