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________________ meer करना है संसार होना है धर्म र मुर्दा कभी नहीं डूबता। मुर्दे को कभी डूबते देखा, मुर्दा कुछ क, ख, ग का शिक्षण है। जानता है, जो जिंदा को पता नहीं। कोई तरकीब। वह तरकीब गुरजिएफ का एक शिष्य था—बेनेट। उसने संस्मरण लिखा यह है कि मुर्दा 'नहीं' है। जिंदा डूब जाता है, मुर्दा ऊपर आ है कि गुरजिएफ ने मुझे कहा कि जाकर दरवाजे के पास बगीचे में जाता है जल पर। क्योंकि मुर्दा अब है ही नहीं, डूबे कौन? एक गड्ढा खोद। और जब तक मैं न रोकू, रुकना मत। खोदते ही डुबाओगे कैसे? जो है ही नहीं, उसे डुबाओगे कैसे? जाना। दुपहर हो गयी। बेनेट खोदता रहा, खोदता रहा पसीने से वास्तविक धर्म का जन्म, जब तुम मुर्दे की भांति हो जाते हो। लथपथ। सांझ हो गयी। गुरजिएफ का कोई पता नहीं। सोचने तुम कह देते हो परमात्मा को, अब मैं अपनी तरफ से नहीं लगा भूल गया, या किसी काम में उलझ गया, अब मैं बंद करूं चलता। डुबाये तू, तो हम डूबने को राजी। उबारे तू, तो हम कि नहीं, अब तो हाथ-पैर लड़खड़ाने लगे। अब तो कुदाली उठे उबरने को राजी। जो तू करवाये, उस पर हमारी कोई टिप्पणी ही न। और तब गुरजिएफ आया। सूरज ढल रहा था और उसने नहीं, कोई टीका नहीं; कोई शिकायत नहीं। हम तेरे हाथ की कहा कि ठीक है, अब इस गड्ढे को पूर दे। स्वभावतः मन में कठपुतली हैं। जब तक नचाये, नाचेंगे; जब नाच बंद कर देगा, सवाल उठेगा, यह क्या मूढ़तापूर्ण बात हुई! दिनभर गड्ढा तो रुक जाएंगे। खुदवाया, टूट गया शरीर पूरा, टूट-टूट भर गयी शरीर में और खशी जिसने खोजी वह धन लेके लौटा अब कहते हो, पूर दे। हंसी जिसने खोजी चमन लेके लौटा लेकिन बेनेट ने गड्ढे को पूरना शुरू कर दिया। बड़ा मगर प्यार को खोजने जो चला वह थका-मांदा है। मिट्टी उठा-उठाकर भरना, जब सूरज बिलकुल न तन लेके लौटा, न मन लेके लौटा ढलता था, तब वह गड्ढे को पूर कर निपट पाया; गुरजिएफ लौटा ही नहीं। डूब ही गया। सब खोकर लौटा। अपने को आया और उसने कहा कि ऐसा कर, वह सामने जो वृक्ष है, भी खोकर लौटा। समर्पण प्रेम की आखिरी ऊंचाई है। वह प्रेम उसको काटना है पूरे चांद की रात है, काटने में लग जा। दिनभर का सार-निचोड है। समर्पण का अर्थ है, मैं नहीं, त। का थका हुआ, अब वृक्ष काटना है! न भोजन मिला, न विश्राम वह न लेन-देन, हानि-लाभ नहीं है मिला! और बेनेट वृक्ष को काटने चला। वह वृक्ष पर चढ़ा काट भिन्न है अभिन्न, गुणा-भाग नहीं है रहा है, एक ऐसा क्षण आया कि हाथ से उसकी कुल्हाड़ी गिर क्या दिया है, क्या लिया है, यह तनिक न सोच गयी। इतना सुस्त हो गया है। और ऐसे एक वृक्ष की शाखा का प्यार सिर्फ प्यार है, हिसाब नहीं है सहारा लेकर नींद लग गयी। बस में ही न रहा। * लेकिन जिस मित्र ने पूछा है, उसे थोड़ी अड़चन हुई होगी। | गुरजिएफ आया, उसने नीचे से खड़े होकर बेनेट को सोये हुए कठपुतली! कठपुतली तो हम निंदा के स्वर में उपयोग करते हैं। | देखा, खुद चढ़ा, हिलाया, बेनेट ने आंख खोली और बेनेट ने जब हम किसी आदमी की निंदा करते हैं, तो कहते हैं, बस अपने संस्मरणों में लिखा है, ऐसी शुद्ध आंख मैंने कभी जानी ही कठपुतली है वह। किसी के हाथों की कठपुतली। उसका कोई | न थी कि मेरे पास हो सकती है। ऐसी निर्मल आंख! आंख अपना निजत्व थोड़े ही है। उसका कोई अपना बल थोड़े ही है। खुलते ही सारा जगत और मालूम पड़ा। जैसे मैं बिलकुल कठपुतली शब्द का तो हम उपयोग करते हैं, जब हम किसी को | नया-नया आया हूं, अभी-अभी अवतरित हुआ हूं। जैसे अभी अत्यंत दीन, दुर्बल, नपुंसक कहना चाहते हैं। बलशाली को | मेरा जन्म हुआ। इतनी ताजगी, और ऐसा निर्धार चित्त! थोड़े ही हम कठपुतली कहते हैं। फिर 'निर्बल के बल राम' का | पूछा बाद में उसने गुरजिएफ से कि ऐसा कैसे हुआ, तो उसने क्या अर्थ है? निर्बल के बल राम! इसका तो अर्थ इतना ही कहा, अगर तु एक बार भी इनकार करता, या तर्क उठाता, तो हआ कि जो निर्बल होने को राजी है, बस परमात्मा उसी का है। यह घड़ी न आती। जानता था, यह बिलकुल स्वाभाविक था, जो अपने को मिटाने को राजी है, वहीं तो जगह खाली होती है, | दिनभर गड्ढा खोदने के बाद फिर मिट्टी भरने के लिए कहना परमात्मा का प्रवेश होता है। गुरु के पास उसी परम समर्पण के बिलकुल व्यर्थ बात है, कठोर बात है, सारहीन है। कोई भी 115 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrarorg
SR No.340137
Book TitleJinsutra Lecture 37 Karna hai Sansar Hone Hai Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size45 MB
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