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________________ छठवां प्रवचन करना है संसार, होना है धर्म Owani
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________________ प्रश्न-सार भगवान श्री के पास आते ही बुद्धि हृदय में व शब्द मौन में रूपांतरित। और सुनते समय हृदय का आंसू बनकर बहना! . घर लौटने पर यह अवस्था बनी रहेगी, संदेह। कैसे स्थिर हो यह अवस्था? आपके पास संन्यास लेने आया हूं। कल घर से पत्र मिला है कि मेरे गैरिक वस्त्र पहनते ही मेरे माता-पिता आत्महत्या कर लेंगे। वे कम शिक्षित हैं, उन्हें समझाना भी कठिन है। क्या करूं, कृपया बताएं। मा योग लक्ष्मी के वक्तव्य पर एक मित्र की बेचैनी! सभी प्रश्न गिर गये। उत्तर की भूख, प्यास, चाह नहीं। आगे क्या? सुख-प्राप्ति, महासुख-प्राप्ति की एक झलक के बाद आगे क्या? : CERIFiate JAN TRPAN E 2010_03 www.jamelibrary.org .org M INISTRAM
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________________ सा प्रश्न : यहां आते ही बद्धि हृदय में और शब्द बहत उपाय करते हैं। इस उपाय को छोड़ो। यही उपाय घर मौन में रूपांतरित हो गये। आपको सुनते समय जाकर रोकने का कारण बन जाएगा। मेरा हृदय कभी-कभी आंसू बनकर बहने लगता। यहां मेरे पास हो, यहां एक और तरह की हवा है। यहां सब है। संदेह है कि यहां से घर लौटने पर भी यह अवस्था बनी स्वीकार है। यहां तम रोओगे, तो कोई तम् रहेगी अथवा नहीं। कृपापूर्वक समझाएं कि किस तरह यह रोओगे, तो शायद दूसरे तुम से ईर्ष्या करें। सोचें कि तुम अवस्था स्थिर हो? धन्यभागी हो कि रो पाते हो, पीड़ित हों अपने मन में कि हम नहीं रो पाते। तुम्हारे आंसू यहां संपदा की तरह स्वीकार किये जाएंगे। पहली बात, आंसुओं से ज्यादा पवित्र मनुष्य के पास और कुछ घर लौटकर नहीं। दूसरी ही हवा होगी। दूसरा संयोग होगा भी नहीं है। आंसुओं से बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है। आंसुओं का | आंसुओं के साथ। केवल एक रूप ही लोगों ने जाना है। वह रूप है-दुख-रूप। तो अगर चाहते हो कि यह परम आंसू सदा बहते रहें, तो भीतर आंसुओं का एक और रूप है-आंनद-रूप। उसे बहुत कम कुछ स्मरण करने का है। और वह स्मरण यह है कि आंसुओं का लोग जान पाये। बहुत कम लोग जान पाते हैं। दुख से कुछ लेना-देना नहीं है। अन्यथा तुम खुद ही रोक लोगे, * किसी को तुम रोते देखते हो, तो सोचते हो दुखी होगा। किसी कोई और नहीं रोकेगा। कौन रोकता है! कोई किसी को रोक नहीं को तुम रोते देखते हो, तो सोचते हो कुछ पीड़ा होगी। कुछ चुभन | सकता! लेकिन तुम्ही रोक लोगे। तुम्हीं सकुचा जाओगे। तुम्हीं होगी, जलन होगी। जरूरी नहीं। आंसू तो तभी बहते हैं जब सोचोगे, कोई क्या कहेगा! घर में बच्चे होंगे तुम्हारे, पत्नी होगी, कोई भी भावदशा इतनी ज्यादा हो जाती है कि तुम संभाल नहीं पिता-मां होंगे, क्या कहेंगे! दुकान पर बैठे रोने लगोगे, ग्राहक पाते। कोई भी भावदशा। दुख बहुत हो जाए तो आंसुओं से क्या कहेंगे! दफ्तर में बैठे रोने लगोगे, दफ्तर के लोग क्या बहता है। सुख बहुत हो जाए तो भी आंसुओं से बहता है। पीड़ा कहेंगे! रास्ते पर रोने लगोगे, राह चलते लोग क्या कहेंगे! बहुत हो, तो आंसुओं से बहकर हल्का हो जाता है मन। आनंद आंसुओं के साथ दुख जुड़ा है। क्योंकि हमने एक ही तरह के बहुत हो, तो आंसुओं से बह जाता है। आंसू अब तक जाने हैं, वे दुख के आंसू हैं। कोई मरा, तो हम तो पहली तो बात, आंसुओं के साथ दुख का अनिवार्य संबंध रोये। कोई जीवन में विषाद आया, तो हम रोये। हम कभी मत जोड़ना। गहरे में हमारे मन में यह बात बनी ही हुई है कि आनंद से रोये नहीं। हम कभी उत्फुल्लता से रोये नहीं। हमारे आंसू दुख के कारण आते हैं। तो हम आंसुओं को छिपाते भी हैं। आंसू कभी नृत्य नहीं बने। इसलिए एक गलत संयोग आंसुओं आंसू आते हों तो रोकते भी हैं। आंसू आ न जाएं, इसका हम से जुड़ गया है। अब तो ऐसे भी लोग हैं पृथ्वी पर, जो दुख में भी |105 ___ 2010_03
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________________ जिन सत्र भागः2 न रोयेंगे-दुख में रोनेवाले लोग भी विदा हो रहे हैं। आनंद में ही है तो आनंद में रोना। और जो आदमी आनंद में रोना सीख रोनेवाले लोग तो बहुत समय पहले विदा हो गये। अब तो दुख लेता है, उसके जीवन में दुख के आंसू विदा हो जाते हैं। तुमने में रोनेवाले लोग भी विदा हो रहे हैं। अब तो उस आदमी को हम आंसुओं को राह दे दी। अब दुख में रोने की कोई जरूरत ही न कहते हैं बलशाली, जो दुख में भी रोता नहीं। रही। अब तो आंसू उस ऊंचाई पर उड़ने लगे, अब जमीन पर पत्नी मर गयी है और वह नहीं रोता। हम कहते हैं, यह है सरकने की कोई जरूरत न रही। जिसको पंख लग गये, वह विवेकशील। हम कहते हैं, यह है संयमी। नियंत्रण इसे कहते जमीन पर थोड़े ही घसिटता है। दूसरे हैं कि तुम्हारी जमीन पर हैं! यह है आदमी बुद्धिमान। अब तो हम कहते हैं कि जो रोये, घसीटने की क्षमता भी छीन लेना चाहते हैं। मैं हूं कि तुम्हें वह नामर्द! अब तो हम रोनेवाले को कहते हैं, क्या स्त्रियों की आकाश में उड़ने की क्षमता देना चाहता हूं। तरह रो रहे हो! मर्द बनो! हिम्मत जुटाओ! रोने से क्या होगा! तुम आनंद में रोओ। आंसुओं से आनंद को जोड़ो। यह तो ऐसा तो होता ही है। आदमी मरता ही है। रोओ मत, आंसू मत कीमिया है जीवन की। तब दुख भी आनंदरूप हो जाएगा। तब गमाओ। अब तो लोग दुख में भी रोना बंद कर रहे हैं। पीड़ा भी प्रेमरूप हो जाएगी। तब उदासी में भी तुम पाओगे, जिस दिन लोग दख में भी रोना बंद कर देंगे, उस दिन आदमी उसका ही सरगम बजता है। विषाद में भी उसी की गुनगुनाहट पाषाण हो जाएगा। पत्थर हो जाएगा। उस दिन आदमी के भीतर तुम्हारे हृदय में गूंजेगी। मृत्यु के क्षण में भी तुम पाओगे, जीवन फिर कोई भी रोमांच न उठेगा। फिर आदमी के भीतर कोई लहर शाश्वत है। मृत्यु के क्षण में भी तुम जीवन के आह्लाद से ही न आयेगी। फिर कोई गीत न जन्मेगा। फिर आदमी बिलकुल नाचोगे। लेकिन एक बार आंसुओं को आनंद की कला सीख पत्थर होगा। ऐसे बहुत लोग हैं जो पत्थर हो गये हैं। वे दुख में लेने दो। एक बार आंसुओं को आनंद से जुड़ जाने दो। भी नहीं रो सकते। जानता हूं, भय उठता होगा मन में कि यहां तो आंसू इतना श्रेष्ठतम आदमी तो आनंद में भी रोता है। निकृष्टतम आदमी हलका कर जाते हैं, इतना हृदय भर जाता है, घर जाकर क्या दुख में भी नहीं रोता। दुख में भी जो न रोये वह बिलकुल पत्थर होगा? तुम तो तुम ही रहोगे। मैं तुम्हें रुला रहा हूं, ऐसा मत हो गया। सुख में भी जो रोये, वह बह गया, बिलकुल तरल हो | सोचना। तुम ही रो रहे हो। क्योंकि यहां और भी हैं, जो नहीं रो गया। और एक बार तुम सुख का रोना सीख लो, एक बार तुम्हें रहे। अगर मैं रुला रहा होता, तो और भी रोते। अगर मेरे हाथ में | रोने का आनंद अनभव में आ जाए. रोने की पवित्रता, रोने की होता रुलाना, तो और भी रोते। तुम रो रहे हो, तो तुम ही रो रहे प्रार्थना की तुम्हें झलक मिल जाए, तो तुम्हारे हाथ में एक महान हो, मैं नहीं रुला रहा। मेरे बहाने तुम थोड़ा अपने को दमन से, कुंजी आ गयी। | नियंत्रण से ढीला कर लिये हो। मैं सिर्फ बहाना हूं, निमित्त हूं। / फिर तुम जहां भी मौका होगा—कभी किसी खिले फूल को अगर यह तुम्हारी समझ में आ जाए कि तुम ही रो रहे हो, मैं देखकर भी आंखें आंसुओं से भर जाएंगी। इतना अपूर्व सौंदर्य है। सिर्फ निमित्त हूं, तब तुम्हें हर जगह निमित्त मिल जाएंगे। फूल इस जगत में। कभी आकाश के तारों को देखकर भी आंखें को देखकर रो लेना। बच्चे को नाचते, खशी से भरा हआ डबडबा आएंगी। इतना रहस्यपूर्ण है यह जगत! तब तुम देखकर रो लेना। पक्षी का गीत सुनकर रो लेना। झरने की पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक सिहरन जन्मी। एक नये तरह का आवाज सुनकर रो लेना। वृक्षों के हरे पत्ते, आकाश में घिरे मेघ आवेग, एक नया आवेश, एक नयी प्रफुल्लता। और रो लेना। कितना है चारों तरफ रहस्य! किसी को भी मैं भी कहता है कि दुख में रोने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि | निमित्त बना लेना। मैं कहता हूं, रोने को तो सुख बनाया जा सकता है। मेरे कहने में, | एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए कि रोने की क्षमता तुम्हारी औरों के कहने में फर्क है। वे कहते हैं, दुख में भी मत रोना, | है, तो फिर कोई भी निमित्त काम कर देगा। ऐसे ही समझो कि क्योंकि रोने से कमजोरी प्रगट होती है। मैं तमसे कहता है, रोने आये, अपना कोट टांगना है, तो खंटी पर टांगते हैं: कोई भी को तो आनंद बनाया जा सकता है। दुख में मत रोना, जब रोना खूटी काम दे देगी। खूटी नहीं मिलेगी तो तीली पर टांग देंगे, 106 2010_03
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________________ करना है संसार, होना है धर्म MARATHI खीली पर टांग देंगे। वह भी नहीं मिलेगी तो दरवाजे के कोने पर जितना घर दुखी था, उससे ज्यादा दुखी घर में पहुंच जाओगे। टांग देंगे। उससे भी ज्यादा विषाद में उतर जाओगे। क्योंकि यह अनुभव कोट तुम्हारा है, तुम मुझ पर टांग रहे हो। अगर कोट मेरा हो, तुम्हें और भी दुखी करेगा। तो निश्चित तुम जब घर जाओगे तो कोट यहीं रह जाएगा। नहीं, वैसा देखना ही गलत है। जो घटता है, तुम्हारे भीतर आंसुओं के संबंध में ही नहीं, जीवन के समस्त अनुभवों के घटता है। निमित्त बाहर हो सकते हैं। जो घटता है, तुममें घटता संबंध में यह याद रखना कि जो घटता है, तुम्हारे अंतर्तम में है। तुम उसके मालिक हो। इसलिए तुम अगर ले जाना चाहो, घटता है। बाहर हो सकता है निमित्त मिल गया हो। जब तुम्हें तो दुनिया में कोई रोकनेवाला नहीं। हां, लेकिन डर भी मेरी तारों में सौंदर्य दिखायी पड़ता है, तब भी सौंदर्य तुम्हारे भीतर ही समझ में आता है। डर भी तुम्हारे भीतर है। तुम जानते हो कि घर घटता है। तारे तो केवल निमित्त हैं। उन्हीं तारों के नीचे दूसरे भी इस सरलता से तुम रो न सकोगे। तो जा रहे हैं अंधे, जिनको कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता। तुम | एक मित्र ने कहा, यहां तो हम नाचते हैं, बड़ा आनंद आ रहा अगर उन्हें दिखाओ भी, तो वे तुम्हारी तरफ चकित होकर देखेंगे है, घर कैसे नाचेंगे? कौन रोकता है? थोड़ी प्रतिष्ठा दांव पर कि हो क्या गया है तुम्हें ! तारे हैं, इतना आश्चर्य में होने की क्या लगानी होगी, और तो कुछ दांव पर नहीं लगाना है। कौन रोकता बात है! है? कौन किसको रोक सकता है? हां, लेकिन घर नाचोगे, तो एक मंदिर की घंटियां बज रही थीं। एक संगीतज्ञ बैठा था पत्नी समझेगी कि दिमाग खराब हुआ। बच्चे भी छिप-छिपकर मंदिर के बाहर, एक वृक्ष के तले। घंटियों का मधुर कलरव उसे देखेंगे कि पिताजी को क्या हो गया। पास-पड़ोस के लोग भी आंदोलित करने लगा। उसने अपने पास बैठे मित्र से कहा, पूछने लगेंगे कि कुछ गड़बड़ हो गयी। प्रतिष्ठा दांव पर लगेगी। सुनते हो, कैसा अपूर्व कलरव है। उस आदमी ने कहा, इस अब तुम्हारे ऊपर है, प्रतिष्ठा चुन लेना, या नाच चुन लेना। मंदिर के पुजारी के घंटनाद के कारण कुछ भी तो सुनायी नहीं अगर प्रतिष्ठा में ज्यादा रस होगा, प्रतिष्ठा चुन लोगे, नाच में पड़ता! ये घंटियां इतने जोर से बज रही हैं कि तुम क्या कह रहे | ज्यादा रस होगा, नाच चुन लोगे। हो, यह भी सुनायी नहीं पड़ता। जरा घंटियां बंद हो जाने दो, इस जगत में हर चीज कीमत पर मिलती है। जहां तुम्हें लगता फिर कहना। है कि कीमत नहीं चुका रहे, वहां भी कीमत चुकानी पड़ती है। वह संगीतज्ञ कह रहा है, सुनते हो घंटियों का कलरव नाद! जेब से न भी देनी पड़ती हो, चाहे ऊपर से दिखायी भी न पड़ती ऐसे अपूर्व स्वर, ऐसे पवित्र स्वर सुने हैं कभी! शायद संगीतज्ञ हो, लेकिन हर जगह कीमत चुकानी पड़ती है। अगर नाच बहुत धीरे-धीरे फुसफुसाया होगा कि कहीं घंटियों के नाद में कोई चाहिए, तो प्रतिष्ठा छोड़नी पड़ती है। अगर प्रतिष्ठा चाहिए, तो व्याघात न पड़ जाए। लेकिन मित्र कह रहा है कि जरा घंटियों की | नाच छोड़ना पड़ता है। बकवास बंद हो जाने दो, फिर कहना। मुझे कुछ सुनायी नहीं अगर तुम चाहते हो कि आंसू तुम्हारे जीवन में बहते ही रहें पड़ता। ये घंटियां कुछ सुनने दें तब न! झरने की तरह, और आंसुओं का अर्ध्य परमात्मा के चरणों पर मेरे पास तुम हो। तो मैं सिर्फ निमित्त हूं। मेरे निमित्त तुम्हारे चढ़ता ही रहे; अगर तुम चाहते हो आंसू ही तुम्हारे फूल होंगे प्रभु भीतर का दृश्य तुम्हें दिख जाए, बस काम हो गया। जो दिखे उसे के चरणों में, तो फिर तुम्हें कोई न रोक सकेगा। लेकिन दांव पर अपने भीतर ही जानना। तो तुम घर ले जा सकोगे। अगर तुमने लगाना होगा। मीरा ने कहा है, 'लोक-लाज खोयी।' नाची समझा मेरे कारण दिखा है, तो तुम मुझसे बंध जाओगे। फिर तुम होगी, तो लोक-लाज तो खोयी होगी! अब तो मीरा बड़ी घर न ले जा सकोगे। फिर घर तो तुम बहुत उदास जाओगे। और | प्रतिष्ठित है। अब तो मीरा का भजन गाओ, तो कोई लोक-लाज घर तो तुम वंचित अनुभव करोगे कि वे आंसू अब नहीं बहते, जो | न खोनी पड़ेगी। मीरा ने खोयी थी। अब तो मीरा का भजन भी हलका कर जाते थे। वह रहस्य अब नहीं उठता भीतर। वैसा प्रतिष्ठित हो गया। कभी तुम्हारे आंसू भी प्रतिष्ठित हो जाएंगे। संगीत अब नहीं छूता। तो तुम तो घर जाकर, आने के पहले लेकिन अभी, अभी तो प्रतिष्ठा खोनी पड़ेगी। 107 2010_03
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________________ जिनसत्र भाग:23 INHAR THER मीरा के पति ने अगर उसके लिए जहर भेजा था, तो वह | क्योंकि यहां आंसू आने से प्रतिष्ठा मिल सकती है। यहां तो इसीलिए भेजा था। कुछ मीरा से विरोध न था, विरोध था मीरा | जिसको नाच न भी आता हो, वह भी नाच सकता है। जिसके के कारण उसकी तक प्रतिष्ठा धूल में मिली जाती थी। शाही घर | भीतर उमंग न भी उठती हो, वह भी दिखला सकता है कि बड़ी की महिला, सड़कों पर नाचने लगी आवारा, तो राणा के मन को उमंग उठ रही है। क्योंकि यहां तो उमंग उठने से प्रतिष्ठा मिलती चोट पहुंचती होगी। लोग आकर कहते होंगे कि तुम्हारी पत्नी है। यहां तो पागलपन और प्रतिष्ठा में विरोध नहीं है। यहां तो राह पर नाच रही है, भीड़ लगाकर लोग खड़े होकर देखते हैं, पागलपन प्रतिष्ठा का कारण बन सकता है। वस्त्र तक उतर जाते हैं, हाथ से गिर जाता है साड़ी का पल्ला, घर जाकर हालत उलटी होगी। पागलपन और प्रतिष्ठा, दोनों ऐसा तो कभी न हआ था। चूंघट के जो कभी बाहर न निकली के बीच चुनाव करना होगा। इतना ही मैं तुमसे कह सकता हूं कि थी, सड़कों पर नचा रहे हो! कुछ करो! प्रतिष्ठा दांव पर लगी| अगर तुम्हें रस आया हो आंसुओं में, तो फिर फिक्र मत करना। होगी। मीरा को मार डालना चाहा होगा। हट ही जाए यह ! यह दो-चार दिन की बात है। लोग दो-चार दिन हंस लेते हैं। हंस कलंक मालूम पड़ा होगा। लेकिन मीरा नाचती रही। जहर भी पी लेने, देना। तुम भी उनकी हंसी में सम्मिलित हो जाना। तुम भी गयी और नाचती रही। अपने पर हंस लेना। दो-चार दिन लोग कहते हैं पागल, फिर जहर दिया या नहीं दिया, यह बात बड़ी नहीं। लेकिन बात कौन बैठा रहता है तुम्हारे लिए। सोचने की लोगों को फुर्सत कहां | इतनी खयाल रखना, जहर पी गयी और नाचती रही। जहर है! किसको समय रखा है! कौन चिंता करता है! फिर लोग स्वीकार कर लिया, नाच को त्यागना स्वीकार न किया। तो घर | स्वीकार कर लेते हैं कि हो गये पागल, बात खतम हो गयी। जाकर अगर रोना चाहोगे, तो कई तरह का जहर पीना पड़ेगा। दो-चार दिन में सब व्यवस्था बैठ जाती है। पत्नी भी मान लेती उतनी हिम्मत हो, तो जहां तुम हो वहां तुम्हारा नाच, वहां तुम्हारे है कि अब ठीक है, तम्हारे साथ ही जीना है। बच्चे भी मान लेते आंसू, वहां तुम्हारे गीत कौन छीन सकता है! लेकिन लोग छीन हैं कि ठीक है। दो-चार दिन की ही हिम्मत, जीवनभर के लिए लेते हैं, क्योंकि हम लोगों से कुछ चाहते हैं- इज्जत, प्रतिष्ठा। स्वतंत्रता का मार्ग खोल देती है। लेकिन हर स्थान पर कीमत तो स्वभावतः इज्जत और प्रतिष्ठा वे अपने ही मापदंड से देते हैं। चुकानी ही पड़ेगी। अगर तुम उनका मापदंड पूरा करो, तो इज्जत और प्रतिष्ठा देते पूर्ण होकर रुदन भी युग-गान बनता है, हैं। इसी आधार पर तो उन सबने तम्हारी गर्दन को जकड़ लिया मधुरतम गान बनता है। है। हाथों में जंजीरें डाल दी हैं। जब हृदय का एक आंसू प्रतिष्ठा चाहते हो, तो सौदा साफ है। तुम्हें समाज के अनुसार सब समर्पण-भाव लेकर चलना होगा। लोग जैसा कहते हैं वैसा ही मानना होगा। इस नैन-सीपी में उतर कर बदले में वे तुम्हें आदर देंगे। अगर तुमने उनके नियम तोड़े, | अर्चना का अर्ध्य बनता, स्वभावतः तुम्हें अनादर मिलेगा। एक क्षण पाषाण भी भगवान बनता है वही है जहर-अनादर का, अप्रतिष्ठा का, अपमान का। उसे पूर्ण होकर रुदन भी युग-गान बनता है, तुम पीने को राजी हो, तो तुम्हारी आंखें सदा ही मेघों की भांति मधुरतम गान बनता है। बरसती रहेंगी। और तुम्हारे आंसू कहीं भी गिरें, परमात्मा के तुम्हारी आंख से जिस क्षण आंसू बहे, अगर समर्पण का हो, चरणों में पहुंच जाएंगे। गीत का हो, अर्चना का हो, प्रभु के चरणों में चढ़ाने के लिए हो, भय तुम्हें उठ रहा है, तुम्हारे ही भीतर। यहां तो एक वातावरण | तो उस आंसू के क्षण में ही, अगर तुम पत्थर की प्रतिमा के सामने है। यहां तो और भी पागल हैं, तुम अकेले थोड़े ही। यहां तो भी बैठे हो-एक क्षण पाषाण भी भगवान बनता है। तो उस तुमसे बड़े पागल हैं। यहां तो हालत ऐसी उलटी है कि जिसको न आंसू के बीच, उतर आने से आंख में, सामने रखा हुआ पाषाण | भी आंसू आते हों, वह भी लाने की कोशिश कर सकता है। भी भगवान बनता है। तुम्हारे आंसू में बड़ा बल है। अगर तुमने 108 2010_03
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________________ करना हे संसार होना है धर्म बिना रोये पाषाण की मूर्ति को देखा, तो पाषाण की मूर्ति ही इसी तरह के धोखेबाज, आत्म-प्रवंचक हैं। एक ही बदलाहट रहेगी। तब तुमने तर्क से देखा, बुद्धि से देखा, विचार से देखा। संभव है और वह तुम्हारी बदलाहट है। और तुम्हारे अतिरिक्त रो कर देखा, आंख को गीली करके देखा, तब तुमने हृदय से वहां कोई भी मालिक नहीं है। तुम्ही मालिक हो। इसी को देखा; आर्द्रता से देखा, भावना से देखा। उस आंसू-भरी आंख महावीर कहते हैं व्यक्ति की परम स्वतंत्रता और परम दायित्व। को पत्थर भी पत्थर नहीं मालूम होता। उसमें प्राणों की प्रतिष्ठा शुभ हैं, तुम्हारे आंसू। संभालना। आंखों ने गीला होना जाना हो जाती है। है, अब सूखे मरुस्थल मत बनाना आंखों में। अब मरूद्यान उठा आंसू से रहित आंख पथरीली है। आंसू से रहित आंख पाषाण है, जगा है, तो संभालना। है। पाषाण से पाषाण ही दिख सकता है। आंख में जब आंस चांद निकला तो अंधेरा भी मस्कराने लगा होते हैं, तभी आंख जीवंत होती है। जब गीली होती है, तभी हंसा जो फूल तो कांटों पे नशा छाने लगा रसभरी होती है। जब गीली होती है, तभी आंख में काव्य होता वह प्यार का ही था जादू तो यह मिट्टी का सितार है, कविता होती है। जब गीली होती है, तभी आंख के तारों पर न कोई शब्द हुआ और गुनगुनाने लगा कोई संगीत छिड़ता है। उस गीली आंख से संसार को देखो, अगर आंसू उतरे हैं-कांटों पे नशा छाने लगा। अगर इस संसार न दिखायी पड़ेगा। पाषाण भगवान बनता है। संसार | नशे में तुम्हें आनंद आ रहा हो, रस निमग्नता आ रही हो, तुम भगवान बनता है। तुम्हारी आंख की ही बात है। सारी बात | डूब रहे हो, तो इस रस को बचाना, और चाहे कुछ भी छोड़ना आंख की है। आंसू-भरी आंख, आत्मा-भरी आंख है। लेकिन पड़े। क्योंकि अंततः यही रस तुम्हें परमात्मा से जोड़ेगा। इस रस ये आंस आनंद के हों, अहोभाव के हों। ये शिकायत में न गिरें, | के बिना और कोई सेतु नहीं है मनुष्य और परमात्मा के बीच। धन्यवाद के हों; आभार के हों। उसकी अनुकंपा के लिए, गहन यही रस, यही आंसू सेतु बनेंगे। यही आंसू धागा बनेंगे। तुम्हारी कृतज्ञता के हों। सुई धागा पिरोयी हो जाएगी। हृदयपूर्वक रोना। सब और बात तम्हारे ही हाथ में है। इसे जितनी बार दहराया जाए लोक-लाज छोडकर रोना। सब भय, शंकाएं छोडकर रोना। उतना ही कम है। इस संबंध में अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। जब रोओ तो बस आंख ही हो जाना। और आंख से आंसू ही इस संबंध में पुनरुक्ति नहीं हो सकती, कि तुम अपने मालिक नहीं बहें, तुम्हीं बहना। हो। तुम जैसे हो अभी, ऐसा होना तुमने चुना है। फिर दुखी होना चांद निकला तो अंधेरा भी मुस्कुराने लगा व्यर्थ है। तुमने दुख को ही चुना है। तुमने गलत को ही चुना है। और एक बार तुम्हारे भीतर चांद निकल आए, एक बार तुम्हारे -अगर तुम्हारी संवेदना मर गयी है, अगर तुम्हारी भावना मर गयी भीतर अहोभाव की पहली झलक, प्रतीति आ जाए। है, अगर तुम्हारी खोपड़ी में सिर्फ कुछ क्षुद्र विचार ही रह गये हैं। चांद निकला तो अंधेरा भी मुस्कराने लगा और जीवन कहीं भी किसी और तरंग से आंदोलित नहीं होता है, तब तुम पाओगे कि दुख भी सुख में रूपांतरित हो जाता है, तो ऐसा होना ही तुमने चुना है। किसी को दोष मत देना। अंधेरा प्रकाश बन जाता है। मृत्यु जीवन बन जाती है। शत्रु मित्र मेरे पास अगर तुम आ गये हो, तो इतनी-सी बात भी सीख लो हो जाते हैं। तो बहुत है कि जैसे तुम हो, यह तुम्हारा निर्णय है। अन्यथा होना हंसा जो फूल तो कांटों पे नशा छाने लगा है, बस तुम्हारे निर्णय को ही बदलने की बात है। कुछ और नहीं और एक बार तुम्हारे भीतर का फूल हंसने लगे, तो तुम्हारे बदलना। यह मत सोचना कि सारी दुनिया को बदलेंगे। जो भीतर के कांटों तक पर नशा छाने लगेगा। लोग दुनिया को बदलने निकलते हैं, वे वे ही लोग हैं जो स्वयं को यह बड़ी गहरी कीमिया की बात है। जो व्यक्ति आंसुओं से बदलने से बचना चाहते हैं। चालबाजी है। खद बदलने में भर जाता है-आह्लाद के, आनंद के, उसके भीतर जो घबड़ाते हैं। खुद को बदलने में कठिनाई मालूम होती है, तो कल्प-कांटे थे, वे भी नरम होने लगते हैं। उसका क्रोध नरम हो दुनिया को बदलने के सपने देखते हैं। राजनेता हैं, समाजनेता हैं, जाएगा। रोनेवाला आदमी क्रोध करने में धीरे-धीरे असमर्थ हो 109 ___ 2010_03 www.jainelibrarorg
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________________ New जिन सत्र भाग: 2 NER जाएगा। कांटों पर नशा छाने लगा। उसकी घृणा समाप्त होने फिर वीणा बजने लगेगी। लगेगी। जिसने रोना जान लिया, वह किसी को घृणा न कर हजारों लोग सारी दुनिया के कोने-कोने से आ रहे हैं। उनकी सकेगा। जिसने रोना जान लिया, उसके संदेह गिरने लगेंगे। तकलीफ तुम समझते हो! तुम तो पास हो बहुत-कोई बड़ौदा उसकी गीली आंखें उसे श्रद्धा की तरफ ले जाने लगेंगी। | में है, कोई बंबई में है, कोई बहुत दूर हुआ दिल्ली में है लेकिन कांटों पे नशा छाने लगा। दूर, बड़ी दूर से लोग आ रहे हैं, उनके साथ क्या घट रहा है? दो एक सूत्र भी तुम्हारे हाथ में आ जाए जीवन को बदलने का, तो | | महीने, तीन महीने रहने के बाद उन्हें वापस लौट जाना पड़ता है, सारा जीवन रूपांतरित होने लगता है। लेकिन वे वापस कभी नहीं लौटते। संबंध बन गया, फिर वे जहां हंसा जो फूल तो कांटों पे नशा छाने लगा होते हैं वहीं से जरा आंख बंद करने, स्वयं को थिर करने, शांत वह प्यार का ही था जादू तो यह मिट्टी का सितार | करने की बात है कि जैसे रेडियो पर तुम कोई भी स्टेशन पकड़ न कोई शब्द हुआ और गुनगुनाने लगा लेते हो-जरा-सा सुई को घुमाने की बात है, ठीक जगह लाने मेरे पास तुम हो, इस घड़ी को प्रेम की घड़ी अगर बनाया, की बात है; सुई ठीक जगह आ जाती, तत्क्षण दूरी समाप्त हो अगर मेरे प्यार को अपने भीतर प्रविष्ट होने दिया, और अगर जाती है। तो लंदन हो, कि टोकियो हो, कि वाशिंगटन हो, कोई अपने प्यार को मेरी तरफ बहने दिया, तो सितार छिड़ जाएगा, तो फर्क नहीं पड़ता। ऐसे ही हृदय का भी वाद्य है। अगर तुमने राग बजने लगेगा। शब्द भी न होगा-न कोई शब्द हुआ और ठीक मेरे पास बैठकर इतना भी पहला पाठ सीख लिया कि कैसे गुनगुनाने लगा-और हृदय गुनगुनाने लगेगा। मौन संगीत, तुम्हारे हृदय की सुई मेरी तरफ उन्मुख हो जाए, तुम कैसे मेरी नीरव संगीत, शून्य संगीत बजने लगेगा। पर हो रहा है सब तरफ उन्मुख हो जाओ, बस फिर तुम जहां भी आंख बंद कर तुम्हारे भीतर। लोगे, थोड़ा अपने को सम्हालकर शांत कर लोगे, थोड़ी तरंगें मेरे पास आकर अपने भीतर की थोड़ी-सी झलक ले लो, फिर मन की बैठ जाने दोगे, थोड़ी मेरी याद करोगे, अचानक पाओगे, उसे सम्हाले हुए घर जाना। फिर उसे सम्हाले हुए अपनी दुनिया दूरी गयी। दूरी समाप्त हुई। तुम ऐसे ही मुझे पा लोगे जैसे तुम में वापस लौटना और तुम पाओगे वहां भी थोड़ा भी सम्हालने से मुझे यहां पाये हुए हो। लेकिन सारी बात तुम पर निर्भर है। सम्हला रहता है। स्वभावतः यहां से ज्यादा वहां सम्हालना | मालिक तुम हो। होगा। लेकिन बात सम्हालने की ही है। यह मत सोचना कि मैं कुछ कर रहा हूं। तुम कुछ होने दे रहे हो। और तुम अगर होने दुसरा प्रश्न: आपके पास संन्यास लेने के लिए आया हं, दोगे, तो तुम जहां हो वहीं होता रहेगा। फिर प्रेम का संबंध कोई लेकिन कल ही घर से पत्र आया है कि अगर मैं गैरिक-वस्त्र स्थान का संबंध नहीं। तुम मेरे से दस फीट दूर बैठे हो, कि हजार पहनूंगा तो मेरे माता-पिता रस्सी ले लेंगे। मेरे माता-पिता फीट, कि हजार मील, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रेम कोई / ग्रामीण हैं और हिंदी भी नहीं जानते, उन्हें समझाना कठिन है। फासला जानता नहीं। और घृणा निकटता नहीं जानती। जिस कृपया बतायें कि मैं क्या करूं? आदमी को तुमसे घृणा है, वह तुम्हारे पास भी बैठा रहे, शरीर से शरीर भी लगा हो, तो भी कहां पास! और जिससे तुम्हें प्रेम है, माता-पिता गांधीवादी मालूम होते हैं, रस्सी ले लेंगे, फांसी वह सात समंदर पार हो, तो भी कहां दूर! प्रेम दूरी नहीं जानता, लगा लेंगे! घृणा निकटता नहीं जानती। निश्चित ही गांधीवादी लोगों से बड़ी झंझट है। हिंसक कहता __ तो अगर तुमने मेरे और तुम्हारे बीच प्रेम की धारा को जरा है, तुम्हें मार डालेंगे। गांधीवादी कहता है, हम मर जाएंगे। मगर बहने दिया, तो फिर तुम कहीं भी रहो, आंख बंद करते ही तुम दोनों की आकांक्षा एक ही है कि तुम्हें हम स्वतंत्र न होने देंगे, मेरी मौजूदगी में हो जाओगे। आंख बंद करते ही आंखें फिर जैसा हम चाहेंगे वैसा करवा कर रहेंगे। तो जो कहता है, हम | पुरनम होने लगेंगी। फिर गीली होने लगेंगी। आंख बंद करते ही तुम्हें मार डालेंगे, उससे तो बचने का उपाय भी है। लेकिन जो 2010_03
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________________ करना हससार हानाहधमः कहता है, हम मर जाएंगे, उससे कैसे बचें। बड़ी कठिनाई है। हैं हम किसी को तो ले ही जाएंगे। बिना...खाली हाथ नहीं जा लेकिन कुछ बातें खयाल में लेनी चाहिए। | सकते। कोई और जाने को राजी हो तो चलो हम किसी और को पहली बात, तुम पृथ्वी पर पहली दफे नहीं हो। और तुम्हारे ले जाएंगे। इतना मैं उन्हें समझा-बुझा सकता हूं। पिता ने कहा माता-पिता पहले माता-पिता नहीं हैं। अब तक किसी कि मेरा मरना तो मुश्किल है, और भी बेटे हैं। उनकी भी मुझे माता-पिता ने, पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में, किसी के फिक्र करनी है, कोई यह ही तो एक बेटा नहीं है। मां ने कहा कि संन्यास लेने पर रस्सी नहीं ली। कहते सभी थे। कहा सभी ने। मैं मर जाऊंगी तो मेरे पति का क्या होगा? बुढ़ापे में मैं ही तो बुद्ध के पिता ने भी। मगर रस्सी किसी ने नहीं ली। कोई इनकी सेवा कर रही हूं। ऐसा एक-एक इनकार करता चला मां-बाप आज तक मरा नहीं इस कारण कि बेटे ने संन्यास ले गया। पत्नी जो खूब छाती पीट-पीटकर रो रही थी और कहती लिया। थोड़ा सोचो तो, बेटे के मरने पर नहीं मरते मां-बाप, थी मैं मर जाऊंगी, जब यह सवाल उठा, तो उसने कहा अब संन्यास लेने पर मर जाएंगे। गांधीवादी धमकी है, घबराने की छोड़ो भी, यह तो मर ही गये, हमको छोड़ो। अब यह तो मर कोई जरूरत नहीं। दो कौड़ी की है। इसका कोई भी मूल्य नहीं गये, हम किसी तरह चला लेंगे। है। कोई कभी किसके लिए मरता है! तो फकीर ने कहा, बेटा! अब उठ, अब क्या कर रहा है? एक युवक एक सूफी फकीर के पास जाता था। रस में डूबने अब पड़ा-पड़ा क्या सोच रहा है? वह आदमी उठा और उसने लगा। मस्ती भरने लगी। भाव उठने लगा कि हो जाए वह भी कहा कि ठीक, अब यह तो मर ही गये उसने कहा, और ये लोग फकीर। पर उसने कहा, मैं हो नहीं सकता हूं, मेरी पत्नी मर तो चला ही लेंगे, मैं आया। आपके पीछे आता हूं। जाएगी! मेरे बेटों का क्या होगा? मेरे मां-बाप वृद्ध हैं, वे जी न किसी ने कभी रस्सी ली नहीं। इससे कुछ घबड़ाने की जरूरत सकेंगे, एक दिन। कई लोगों की हत्या मेरे सिर पड़ जाएगी, नहीं है। इससे कुछ परेशान होने की जरूरत नहीं है। और इस आप क्या कहते हैं! तरह की धमकियों से दब जाना बहुत खतरनाक है। इस तरह की उस फकीर ने कहा, एक काम करो। आठ-दस दिन यह मैं धमकियों से एक बार दब गये कि सदा के लिए दब गये। तो तुम्हें श्वास की साधना देता हूं, उसे कर लो। उसने कहा, इससे अगर तुम गांधीवादी हो—तुम भी, क्योंकि उन्हीं मां-बाप के बेटे क्या होगा? उसने कहा कि फिर दसवें दिन तुम सुबह ही सांस हो तो रास्ता यह है कि तुम कह दो, हम भी रस्सी ले लेंगे साधकर पड़ जाना। मर गये। फिर मैं आऊंगा, फिर सारा दृश्य अगर गेरुवा न पहनने दिया। और क्या करोगे! होने दो अपन समझ लेंगे कि तुम्हारे मरने से कौन-कौन मरता है। उसने रस्साकसी! अब और तो मैं सलाह क्या दे सकता हूं! लिख दो -कहा, यह बात तो ठीक है। पत्र कि फौरन तार से सूचना भेजें संन्यास लेने की आज्ञा, नहीं तो दसवें दिन...दस दिन उसने अभ्यास किया सांस को साधने रस्सी ले लूंगा।। का, फिर दसवें दिन सांस को रोककर पड़ रहा। रात से ही उसने अगर तुम संन्यास लेना ही चाहते हो, तो फिर तुम्हें कोई नहीं कह दिया था कि हृदय में बड़ी धड़कन हो रही है, घबड़ाहट हो रोक सकता। तुम न लेना चाहते होओ, तो यह तरकीब काफी है | रही है. ऐसा-वैसा. तो घर के लोग तैयार ही थे, कि मरता है, तुम्हें रोकने को। लेकिन ध्यान रखना, मां-बाप ने नहीं रोका क्या होता है! सुबह वह मर ही गया। छाती पीटना, तुम्हें, तुम खुद रुके। यह भी तुम खयाल रखना। अगर तुम रोना-चिल्लाना शुरू हो गया। वह फकीर आया। बंधा हुआ रुकते हो, तो तुम खुद रुके। तुम बेईमान हो, यह तो मां-बाप का सब षड्यंत्र था। उस फकीर ने आकर कहा, क्यों रोते-चिल्लाते बहाना ले लिया। यह तो तुमने एक तरकीब खोज ली कि क्या हो? उन्होंने कहा, यह बेटा मर गया, आप तो महापुरुष हैं, करें, मां-बाप मरने को तैयार हैं। इसलिए रुक रहे हैं। लेकिन चमत्कार करें। आप तो कुछ भी कर सकते हैं। आपके आशीष कल मां-बाप मरेंगे ही। मरने से कौन कब बचा है। जो होना ही से क्या नहीं हो सकता। उसने कहा मैं करूंगा, लेकिन इसकी | है, वह होगा ही। और अगर तुम्हारे संन्यास से ही मरते हों तो जगह मरने को कौन तैयार है? क्योंकि यमदूत खड़े हैं, वे कहते कम से कम एक तो उनके खाते में बात लिखी रहेगी कि धार्मिक 2010_03 www.jainelibra y org
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________________ जिन सूत्र भागः2 व्यक्ति हैं, संन्यास के कारण मरे। मत छोड़ना। ऐसा कभी हुआ नहीं है। होता नहीं है। मौत की धमकियां | इतने लोगों ने संन्यास लिया है, सभी के साथ कुछ न कुछ ऐसे देनेवाले मौत का भी उपयोग करते हैं जीवन के उपयोग के लिए ही सवाल उठते हैं। लेकिन कमजोरी सदा भीतर होती है। ही। जो तम्हारे संन्यास से घबड़ा रहे हैं, वे अपनी मौत से न कल एक मित्र पछते थे कि अब आप गेरुवे पर ही ज्यादा जोर घबड़ायेंगे। थोड़ा सोचो तो! तुम कर क्या रहे हो? सिर्फ | दे रहे हैं, पहले आप साधु...सफेद वस्त्रों में भी संन्यास दे देते गैरिक-वस्त्र पहन रहे हो। घर में रहोगे, घर का काम करोगे, थे। तो मैंने उनको कहा, मेरे गांव में, जहां मैं पैदा हुआ-पता ज्यादा बेहतर करोगे। शायद मां-बाप की सेवा नहीं, दूसरे गांवों में भी ऐसा होता होगा-जहां मैं पैदा हुआ, भी पहले से ज्यादा बेहतर करोगे। दो-चार-आठ दिन में वे वहां जब मैं छोटा था, तो बच्चों में एक पारिभाषिक शब्द था। समझ जाएंगे कि संन्यास ने तुम्हें बिगाड़ा नहीं, बनाया। और छोटे बच्चे भी और छोटे बच्चे, हमसे भी ज्यादा मेरा संन्यास वैसा तो संन्यास नहीं है कि तुम घर छोड़कर भाग छोटे-खेलने में सम्मिलित होना चाहते थे, और मां-बाप कहते जाओ; मां-बाप बूढ़े हैं उन्हें छोड़कर भाग जाओ, पत्नी को हैं कि जाओ, अपने छोटे भाई को भी ले जाओ, और छोटी बहन छोड़कर भाग जाओ; बच्चों को छोड़कर भाग जाओ, मैं कोई को भी ले जाओ, इनको भी खेलने दो। और वे सब खेल खराबभगोड़ापन तो तुम्हें सिखा नहीं रहा हूं। कर देते हैं, क्योंकि वे छोटी उम्र के-न दौड़ सकते हैं, न भाग उन्हें शायद नासमझी होगी। उनको शायद अंदाज भी न सकते हैं। तो मेरे गांव में उनके लिए एक पारिभाषिक शब्द था, होगा। संन्यास का मतलब वे समझते होंगे पुराना संन्यास। तो | उन्हें हम खेल में सम्मिलित कर लेते थे, उनको कहते हैं—'दूध तुम जब घर पहंचोगे, समझा लेना। और मैं मानता हूं गैर की दोहनिया।' बस इतना, खेलनेवाले समझ लेते हैं कि यह पढ़े-लिखे आदमियों को समझा लेना सदा आसान है। क्योंकि इसको दौड़ने दो, भागने दो, मगर यह कोई खेल का हिस्सा नहीं ज्यादा हार्दिक होते हैं। इसीलिए तो उन्होंने धमकी दी बेचारों ने। है। 'दूध की दोहनिया।' अभी दूध-पीता है। खेलने दो, कूदने नहीं तो तर्क देते कि संन्यास में कोई लाभ नहीं है, और सब दो, वह प्रसन्न होता है बहुत। वह समझता है लोग उसके पीछे नखते। सीधी बात कह दी कि मर जाएंगे। भावुक दौड़ रहे हैं-कोई-कोई थोड़ा दौड़ भी देता है-लेकिन न लोग होंगे। सीधे-साधे लोग होंगे। सरल लोग होंगे। डर गये उसको कोई पकड़ता है, न उसको कोई परेशान करता है। वह होंगे कि बेटा कहीं छूट न जाए। लेकिन जब तुम घर लौट ऐसे ही उछल-कूद करता रहता है। दूध की दोहनिया है। जाओगे गैरिक-वस्त्रों में, उनके चरण छुओगे और उनकी सेवा में तो मैंने उनसे कहा कि सफेद वस्त्रों में संन्यास देता था, वह रत हो जाओगे-जैसे तुम कभी भी न थे-क्योंकि मैं कहता है, सब 'दुध की दोहनिया' हैं। संन्यास भी लेना चाहते हैं, हिम्मत जो संन्यास तुम्हें अपनों से तोड़ दे वह संन्यास नहीं है। संन्यास भी नहीं है गैरिक-वस्त्रों की. तो चलो। खेलने दो. दौडने दो। तो वही है जो तुम्हें दूसरों से भी जोड़ दे, अपनों से तो जोड़े ही! कभी तो समझ बढ़ेगी, तब गैरिक में आ जाएंगे। चलो लेना तो संन्यास है योग, जोड़। तोड़नेवाली बात ही गलत है। चाहते हैं, आधे-आधे हैं। अब उनको मैं धीरे-धीरे कह रहा हूं तो दो-चार दिन में उनको भी समझ में आ जाएगा। गैर कि अब बहुत हो गया, 'दूध की दोहनिया' सदा थोड़े ही बने पढ़े-लिखे हैं, जल्दी समझ आ जाएगा। पढ़े-लिखे होते, तो रहोगे! अब बढ़ो, अब थोड़ी उम्र पाओ। तो माला, चलो आधा महीनों लग जाते। क्योंकि तर्क उठाते, विवाद करते, विचार सही। माला से थोड़े राजी हो गये, फिर धीरे-धीरे गैरिक वस्त्रों करते। सीधे-साधे ग्रामीण लोग हैं, जल्दी समझ में आ जाएगा। से भी राजी हो जाएंगे। तुम पर निर्भर करेगा। तुम्हारे व्यवहार पर निर्भर करेगा। संन्यस्त मुल्ला नसरुद्दीन को एक रेलवे क्रासिंग पर नौकरी मिल गयी। होकर अगर तुम और भी प्यारे हो गये-जैसे तुम कभी भी न पहले ही दिन आधा दरवाजा तो उसने खोल दिया क्रासिंग का थे-तो फिर कोई अड़चन नहीं। वे क्यों मरना चाहेंगे! फिर तो और आधा बंद रखा। एक कारवाला आदमी रुका, उसने कहा तुम संन्यास छोड़ोगे तो वे कहेंगे, रस्सी ले लेंगे, अब संन्यास कि जिंदगी हो गयी मुझे यहां से गुजरते, मगर या तो दरवाजा बंद 2010_03
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________________ ANTAR नाह ससार, हाना है धर्म होता है, या खुला होता है; यह आधा क्या मामला है! नसरुद्दीन खतरनाक थी। लाखों लोग अपने घरों को छोड़कर चले गये। ने कहा, मुझे पूरा भरोसा नहीं है कि ट्रेन आयेगी; इसलिए आधा | इसके कारण धर्म को जितना नुकसान पहुंचा, और किसी बात से खोल रखा है। नहीं पहुंचा। धर्म शब्द ही घबड़ानेवाला हो गया। धर्म में कोई जिनको पूरा भरोसा नहीं है अपने पर, उनको मैंने कहा चलो, उत्सुक हुआ, तो घर के लोग चिंतित हुए कि अब कुछ उपद्रव सफेद वस्त्रों में रहो, 'दूध की दोहनिया!' आधा तो खोला, | होगा। लाखों लोगों ने घर छोड़ दिया। उनके देखेंगे। आधा आगे देख लेंगे। लेकिन कमजोरियां भीतर हैं। | गुजरी, उनके पत्नी-बच्चे भूखे मरे, उनके बाप, मां, बुढ़ापे में अब लोग छोटी-छोटी अजीब-अजीब कमजोरियां लाते हैं। यह | कैसे जीये, किसी ने कोई इतिहास न लिखा! लिखा जाना तो ठीक है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें अच्छा बहाना दिया कि रस्सी | चाहिए। गहन दुख उससे पैदा हुआ होगा। लेकिन सदियों से ले लेंगे। एक सज्जन आये, वे कहने लगे कि और तो सब ठीक | ऐसा चला है। उसके कारण एक भय समा गया। लोग है, गैरिक-वस्त्र भी ले सकते हैं, लेकिन सर्दी में क्या होगा! | भीतर-भीतर डरने लगे। तो ऊपर-ऊपर पूजा भी करते हैं कोट वगैरह सब महंगे बनाकर रखे हैं, उनका क्या होगा! तुम | संन्यासी की, भीतर-भीतर डरते हैं। दूसरे का बेटा संन्यासी हो | सोच ही नहीं सकते आदमी कैसे बहाने खोजता है। तो सर्दी में तो | जाए, तो लोग सम्मान करने आते हैं। खुद का होने लगे, तो पहन सकते हैं ऊनी वस्त्र दूसरे रंगों के? जैसे कुछ वस्त्रों के | रस्सी लेते हैं। यह कैसी दुविधा है! महावीर भी किसी के बेटे थे पहनने से कुछ होना-जाना है! तुम बात ही चूक गये, तुम इशारा | और बुद्ध भी किसी के बेटे थे। जो पिता तुम्हारे संन्यास लेने से ही न समझे। यह तो बात समर्पण की थी। सर्दी और गर्मी का | डर रहा है, वह पिता भी बुद्ध के चरणों में सिर झुका आयेगा और यहां कोई उपाय न था। समर्पण यानी बारहमासी। इसमें कोई | कभी न सोचेगा कि बुद्ध के पिता पर क्या गुजरी! यही गुजरी। एक ऋतु में यह पहन लेंगे, दूसरी ऋतु में वैसा पहन लेंगे। इससे बहुत भयंकर गुजरी।। लोग संन्यास ले जाते हैं, माला मैं उनके गले में डालता नहीं | मैं तो संन्यास को ऐसा रूप दे रहा हं कि उससे किसी को पीडा कि वे जल्दी से उसे अंदर छिपा लेते हैं। वह है ही इसीलिए कि | न हो। क्योंकि जिस संन्यास से पीड़ा हो वह भी क्या लेने योग्य लोग तुम्हें पागल समझें। कि लोग हंसें, कि लोग मौका दें कि है! जिससे कहीं दुख पैदा हो, उससे तुम्हें सुख पैदा न हो अच्छा, तो तुम भी गये! उसे तुम जल्दी से अंदर छिपा रहे हो! सकेगा। जिसके कारण तुम दूसरों को दुख दो, उसके कारण तुम्हें तो माला रही, न रही, बराबर हो गया। छोटी-छोटी बातें लोग सुख पैदा कैसे हो सकता है? खोजते हैं। लेकिन उन सब बातों के पीछे उनका खुद का ही भय तो मैं तो कहूंगाः तुम संन्यस्त बनो, घर जाओ, जैसी तुमने है। छिपा हुआ है। अपने भय को पहचान लो, फिर तुम्हें कोई सेवा कभी न की थी वैसी मां-बाप की सेवा करो, क्योंकि फिर रोकनेवाला नहीं है। संन्यासी का दायित्व भी तुम्हारे ऊपर है। दो-चार दिन वे नाराज और किसी के कारण रुकना भी मत। अगर रुकते हो, तो होंगे, चीखेंगे-चिल्लायेंगे, लेकिन तुम अपने व्यवहार से सिद्ध अपने भय के कारण रुकना, अन्यथा तुम दूसरे पर नाराज रहोगे। कर दो कि वे बिलकुल गलत चीख-चिल्ला रहे हैं। बस, तुम समझोगे कि पिता ने, मां ने रोक दिया। यह गलत बात तुम्हारा व्यवहार ही पर्याप्त प्रमाण होगा। और यह मत सोचो कि होगी। यह उनका भाव, उन्होंने प्रगट कर दिया कि वे रस्सी ले वे पढ़े-लिखे नहीं हैं, हिंदी भी नहीं समझते हैं। न समझें, प्रेम तो लेंगे, अगर उनको लेनी होगी तो ले लेंगे। अब जो इतनी-सी समझेंगे! इतना गैर पढ़ा-लिखा कौन है, जो प्रेम न समझे ? ढाई बात पर रस्सी लेते हैं, वे ज्यादा दिन बिना रस्सी लिए रह भी नहीं आखर प्रेम के काफी हैं। तुम उनके पैर दबाओगे, यह तो ते। कोई और बहाने लेंगे। तम उन्हें अच्छी रस्सी का समझेंगे। और वे कछ भी कहें, तम शांति से सनोगे, यह तो इंतजाम कर देना, और क्या करोगे! समझेंगे! और एक बात भर तुम्हारे व्यवहार से जाहिर हो जानी लेकिन कोई कभी रस्सी लेता नहीं। दो दिन बाद सब ठीक हो | चाहिए कि तुमने जो संन्यास लिया है, वह संसार-विरोधी नहीं जाता है। घबड़ा गये होंगे, पुरानी धारणा है। और पुरानी धारणा | है। घर-विरोधी नहीं है। हम घर को मंदिर के खिलाफ नहीं लड़ा 2010_03 www.jainelibrar.org
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 रहे हैं। हमारी चेष्टा है कि घर मंदिर हो जाए। तो कितनी देर तू देख के कुछ मुश्किल क्यों हार गया हिम्मत, लगेगी उनको समझाने में? जल्दी ही वे समझ जाएंगे। और देहरी को बिना लांघे आंगन है मिला किसको? अगर तुम्हारे व्यवहार ने उन्हें प्रमाण दिया, तो दुबारा जब तुम | आओगे, वे भी संन्यास लेने आ जाएंगे। रस्सी मैं उनको दूंगा। तीसरा प्रश्न : मा योग लक्ष्मी ने कहा है कि भगवान श्री ने उनको क्यों...। माला यानी रस्सी! फांसी है। तो उनको कुछ पुतलियां, कठपुतलियां बनायी हैं खेल के लिए। तो क्या समझाना कि अगर रस्सी ही लेनी है, तो माला ले लो। जब मरने हम लोग भगवान के हाथ की कठपुतली भर हैं? की ही तैयारी हो गयी, तो फिर संन्यास में ही मर जाओ। संन्यास की मृत्यु महाजीवन का द्वार है। हो तो नहीं; हो जाओ तो तुम्हारा बड़ा सौभाग्य! मगर ध्यान रखना, अपने हृदय पर। तुम अगर स्वयं भयभीत कठपुतली होना कुछ आसान बात नहीं। कठपुतली होना इस हो और मां-बाप का सिर्फ बहाना खोज रहे हो, तो फिर अभी संसार में सबसे कठिन बात है। वही तो कृष्ण का पूरा उपदेश है संन्यास मत लेना। फिर अभी आओ, ध्यान करो, जाओ। अर्जुन को, कठपुतली हो जा। धीरे-धीरे रस को गहन होने दो। सदा अपने ही हृदय के ठीक से अगर गीता को एक शब्द में रखना हो, तो इतना ही कहा जा निरीक्षण और निदान के बाद कुछ करना। दूसरे के कारण सकता है-कठपुतली हो जा। तू सिर्फ निमित्त मात्र हो जा। आंदोलित और परेशान होने की कोई भी जरूरत नहीं है। उपकरण मात्र। करने दे उसे जो कर रहा है। खींचने दे उसे धागे, रजकण को बिना चूमे कंचन है मिला किसको? तु नाच। उसकी मर्जी जैसा नचाये। आंगन टेढ़ा हो, तो ठीक। रजकण को बिना चूमे कंचन है मिला किसको? ठीक हो, तो ठीक, न ठीक हो तो ठीक। जैसी उसकी मर्जी। तू कांटों में बिना घूमे मधुवन है मिला किसको? बीच में बाधा मत डाल। शरणागति का और अर्थ क्या है? तू देख के कुछ मुश्किल क्यों हार गया हिम्मत, समर्पण का और अर्थ क्या है? समर्पण का इतना ही अर्थ है कि देहरी को बिना लांघे आंगन है मिला किसको? अब मैं अपनी मर्जी छोड़ता। थोडी कठिनाइयां स्वाभाविक हैं। वे चनौतियां हैं। वे न होतीं, लक्ष्मी ने ठीक ही कहा है। लेकिन होना आसान नहीं है। तो बरा होता। वे हैं. तो अच्छा है। उन्हीं चनौतियों से पार होकर आमतौर से लोग सोचते हैं, कठपतली होने में क्या रखा है, तो जीवन उठता है। राह पर जो पत्थर पड़े हैं, वे ही तो सीढ़ियां बिलकुल आसान बात है। सबसे कठिन बात अहंकार का बन जाते हैं। समर्पण है! अपने को हटाकर रख देना! अपने हृदय के मंदिर में पत्थरों से घबड़ाओ मत, सीढ़ियां बनाओ। अच्छा है कि किसी और को विराजमान कर लेना! अपने अतिरिक्त! मां-बाप ने एक चुनौती दी। अब इस चुनौती को समझो। इस सिंहासन से स्वयं उतर जाना और किसी और को बैठ जाने देना चुनौती के योग्य अपने को बनाओ। इस चुनौती को स्वीकार सिंहासन पर! बहुत कठिन है, इसीलिए तो प्रेम कठिन है। करो। एक मौका मिला। एक संघर्ष हुआ। इस संघर्ष से कैसे क्योंकि प्रेम में हम किसी को अपने सिंहासन पर विराजमान करते ऊपर जाओ, इसका मार्ग खोजो। इसका कैसे अतिक्रमण हो, हैं। फिर प्रार्थना तो और भी कठिन है। क्योंकि प्रेम में तो हम इसकी विधि खोजो। इससे घबड़ाकर बैठ मत जाओ। इससे आधा-अधूरा विराजमान करते हैं, प्रार्थना में पूरा विराजमान घबड़ाकर डर मत जाओ। अन्यथा तुम सदा के लिए मुर्दा रह करते हैं। प्रार्थना में हम पूरे मिट जाते हैं। / जाओगे। जीवन चुनौतियों को स्वीकार करने से आगे बढ़ता है। कठपुतली हो जाओ, फिर कुछ करने को नहीं बचता। धन्यभागी हैं वे जिन्हें बहुत चुनौतियां मिलीं। क्योंकि उन्हीं के आखिरी करना कर लिया। कठिन से कठिन बात जीत ली। छ जीवन में निखार आया। लिया गौरीशंकर का शिखर। ऐसे हो जाओ जैसे नहीं हो। जहां रजकण को बिना चूमे कंचन है मिला किसको? ले जाये प्रभु, चलो। अपनी मर्जी अलग हटा लो। जैसे कोई नदी कांटों में बिना घूमे मधुवन है मिला किसको? में बहता हो। देखा है, जिंदा आदमी कभी-कभी डूब जाता है, 2010_03
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________________ meer करना है संसार होना है धर्म र मुर्दा कभी नहीं डूबता। मुर्दे को कभी डूबते देखा, मुर्दा कुछ क, ख, ग का शिक्षण है। जानता है, जो जिंदा को पता नहीं। कोई तरकीब। वह तरकीब गुरजिएफ का एक शिष्य था—बेनेट। उसने संस्मरण लिखा यह है कि मुर्दा 'नहीं' है। जिंदा डूब जाता है, मुर्दा ऊपर आ है कि गुरजिएफ ने मुझे कहा कि जाकर दरवाजे के पास बगीचे में जाता है जल पर। क्योंकि मुर्दा अब है ही नहीं, डूबे कौन? एक गड्ढा खोद। और जब तक मैं न रोकू, रुकना मत। खोदते ही डुबाओगे कैसे? जो है ही नहीं, उसे डुबाओगे कैसे? जाना। दुपहर हो गयी। बेनेट खोदता रहा, खोदता रहा पसीने से वास्तविक धर्म का जन्म, जब तुम मुर्दे की भांति हो जाते हो। लथपथ। सांझ हो गयी। गुरजिएफ का कोई पता नहीं। सोचने तुम कह देते हो परमात्मा को, अब मैं अपनी तरफ से नहीं लगा भूल गया, या किसी काम में उलझ गया, अब मैं बंद करूं चलता। डुबाये तू, तो हम डूबने को राजी। उबारे तू, तो हम कि नहीं, अब तो हाथ-पैर लड़खड़ाने लगे। अब तो कुदाली उठे उबरने को राजी। जो तू करवाये, उस पर हमारी कोई टिप्पणी ही न। और तब गुरजिएफ आया। सूरज ढल रहा था और उसने नहीं, कोई टीका नहीं; कोई शिकायत नहीं। हम तेरे हाथ की कहा कि ठीक है, अब इस गड्ढे को पूर दे। स्वभावतः मन में कठपुतली हैं। जब तक नचाये, नाचेंगे; जब नाच बंद कर देगा, सवाल उठेगा, यह क्या मूढ़तापूर्ण बात हुई! दिनभर गड्ढा तो रुक जाएंगे। खुदवाया, टूट गया शरीर पूरा, टूट-टूट भर गयी शरीर में और खशी जिसने खोजी वह धन लेके लौटा अब कहते हो, पूर दे। हंसी जिसने खोजी चमन लेके लौटा लेकिन बेनेट ने गड्ढे को पूरना शुरू कर दिया। बड़ा मगर प्यार को खोजने जो चला वह थका-मांदा है। मिट्टी उठा-उठाकर भरना, जब सूरज बिलकुल न तन लेके लौटा, न मन लेके लौटा ढलता था, तब वह गड्ढे को पूर कर निपट पाया; गुरजिएफ लौटा ही नहीं। डूब ही गया। सब खोकर लौटा। अपने को आया और उसने कहा कि ऐसा कर, वह सामने जो वृक्ष है, भी खोकर लौटा। समर्पण प्रेम की आखिरी ऊंचाई है। वह प्रेम उसको काटना है पूरे चांद की रात है, काटने में लग जा। दिनभर का सार-निचोड है। समर्पण का अर्थ है, मैं नहीं, त। का थका हुआ, अब वृक्ष काटना है! न भोजन मिला, न विश्राम वह न लेन-देन, हानि-लाभ नहीं है मिला! और बेनेट वृक्ष को काटने चला। वह वृक्ष पर चढ़ा काट भिन्न है अभिन्न, गुणा-भाग नहीं है रहा है, एक ऐसा क्षण आया कि हाथ से उसकी कुल्हाड़ी गिर क्या दिया है, क्या लिया है, यह तनिक न सोच गयी। इतना सुस्त हो गया है। और ऐसे एक वृक्ष की शाखा का प्यार सिर्फ प्यार है, हिसाब नहीं है सहारा लेकर नींद लग गयी। बस में ही न रहा। * लेकिन जिस मित्र ने पूछा है, उसे थोड़ी अड़चन हुई होगी। | गुरजिएफ आया, उसने नीचे से खड़े होकर बेनेट को सोये हुए कठपुतली! कठपुतली तो हम निंदा के स्वर में उपयोग करते हैं। | देखा, खुद चढ़ा, हिलाया, बेनेट ने आंख खोली और बेनेट ने जब हम किसी आदमी की निंदा करते हैं, तो कहते हैं, बस अपने संस्मरणों में लिखा है, ऐसी शुद्ध आंख मैंने कभी जानी ही कठपुतली है वह। किसी के हाथों की कठपुतली। उसका कोई | न थी कि मेरे पास हो सकती है। ऐसी निर्मल आंख! आंख अपना निजत्व थोड़े ही है। उसका कोई अपना बल थोड़े ही है। खुलते ही सारा जगत और मालूम पड़ा। जैसे मैं बिलकुल कठपुतली शब्द का तो हम उपयोग करते हैं, जब हम किसी को | नया-नया आया हूं, अभी-अभी अवतरित हुआ हूं। जैसे अभी अत्यंत दीन, दुर्बल, नपुंसक कहना चाहते हैं। बलशाली को | मेरा जन्म हुआ। इतनी ताजगी, और ऐसा निर्धार चित्त! थोड़े ही हम कठपुतली कहते हैं। फिर 'निर्बल के बल राम' का | पूछा बाद में उसने गुरजिएफ से कि ऐसा कैसे हुआ, तो उसने क्या अर्थ है? निर्बल के बल राम! इसका तो अर्थ इतना ही कहा, अगर तु एक बार भी इनकार करता, या तर्क उठाता, तो हआ कि जो निर्बल होने को राजी है, बस परमात्मा उसी का है। यह घड़ी न आती। जानता था, यह बिलकुल स्वाभाविक था, जो अपने को मिटाने को राजी है, वहीं तो जगह खाली होती है, | दिनभर गड्ढा खोदने के बाद फिर मिट्टी भरने के लिए कहना परमात्मा का प्रवेश होता है। गुरु के पास उसी परम समर्पण के बिलकुल व्यर्थ बात है, कठोर बात है, सारहीन है। कोई भी 115 2010_03 www.jainelibrarorg
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________________ जिन सत्र भाग: 2 SECRE SUNAMIRIKARAN पूछेगा, इसका मतलब क्या है? गड्डा किसलिए खुदवाया? | मत पूछो आगे क्या होता है! आगे की चिंता भी क्या! जो इस गुरजिएफ ने कहा इतना अगर तू पूछ लेता, तो यह घड़ी न | घड़ी हो रहा है, उसे भोगो। जो इस घड़ी मिल रहा है, उसे आती। फिर तूने गड्डा भी भर दिया। फिर तू बिलकुल पीओ। जो इस घड़ी तुम्हारे पास खड़ा है, उसे मत चूको। जो थका-मांदा था, फिर भी तूने इनकार न किया, मैंने कहा लकड़ी | नदी सामने बह रही है, झुको, डूबो, आगे क्या होता है। आगे काट, तो तूने यह न कहा, यह अब न हो सकेगा, कल सुबह | का खयाल आते ही, जो मौजूद है, उससे आंख बंद हो जाती है। करूंगा। यह तेरा जो सहज समर्पण था, यह तुझे उस जगह ले और चिंतन, चिंता, विचार, कल्पना, स्वप्न, चल पड़े तुम फिर। गया; जहां तक तेरी सामर्थ्य थी तूने किया, और जहां तेरी फिर चले दूर सत्य से। फिर छूटे वर्तमान से। फिर टूटे सत्ता से। समार्थ्य समाप्त हो गयी, वहीं तेरा अहंकार भी समाप्त हो गया। सत्ता से टूटने का उपाय है, आगे का विचार। वहीं तुझे गहरी तंद्रा आ गयी। ऐसी तंद्रा समाधि की पहली अगर थोड़ा-सा सुख मिल रहा है, उसे भोगो। तुम इस क्षण झलक है। ऐसी तंद्रा में पहली दफा आदमी को पता चलता है कि अगर सुखी रहे, तो अगला क्षण इससे ज्यादा सुखी होगा, यह समाधि जब पूरी होगी तो कैसी होगी। एक बूंद टपकती है अमृत निश्चित है। क्योंकि तुम सुखी होने की कला को थोड़ा और की, सागर का फिर हम अनुमान लगा सकते हैं। ज्यादा सीख चुके होओगे। अगर इस क्षण तुम आनंदित हो, तोतो मैं तुमसे कहता हूं: हो तो नहीं कठपुतली, हो जाओ तो अगला क्षण ज्यादा आनंदित होगा, यह निश्चित है। क्योंकि धन्यभागी हो! जिसने पूछा है, उसने तो बेचैनी से पूछा है। उसने अगला क्षण आयेगा कहां से? तुम्हारे भीतर से ही जन्मेगा। तो पूछा है, इसका क्या मतलब? क्या हम कठपुतली हैं? हो तुम्हारे आनंद में ही सराबोर जन्मेगा। अगला क्षण भी तुमसे ही सको, तो तुम्हारे जीवन में ऐसा द्वार खुल सकता है, जिसे तुम निकलेगा। अगर यह फूल गुलाब के पौधे पर सुंदर है, तो अहंकार के कारण कभी भी न खोल पाओगे। अहंकार के हटते अगला फूल और भी सुंदर होगा। पौधा तब तक और भी ही खुलता है। अहंकार ताले की तरह पड़ा है। अहंकार गिरा कि अनुभवी हो गया। और जी लिया थोड़ी देर। जीवन को और ताला गिरा। द्वार खुलता है। तुमने जितना अपने को जाना है, समझ गया। जीवन को और थोड़ा परिचित हो गया। उससे तुम बहुत बड़े हो। उससे तुम बहुत ज्यादा हो। तुम्हें तुम्हारा अगला क्षण तुमसे निकलेगा। तुम अगर अभी दुखी अपना कुछ भी पता नहीं है कि तुम कौन हो। जिस छोटे से टुकड़े हो, अगला क्षण और भी ज्यादा दुखी होगा। तुम अगर अभी को तुमने समझ रखा है यह मैं हूं, वह तो कुछ भी नहीं है। वह तो परेशान हो, अगले क्षण में परेशानी और बढ़ जायेगी, क्योंकि एक लहर है। सागर का तो तुम्हें स्मरण ही नहीं रहा है। जब तुम एक क्षण की परेशानी तुम और जोड़ लोगे। तुम्हारी परेशानी का इस लहर की पकड़ से छूट जाओगे, तो सागर में उतरोगे। संग्रह बड़ा होता जाएगा। इस क्षण की चिंता करो, बस उतना समर्पण है सागर में उतरने का सूत्र। काफी है। इस क्षण के पार मत जाओ। क्षण में जीओ। क्षण को जीओ। क्षण से दूसरा क्षण अपने-आप निकलता है, तुम्हें आखिरी प्रश्न H सभी प्रश्न गिर गये। उत्तर की भूख नहीं, / उसकी चिंता, उसका विचार, उसका आयोजन करने की कोई प्यास नहीं, चाह नहीं। तो फिर आगे क्या करें? सुख-प्राप्ति, | जरूरत नहीं है। और अगर तुमने आयोजन किया, तो तुम यहां महासुख-प्राप्ति की एक झलक मिल जाए तो आगे क्या होता चूक जाओगे। चूक से निकलेगा अगला क्षण, महाचूक होगी | फिर। अगले क्षण तुम फिर और अगले क्षण के लिए सोचोगे, | तुम ठहरोगे कहां? तुम घर कहां बनाओगे? आज तुम कल के आगे के खयाल से मन पैदा होता है। आगे के विचार से मन लिए सोचोगे, कल जब आयेगा तो आज की भांति आयेगा, फिर पैदा होता है। वर्तमान में जीने से मन समाप्त हो जाता है। आगे तम कल के लिए सोचोगे। कल कभी आया? का विचार उठते ही मन फिर निर्मित होने लगता है। फिर चित्त जिसे तुम आज कह रहे हो, यह भी तो कल कल था। इसके तना। फिर चित्त की यात्रा शुरू हुई। लिए तुम कल सोच रहे थे, आज यह आ गया है, अब तुम फिर 116 Jair Education International 2010_03
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________________ करना है संसार, होना है धर्म आगे के लिए सोच रहे हो। यह तो दृष्टि की बड़ी गहरी भ्रांति है। हो। तब तुम चाहते हो कोई तुम्हें लूटे। तब तुम लुटने को तरसते इससे जो सामने होता है, वह तो दिखता ही नहीं और जो नहीं हो। तब तुम चाहते हो कोई आये और साझीदार हो जाए। इतना होता है, उसका हम विचार करते रहते हैं। | तुम्हें मिल रहा है कि अकेले तुम क्या करोगे? तुम उसे किसी को पूछा है, सुख-प्राप्ति, महासुख-प्राप्ति की एक झलक मिल | बांटना चाहते हो। आनंदित क्षण में आदमी फैलता है-पात्र जाए तो आगे क्या होता है? स्वभावतः एक झलक के बाद बड़ा होता है। दुख के क्षण में सिकुड़ता है। दूसरी झलक! बड़ी झलक!! मगर तुम कृपा करो, उसका तो अगर यह क्षण तुमने आनंद में न जीया, तो अगले क्षण तुम विचार मत करो, अन्यथा यही झलक चूक जाएगी। तुम महा और भी सिकुड़ जाओगे। आनंद का अभ्यास जारी रखो। झलक का हिसाब करते रहोगे, तुम महा झलक का सपना देखते आनंद को भोगते रहो, ताकि तुम और आनंद को पाने के योग्य रहोगे, और यहां बही जाती जिंदगी, हाथ से निकला जाता | होते रहो। आनंद को जितना भोगोगे, उतना ही तुम पाओगे और समय। यह झलक चूकी, तो आगे की झलक भी उपलब्ध | ज्यादा आनंद पास आने लगा। होनेवाली नहीं। इस झलक को पी लो, आत्मसात कर लो, पचा | नृत्यकार नाचता रहता है, तो और बड़े नृत्य की संभावना जाओ। फिर और बड़ी झलक होगी। जनमती रहती है। गीतकार गुनगुनाता रहता है, तो और गीत पैदा तुम जितने योग्य होते जाते हो, उतना ही परमात्मा तुम्हें देता | होते रहते हैं। जीवन तो जीने से बढ़ता है। बैठे-बैठे खोपड़ी में चला जाता है। तुम्हारी योग्यता से ज्यादा तुम्हें कभी नहीं दिया मत खोये रहो। आओ, फैलो। बड़ा जीवन है। बड़ा अवसर जा सकता। तुम्हारी योग्यता से ज्यादा दे दिया जाए, तो तुम झेल | है। यहां एक-एक क्षण को बहुमूल्य बनाया जा सकता है। न सकोगे। तुम्हारे पात्र से ज्यादा सागर तुममें कैसे ढाला जा | एक-एक क्षण हीरा हो सकता है। सकता है! तुम्हारे पात्र की सीमा ही तुम्हारी प्राप्ति की सीमा | लेकिन अधिक लोग सोये हैं। भविष्य की योजना कर रहे हैं। रहेगी। चाहे वर्षा कितनी ही हो, तुम्हारा कटोरा जितना है, उससे | सोच रहे हैं, कल क्या होगा? कल को भूलो, आज काफी है। ज्यादा उसमें कभी न भर सकेगा। कटोरे को बड़ा होने दो। और | आज पर्याप्त है। इतना मैं तुमसे जरूर कहता हूं, यह आश्वासन उसके बड़े होने का एक ही ढंग है, इस क्षण को ऐसे गहन-भाव | देता हूं कि अगर तुमने कल को भूला तो कल आयेगा, आज से से जीओ, इस क्षण को ऐसे प्रीति-भाव से जीओ, इस क्षण को | भी सुंदर फूल लायेगा। आज से भी सुंदर गीत लायेगा। क्योंकि ऐसे नाचते-उत्सव से जीओ कि उस उत्सव में तुम फैल जाओ, | आज तुम्हारे हृदय का पात्र बड़ा हो, तो इसी पात्र में तो कल की तुम्हारा पात्र बड़ा हो जाए। | वर्षा भरेगी। खयाल किया तुमने, दुख में आदमी सिकुड़ता है। सुख में | 'सभी प्रश्न गिर गये। उत्तर की भूख नहीं, प्यास नहीं, चाह आदमी फैलता है। दुख में आदमी छोटा हो जाता है। आनंद में | नहीं। तो फिर आगे क्या करें?' करने की भी कोई जरूरत है? आदमी फूल जाता है। तुमने खयाल किया, जब तुम दुखी होते, होना काफी नहीं! यह करने का पागलपन क्यों है? / तो तुम चाहते हो न कोई मिले, न कोई बात करे, तुम | इन दो शब्दों को ठीक से समझ लो—करना और होना। द्वार-दरवाजे बंद करके बिस्तर में पड़ जाना चाहते हो। जब तुम क्या करें? क्या होना काफी नहीं है! कमरे में तुम बैठे हो, बहुत दुखी होते हो, तो तुम सोचते हो, अब तो मर ही जाएं। मर | उसी अखबार को फिर पढ़ने लगते हो जिसको सुबह से तीन दफे ही जाएं का मतलब, अब तो कब्र में छिप जाएं। पढ चके। क्योंकि करें क्या? रेडियो खोल लेते हो. वही खबरें लेकिन जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम द्वार-दरवाजे | जो अखबार में पढ़ चुके रेडियो से सुनने लगते हो। करें क्या? खोलकर बाहर आते हो सूरज की किरणों में, हवाओं के संसार | कुछ न कुछ करने में तुम अपने को व्यस्त रखते हो। क्या थोड़ी में। जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम किसी मित्र के पास जाते देर के लिए होना' उचित नहीं है? कुछ न करो। अखबार को | हो. किसी प्रियजन के पास बैठते हो, कोई गीत गनगनाते हो, | हटा दो, रेडियो बंद कर दो, शांत बैठ जाओ, कुछ देर को बस हो | कोई वीणा बजाते हो। जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम बंटते रहो। यही तो ध्यान है। 1171 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 होना ध्यान है। करना मन है। | के गुरिये सरकाते रहेंगे। कुछ करने को तो रहेगा! मन तुम्हें बैठने नहीं देता। मन कहता है, क्या कर रहे तुमने कभी खयाल नहीं किया कि माला का गुरिया कोई बैठे-बैठे? कुछ करो, उठो। होटल ही चलो। सिनेमा देख | आदमी सरकाता है, तुम सोचते हो बड़ा धार्मिक आदमी है। आओ। कोई, खोज लो कोई शिकार, उसकी खोपड़ी खाओ। तुम्हारी धारणा है। अन्यथा बड़ा मूढ़तापूर्ण कृत्य कर रहा है। कुछ करो। खाली बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? समय गंवा रहे | माला के गुरिये सरका रहा है! लेकिन उससे एक तरह की राहत हो। तो महावीर ने बारह साल खाली-खाली जंगल में खडे | मिलती है, वह जो करने का पागलपन है, व्यस्त रहता है। कछ समय गंवाया! कुछ भी किया नहीं। बारह साल में कोई भी एक तो कर रहे हैं! चलो माला की गिनती ही कर रहे हैं! ऐसी बात नहीं कि जिसको कोई अखबार छापने लायक समझे। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को नींद नहीं आती थी। उसके न कोई ‘इलेक्शन' लड़े, कोई चुनाव लड़े। बोले ही नहीं। खड़े डाक्टर ने कहा तुम ऐसा करो, भेड़ों की गिनती करो। ऐसा कई ही रहे। चुपचाप रहे। कृत्य जैसा कुछ भी बारह साल में नहीं डाक्टर लोगों को समझाते हैं-कुछ भी गिनती करने में लग घटा। महावीर के बारह साल ऐसे रिक्त हैं जैसे कि किसी और जाओ, माला फेरने जैसा काम है, कुछ भी गिनती करो; एक से के जीवन में खोजने मुश्किल हैं। उसी रिक्तता में महावीर की | सौ तक जाओ, फिर सौ से उल्टे लौटो–निन्यानबे, अट्ठानबे, महिमा है। बारह साल कुछ भी न किया। बैठे तो बैठे, खड़े तो सतानबे...ऐसा कुछ भी करते रहो। थोड़ी देर में थक मरोगे, खड़े; लेटे तो लेटे। ऐसे हो गये, जैसे व्यस्तता का जो रोग ऊब जाओगे कि यह भी क्या करना! इसी ऊब में नींद आ आदमी पर सवार होता है, वह बिलकुल समाप्त हो गया। जाएगी। ऊब में नींद बड़ी आसानी से आती है। नींद के लिए थोड़ा सोचो इस बात को, थोड़ा इसका ध्यान करो, थोड़ा ऊब बड़ी उपयोगी है। इसको भीतर रसने दो, उतरने दो, बैठने दो-बैठे हैं तो बैठे हैं; मुल्ला ने कहा, यह ठीक! उसने गिनती की। एक बज गया न कुछ करने को है, न कुछ सोचने को है। तब तुम हो। उस होने रात का, दो बज गया, तीन बज गया, लाखों करोड़ों पर पहुंच के क्षण में ही आत्मा से परिचय होता है। आत्मा यानी होना। गयी संख्या और चली जा रही है संख्या. और वह इतना उत्तेजित शुद्ध होना। मात्र होना। और तभी गहन शांति की वर्षा होती है | हो गया कि नींद कहां! फिर उसने सोचा, यह तो पूरी रात ऐसे ही और परम आनंद के वाद्य बजते हैं। अमृत के बादल बरसते हैं। बीत जाएगी, और इतनी करोड़ों भेड़ें अब इनका करना क्या? तो होने में। करना संसार है, होना धर्म है। करना बाहर है, होना | उसने सबका ऊन काटना शुरू कर दिया। अब ऊन के ढेर पर | भीतर। जैसे ही तुमने कुछ किया कि गये बाहर। ढेर लग गये। उसने कहा, अब करो क्या? कंबल बनवा मैं लोगों से कहता हूं, ध्यान कोई क्रिया नहीं है, ध्यान है डाले। फिर कोई पांच बजे के करीब जोर से चिल्लायाः अक्रिया। उनसे मैं कहता हूं, बस बैठ जाओ, कुछ न करो। वे बचाओ, बचाओ! तो पत्नी घबड़ाकर उठी, उसने कहा हुआ कहते हैं, कुछ तो बता दें, आलंबन तो चाहिए। कुछ क्या? उसने कहा, मर जाएंगे; इतने कंबल खरीदेगा कौन? / आधार-राम-राम जपें? माला फेरें? जिन लोगों ने माला व्यस्त आदमी विचारों में ही व्यस्त हो जाता है। स्वभावतः फेरना और राम नाम जपना निकाला है, उन लोगों ने कारण से ही उसकी घबड़ाहट, इतने कंबल इकट्ठे हो गये होंगे! होते ही जा | निकाला है। ये वे लोग हैं, जो बिना किये नहीं रह सकते। दुकान रहे, होते ही जा रहे, एक राशि आकाश छूने लगी होगी, तो न करेंगे, तो माला जपेंगे। अखबार न पढ़ेंगे, तो गीता पढ़ेंगे। | घबड़ाया कि मर गये, दिवाला निकल जाएगा। बिकेंगे कहां? लेकिन पढ़ेंगे! थोड़ी देर को खाली न छूटेंगे कि कुछ भी न हो; खरीदेगा कौन? इतने तो आदमी भी नहीं हैं। माला जो फेर रहा मिट जाए सारा कृत्य का संसार, खो जाए दूर, सिर्फ होना रह | है, वह भी व्यस्त हो रहा है। राम-राम, राम-राम जप रहा है, जाए। श्वास चले, हृदय धड़के, बोध रहे, बस काफी है। वे वह भी व्यस्त हो रहा है। | पूछते हैं, कुछ आलंबन दे दो। आलंबन का मतलब है, कुछ ध्यान का अर्थ है, करने से होने पर रूपांतरण। करने को करने के लिए, कुछ तो दे दो, माला ही सही! उसको ही, माला छोड़ना और होने में डूबना। 'पूछते हो आगे क्या करें?' 118 2010_03
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________________ करना है संसार, होना है धर्म / जरूरत नहीं कुछ करने की। प्रश्न सब गिर गये! पक्का भरोसा है! उत्तर की कोई भूख नहीं, चाह नहीं, पक्का भरोसा है! अगर कुछ बचे हों तो पूछ लेना, अन्यथा पीछे सतायेंगे वे। अन्यथा उठ-उठकर खड़े होंगे। जल्दी मत करो। खोज लो ठीक से। अगर सच में ही खतम हो गये, तो शुभ घड़ी आ गयी। सौभाग्य की घड़ी आ गयी। संबोधि का क्षण करीब आने लगा। अब करने की फिकर छोड़ो, अब तो जितनी देर होने में बीत जाए उतना ही शुभ है। अब तो जब मौका मिले, तब बैठे रहो। ठीक है, जब जरूरत हो, दुकान चलानी है, बच्चे पालने हैं, उतना कर दो। लेकिन वह भी ऐसे करो कि भीतर तो न करना ही बना रहे। वह भी ऐसे करो जैसे जल में कमलवत। कर लिया, चल पड़े। कर आये, हो गया। मगर इसको बोझ मत बनाओ, चिंता मत बनाओ। जब मौका मिले, जहां मौका मिले—कार में बैठे हो, बस में बैठे हो, ट्रेन में बैठे हो-खाली रहो। भीतर कुछ भी न करो। इस मंदिर को अब खाली होने दो। जन्मों-जन्मों तक भरा रखा, भरने से सिर्फ कूड़ा-कर्कट इकट्ठा हुआ। अब सिर्फ खाली रखो, उस खालीपन में ही शुद्धता है। उस खालीपन को ही महावीर ने शुद्धि कहा है। न शुभ से भरो, न अशुभ से भरो, अब तो सब हटा दो। खाली करो। शुद्ध आकाश रह जाए। निर्मल आकाश रह जाए भीतर, जिसमें कृत्य की कोई रेखा भी न हो। कोरा कागज रह जाए। यही ध्यान है। _और इसी ध्यान से रोज-रोज अमृत घना होगा। इसी ध्यान से मेज-रोज समाधि सघन होगी। इसी ध्यान से रोज-रोज परमात्मा पास, और पास आता चला जाएगा। एक दिन तुम अचानक पाओगे, तुम तो नहीं रहे, परमात्मा ही शेष रहा। आज इतना ही। 1190 2010_03