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________________ दुख की स्वीकृति : महासुख की नींव MAHIMRANTAR वो इशारे हैं बहक जाना ही ऐने-होश है चौथा प्रश्न : समर्पण और अंधानुकरण में क्या अंतर है? अभी तो बहक लो मेरे साथ। अभी तो यही होश है कि तुम मेरे | साथ बहको। कि मेरे साथ पागल हो लो। अंतर है भी और नहीं भी। दोनों बातें समझ लें। होश में रहना यकीनन सख्त नादानी है आज अंधानुकरण का अर्थ है, अपने स्वानुभव के बिना किसी बात आज तो होश की बातें मत करो। आज तम गणित मत को माने चले जाना। जैसे तम जैन-घर में पैदा हए या हिंद-घर बिठाओ कि सुन भी लू, देख भी लूं, बुद्धि को भी समझ में आ में पैदा हुए, या मुसलमान-घर में पैदा हुए, और तुम अपने को जाए, हृदय में भी रस उतर जाए। अभी तुम गणित मत बिठाओ, मुसलमान माने चले जाते हो, यह अंधानुकरण है। न तो मुहम्मद अभी तर्क मत बिठाओ। अभी तो बहक लो। जहां से बहकना से तुम्हारा कोई संबंध बना, न कोई सत्संग हुआ। न मुहम्मद की आ जाए, वहीं से सही। अभी तो तुम मेरे साथ मस्त हो लो। यह | आभा से तुम्हारा कोई मिलन हुआ। जैन-घर में पैदा हो गये हो। घड़ी अगर मस्ती में बीत जाए, तो धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम मस्ती | महावीर से कोई मेल-जोल नहीं है। महावीर से कुछ लेन-देन की गहराइयों से परिचित होने लगोगे, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि नहीं हुआ। महावीर से कोई साक्षात्कार नहीं हुआ। महावीर की सभी इंद्रियों को एक-साथ जोड़ा जा सकता है। तब न केवल | वाणी के फल तम्हारे हृदय में खिले नहीं। महावीर की वीणा का किसी-किसी को वैसा अनुभव होता है। कोई मेरे पास होता | हुए हो। इसलिए बचपन से जैन-धर्म की बात सुनी, जैन-शास्त्र है, तो उसे एक खास तरह की गंध आने लगती है। उसका अर्थ | सुना, जैन-मंदिर गये, महावीर का नाम सुना बार-बार, है, वह केवल मुझे सुन ही नहीं रहा, देख ही नहीं रहा, मुझे सूंघ सुनते-सुनते स्मृति में बैठ गया। तुम कहते हो, मैं जैन हूं। यह भी रहा है। और कुछ थोड़े-से लोग हैं, बहुत थोड़े-से अंधानुकरण है। जो लोग महावीर के समय में महावीर की आभा लोग---कोई दो-चार लोगों ने मुझे कभी कहा है कि सुनते-सुनते से आंदोलित होकर महावीर के चुंबक से खींचे गये थे जिन्होंने उनके कंठ में एक तरह का स्वाद भी आने लगता है। तो चौथी महावीर को भर-आंख देखा था; जिन्होंने महावीर को पूरे कानों भीतर टपक गयी हो। उनसे भी कम कुछ लोग हैं—एकाध ही उस पीने में जाना था कि ठीक है, यही मार्ग ठीक है, और उस कभी किसी ने मुझे कहा है कि सुनते-सुनते सारे शरीर में एक मार्ग पर चल पड़े थे, तब समर्पण था, अंधानुकरण नहीं। अनठे स्पर्श का बोध होता है। एक तरंग। जैसे मैंने उनके सारे समर्पण तो जीवित सदगुरु के पास ही हो सकता है। इसलिए | शरीर को आलिंगन में ले लिया हो / तो पांचों इंद्रियां सम्मिलित दुनिया में सौ में से निन्यानबे लोग तो अंधानुकरण में हैं। महावीर हो गयीं। अभी तो एक-एक को साधो। दो को एक-साथ जब गांव से गुजरे थे, तो उनमें से कोई कृष्ण को मानता था, साधना मत। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे सभी इंद्रियां एक-साथ सजग इसलिए सुनने नहीं गया। कोई राम का भक्त था, इसलिए कैसे होकर मेरे पास हो जाएंगी। महावीर के पास जाता! वे अंधानुकरण में थे। लेकिन उन्हीं राम जिस दिन सभी इंद्रियां सजग होकर मेरी निकटता में आ और कृष्ण-भक्तों में से कुछ हिम्मतवर थे, जो महावीर को सुनने जाएंगी, उस दिन सत्संग शुरू हुआ। उसके पहले सत्संग तो है, गये थे। उन्होंने अपने अंधानुकरण को एक तरफ रखा। उन्होंने लेकिन सीमित है। किसी का आंख का सत्संग है, किसी के कान कहा, परंपरा परंपरा है, परंपरा मेरी आत्मा नहीं। किसी घर में का सत्संग है, लेकिन सीमित है। तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व का पैदा हुआ हूं, यूं ठीक है; लेकिन जो धर्म मैंने नहीं चुना, वह मेरे सत्संग नहीं हो रहा है। प्राणों को कैसे स्पंदित करेगा? धर्म चुनाव है-सजगता से, पर जल्दी की भी नहीं जा सकती। यह तो धीरे-धीरे...कला | गहन सोच-विचार से, चिंतन-मनन से, ध्यान-निदिध्यासन से, है, जो धीरे-धीरे आती है। आते ही आते आती है। ऐसा नहीं कि अपने जीवन को दांव पर लगाना है। धर्म उधार नहीं मिलता। तुम उसे ले आओगे। तो जो धर्म तुम्हें घर के कारण, परिवार के कारण, समाज के Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340141
Book TitleJinsutra Lecture 41 Dukh ki Swikruti Mahasukh ki Nimv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size33 MB
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