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भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण परम्परा विवेकप्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है । उसने सदैव ही विषमतावादी और वर्गवादी
अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन मूल्यों को स्थापित जैन आगमिक व्याख्या
करने का प्रयास किया। जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का ही एक अंग है अतः उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया
और स्त्री के पुरुष की दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर नारी को साहित्य में नारी की पुरुष के समकक्ष ही माना गया है। फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म
और संस्कृति का विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरुषप्रधान परि
वेश में ही हुआ है, फलतः क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहस्थिति का मूल्यांकन गामी ब्राह्मण परम्परा के व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह
सफी और उसमें भी विभिन्न कालों में नारी की स्थिति में परिवर्तन आये हैं।
प्रस्तुत निबन्ध का विषय आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी की स्थिति का मूल्यांकन करना है, किन्तु इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध संदर्भो की प्रकृति को समझ लेना आवश्यक है। प्रथम तो यह कि आगमिक व्याख्या साहित्य मुख्यतः आगम ग्रन्थों पर प्राकृत एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाएँ हैं, अतः उनमें अपने युग के सन्दर्भो के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी
मिल गये हैं । इसके अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे प्रो. सागरमल जैन
उल्लेख भी मिलते हैं, जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न [अनेक ग्रन्यों के लेखक प्रसिद्ध विद्वानी व्याख्याकारों के समकालीन समाज में, खोजा जा सकता है किन्त
वे आगमिक व्याख्याकारों की मनःप्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा निदेशक:
सकते हैं। उदाहरण के रूप में मरुदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी तथा पार्श्व
नाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों से सम्बन्धित विस्तृत विवरण पार्श्वनाथ विद्याश्रम
जो आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध है, वे या तो आगमों में शोधसंस्थान, वाराणसी अनुपलब्ध हैं या मात्र संकेत रूप में उपलब्ध हैं, किन्तु हम यह मान
सकते हैं कि ये आगमिक व्याख्याकारों की मनःप्रसूत कल्पना है । वस्तुतः वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से या अनुश्र ति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं । अतः आगमिक व्याख्याओं के आधार ' पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह नहीं कह सकते कि वे केवल
आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल खण्डों में विभाजित किया जा सकता है
( ११६ )
_Jain खण्ड/५/१
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१२० जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
१. पूर्व युग-ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक । २. आगम युग-ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की तीसरी शताब्दी तक । ३. प्राकृत आगमिक ध्याख्या युग-ईसा की चौथी शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक । ४. संस्कृत आगमिक व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य युग-आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक ।
इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवर्ती आगमों के रूप में मान्य ग्रन्थों तथा प्राकृत एव संस्कृत आगमिक व्याख्याओं का काल लगभग एक सहस्राब्दी अर्थात् ईसा की तीसरी व चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक व्याप्त है। पुनः इस कालविशेष में भी सभी जैन विचारकों का नारी के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण नहीं है । प्रथम तो उत्तर और दक्षिण भारत की सामाजिक परिस्थिति की भिन्नता के कारण और दूसरे श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के भेद के कारण इस युग के जैन आचार्यों का दृष्टिकोण नारी के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न रहा है। जहाँ उत्तर भारत के यापनीय एवं श्वेताम्बर जैन आचार्य नारी के सम्बन्ध में अपेक्षाकृत उदार दृष्टिकोण रखते हैं, वही दक्षिण भारत के दिगम्बर जैन आचार्यों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अनुदार प्रतीत होता है। इसके लिए अचेलता का आग्रह
और देशकाल-गत परिस्थितियाँ दोनों ही उत्तरदायी रही हैं, अतः आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर नारी की स्थिति का चित्रण करते समय हमें बहुत ही सावधानीपू क तथ्यों का विश्लेषण करना होगा। पुनः आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक कथा साहित्य दोनों में ही नारी के सम्बन्ध में जो सन्दर्भ उपलब्ध हैं, वे सब जैन आचार्यों द्वारा अनुशंसित थे, यह मान लेना भी एक भ्रान्त धारणा होगी। जैन आचार्यों ने अनेक ऐसे तथ्यों को भी प्रस्तुत किया है, जो यद्यपि उस युग में प्रचलित रहे हैं, किन्तु जो जैन धर्म की धार्मिक मान्यताओं के विरोधी हैं। उदाहरण के रूप में बहु-विवाह प्रथा, वेश्यावृत्ति, सतीप्रथा, स्त्री के द्वारा गोमांस भक्षण एवं मद्यपान आदि के उल्लेख हमें आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं; किन्तु वे जैन धर्मसम्मत थे, यह नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः इस साहित्य में लौकिक एवं धार्मिक दोनों ही प्रकार के सन्दर्भ हैं, जिन्हें अलग-अलग रूपों में समझना आवश्यक है।
अतः नारी के सम्बन्ध में जो विवरण हमें आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं, उन्हें विभिन्न काल खण्डों में विभाजित करके और उनके परम्परासम्मत और लौकिक स्वरूप का विश्लेषण करके ही विचार करना होगा तथापि उनके गम्भीर विश्लेषण से हमें जैनधर्म में और भारतीय समाज में विभिन्न कालों में नारी की क्या स्थिति थी, इसका एक ऐतिहासिक परिचय प्राप्त हो जाता है । नारी लक्षण
नारी की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति की चर्चा के पूर्व हमें यह भी विचार कर लेना है कि आगमिक व्याख्याकारों की दृष्टि में नारी शब्द का तात्पर्य क्या रहा है। सर्वप्रथम सूत्रकृतांग नियुक्ति और चूणि में नारी शब्द के तात्पर्य को स्पष्ट किया गया है । स्त्री को द्रव्यस्त्री और भावस्त्री ऐसे दो विभागों में वर्गीकृत किया गया है। द्रव्य-स्त्री से जैनाचार्यों का तात्पर्य स्त्री की शारीरिक संरचना (शारीरिक चिन्ह) से है, जबकि भाव-स्त्री का तात्पर्य नारी स्वभाव (वेद) से है। आगम और आगमिक व्याख्याओं दोनों में ही स्त्री-पुरुष के वर्गीकरण का आधार लिंग और वेद माने जाते रहे हैं। जैन परम्परा में स्त्री की शारीरिक संरचना को लिंग कहा गया है। रोमरहित मुख, स्तन, योनि,
१. दव्वाभिलावचिन्धे वेए भावे य इत्थिणिक्खेवो ।
अहिलावे जह सिद्धी भावे वेयम्मि उवउत्तो।।
--सूत्रकृतांग नियुक्ति ५४.
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१२१ गर्भाशय आदि से युक्त शारीरिक संरचना स्त्रीलिंग है, यही द्रव्य-स्त्री है; जबकि पुरुष के साथ सहवासकी कामना को अर्थात् स्त्रियोचित काम-वासना को वेद कहा गया है। वही वासना की वृत्ति भाव-स्त्री है।। जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की कामवासना के स्वरूप को चित्रित करते हुए उसे उपलअग्निवत बताया गया है । जिस प्रकार उपल-अग्नि के प्रज्वलित होने में समय लगता है किन्तु प्रज्वलित होने पर चालना करने पर बढ़ती जाती है, अधिक काल तक स्थायी रहती है उसी प्रकार स्त्री की कामवासना जागृत होने में समय लगता है, किन्तु जागृत होने पर चालना करने से बढ़ती जाती है और अधिक स्थायी होती है। जैनाचार्यों का यह कथन एक मनोवैज्ञानिक सत्य लिये हुए है। यद्यपि लिंग और वेद अर्थात् शारीरिक संरचना और तत्सम्बन्धी कामवासना सहगामी माने गये हैं ; फिर भी सामान्यतया जहाँ लिंग शरीर पर्यन्त रहता है, वहाँ वेद (कामवासना) आध्यात्मिक विकास की एक विशेप अवस्था में समाप्त हो जाता है। जैन कर्म सिद्धान्त में लिंग का कारण नाम कर्म (शारीरिक संरचना के कारक तत्व) और वेद का कारण मोहनीय कर्म (मनोवृत्तियाँ) माना गया है । इस प्रकार लिंग, शारीरिक संरचना का और वेद मनोवैज्ञानिक स्वभाव और वासना का सूचक है तथा शारीरिक परिवर्तन से लिंग में और मनोभावों के परिवर्तन से वेद में परिवर्तन सम्भव है। निशीथिचूणि के अनुसार लिंग परिवर्तन से चेद (वासना) में भी परिवर्तन हो जाता है (गाथा ३५६) । इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण कथा द्रष्टव्य है। जिसमें शारीरिक संरचना
और स्वभाव की दृष्टि से स्त्रीत्व हो, उसे ही स्त्री कहा जाता है । सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्त्रीत्व के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रजनन, कर्म, भोग, गुण और भाव ये दस निक्षेप या आधार माने गये हैं, अर्थात् किसी वस्तु के स्त्री कहे जाने के लिए उसे निम्न एक या एकाधिक लक्षणों से युक्त होना आवश्यक है, यथा
(१) स्त्रीवाचक नाम से युक्त होना जैसे-रमा, श्यामा आदि । (२) स्त्री रूप में स्थापित होना जैसे शीतला आदि की स्त्री-आकृति से युक्त या रहित प्रतिमा । (३) द्रव्य-अर्थात् शारीरिक संरचना का स्त्री रूप होना।
(४) क्षेत्र---देश-विशेष की परम्परानुसार स्त्री की वेशभूषा से युक्त होने पर उस देश में उसे स्त्रीरूप में समझा जाता है।
(५) काल-जिसने भूत, भविष्य या वर्तमान में से किसी भी काल में स्त्री-पर्याय धारण की हो, उसे काल की अपेक्षा से स्त्री कहा जाता है ।
१. अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० ६२३ २. यद्वशात स्त्रियाः पुरुषं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तव गान् मधुरद्र व्यं प्रति स फुफुमादाहसमः, यथा यथा चाते तथा तथा ज्वलति बृहति च । एवम् बलाऽपि यथा यथा संस्पृश्यते पुरुषण तथा तथा अस्या अधिकतरोऽभिलाषो जायते, भुज्यमानायां तु छन्नकरीषदाहतुल्योऽभिलाषोः, मन्द इत्यर्थः इति स्त्रीवेदोदयः ।
-वही, भाग ६, पृष्ठ १४३० ३. संमत्त तिमसंधयण तियगच्छे भो बि सत्तरि अपुव्वे ।
हासाइछक्कअंतो छसट्ठि अनियट्टिवेयतिगं ।। ४ देखे--कर्मप्रकृतियों का विवरण ।
---कर्मग्रन्थ, भाग २, गाथा १८ खण्ड ५/१६
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
(६) प्रजनन क्षमता से युक्त होना । (७) स्त्रियोचित्त कार्य करना । (८) स्त्री रूप में भोगी जाने में समर्थ होना। (९) स्त्रियोचित्त गुण होना और
(१०) स्त्री सम्बन्धी वासना का होना ।। जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी चरित्र का विकृत पक्ष
जैनाचार्यों ने नारी-चरित्र का गम्भीर विश्लेषण किया । नारी-स्वभाव का चित्रण करते हुए तन्दुल वैचारिक प्रकरण में नारी की स्वभावगत निम्न ६४ विशेषतायें वर्णित हैं
नारी स्वभाव से विषम, मधुर वचन की वल्लरी, कपट-प्रम रूपी पर्वत, सहस्रों अपराधों का घर, शोक की उद्गमस्थली, पुरुष के बल के विनाश का कारण, पुरुषों की वधस्थली अर्थात् उनकी हत्या का कारण, लज्जा-नाशिका, अशिष्टता का पुन्ज, कपट का घर, शत्रुता की खान, शोक की ढेर, मर्यादा की नाशिका, कामराग की आश्रय स्थली, दुराचरणों का आवास, सम्मोह की जननी, ज्ञान का स्खलन करने वाली, शील को विचलित करने वाली, धर्मयाग में बाधा रूप, मोक्षपथ साधकों की शत्र , ब्रह्मचर्यादि आचार मार्ग का अनुसरण करने वालों के लिए दूषण रूप, कामी की वाटिका, मोक्षपथ की अर्गला, दरिद्रता का घर, विषधर सर्प की भाँति कुपित होने वाली, मदमत्त हाथी की भांति कामविह्वला, व्याघ्री की भांति दुष्ट हृदय वाली, ढंके हुए कूप की भाँति अप्रकाशित हृदय वाली, मायावी की भाँति मधुर वचन बोलकर स्वपाश में आवद्ध करने वाली, आचार्य की वाणी के समान अनेक पुरुषों द्वारा एक साथ ग्राह्य, शुष्क कण्डे की अग्नि की भांति पुरुषों के अन्तःकरण में ज्वाला प्रज्वलित करने वाली, विषम पर्वतमार्ग की भांति असमतल अन्तःकरण वाली, अन्तर्दूषित घाव की भाँति दुर्गन्धित हृदय वाली, कृष्ण सर्प की तरह अविश्वसनीय, संहार (भैरव) के समान मायावी, सन्ध्या की लालिमा की भांति क्षणिक प्रम वाली, समुद्र की लहरों की भांति चंचल स्वभाव वाली, मछलियों की भांति दुष्परिवर्तनीय स्वभाव वाली, बन्दरों के समान चपल स्वभाव वाली, मृत्यु की भाँति निर्विरोष, काल के समान दयाहीन, वरुण के समान पाशयुक्त अर्थात् पुरुषों को कामपाश में बांधने वाली, जल के समान अधोगामिनी, कृपण के समान रिक्त हस्त वाली, नरक के समान दारुणत्रासदायिका, गर्दभ के सदृश दृष्टाचार वाली, कुलक्षणयुक्त घोड़े के समान लज्जारहित व्यवहार वाली, बाल स्वभाव के समान चंचल अनुराग वाली, अन्धकारवत् दुष्प्रविश्य, विष-बेल की भाँति संसर्ग वजित, भयंकर मकर आदि से युक्त वापी के समान दुष्प्रवेश्य, साधुजनों की प्रशंसा के अयोग्य, विष-वृक्ष के फल की तरह प्रारम्भ में मधुर किन्तु दारुण अन्त वाली, खाली मुट्ठी से जिस प्रकार बालकों को लुभाया जाता है उसी प्रकार पुरुषों को लुभाने वाली, जिस प्रकार एक पक्षी के द्वारा मांस खण्ड ग्रहण करने पर अन्य पक्षी उसे विविध कष्ट देते हैं उसी प्रकार दारुण कष्ट स्त्री को ग्रहण करने पर पुरुषों को होते हैं, प्रदीप्त तणराशि की भाँति ज्वलन स्वभाव को न छोड़ने वाली, घोर पाप के समान दुर्लघ्य, कूट कार्षांपण की भाँति अकालचारिणी, तीव्र
१. णामं ठवणादविए खेत्ते काले य पन्जणणकम्मे । भोगे गुणे य भावे दस ए ए इत्थीणिक्खेवो ।।
--सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ५४ २. तन्दुलवैचारिक सावचूरि सूत्र १६. (देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार, ग्रन्थमाला)।
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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क्रोध की भांति दुर्रक्ष्य, दारुण दुख दायिका, घृणा की पात्र, दुष्टोपचारा, चपला, अविश्वसनीया, एक पुरुष से बंधकर न रहने वाली, यौवनावस्था में कष्ट से रक्षणीय, बाल्यावस्था में दुःख से पाल्य, उद्वेगशीला, कर्कशा, दारुण वैर क। कारण, रूप स्वभाव गर्विता, भुजंग के समान कुटिल गति बाली, दुष्ट घोड़े के पदचिह्न से युक्त महाजंगल की भाँति दुर्गम्य, कुल, स्वजन और मित्रों से विग्रह कराने वाली, परदोष प्रकाशिका, कृतघ्ना, वीर्यनाशिका, शूकरवत् जिस प्रकार शूकर खाद्य-पदार्थ को एकान्त मे ले जाकर खाता है उसी प्रकार भोग हेतु पुरुष को एकान्त में ले जाने वाली, अस्थिर स्वभाव वाली, जिस प्रकार अग्निपात्र का मुख आरम्भ में रक्त हो जाता है किन्तु अन्ततोगत्वा काला हो जाता है उसी प्रकार नारी आरम्भ में राग उत्पन्न करती है परन्तु अन्ततः उससे विरक्ति ही उत्पन्न होती है, पुरुषों के मैत्री-विनाशादि की जड़, बिना रस्सी की पाग, काष्ठरहित वन की भांति पाप करके पश्चात्ताप में जलती नहीं है । कुत्सित कार्य में सदैव तत्पर, अधार्मिक कृत्यों की वैतरणी, असाध्य व्याधि, वियोग पर तीव्र दुःखी न होने वाली, रोगरहित उपसर्ग या पीड़ा, रतिमान के लिए मनोभ्रम कारण, शरीर-व्यापी दाह का कारण, बिना बादल बिजली के समान, बिना जल के प्रवाहमान और समुद्रवेग की भाँति नियन्त्रण से परे कही गई है । तन्दुल वैचारिक की वृत्ति में इनमें से अधिकांश गुणों के सम्बन्ध में एक-एक कथा भी दी गई।1
उत्तराध्ययनचूणि में भी स्त्री को समुद्र की तरंग के समान चपल स्वभाव वाली, सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग कर देने वालो कहा गया है। आवश्यक भाष्य और निशीथचूर्णी में भी नारी के चपल स्वभाव और शिथिल चरित्र का उल्लेख हुआ है। निशीथचूणि में यह भी कहा गया है कि स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सकती हैं और पुरुषों को विचलित करने में सक्षम होती हैं । आचारांगचूणि एवं वृत्ति में उसे शीतपरिषह कहा गया है अर्थात् अनुकूल लगते हुए भी त्रासदायी होती है।
सूत्रकृतांग में कहा गया है कि स्त्रियाँ पापकर्म नहीं करने का वचन देकर भी पुनः अपकार्य में लग जाती हैं। इसकी टीका में टीकाकार ने कामशास्त्र का उदाहरण देकर कहा है कि जैसे दर्पण पर पड़ी हुई छाया दुर्ग्राह्य होती है वैसे ही स्त्रियों के हृदय दुग्राह्य होते हैं । पर्वत के दुर्गम मार्ग के समान १. तन्दुल वैचारिक सावरि सूत्र १९, (देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला) २. समुद्रवीचीचपलस्वभावा: संध्याभ्रमरेखा व मुहूर्तरागाः । __ स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं निपीडितालक्तकवद् त्यजन्ति ।
उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ६५, ऋषभदेवजी, केशरीमल संस्था रत्नपुर (रतलाम) १६३३ ई० ३. पग इत्ति सभावो। स्वभावेन च इत्थी अल्पसत्वा भवति । -निशीथचूणि, भाग ३, पृ० ५८४, आगरा
.. १६५७-५८ । ४. सा य अप्पसत्तत्तणओ जेण वातेण वत्थमादिणा | अप्पेणावि लोभिज्जति, दाणलोभिया य अकज्ज पि करोति ।।
-वही, भाग ३, पृ० ५८४ । ५. आचरांगचूणि पृ० ३१५ ६. एवं पि ता वदित्तावि अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ।
-सूत्रकृतांग, १/४/२३ ७. दुग्रहियं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतम्, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते ।
-सूत्रकृतांग विवरण १/४/२३, प्र० सेठ छगनलाल, मूथा बंगलौर १९३०
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
ही उनके हृदय का भाव सहसा ज्ञात नहीं होता। सूत्रकृतांग वृत्ति में नारी चरित्र के विषय में कहा गया है अच्छी तरह जीती हुई, प्रसन्न की हुई और अच्छी तरह परिचित अटवी और स्त्री का विश्वास नहीं करना चाहिए । क्या इस समस्त जीवलोक में कोई अंगुलि उठाकर कह सकता है, जिसने स्त्री की कामना करके दुःख न पाया हो ? उसके स्वभाव के सम्बन्ध में यही कहा गया कि स्त्रियाँ मन से कुछ
और सोचती है, वचन से कुछ और कहती हैं तथा कर्म से कुछ और करती हैं। स्त्रियों का पुरुषों के प्रति व्यवहार
स्त्रियाँ पुरुषों को अपने जाल में फंसाकर फिर किस प्रकार उसकी दुर्गति करती हैं उसका सुन्दर एवं सजीव चित्रण सूत्रकृतांग और उसकी वृत्ति में उपलब्ध होता है । उस चित्रण का संक्षिप्त रूप निम्न है
जब वे पुरुष पर अपना अधिकार जमा लेती हैं तो फिर उसके साथ आदेश की भाषा में बात करती है । वे पुरुष से बाजार जाकर अच्छे-अच्छे फल, छूरी, भोजन बनाने हेतु ईंधन तथा प्रकाश करने हेतु तेल लाने को कहती है । फिर पास बुलाकर महावर आदि से पैर रंगने और शरीर में दर्द होने पर उसे मलने को कहती हैं। फिर आदेश देती है कि मेरे कपड़े जीर्ण हो गये हैं, नये कपड़े लाओ, तथा भोजन-पेय पदार्थादि लाओ। वह अनुरक्त पुरुष की दुर्बलता जानकर अपने लिए आभूषण, विशेष प्रकार के पुष्प, बाँसुरी तथा चिरयुवा बने रहने के लिए पौष्टिक औषधि की गोली माँगती हैं । तो कभी अगरु, तगर आदि सुगन्धित द्रव्य, अपनी प्रसाधन सामग्री रखने हेतु पेटी, ओष्ट रंगने हेतु चूर्ण, छाता, जूता आदि माँगती है । वह अपने वस्त्रों को रंगवाने का आदेश देती हैं तथा नाक के केशों को उखाड़ने के लिए चिमटी, केशों के लिए कंघी, मुख शुद्धि हेतु दातौन आदि लाने को कहती है । पुनः वह अपने प्रियतम से पान-सुपारी, सुई-धागा, मूत्रविसर्जन पात्र, सूप, ऊखल आदि तथा देव-पूजा हेतु ताम्रपात्र और मद्यपान हेतु मद्य-पात्र माँगती है । कभी वह अपने बच्चों के खेलने हेतु मिट्टी की गुड़िया, बाजा, झुनझना, गेंद आदि मंगवाती है और गर्भवती होने पर दोहद-पूर्ति के लिए विभिन्न वस्तुएँ लाने का आदेश देती है। कभी वह उसे वस्त्र धोने का आदेश देती है, कभी रोते हुए बालक को चुप करने के लिए कहती है।
इस प्रकार कामिनियाँ दास की तरह वशवर्ती पुरुषों पर अपनी आज्ञा चलाती हैं। वह उनसे गधे के समान काम करवाती हैं और काम न करने पर झिड़कती हैं, आँखें दिखाती हैं तो कभी झूठी प्रशंसा कर उससे अपना काम निकालती हैं।
नारी-स्वभाव का यह चित्रण वस्तुतः उसके घृणित पक्ष का ही चित्रण करता है किन्तु इसकी आनुभविक सत्यता से इन्कार भी नहीं किया जा सकता। किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि नारी के प्रति जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अनुदार ही था, उचित नहीं होगा । जैन धर्म मूलतः एक निवृत्तिपरक
१. सुट्ठवि जियासु सुट्ठवि पियासु सुठ्ठवि लद्धपरासु ।
अडईसु महिलियासु य वीसंभो नेव कायव्वो । उन्भेउ अंगुली सो पुरिसो सयलंमि जीवलोयम्मि ।
कामं तएण नारी जेण न पत्ताइ दुक्खाई ॥ २. वही, १/४/२
-वही, विवरण १/४/२३
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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धर्म रहा है, निवृत्तिपरक होने के कारण उसमें संन्यास और वैराग्य पर विशेष बल दिया गया है । संन्यास
और वैराग्य के लिए यह आवश्यक था कि पुरुष के सामने नारी का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जाय जिसके फलस्वरूप उसमें विरक्ति का भाव प्रस्फुटित हो । यही कारण था कि जैनाचार्यों ने आगमों और आगमिक व्याख्याओं और इतर साहित्य में कठोर शब्दों में नारी-चरित्र की निन्दा की किन्तु इसका यह अर्थ नहीं रहा कि जैनाचार्यों के सामने नारी-चरित्र का उज्ज्वलतम पक्ष नहीं रहा है। सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो शील-प्रध्वंसक चरित्रगत दोष नारी में पाये जाते हैं वे पुरुषों में भी पाये जाते हैं इसलिए वैराग्य मार्ग में प्रवर्तित स्त्रियों को भी पुरुषों से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार स्त्रियों से पुरुषों का बचने का उपदेश दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने नारी-चरित्र का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह मात्र पुरुषों में वैराग्य भावना जागृत करने के लिए ही है । भगवती आराधना में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया है-स्त्रियों में जो दोष होते हैं वे दोष नीच पुरुषों में भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त होते हैं उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष होते हैं । जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले पुरुषों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही अपने शील की रक्षा करने वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं। सब जीव मोह के उदय से कुशील से मलिन होते हैं
और वह मोह का उदय स्त्री-पुरुषों में समान रूप से होता है । अतः ऊपर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया है वह स्त्री सामान्य की दृष्टि से किया है । शीलवती स्त्रियों में ऊपर कहे दोष कैसे हो सकते हैं ? जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी-चरित्र का उज्ज्वल पक्ष
स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है, जो गुणसहित स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोक में फैला हुआ है तथा जो मनुष्य लोक में देवता समान हैं और देवों से पूजनीय हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और श्रेष्ठ गणधरों को जन्म देने वाली महिलायें श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा पूजनीय होती हैं । कितनी ही महिलाएँ एक-पतिव्रत और कौमार ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं, कितनी ही जीवनपर्यन्त वैधव्य का तीव्र दुःख भोगती हैं । ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवों के द्वारा सम्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शील के प्रभाव से शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ थीं। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदी के जल प्रवाह में भी नहीं डूब सकी और प्रज्वलित घोर आग में भी नहीं जल सकी तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके । कितनी ही स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों में श्रेष्ठ चरमशरीरी पुरुषों को जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं। अन्तकृत्दशा और उसकी वृत्ति में कृष्ण द्वारा प्रतिदिन अपनी माताओं के पाद-वन्दन हेतु जाने का उल्लेख है। आवश्यकचूणि और कल्पसूत्र टीका में उल्लेख है कि महावीर ने अपनी माता को दुःख न हो, इस हेतु उनके जीवित रहते संसार त्याग नहीं करने का निर्णय
१. एए चेव य दोसा पुरिससमाये वि इत्थियाणं पि ।
-सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा ६१ २. भगवती आराधना गाथा ६८७-८८ व ९६५-६६ ३. वही गाथा, ६८६-६४ ४. तए णं से कण्हे दासुदेवे ण्हाए जाव विभूसिए देवईए देवीए पायवंदाये हव्वमागच्छइ।
-~अन्तकृदशा सूत्र १८
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
अपने गर्भकाल में ले लिया था। इस प्रकार नारी वासुदेव और तीर्थंकर द्वारा भी पूज्य मानी गयी है । महानिशीथ में कहा गया है कि जो स्त्री भय, लोकलज्जा, कुलांकुश एवं धर्मश्रद्धा के कारण कामाग्नि के वशीभूत नहीं होती है, वह धन्य है, पुण्य है, वंदनीय है, दर्शनीय है, वह लक्षणों से युक्त है, वह सर्वकल्याणकारक है, वह सर्वोत्तम मंगल है, (अधिक क्या) वह (तो साक्षात्) श्रु त देवता है, सरस्वती है, अच्युता है परम पवित्र सिद्धि, मुक्ति, शाश्वत शिवगति है । (महानिशथि २/ सूत्र २३ पृ० ३६)
जैनधर्म में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता है और श्वेताम्बर परम्परा में मल्ली कुमारी को तीर्थकर माना गया है । इसिमण्डलत्थू (ऋषिमण्डल स्तवन) में बाह्मी, सुन्दरी, चन्दना आदि को वन्दनीय माना गया है। तीर्थंकरों की अधिष्ठायक देवियों के रूप में चक्र श्वरी, अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि देवियों को पूजनीय माना गया है और उनकी स्तुति में परवर्ती काल में अनेक स्तोत्र रचे गये हैं । यद्यपि यह स्पष्ट है कि जैनधर्म में यह देवी-पूजा की पद्धति लगभग गुप्त काल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से आई है । उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक की चूणि में राजीमति द्वारा मुनि रथनेमि को तथा आवश्यक चुणि में ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा मुनि बाहुबली को प्रतिबोधित करने के उल्लेख हैं' न केवल भिक्षुणियाँ अपितु गृहस्थ उपासिकाएँ भी पुरुष को सन्मार्ग पर लाने हेतु प्रतिबोधित करती थीं। उत्तराध्ययन में रानी कमलावती राजा इषुकार को सन्मार्ग दिखाती है, इसी प्रकार उपासिका जयन्ती भरी सभा में महावीर से प्रश्नोत्तर करती है तो कोशावेश्या अपने आवास में स्थित मुनि को सन्मार्ग
१. नो खलु मे कप्पइ अम्मापितीहि जीवंतेहि मुण्डे भवित्ता अगारवासाओ अणगारियं पव्वइए।
-कल्पसूत्र ६१ ( एवं ) गम्भत्थो चेव अभिग्गहे गेण्हति णाहं समणे होक्खामि जाव एताणि एत्थ जीवं तित्ति ।
-आवश्यकचूणि प्रथम भाग, पृ० २४२, प्र० ऋषभदेव जी केशरीमल श्वेताम्बर सं० रतलाम १६२८ २. तए णं मल्ली अरहा"केवलनाणदंसणे समुप्पन्न ।
- ज्ञाताधर्मकथा ८/१८६ ३. अज्जा वि बंभि-सुन्दरि-राइमई चन्दणा पमुक्खाओ। कालतए वि जाओ ताओ य नमामि भावेणं ।।
-ऋषिमण्डलस्तव २०८ ४. देवीओ चक्केसरी अजिया दुरियारि कालि महाकाली । अच्चय संता जाला सुतारया असोय सिरिवच्छा॥ पवर विजयं कुसा पणत्ती निव्वाणि अच्चुया धरणी । वइरोट्टऽच्छुत्त गधारि अंब पउमावई सिद्धा ॥
-प्रवचनसारोद्धार, भाग १, पृ० ३७५-७६, देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था सन १९२२ ५. तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं । अंकूसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो ।
-उत्तराध्ययन सूत्र २२, ४८ (तथा) दशवकालिकचूणि, पृ० ८७-८८ मणिविजय सिरीज भावनगर । ६. भगवं बंभी-सुन्दरीओ पत्थ वेति"""इमं व भणितो । ण किर हत्थिं विलग्गस्स केवलनाणं उप्पज्जइ ।
-आवश्यक चूर्णि भाग १, पृष्ठ २११ ७. वंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिओ । माहणेणं परिचत्त धणं आदाउमिच्छसि ॥
.-उत्तराध्ययन सूत्र १४, ३८ एवं उत्तराध्ययनचूणि, पृ० २३० (ऋषभदेव केशरीमल संस्था रतलाम,
सन् १९३३)
८. भगवती १२/२ ।
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खण्ड ५ : नारी त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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दिखाती है, ये तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि जैनधर्म में नारी की अवमानना नहीं की गई। चतुर्विध धर्मसंघ में भिक्षुणीसंघ और श्राविकासंघ को स्थान देकर निर्ग्रन्थ परम्परा ने स्त्री और पुरुष की समकक्षता को ही प्रमाणित किया । पार्श्व और महावीर के द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के भिक्षुणी संघ की स्थापना की गई जबकि बुद्ध को इस सम्बन्ध में संकोच रहा-यह भी इसी तथ्य का द्योतक है कि जैनसंघ का दृष्टिकोण नारी के प्रति अपेक्षाकृत उदार रहा है।
जैनसंघ में नारी का कितना महत्वपूर्ण स्थान था इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि उसमें प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तक सदैव ही भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की और गृहस्थ उपासकों को अपेक्षा उपासिकाओं की संख्या अधिक रही है । समवायांग, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र एवं आवश्यकनियुक्ति आदि में तीर्थंकर की भिक्षुणियों एवं गृहस्थ उपासिकाओं की संख्या उपलब्ध होती है। इन संख्यासूचक आंकड़ों में ऐतिहासिक सत्यता कितनी है, यह एक अलग प्रश्न है, किन्तु इससे इतना तो फलित होता ही है कि जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी जैनधर्म संघ का महत्वपूर्ण घटक थी । भिक्ष णियों की संख्या सम्बन्धी ऐतिहासिक सत्यता को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। आज भी जैनसंघ में लगभग नौ हजार दो सौ भिक्षु-भिक्षुणियों में दो हजार तीन सौ भिक्ष और छह हजार नौ सौ भिक्ष - णियां हैं । भिक्ष णियों का यह अनुपात उस अनुपात से अधिक ही है जो पार्श्व और महावीर के युग में माना गया है।
धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री और पुरुष की समकक्षता के प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृत्दशा आदि आगमों में स्पष्ट रूप से स्त्री और पुरुष दोनों की ही साधना के सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्ति के लिए सक्षम माना गया है । उत्तराध्ययन में स्त्रीलिंग सिद्ध का उल्लेख है। ज्ञाता, ' अन्त
१. जइ वि परिचित्तसंगो तहा वि परिवडइ। महिलासंसग्गीए कोसाभवणूसिय व्व रिसी ॥
-भक्तपरिज्ञा, गा० १२८ ( तथा ) तुम एतं सोयसि अप्पाणं णवि, तुम एरिसओ चेव होहिसि, उवसामेति लद्धबुद्धी, इच्छामि वेदावच्चंति गतो, पुणोवि आलोवेत्ता विहरति ।।
__--आवश्यक चूणि २, पृ० १८७ ण दुक्कर तोडिय अंबपिंडी, ण दुक्करं णच्चितु सिक्खियाए । तं दुक्करं तं च महाणुभाग, ज सो मुणी पमयवणं निविट्ठो॥
-वही, १, पृ० ५५५ २. कल्पसूत्र, क्रमशः १९७, १६७, १५७ व १३४, प्राकृत भारती, जयपुर, १९७७ ई० ३. चातुर्मास सूची, पृ० ७७ प्र. अ. भा. समग्र जैन चातुर्मास सूची प्रकाशन परिषद बम्बई १९८७ । ४. इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य नपुसगा । ___ सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेब य ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र ३६, ५० ५. ज्ञाताधर्मकथा-मल्लि और द्रौपदी अध्ययन ।
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
कृतदशा एवं आवश्यक चूर्णि में भी अनेक स्त्रियों के मुक्त होने का उल्लेख है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा आगमिक काल से लेकर वर्तमान तक स्त्री मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार कर साधना के क्षेत्र में दोनों को समान स्थान देती है। मात्र इतना ही नहीं यापनीय परम्परा के ग्रन्थ षट्खण्डागम और मूलाचार में भी स्त्री-पुरुष दोनों में क्रमशः आध्यात्मिक विकास की पूर्णता और मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है। हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं यथा नियुक्ति, भाष्य और चूणि साहित्य में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता है जिसमें स्त्री - मुक्ति का निषेध किया गया हो अथवा किसी ऐसे जैन सम्प्रदाय की सूचना दी गई हो जो स्त्रीमुक्ति को अस्वीकार करता है। सर्वप्रथम दक्षिण भारत में कुन्दकन्द आदि कुछ दिगम्बर आचार्य लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी में स्त्री-मुक्ति आदि का निषेध करते हैं । कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं कि स्त्री अचेल (नग्न) होकर धर्मसाधना नहीं कर सकती, और सचेल चाहे तीर्थंकर भी हो मुक्त नहीं हो सकता । इसका तात्पर्य यह भी है कि कुन्दकुन्द स्त्री-तीर्थंकर की यापनीय (उत्तर भारत के दिगम्बर संघों एवं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित) अवधारणा से परिचित थे। यह स्पष्ट है कि पहले स्त्री तीर्थकर की अवधारणा बनी, फिर उस विरोध में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया । सम्भवतः सबसे पहले जैनपरम्परा में स्त्रीमुक्ति-निषेध की अवधारणा का विकास दक्षिण भारत में दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा हुआ। क्योंकि सातवीं-आठवीं शताब्दी तक उत्तर भारत के श्वेताम्बर आचार्य जहाँ सचेलता और अचेलता को लेकर विस्तार से चर्चा करते हैं वहाँ स्त्रीमुक्ति के पक्ष-विपक्ष में कोई भी चर्चा नहीं करते हैं। इसका तात्पर्य है कि उत्तर भारत के जैन सम्प्रदायों में लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद उत्पन्न ही नहीं हुआ था। इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ में पं० दलसुखभाई, प्रो० ढाकी और मैंने अपने लेख
१. (अ) तत्थेव हत्थिखंधवरगताए केवलनाणं, सिद्धाए इमाए ओसप्पिणीए पढमसिद्धो मरुदेवा । एवं आराहणं प्रतियोगसंगहो कायब्वो ।
-आ० चूणि भाग २, पृ० २१२ द्रष्टव्य, वही भाग १, पृ० १८१ व ४८८ । (ब) अन्तकृद्दशा के वर्ग ५ में १०, वर्ग ७ में १३, वर्ग ८ में १० । इस प्रकार कुल ३३ मुक्त नारियों
का उल्लेख प्राप्त होता है। २. (अ) मणुस्सिणीसु मिच्छाइट्ठि सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओसंजदासंजदसंजदलाणे णियमा पज्जत्तियाओ ।।
-षट्खण्डागम, १,१, ६२.६३ (ब) एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जावो । ते जंगपुज्ज कित्ति सुहं च लभ्रूण सिझंति ।।
---मूलाचार ४/१६६ ३. लिंग इत्थीणं हवदि भुजइ पिडं सुएयकालम्मि ।
अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणेण भुजेइ ॥ णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उमग्गया सव्वे ।।
---सूत्रप्राभृत, २२, २३ ( तथा ) सुणहाण गदहाण य गोपसुमहिलाणं दीसदे मोक्खो। जे सोधति चउत्वं पिच्छिज्जंता जणेहि सम्वेहिं ।।
-शोलमाभूत २६
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि में की है। यहाँ केवल हमारा प्रतिपाद्य इतना ही है कि स्त्रीमुक्ति का निषेध दक्षिण भारत में पहले और उत्तर भारत में बाद में प्रारम्भ हुआ है, क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में लगभग आठवीं-नौवीं शताब्दी से स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को विवाद के विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैनपरम्परा में भी धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री समकक्षता किस प्रकार कम होती गयी । सर्वप्रथम सर्व स्त्री की मुक्ति की सम्भावना को अस्वीकार किया गया है फिर नग्नता को ही साधना का सर्वस्व मानकर उसे पांच महाव्रतों के पालन करने के अयोग्य मान लिया गया और उसमें यथाख्यात चारित्र (सच्चरित्रता की उच्चतम अवस्था) को भी असम्भव बता दिया गया। सुत्त पाहुड में तो स्पष्ट रूप से स्त्री के लिए प्रव्रज्या का निषेध कर दिया गया । दिगम्बर परम्परा में स्त्री को जिन कारणों से प्रव्रज्या और मोक्ष के अयोग्य बताया गया है, वे निम्न हैं
(१) स्त्री की शरीर-रचना ही ऐसी है कि उससे रक्तस्राव होता है, उस पर बलात्कार सम्भव है अतः वह अचेल या नग्न नहीं रह सकती। चूँकि स्त्री अचेल या नग्न नहीं हो सकती, दूसरे शब्दों में वह पूर्ण परिग्रह का त्याग नहीं कर सकती और पूर्ण परिग्रह का त्याग किये बिना उसके द्वारा महाव्रतों का ग्रहण एवं मुक्ति प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती।
(२) स्त्री करुणा प्रधान है उसमें तीव्र या क्रूर अध्यवसायों का अभाव होता है अतः निम्नतम गति सातवीं नरक में जाने के अयोग्य होती है। जैनाचार्यों की इस उदार और मनोवैज्ञानिक मान्यता के आधार पर दिगम्बर परम्परा ने यह मान लिया कि तीव्र पुरुषार्थ के अभाव में जो निम्नतम गति में नहीं जा सकती वह उच्चतम गति में भी नहीं जा सकती। अतः स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं।
(३) यह भी कहा गया है कि चंचल स्वभाव के कारण स्त्रियों में ध्यान की स्थिरता नहीं होती है अतः वे आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकती।
(४) एक अन्य तर्क यह भी दिया गया है कि स्त्री में वाद सामर्थ्य एवं तीव्र बुद्धि के अभाव के कारण ये दृष्टिवाद के अध्ययन में अयोग्य होती हैं अतः वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकतीं । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा ने उन्हें बौद्धिक क्षमता के अभाव के कारण दृष्टिवाद, अरुणोपपात, निशीथ आदि के अध्ययन के अयोग्य अवश्य माना फिर भी उनमें 'मोक्षप्राप्ति' की क्षमता को स्वीकार किया गया। चाहे शारीरिक संरचना के कारण इसके लिए संयम-साधना के उपकरण के रूप में वस्त्र आवश्यक हों किन्तु आसक्ति के अभाव के कारण वह परिग्रह नहीं हैं, अतः इसमें प्रवजित होने एवं मुक्त होने की सामर्थ्य है ।
१. Aspects of Jainclogy Vol. 2; Pt. Bechardas Doshi Commeinoration Vol. page 105
110. २. इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर दृष्टिकोण के लिए देखिए-अभिधान राजेन्द्र भाग २, पृ० ६१८-६२१ ( तथा ) इत्थीसु ण पावया भणिया ।
-सूत्र-प्राभूत, पृ० २४-२६
एवं णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो॥
-वही, २३ ३. इस सम्बन्ध में दिगम्बर पक्ष के विस्तृत विवेचन के लिए देखें---जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग ३, पृ० ५६६
५६८ एवं श्वेताम्बर पक्ष के लिए देखें-अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० ६१८-६२१ ।
खण्ड ५/१७
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
के
यह निश्चित ही सत्य है कि आगमिक काल के जैनाचार्यों ने मल्लि को स्त्री तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करके यह उद्घोषित किया कि आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती है । स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट अवधारणा है, जो नारी की गरिमा को महिमामण्डित करती है। यद्यपि हिन्दू धर्म में शक्ति के रूप में स्त्री को महत्व दिया गया है; किन्तु जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा है, उसकी अपनी एक विशेषता है। वह यह सूचित करती है कि विश्व का सर्वोच्च गरिमामय पद पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि परवर्ती आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में इसे एक आश्चर्यजनक घटना प्राधान्य को स्थापित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया (स्थानांग १०/१६०) । यद्यपि आगमिक व्याख्याओं के काल में पुरुष की महत्ता बढ़ी और व्रत ज्येष्ठ कल्प को पुरुष ज्येष्ठकल्प के रूप में व्याख्यायित किया गया । अंग आगमों में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें साध्वी अपनी प्रतिनी, आचार्य या तीर्थंकर के अतिरिक्त दीक्षा में कनिष्ठ भिक्ष को वन्दन या नमस्कार करती हो, किन्तु परवर्ती आगम एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के लिए भी सहाः दीक्षित मुनि वन्दनीय है (बृहत्कल्पभाष्य भाग ६ गाथा ६३९६ एवं कल्पसूत्र कल्पलता टीका)।
फिर भी जैनधर्म संघ में नारी की महत्ता को यथासम्भव सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है। मथुरा में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि धर्मकार्यों में पुरुषों के समान नारियाँ भी समान रूप से भाग लेती थीं। वे न केवल पुरुषों ने समान पूजा, उपासना कर सकती थीं, अपितु वे स्वेच्छानुसार दान भी करती थीं और मन्दिर आदि बनवाने में समान रूप से भागीदार होती थीं। जैन परम्परा में मूर्तियों पर जो प्राचीन अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें सामान्य रूप से पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं । यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में कुछ लोग आज भी यह मानते हैं कि स्त्री को जिन-प्रतिमा के पूजन एवं अभिषेक का अधिकार नहीं है।
आगमिक व्याख्याकाल में हम देखते हैं कि यद्यपि संघ के प्रमुख के रूप में आचार्य का पद पुरुषों के अधिकार में था, किसी स्त्री आचार्य का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु गणिनी, प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद स्त्रियों को प्रदान किये जाते थे। और वे अपने भिक्षुणी संघ की स्वतन्त्र रूप से आन्तरिक व्यवस्था देखती थीं। यद्यपि तरुणी भिक्ष णियों की सुरक्षा का दायित्व भिक्ष संघ को सौपा गया था किन्तु सामान्यतया भिक्ष णियाँ अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं रखती थीं, क्योंकि रात्रि में एवं पदयात्रा में भिक्षु और भिक्ष णियों का एक ही स्थान पर रहना वजित था। इस सुरक्षा के लिए भिक्ष णी संघ में प्रतिहारी आदि के पद भी निर्मित किये गये थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधना के क्षेत्र में स्त्री की गरिमा को यथासम्भव सुरक्षित रखा गया-फिर भी तथ्यों के अवलोकन से यह निश्चित है आगमिक व्याख्याओं के युग में स्त्री की अपेक्षा पुरुष को महत्ता दी जाने लगी थी। नारी की स्वतन्त्रता
नारी की स्वतन्त्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण उदार था । यौगलिक काल में
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ । २. (क) बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, २४११, २४०७; (ख) बृहत्कल्पभाष्य भाग ४, ४३३६ । (ग) व्यवहारसूत्र ५/१-१६ ।
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१३१ स्त्री-पुरुष सहभागी होकर जीवन जीते थे । आगम ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा में राजा द्रुपद द्रौपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा विवाह किये जाने पर तुझे सुख-दुःख हो सकता है अतः अच्छा हो अपना वर स्वयं ही चुन । यहाँ ग्रन्थकार के ये विचार वैवाहिक जीवन के लिये नारी - स्वातन्त्र्य के समर्थक हैं। इसी प्रकार हम देखते हैं कि उपासकदशांग में महाशतक अपनी पत्नी रेवती के धार्मिक विश्वास, खान-पान और आचार-व्यवहार पर कोई जबरदस्ती नहीं करता है । जहाँ रेवती अपनी मायके से मँगाकर मद्य-मांस का सेवन करती है वहाँ महाशतक पूर्ण साधनात्मक जीवन व्यतीत करता है। इससे ऐसा लगता है कि आगम युग तक नारी को अधिक स्वातन्त्र्य था किन्तु आगमिक व्याख्या साहित्य में हम पाते हैं कि पति या पत्नी अपने धार्मिक विश्वासों को एक दूसरे पर लादने का प्रयास करते हैं। चूणि साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ हैं जिनमें पुरुष स्त्री को अपने धार्मिक विश्वासों की स्वतन्त्रता नहीं देता है।
___ इसी प्रकार धर्मसंघ में भी आगम युग में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था को भिक्षुसंघ से अधिक नियन्त्रित नहीं पाते हैं । भिक्षुणी संघ अपने आन्तरिक मामलों में पूर्णतया आत्मनिर्भर था, गणधर अथवा आचार्य का उस पर बहुत अधिक अंकुश नहीं था किन्तु छेदसूत्र एवं आगमिक व्याख्या साहित्य के काल में यह नियन्त्रण क्रमशः बढ़ता जाता है । इन ग्रन्थों में चातुर्मास, प्रायश्चित्त, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी क्षेत्रों में आचार्य का प्रभुत्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है । फिर भी बौद्ध भिक्ष णी संघ की अपेक्षा जैन भिक्षणी संघ में स्वायतत्ता अधिक थी। किन्हीं विशेष परिस्थितियों को छोड़कर वे दीक्षा, प्रायश्चित्त, शिक्षा और सुरक्षा की अपनी व्यवस्था करती थीं और भिक्ष संघ से स्वतन्त्र विचरण करते हुए धर्मोपदेश देती हैं जबकि बौद्धधर्मसंघ में भिक्षुणी को उपोसथ, वर्षावास आदि भिक्षुसंघ के अधीन करने होते थे।
___ यद्यपि जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था जैनाचार्य हिन्दू परम्परा के चिन्तन से प्रभावित हो रहे थे । मनुस्मृति के समान व्यवहारभाष्य में भी कहा गया है
जाया पितिव्वसा नारी दत्ता नारी पतिव्वसा।
विहवा पुत्तवसा नारी नत्थि नारी सयंवसा ॥ अर्थात् जन्म के पश्चात् स्त्री पिता के अधीन, विवाहित होने पर पति के अधीन और विधवा होने पर पुत्र के अधीन होती है अतः वह कभी स्वाधीन नहीं है । इस प्रकार आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की स्वाधीनता सीमित की गयी है। पुत्र-पुत्री की समानता का प्रश्न
चाहे प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पुत्र और पुत्री की समकक्षता स्वीकार की गई हो किन्तु परवर्ती हिन्दू धर्म में अर्थोपार्जन और धार्मिक कर्मकाण्ड दोनों ही क्षेत्रों में पुरुष की प्रधानता के परिणामस्वरूप
३/२३३
१. जस्स णं अहं पुत्ता! रायस्स वा जुवरायरस वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि ।
ज्ञाताधर्मकथा १६/८५ २. तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहिं य ४ सुरं च आसाएमाणी ४ विहरइ।
-उवासगदसाओ २४४ तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोइस संवच्छरा वइक्कंता । एवं तहेव जेठं पुत्त ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपण्णत्ति उवसंपज्जित्ता णं विहरइ ।
' -उवासगदसाओ, २४५
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१३२ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन पुत्र का स्थान महत्त्वपूर्ण हो गया और यह उद्घोष किया गया कि पुत्र के बिना पूर्वजों की सुगति/मुक्ति सम्भव नहीं ।। फलतः आगे चलकर हिन्दू परम्परा में कन्या की उत्पत्ति को अत्यन्त हीनदृष्टि से देखा जाने लगा। इस प्रकार वैदिक हिन्दू परम्परा में पुत्र-पुत्री की समकक्षता को अस्वीकार कर पुत्र को अधिक महनीयता प्रदान की गई किन्तु इसके विपरीत जैन आगमों में हम देखते हैं कि उपासक और उपासिकाएँ पुत्र-पुत्री हेतु समान रूप से कामना करते हैं। चाहे अर्थोपार्जन और पारिवारिक व्यवस्था की दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों में भी पुत्र की प्रधानता रही हो किन्तु जहाँ तक धार्मिक जीवन और साधना का प्रश्न था, जैन धर्म में पुत्र की महत्ता का कोई स्थान नहीं था। जैन कर्म सिद्धान्त ने स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित किया कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही सुगति या दुर्गति में जाकर सुख-दुःख का भोग करता है । सन्तान के द्वारा सम्पन्न किए गये कर्मकाण्ड पूर्वजों को किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं करते इस प्रकार उसमें धार्मिक आधार पर पुत्र की महत्ता को अस्वीकार कर दिया । फलतः आगमिक युग में पुत्र-पुत्री के प्रति समानता की भावना प्रदर्शित की गई किन्तु अर्थोपार्जन और पारिवारिक व्यवस्था में पुरुष की प्रधानता के कारण पुत्रोत्पत्ति को ही अधिक सुखद माना जाने लगा । यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि आदि के जन्मोत्सव के उल्लेख उपलब्ध हैं, किन्तु इन उल्लेखों के आधार पर यह मान लेना कि जैन संघ में पुत्र और पुत्री की स्थिति सदैव ही समकक्षता की रही, उचित नहीं होगा। आगमिक व्याख्या साहित्य एवं पौराणिक साहित्य में उपर्युक्त आगमिक अपवादों को छोड़कर जैनसंघ में भी पुत्री की अपेक्षा पुत्र को जो अधिक सम्मान मिला उसका आधार धार्मिक मान्यतायें न होकर सामाजिक परिस्थितियाँ थीं । यद्यपि भिक्षुणी संघ की व्यवस्था के कारण पुत्री पिता को उतनी अधिक भारस्वरूप कभी नहीं मानी गयी जितनी उसे हिन्दू परम्परा में माना गया था।
इस प्रकार जैन आगमिक व्याख्या साहित्य से जो सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि यौगलिक काल अर्थात् पूर्व युग में और आगम युग में पुत्र और पुत्री दोनों की ही उत्पत्ति सुखद थी किन्तु आगमिक व्याख्याओं के युग में बाह्य सामाजिक एवं आर्थिक प्रभावों के कारण स्थिति में परिवर्तन आया और पुत्री की अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्व दिया जाने लगा। विवाह संस्था और नर-नारी की समकक्षता का प्रश्न
विवाह-व्यवस्था प्राचीन काल से लेकर आज तक मानवीय समाज व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग रही है । यह सत्य है कि जैनधर्म के अनुयायियों में भी प्राचीनकाल से विवाह व्यवस्था प्रचलित रही है किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि निवृत्तिप्रधान होने के कारण जैनधर्म में विवाह-व्यवस्था को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया । धार्मिक दृष्टि से वे स्वपत्नी सा स्वपति सन्तोषव्रत की व्यवस्था करते हैं जिसका तात्पर्य है व्यक्ति को अपनी काम-वासना को स्वपति या स्वपत्नी तक ही सीमित रखना
१. अपुत्रस्य गतिनास्ति । २. जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव अणुवुड ढेमित्ति ।
ज्ञाताधर्मकथा, १, २, १६ ३. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । ___ एक्को सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥ -उत्तराध्ययन १३, २३ ४. ज्ञाताधर्मकथा अध्ययन ८, सूत्र ३०, ३१ ।
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
चाहिए । तात्पर्य यह है कि यदि ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव न हो तो विवाह कर लेना चाहिए । विवाहविधि के सम्बन्ध में जैनाचार्यों की स्पष्ट धारणा क्या थी, इसकी सूचना हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं में नहीं प्राप्त होती है । जैन-विवाह-विधि का प्रचलन पर्याप्त रूप से परवर्ती है और दक्षिण के दिगम्बर आचार्यों की ही देन है जो हिन्दू-विवाह-विधि का जैनीकरण मात्र है। उत्तर भारत के श्वेताम्बर जैनों में तो विवाह विधि को हिन्दू धर्म के अनुसार ही सम्पादित किया जाता है। आज भी श्वेताम्बर जैनों में अपनी कोई विवाह पद्धति नहीं है। जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से जो सूचना हमें मिलती है उसके अनुसार यौगलिक काल में युगल रूप में उत्पन्न होने वाले भाई-बहन ही युवावस्था में पति-पत्नी का रूप ले लेते थे। जैन पुराणों के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव से ही विवाह प्रथा का आरम्भ हुआ। उन्होंने भाई-बहनों के बीच होने वाली विवाह-प्रणाली को अस्वीकार कर दिया। उनकी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी ने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का निर्णय किया । फलतः भरत और बहुबलि का विवाह अन्य वंशों की कन्याओं से किया गया । जैन साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आगमिक काल तक स्त्री विवाह सम्बन्धी निर्णयों को लेने में स्वतन्त्र थीं और अधिकांश विवाह उसकी सम्मति से ही किये जाते थे जैसाकि ज्ञाता में मल्लि और द्रौपदी के कथानकों से ज्ञात होता है।
आगम ग्रन्थों से जो सूचना मिलती है उसके आधार पर हम इतना ही कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक युग और आगम युग में सामान्यतया स्त्री को अपने पति का चयन करने में स्वतन्त्रता थी। यह भी उसकी इच्छा पर निर्भर था कि वह विवाह करे या न करे। पूर्वयूग में ब्राह्मी, सन्दरी, मल्लि, अ मिक यग में चन्दनबाला, जयन्ती आदि ऐसी अनेक स्त्रियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन स्वीकार किया और विवाह अस्वीकार कर दिया। आगमिक व्याख्याओं में हमें विवाह के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। डॉ० जगदीशचन्द जैन ने जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं में उपलब्ध विवाह के विविध रूपों का विवरण प्रस्तुत किया है यथा-स्वयंवर, माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह, गन्धर्व विवाह (प्रेमविवाह), कन्या को बलपूर्वक ग्रहण करके विवाह करना, पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर विवाह, वर या कन्या की योग्यता देखकर विवाह, कन्यापक्ष को शुल्क देकर विवाह और भविष्यवाणी के आधार पर विवाह । किन्तु हमें आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिल सका जहाँ जैनाचार्यों ने गुण-दोषों के आधार पर इनमें से किसी का समर्थन या निषेध किया हो या यह कहा हो कि यह विवाह-पद्धति उचित है या अनुचित है। यद्यपि विवाह के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं था पर इतना अवश्य माना जाता था कि यदि कोई ब्रह्मचर्य पालन करने में असफल हो तो उसे विवाह बन्धन मान लेना चाहिए । जहाँ तक स्वयंवर विधि का प्रश्न है निश्चित ही नारी-स्वातन्त्र्य की दृष्टि से यह विधि महत्वपूर्ण थी। किन्तु जनसामान्य में जिस विधि का प्रचलन था वह माता-पिता के द्वारा आयोजित विधि ही थी। यद्यपि इस विधि में स्त्री और पुरुष दोनों की स्वतन्त्रता खण्डित होती थी। जैनकथा साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जहाँ बलपूर्वक अपहरण करके विवाह सम्पन्न हुआ। इस विधि में नारी की स्वतन्त्रता पूर्णतया खण्डित हो जाती थी;
१. आवश्यकचूणि, भाग १, पृष्ठ १५२ । २. आवश्यकचूणि भाग १, पृ० १४२-४३ ।
३. जैनागम में भारतीय समाज, -डा. जगदीशचन्द्र जैन, पृ० २५३-२६६ ।
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
क्योंकि अपहरण करके विवाह करने का अर्थ मात्र स्त्री को चयन की स्वतन्त्रता का अभाव ही नहीं है यह तो लूट की सम्पत्ति है।
जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है उनमें अधिकांश विवाह माता-पिता के द्वारा आयोजित विवाह ही हैं केवल कुछ प्रसंगों में ही स्वयंवर एवं गन्धर्व विवाह के उल्लेख मिलते हैं जो आगम युग एवं पूर्व काल के हैं। माता-पिता के द्वारा आयोजित इस विवाह-विधि में स्त्री-पुरुषों की समकक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यद्यपि जैनाचार्यों ने विवाह-विधि के सम्बन्ध में गम्भीरता से चिन्तन नहीं किया किन्तु यह सत्य है कि उन्होंने स्त्री को गरिमाहीन बनाने का प्रयास भी नहीं किया। जहाँ हिन्दूपरम्परा में विवाह स्त्री के लिए बाध्यता थी। वहीं जैन-परम्परा में ऐसा नहीं माना गया। प्राचीनकाल से लेकर अद्यावधि विवाह करने न करने के प्रश्न को स्त्री-विवेक पर छोड़ दिया गया। जो स्त्रियाँ यह समझती थीं कि वे अविवाहित रहकर अपनी साधना कर सकेंगी उन्हें बिना विवाह किये ही दीक्षित होने का अधिकार था। विवाह-संस्था जैनों के लिये ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक होने के रूप में ही स्वीकार की गई। जैनों के लिए विवाह का अर्थ था अपनी वासना को संयमित करना। केवल उन्हीं लोगों के लिए विवाह संस्था में प्रवेश आवश्यक माना गया था जो पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ पाते हों, अथवा विवाह के पूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का व्रत नहीं ले चुके हैं। अतः हम कह सकते हैं कि जैनों ने ब्रह्मचर्य की आंशिक साधना के अंग के रूप में विवाह संस्था को स्वीकार करके भी नारी की स्वतन्त्र निर्णय शक्ति को मान्य करके उसकी गरिमा को खण्डित नहीं होने दिया। बहुपति और बहुपत्नी प्रथा
विवाह संस्था के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का भी है। इसके दो रूप हैं बहुपत्नी प्रथा और बहपति प्रथा। यह स्पष्ट है कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोड़कर हिन्दू और जैन दोनों ही परम्पराओं ने नारी के सम्बन्ध में एक-पति प्रथा की अवधारणा को ही स्वीकार किया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया। जैनाचार्यों ने द्रौपदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार पर औचित्यपूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकमालिका आर्या के भव में उसने अपने तप के प्रताप से पाँच पति प्राप्त करने का निदान (निश्चय कर लिया था । अतः इसे पूर्वकर्म का फल मानकर सन्तोष किया गया। किन्तु दूसरी ओर पुरुष के सम्बन्ध में बहुपत्नी प्रथा की स्पष्ट अवधारणा आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलती है। इनमें ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ पुरुषों को बहुविवाह करते दिखाया गया है। दुःख तो यह है कि उनकी इस प्रवृत्ति की समालोचना भी नहीं की गई है। अतः उस युग में जैनाचार्य इस सम्बन्ध में तटस्थ भाव रखते थे यही कहा जा सकता है। क्योंकि किसी जैनाचार्य ने बहुविवाह को अच्छा कहा हो, ऐसा भी कोई सन्दर्भ नहीं मिलता है।
बहुपत्नी प्रथा के आविर्भाव पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यौगलिक काल तक बहुपत्नी प्रथा प्रचलित नहीं थी। आवश्यकचूणि के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव ने दो विवाह किये थे। उनके लिये दूसरा विवाह इसलिये आवश्यक हो गया था कि एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उस स्त्री को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से यह आवश्यक था। किन्तु जब आगे चलकर स्त्री को एक सम्पत्ति के रूप में देखा जाने लगा तो स्वाभाविक रूप से स्त्री के प्रति अनुग्रह की भावना के
१. ज्ञाताधर्मकथा अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ ।
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आधार पर नहीं अपितु अपनी कामवासना और प्रतिष्ठा के लिए बहुविवाह की प्रथा आरम्भ हो गयी । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी किन्तु इसे जैनधर्मसम्मत एक आचार मानना अनुचित होगा। क्योंकि जब जैनों में विवाह को ही एक अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो बहुविवाह को धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में यद्यपि पुरुष के द्वारा बहुविवाह के अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं किन्तु हमें एक भी ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ कोई व्यक्ति गृहस्थोपासक के व्रतों को स्वीकार करने के पश्चात् बहुविवाह करता है । यद्यपि ऐसे सन्दर्भ तो हैं कि मुनिव्रत या श्रावकव्रत स्वीकार करने के पूर्व अनेक गृहस्थोपासकों की एक से अधिक पत्नियाँ थीं । किन्तु व्रत स्वीकार करने के पश्चात् किसी ने अपनी पत्नियों की संख्या में वृद्धि की हो, ऐसा एक भी सन्दर्भ मुझे नहीं मिला । आदर्श स्थिति तो एक पत्नी प्रथा को ही माना जाता था । उपासकदशा में १० प्रमुख उपासकों में केवल एक की ही अधिक पत्नियाँ थीं । साथ ही उस में श्रावकों के व्रतों के जो अतिचार बताये गये हैं उनमें स्वपत्नी सन्तोष व्रत का एक अतिचार पर विवाहकरण है ।1 यद्यपि कुछ जैनाचार्यों ने पर विवाहकरण का अर्थ स्व-सन्तान के अतिरिक्त अन्यों की सन्तानों का विवाह सम्बन्ध करवाना माना है। किन्तु उपासकदशांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने इसका अर्थ एक से अधिक विवाह करना माना है । अतः हम यह कह सकते हैं कि धार्मिक आधार पर जैनधर्म बहुपत्नी प्रथा का समर्थक नहीं है । बहुपत्नी प्रथा का उद्देश्य तो वासना में आकण्ठ डूबना है और निवृत्तिप्रधान जैनधर्म की मूल भावना के अनुकूल नहीं है । जैन ग्रन्थों में जो बहुपत्नी प्रथा की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं वे उस युग की सामाजिक स्थिति के सूचक हैं | आगम साहित्य में पार्श्व, महावीर, एवं महावीर के नौ प्रमुख उपासकों की एक पत्नी मानी गई है ।
विधवा विवाह एवं नियोग
यद्यपि आगमिक व्याख्या साहित्य में नियोग और विधवा-विवाह के कुछ सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ये भी जैनाचार्यों द्वारा समर्थित नहीं है । निशीथचूर्णि में एक राजा को अपनी पत्नी से नियोग के द्वारा सन्तान उत्पन्न करवाने के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि जिस प्रकार खेत में बीज किसी ने भी डाला हो फसल का अधिकारी भूस्वामी ही होता है । उसी प्रकार स्वस्त्री से उत्पन्न सन्तान का अधिकारी उसका पति ही होता है । यह सत्य है कि एक युग में भारत में नियोग की परम्परा प्रचलित रही किन्तु निवृत्तिप्रधान जैनधर्म ने न तो नियोग का समर्थन किया न ही विधवा विवाह का । क्योंकि उसकी मूलभूत प्रेरणा यही रही कि जब भी किसी स्त्री या पुरुष को कामवासना से मुक्त होने का अवसर प्राप्त हो वह उससे मुक्त हो । जैन आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में हजारों सन्दर्भ प्राप्त हैं जहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् विधवायें भिक्षुणी बनकर संघ की शरण में चली जाती थीं । जैन संघ में भिक्षुणियों की संख्या के अधिक होने का एक कारण यह भी था कि भिक्षुणी संघ विधवाओं के सम्मानपूर्ण एवं सुरक्षित जीवन जीने का आश्रयस्थल था । यद्यपि कुछ लोगों द्वारा यह कहा जाता है कि ऋषभदेव ने मृत युगल की पत्नी से विवाह करके विधवा-विवाह की परम्परा को स्थापित
२. उवासकदसा, अभयदेवकृतवृत्ति पृ० ४३
१. उवासकदसा १, ४८ । ३. निशीथचू णि, भाग २, ३८१
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
किया था । किन्तु आवश्यक चूर्णि से स्पष्ट होता है कि वह स्त्री मृत युगल की बहन थी, पत्नी नहीं । क्योंकि उस युगल में पुरुष की मृत्यु बालदशा में हो चुकी थी । अतः इस आधार पर विधवा विवाह का समर्थन नहीं होता है । जैनधर्म जैसे निवृत्तिप्रधान धर्म में विधवा-विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं थी । विधुर - विवाह
1
जब समाज में बहु-विवाह को समर्थन हो तो विधुर - विवाह को मान्य करने में कोई आपत्ति नहीं होगी । किन्तु इसे भी जैनधर्म में धार्मिक दृष्टि से समर्थन प्राप्त था, यह नहीं कहा जा सकता । पत्नी की मृत्यु के पश्चात् आदर्श स्थिति तो यही मानी गई थी कि व्यक्ति वैराग्य ले ले । मात्र यही नहीं अनेक स्थितियों में पति, पत्नी के भिक्षुणी बनने पर स्वयं भी भिक्षु बन जाता है । यद्यपि सामाजिक जीवन में विधुर - विवाह के अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं ।
विवाहेतर यौन सम्बन्ध
जैनधर्म में पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध स्थापित करना धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया । वेश्यागमन और परस्त्रीगमन दोनों को ही अनैतिक कर्म माना गया। फिर भी न केवल गृहस्थ स्त्री-पुरुष अपितु भिक्ष ु भिक्ष ुणियाँ भी अनैतिक यौन सम्बन्ध स्थापित कर लेते थे । आगमिक व्याख्या साहित्य में ऐसे सैकड़ों प्रसंग उल्लिखित हैं जिनमें ऐसे सम्बन्ध हो जाते थे । जैन आगमों और उनकी टीकाओं आदि में ऐसी अनेक स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो अपने साधना मार्ग से पतित होकर स्वेच्छाचारी बन गयी थीं । ज्ञाताधर्मकथा उसकी टीका, आवश्यकचूर्ण आदि में पार्श्वपत्थ परम्परा की अनेक शिथिलाचारी साध्वियों के उल्लेख मिलते हैं । ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी का पूर्व जीवन भी इसी रूप में वर्णित है । साधना काल में वह वेश्या को पांच पुरुषों से सेवित देखकर स्वयं पाँच पतियों की पत्नी बनने का निदान कर लेती है । निशीथचूर्णि में पुत्रियों और पुत्रवधू के जार अथवा धूर्त व्यक्तियों के साथ भागने के उल्लेख हैं । आगमिक व्याख्याओं में मुख्यतः निशीथ चूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य आदि में ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ अवैध सन्तानों को भिक्ष ुओं के निवास स्थानों पर छोड़ जाती थीं । आगम और आगमिक व्याख्यायें इस बात की साक्षी हैं कि स्त्रियाँ सम्भोग के लिए भिक्ष ुओं को उत्तेजित करती थीं उन्हें इस हेतु विवश करती थीं और उनके द्वारा इन्कार किये जाने पर उन्हें बदनाम किये जाने का भय दिखाती थीं । आगमिक व्याख्याओं में इन उपरिस्थितियों में भिक्ष को क्या करना चाहिए इस सम्बन्ध में अनेक आपवादिक नियमों का उल्लेख मिलता है । यद्यपि शीलभंग सम्बन्धी अपराधों के विविध रूपों एवं सम्भावनाओं के उल्लेख जैन परम्परा में विस्तार से मिलते हैं। किन्तु इस चर्चा का उद्देश्य साधक को वासना सम्बन्धी अपराधों से विमुख बनाना ही रहा है । यह जीवन का यथार्थ तो था किन्तु जैनाचार्य उसे विकृतपक्ष मानते थे और उस आदर्श समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ इनका अभाव हो ।
१. ज्ञाताधर्मकथा, द्वितीयश्र ुत स्कन्ध, प्रथम वर्ग, अध्याय २-५ द्वितीय वर्ग, अध्याय, ५ तृतीय वर्ग, अध्याय १-५४ २. ज्ञाताधर्मकथा, प्रथमश्र तस्कन्ध, अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ ।
३. निशीथचूणि, भाग ३ पृ० २६७ ।
४. निशीथचूर्णि भाग २, पृ० १७३ ।
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१३७ आगमिक व्याख्याओं में उन घटनाओं का भी उल्लेख है जिनके कारण स्त्रियों को पुरुषों की वासना का शिकार होना पड़ा था। पुरुषों की वासना का शिकार होने से बचने के लिए भिक्षुणियों को अपनी शील-सुरक्षा में कौन-कौन-सी सतर्कता बरतनी होती थी यह भी उल्लेख निशीथ और बहत्कल्प दोनों में ही विस्तार से मिलता है । रूपवती भिक्षुणियों को मनचले युवकों और राजपुरुषों की कुदृष्टि से बचने के लिए इस प्रकार का वेश धारण करना पड़ता था ताकि वे कुरूप प्रतीत हों। भिक्षणियों को सोते समय क्या व्यवस्था करनी चाहिए इसका भी बृहत्कल्पभाष्य में विस्तार से वर्णन है। भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने वालों की पूरी जाँच की जाती थी। प्रतिहारी भिक्षुणी उपाश्रय के बाहर दण्ड लेकर बैठती थी। शील सुरक्षा के जो विस्तृत विवरण हमें आगमिक व्याख्याओं में मिलते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष वर्ग स्त्रियों एवं भिक्षुणियों को अपनी वासना का शिकार बनाने में कोई कमी नहीं रखता था । पुरुष द्वारा बलात्कार किये जाने पर और ऐसी स्थिति में गर्भ रह जाने पर संघ उस भिक्षुणी के प्रति सद्भावनापूर्वक व्यवहार करता था तथा उसके गर्भ की सुरक्षा के प्रयत्न भी किये जाते थे। प्रसूत बालक को जब वह उस स्थिति में हो जाता था कि वह माता के बिना रह सके तो उसे उपासक को सौंपकर अथवा भिक्षु संघ को सौंपकर ऐसी भिक्षणी पूनः भिक्ष णी संघ में प्रवेश पा लेती थी।। ये तथ्य इस बात के सुचक हैं कि सदाचारी नारियों के संरक्षण में जनसंघ सदेव सजग था। नारी-रक्षा
बलात्कार किये जाने पर किसी भिक्षणी की आलोचना का अधिकार नहीं था। इसके विपरीत जो व्यक्ति ऐसी भिक्षणी की आलोचना करता उसे ही दण्ड का पात्र माना जाता था। नारी की मर्यादा की रक्षा के लिए जैनसंघ सदैव ही तत्पर रहता था। निशीथचूणि में उल्लेखित कालकाचार्य की कथा इस बात का प्रमाण है कि अहिंसा का प्राणपण से पालन करने वाला भिक्षु संघ भी नारी की गरिमा को खण्डित होने की स्थिति में दुराचारियों को दण्ड देने के लिए शस्त्र पकड़कर सामने आ जाता था। निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि आचार्य ने भिक्षुणी' एवं बहन सरस्वती की शील-सुरक्षा के लिये गर्दभिल्ल के विरुद्ध शकों की सहायता लेकर पूरा संघर्ष किया था । निशीथ, बृहत्कल्प, भाष्य आदि में स्पष्ट रूप से ऐसे उल्लंख हैं कि यदि संघस्थ भिक्षणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न है और उसके लिए दुराचारी की हत्या करने का भी प्रश्न उपस्थित हो जाये तो ऐसी हत्या का भी समर्थन किया गया था और ऐसे भिक्ष को संघ में सम्मानित ही किया जाता था। बृहत्कल्प भाष्य में कहा गया है कि जल, अग्नि, चोर और दुष्काल की स्थिति में सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी चाहिए । इसी प्रकार डूबते हुए श्रमण और भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी को और क्षुल्लक और क्षुल्लिका में से क्षुल्लिका की रक्षा करनी चाहिए। सती प्रथा और जैनधर्म
उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रूप सती प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम और व्याख्या साहित्य को देखें तो स्पष्ट रूप से हमें एक भी ऐसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जला दी गयी हो। यद्यपि निशीथचूर्णि में एक ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सौपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर न देने के कारण राजा ने जला देने का आदेश दे दिया था, और उक्त उल्लेख के अनुसार उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी
१. निशीथचूणि, भाग १, पृ० १२६ । २. निशीथचूणि, भाग ३, पृ० २३४ । खण्ड ५/१८
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
उनकी चिताओं में जल गयी थीं ।1 लेकिन जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं। पुनः इस आपवादिक उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध नहीं होते हैं, महानिशीथ में इससे भिन्न यह उल्लेख भी मिलता है कि किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी किन्तु उसके पितृकुल में यह रिवाज नहीं था अतः उसने अपना विचार त्याग दिया। इससे लगता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्यूपरान्त स्वेच्छा से भी अपने देह-त्याग को अनुचित ही माना है और इस प्रकार के मरण को बाल-मरण या मूर्खता ही कहा है। सती प्रथा का धार्मिक समर्थन जैन आगम साहित्य और उसकी व्याख्याओं में हमें कहीं नहीं मिलता।
यद्यपि आगमिक व्याख्याओं में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता धारिणी आदि के कुछ ऐसे उल्लेख अवश्य हैं जिनमें ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देह-त्याग किया गया है किन्तु यह अवधारणा सती प्रथा की अवधारणा से भिन्न है । जैन धर्म और दर्शन यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् जीवित चिता में जल मरने से पुनः स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत जैनधर्म अपनी कर्म सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानता है कि पति-पत्नी अपनेअपने कर्मों और मनोभावों के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। यद्यपि परवर्ती जैन कथा साहित्य में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ एक भव के पति-पत्नी आगामी अनेक भवों में जीवनसाथी बने, किन्तु इसके विरुद्ध भी उदाहरणों की जैन कथा साहित्य में कमी नहीं है।
___ अतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार पर जैन धर्म सतीप्रथा का समर्थन नहीं करता। यद्यपि जैन धर्म के सती प्रथा के समर्थक न होने के कुछ सामाजिक कारण भी हैं। व्याख्या साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ वर्णित हैं जिनके अनुसार पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी अपितु पति के व्यवसाय का संचालन करती थीं। शालिभद्र की माता भद्रा को राजगृह की एक महत्वपूर्ण श्रेष्ठी और व्यापारी निरूपित किया गया है जिसके वैभव को देखने के लिये श्रेणिक भी उसके घर आया था। आगमों और आगमिक व्याख्याओं में ऐसे अनेक उल्लेख हैं जहाँ कि स्त्री पति की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती थी। यह सत्य है कि जैन भिक्षुणी संघ विधवाओं, कुमारियों और परित्यक्ताओं का आश्रय-स्थल था। यद्यपि जैन आगम साहित्य एवं व्याख्या साहित्य दोनों में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ पति और पुत्रों के जीवित रहते हुए भी पत्नी या माता भिक्षुणी बन जाती थी। ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी पति और पुत्रों की सम्मति से दीक्षित हई थी किन्तु इनके अलावा ऐसे उदाहरणों की भी विपुलता देखी जाती है जहाँ पत्नियाँ पति के साथ अथवा पति एवं पुत्रों की मृत्यु के उपरान्त विरक्त होकर संन्यास ग्रहण कर लेती थीं। कुछ ऐसे उल्लेख भी निले हैं जहाँ स्त्री आजीवन ब्रह्मचर्य को धारण करके या तो पितृगृह में ही रह जाती थी अथवा दीक्षित हो जाती थी। जैन परम्परा में भिक्षुणी संस्था एक ऐसा आधार रही है जिसने हमेशा नारी को संकट से उबारकर आश्रय दिया है।
जैन भिक्षुणी संघ, उन सभी स्त्रियों के लिये जो विधवा, परित्यक्ता अथवा आश्रयहीन होती थीं, शरणदाता होता था । अतः जैन धर्म में सती प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला । जब-जब भी नारी पर
१. (अ) निशीथचूर्णि, भाग २, पृ० ५६-६० ।
(ब) तेसिं पंच महिलसताई, गणि वि अग्गिं पावट्ठाणि । -निशीथ चूणि, भाग ४, पृ० १४ । २. महानिशीथ पृ० २६ । देखें, जैनागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० २७१ । ३. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३१८ ।
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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कोई अत्याचार किये गये, जैन भिक्षुणी संघ उसके लिए रक्षाकवच बना क्योंकि भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के बाद न केवल वह पारिवारिक उत्पीड़न से बच सकती थी अपितु एक सम्मानपूर्ण जीवन भी जी सकती थी। आज भी विधवाओं, परित्यक्ताओं, पिता के पास दहेज के अभाव के कारण अथवा कुरूपता आदि किन्हीं कारणों से अविवाहित रहने के लिये विवश कुमारियों के लिये जैन भिक्षुणी संघ आश्रयस्थल है। जैन भिक्षणी संघ ने नारी की गरिमा और उसके सतीत्व दोनों की रक्षा की। यही कारण था कि सती-प्रथा जैसी कुत्सित प्रथा जैन धर्म में कभी भी नहीं रही।
महानिशीथ में एक स्त्री को सती होने का मानस बनाने पर भी अपनी कल-परम्परा में सती प्रथा का प्रचलन नहीं होने के कारण अपने निर्णय को बदलता हुआ देखते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि जैनाचार्यों की दृष्टि सतीप्रथा विरोधी थी। जैन परम्परा में ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना आदि को सती कहा गया है और तीर्थंकरों के नाम-स्मरण के साथ-साथ आज भी १६ सतियों का नाम स्मरण किया जाता है, किन्तु इन्हें सती इसलिये कहा गया कि ये अपने शील की रक्षा हेतु या तो अविवाहित रहीं या पति की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने अपने चरित्र एवं शील को सुरक्षित रखा। आज जैन साध्वियों के लिये एक बहुप्रचलित नाम महासती है उसका आधार शील का पालन ही है। जैन परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध साहित्य लिखा गया, उसमें सर्वप्रथम सती प्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने को मिलता है। तेजपाल-वस्तुपाल प्रबन्ध में बताया गया है कि तेजपाल और वस्तूपाल की मृत्य के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके अपने प्राण त्याग दिये । यहाँ पति की मृत्य के पश्चात् शरीर त्यागने का उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य बना दिया गया है । वस्तुतः यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैनधर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है। गणिकाओं की स्थिति
गणिकायें और वेश्यायें भारतीय समाज का आवश्यक घटक रही हैं। उन्हें अपरिगृहीता माना जाये या परिगृहीता, इसे लेकर जैन आचार्यों में विवाद रहा है । क्योंकि आगमिक काल से उपासक के लिये हम अपरिगृहीता गमन का निषेध देखते हैं । भ० महावीर के पूर्व पापित्य परम्परा के शिथिलाचारी श्रमण यहाँ तक कहने लगे थे कि बिना विवाह किये अर्थात् परिगृहीत किये यदि कोई स्त्री कामवासना की आकांक्षा करती है तो उसके साथ सम्भोग करने में कोई पाप नहीं है । ज्ञातव्य है कि पार्श्व की परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह के अधीन माना गया था क्योंकि उस युग में नारी को भी सम्पत्ति माना जाता था, चूंकि ऐसी स्थिति में अपरिग्रह के व्रत का भंग नहीं था इसलिये शिथिलाचारी श्रमण उसका विरोध कर रहे थे। यही कारण था कि भ० महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोडा था।
चूँ कि वेश्या या गणिका परस्त्री नहीं थी, अतः परस्त्री निषेध के साथ स्वपत्नी सन्तोषव्रत को जोड़ा गया और उसके अतिचारों में अपरिगृहीतगमन को भी सम्मिलित किया गया और कहा गया कि गृहस्थ उपासक को अपरिगृहीत (अपने से अविवाहित) स्त्री से सम्भोग नहीं करना चाहिये । पुनः जब १. मन्त्रिण्यौ ललितादेवी सौख्वौ अनशनेन मम्रतुः ।
-प्रबन्धकोश, पृष्ठ १२६ २. एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया ।
इत्थीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा॥ जहा गंड पिलागं वा, परिपीलेज्ज मुहत्तंग। एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिया ॥
--सूत्रकृतांग, १/३/४/8-१०
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन यह माना गया कि परिग्रहण के बिना सम्भोग सम्भव नहीं, साथ ही द्रव्य देकर कुछ समय के लिये ग्रहीत अतः वेश्या भी परिग्रहीत की कोटि में आ जाती है, परिणामस्वरूप धनादि देकर अल्पकाल के लिए ग्रहीत स्त्री (इत्वरिका)1 के साथ भी सम्भोग का निषेध किया गया और गृहस्थ उपासक के लिए आजीवन हेतु गृहीत अर्थात् विवाहित स्त्री के अतिरिक्त सभी प्रकार के यौन सम्बन्ध निषिद्ध माने गये।
यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्य सभी लोगों के साथ जैनधर्म के प्रति श्रद्धावान सामान्यजन भी किसी न किसी रूप में गणिकाओं से सम्बद्ध रहा । कृष्ण वासुदेव की द्वारिका नगरी में अनंगसेना प्रमुख अनेक गणिकाएँ भी थी। स्वयं ऋषभदेव के नीलांजना का नृत्य देखते समय उसकी मृत्यु से प्रतिबोधित होने की कथा दिगम्बर परम्परा में सुविथ त है । कुछ विद्वान् मथुरा में इसके अंकन को भी स्वीकार करते हैं। ज्ञाता आदि में देवदत्ता आदि गणिकाओं की समाज में सम्मानपूर्ण स्थिति की सूचना मिलती है। समाज के सम्पन्न परिवारों के लोगों के वेश्याओं से सम्बन्ध थे, इसकी सूचना आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक साहित्य में विपुल मात्रा में उपलब्ध है । कान्हड कठिआरा और स्थूलभद्र के आख्यान सूविध त हैं, किन्तु इन सब उल्लेखों से यह मान लेना कि वेश्यावृत्ति जैनधर्मसम्मत थी या जैनाचार्य इसके प्रति उदासीन भाव रखते थे, सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। हम पूर्व में संकेत कर ही चुके हैं कि जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग और किसी भी स्थिति में इसे औचित्यपूर्ण नहीं मानते थे। सातवीं-आठवीं शती में तो जैनधर्म का अनुयायी बनने की प्रथम शर्त यही थी कि व्यक्ति सप्त दुर्व्यसन का त्याग करे। इसमें परस्त्रीगमन और वेश्यागमन दोनों निषिद्ध माने गये थे। उपासकदशा में "असतीजन पोषण" श्रावक के लिये निषिद्ध था ।
___ आगमिक व्याख्याओं में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अनेक वेश्याओं और गणिकाओं की अपनी नैतिक मर्यादाएँ थीं, वे उनका कभी उल्लंघन नहीं करती थीं। कान्हडकठिआर और स्थूलिभद्र के आख्यान इसके प्रमाण हैं। ऐसी वेश्याओं और गणिकाओं के प्रति जैनाचार्य अनुदार नहीं थे, उनके लिये धर्मसंघ में प्रवेश के द्वार खुले थे, वे श्राविकाएँ बन जाती थीं । कोशा ऐसी वेश्या थी, जिसकी शाला में जैन मुनियों को निःसंकोच भाव से चातुर्मास व्यतीत करने की अनुज्ञा आचार्य दे देते थे। मथुरा के अभिलेख इस बात के साक्षी हैं कि गणिकाएँ जिनमन्दिर और आयागपट्ट (पूजापट्ट) बनवाती थीं। यह जैनाचार्यों का उदार दृष्टिकोण था, जो इस पतित वर्ग का उद्धार कर उसे प्रतिष्ठा प्रदान करता था। नारी-शिक्षा
नारी-शिक्षा के सम्बन्ध में जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से हमें जो सूचना मिलती है,
१. उपासकदशा १, ४८ । २. अणंगसेणा पामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं""""।
-आवश्यकचूणि भाग १, पृ० ३५६ ३. आदिपुराण, पृ० १२५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९१६ । ४. अड्ढा जाव"..."सामित्त भट्टित्त महत्तरगतं आणा ईसर सेणावच्चं कारेमाणी....." । ५. देखें, जैन, बौद्ध और गीता का आचार दर्शन, भाग २, डा० सागरमल जैन, पृ० २६८ । ६. ......"असईजणपोसणया ।
-उपासकदशा १/५१ ७. साविका जाया अबंभस्स पच्चक्खाइ णण्णत्थ रायाभियोगेणं। -आवश्यकचूणि, भाग १, पृ० ५५४-५५ ८. जैनशिलालेख संग्रह।
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खन्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि उसके आधार पर कहा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल में नारी को समुचित शिक्षा प्रदान की जाती थी। अपेक्षाकृत परवर्ती आगम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णि व आदिपुराण आदि में उल्लेख है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को गणित और लिपि विज्ञान की शिक्षा दी थी। मात्र यही नहीं ज्ञाताधर्मकथा और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में स्त्री की चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है यद्यपि यहाँ इनके नाम नहीं दिये गये हैं। सर्वप्रथम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका में इनका विवरण उपलब्ध होता है। आश्चर्यजनक यह है कि जहाँ ज्ञाताधर्मकथा में पुरुष की ७२ कलाओं का वर्णन है वहाँ नारी की चौंसठ कला होने का निर्देशमात्र है। फिर भी इतना निश्चित है कि भारतीय समाज में यह अवधारणा बन चुकी थी । ज्ञाताधर्मकथा में देवदत्ता गणिका को चौंसठ कलाओं में पण्डित, चौंसठ गणिका गुण (कामकला) से उपपेत, उनतीस प्रकार से रमण करने में प्रवीण, इक्कीस रतिगुणों में प्रधान, बत्तीस पुरुषोपचार में कुशल, नवांगसूत्र प्रतिबोधित और अठारह देशी भाषाओं में विशारद कहा है। इन सूचियों को देखकर स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि स्त्रियों को उनकी प्रकृति और दायित्व के अनुसार भाषा, गणित, लेखनकला आदि के साथ-साथ स्त्रियोचित नृत्य, संगीत और ललितकलाओं तथा पाक-शास्त्र आदि में शिक्षित किया जाता था।
यद्यपि आगम और आगमिक व्याख्याएँ इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं हैं कि ये शिक्षा उन्हें घर पर ही दी जाती थी अथवा वे गुरुकुल में जाकर इनका अध्ययन करती थीं । स्त्री-गुरुकुल के सन्दर्भ के अभाव से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही की जाती थी। सम्भवतः परिवार की प्रौढ़ महिलाएँ ही उनकी शिक्षा की व्यवस्था करती थीं किन्तु सम्पन्न परिवारों में इस हेतु विभिन्न देशों की दासियों एवं गणिकाओं की भी नियुक्ति की जाती थी, जो इन्हें इन कलाओं में पारंगत बनाती थीं। आगमिक व्याख्याओं में हमें कोई भी ऐसा सन्दर्भ उपलब्ध नहीं हुआ जो सहशिक्षा का निर्देश करता हो। नारी की गृहस्थ-जीवन सम्बन्धी इन शिक्षाओं के प्राप्त करने के अधिकार में प्रागैतिहासिक काल से लेकर आगमिक व्याख्याओं के काल तक कोई विशेष परिवर्तन हुआ हो ऐसा भी हमें ज्ञात नहीं होता मात्र विषयवस्तु में क्रमिक विकास हुआ होगा। यद्यपि लौकिक शिक्षा में स्त्री और पुरुष की प्रकृति एवं कार्य • . आधार पर अन्तर किया गया था किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद-भाव किया जाता था।
जहाँ तक धार्मिक आध्यात्मिक शिक्षा का प्रश्न है वह उन्हें भिक्ष णियों के द्वारा प्रदान की जाती थी। सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि जैन-परम्परा में भिक्ष को स्त्रियों को शिक्षा देने का अधिकार नहीं था। वह केवल स्त्रियों और पुरुषों की संयुक्त सभा में उपदेश दे सकता था। सामान्यतया भिक्षणियों और गृहस्थ उपासिकाओं दोनों को ही स्थविरा भिक्षुणियों के द्वारा ही शिक्षा दी जाती थी। यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में हमें कुछ सूचनायें उपलब्ध होती हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य और उपाध्याय भी कभी-कभी उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। व्यवहारसूत्र में उल्लेख है कि तीन वर्ष की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ, तीस वर्ष की पर्याय वाली भिक्षुणी का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष का पर्याय वाला निर्ग्रन्थ साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य हो सकता था । जहाँ १. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति शान्तिसूरीय वृत्ति अधिकार २, ३०। २. ज्ञाताधर्मकथा ४/६ । तम्हा उ वज्जए इत्थी ......"आघाते ण सेवि णिग्गंथे ।
-सूत्रकृतांग १, ४, १, ११ ४. कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठए काले सज्झायं करेत्तए निग्गंथ निस्साए।
(तथा) पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे, सट्ठिवास परियाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ।
-व्यवहारसूत्र ७, १५ व २०
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________________ 142 जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन तक स्त्रियों के द्वारा धर्मग्रन्थों के अध्ययन का प्रश्न है प्रागैतिहासिककाल में इस प्रकार का कोई बन्धन रहा हो हमें ज्ञात नहीं होता। अन्तकृद्दशा आदि आगम ग्रन्थों में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं जहाँ भिक्षुणियों के द्वारा सामायिक आदि 11 अंगों का अध्ययन किया जाता था। यद्यपि आगमों में न कहीं ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख है कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं कर सकती थी और न ही ऐसा कोई विधायक सन्दर्भ उपलब्ध होता है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन करती थी। किन्तु आगमिक व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषिद्ध मान लिया गया / भिक्षुणियों के लिए दृष्टिवाद का निषेध करते हुए कहा गया कि स्वभाव की चंचलता, बुद्धि प्रकर्ष में कमी के कारण उसके लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषिद्ध बताया गया। जब एक ओर यह मान लिया गया कि स्त्री को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है तो यह कहना गलत होगा कि उनमें बुद्धि प्रकर्ष की कमी है। मुझे ऐसा लगता है जब हिन्दू परम्परा में उस नारी को, जो वैदिक ऋचाओं की निर्मात्री थी वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया तो उसी के प्रभाव में आकर नारी को जो तीर्थंकर के रूप में अंग और मूल साहित्य का मूलस्रोत थी, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित कर दिया गया। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि दृष्टिवाद का मुख्य विषय मूलतः दार्शनिक और तार्किक था और ऐसे जटिल विषय के अध्ययन को उनके लिए उपयुक्त न समझकर उनका अध्ययन-निषेध कर दिया गया हो / बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य की पीठिका में उनके लिए महापरिज्ञा, अरुणोपपात और दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध किया गया है। किन्तु आगे चलकर निशीथ आदि अपराध और प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थों के अध्ययन से भी उसे वंचित कर दिया गया / यद्यपि निशीथ आदि के अध्ययन के निषेध करने का मूल कारण यह था कि अपराधों की जानकारी से या तो वह अपराधों की ओर प्रवृत्त हो सकती थी या तो दण्ड देने का अधिकार पुरुष अपने पास सुरक्षित रखना चाहता था। किन्तु निषेध का यह क्रम आगे बढ़ता ही गया। बारहवीं-तेरहवीं शती के पश्चात् एक युग ऐसा भी आया जब उससे आगमों के अध्ययन का मात्र अधिकार ही नहीं छीना गया अपितु उपदेश देने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया। आज भी श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परम्परा के तपागच्छ में भिक्ष णियों को इस अधिकार से वंचित ही रखा गया है। यद्यपि पुनर्जागृति के प्रभाव से आज अधिकांश जैन सम्प्रदायों में साध्वियाँ आगमों के अध्ययन और प्रवचन का कार्य कर रही हैं। निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक काल और आगम युग की अपेक्षा आगमिक व्याख्या युग में किसी सीमा तक नारी के शिक्षा के अधिकार को सीमित किया गया था। तुलनात्मक दृष्टि से यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि नारी-शिक्षा के प्रश्न पर वैदिक और जैन परम्परा में किस प्रकार समानान्तर परिवर्तन होता गया / आगमिक व्याख्या साहित्य के युग में न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अपितु धर्मसंघ में और सामाजिक जीवन में भी स्त्री की गरिमा और अधिकार सीमित होते गये। इसका मुख्य कारण तो अपनी सहगामी हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही था किन्तु इसके साथ ही अचेलता के अति आग्रह ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की / यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा अपेक्षाकृत उदार रही, किन्तु समय के प्रभाव से वह भी नहीं बच सकी और उसमें भी शिक्षा, समाज और धर्मसाधना के क्षेत्र में आगम युग की अपेक्षा व्याख्या यग में नारी के अधिकार सीमित किये गये।