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________________ १२६ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि में की है। यहाँ केवल हमारा प्रतिपाद्य इतना ही है कि स्त्रीमुक्ति का निषेध दक्षिण भारत में पहले और उत्तर भारत में बाद में प्रारम्भ हुआ है, क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में लगभग आठवीं-नौवीं शताब्दी से स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को विवाद के विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैनपरम्परा में भी धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री समकक्षता किस प्रकार कम होती गयी । सर्वप्रथम सर्व स्त्री की मुक्ति की सम्भावना को अस्वीकार किया गया है फिर नग्नता को ही साधना का सर्वस्व मानकर उसे पांच महाव्रतों के पालन करने के अयोग्य मान लिया गया और उसमें यथाख्यात चारित्र (सच्चरित्रता की उच्चतम अवस्था) को भी असम्भव बता दिया गया। सुत्त पाहुड में तो स्पष्ट रूप से स्त्री के लिए प्रव्रज्या का निषेध कर दिया गया । दिगम्बर परम्परा में स्त्री को जिन कारणों से प्रव्रज्या और मोक्ष के अयोग्य बताया गया है, वे निम्न हैं (१) स्त्री की शरीर-रचना ही ऐसी है कि उससे रक्तस्राव होता है, उस पर बलात्कार सम्भव है अतः वह अचेल या नग्न नहीं रह सकती। चूँकि स्त्री अचेल या नग्न नहीं हो सकती, दूसरे शब्दों में वह पूर्ण परिग्रह का त्याग नहीं कर सकती और पूर्ण परिग्रह का त्याग किये बिना उसके द्वारा महाव्रतों का ग्रहण एवं मुक्ति प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती। (२) स्त्री करुणा प्रधान है उसमें तीव्र या क्रूर अध्यवसायों का अभाव होता है अतः निम्नतम गति सातवीं नरक में जाने के अयोग्य होती है। जैनाचार्यों की इस उदार और मनोवैज्ञानिक मान्यता के आधार पर दिगम्बर परम्परा ने यह मान लिया कि तीव्र पुरुषार्थ के अभाव में जो निम्नतम गति में नहीं जा सकती वह उच्चतम गति में भी नहीं जा सकती। अतः स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं। (३) यह भी कहा गया है कि चंचल स्वभाव के कारण स्त्रियों में ध्यान की स्थिरता नहीं होती है अतः वे आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकती। (४) एक अन्य तर्क यह भी दिया गया है कि स्त्री में वाद सामर्थ्य एवं तीव्र बुद्धि के अभाव के कारण ये दृष्टिवाद के अध्ययन में अयोग्य होती हैं अतः वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकतीं । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा ने उन्हें बौद्धिक क्षमता के अभाव के कारण दृष्टिवाद, अरुणोपपात, निशीथ आदि के अध्ययन के अयोग्य अवश्य माना फिर भी उनमें 'मोक्षप्राप्ति' की क्षमता को स्वीकार किया गया। चाहे शारीरिक संरचना के कारण इसके लिए संयम-साधना के उपकरण के रूप में वस्त्र आवश्यक हों किन्तु आसक्ति के अभाव के कारण वह परिग्रह नहीं हैं, अतः इसमें प्रवजित होने एवं मुक्त होने की सामर्थ्य है । १. Aspects of Jainclogy Vol. 2; Pt. Bechardas Doshi Commeinoration Vol. page 105 110. २. इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर दृष्टिकोण के लिए देखिए-अभिधान राजेन्द्र भाग २, पृ० ६१८-६२१ ( तथा ) इत्थीसु ण पावया भणिया । -सूत्र-प्राभूत, पृ० २४-२६ एवं णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो॥ -वही, २३ ३. इस सम्बन्ध में दिगम्बर पक्ष के विस्तृत विवेचन के लिए देखें---जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग ३, पृ० ५६६ ५६८ एवं श्वेताम्बर पक्ष के लिए देखें-अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० ६१८-६२१ । खण्ड ५/१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210572
Book TitleJain Agamik Vyakhya Sahitya me Nari ki Sthiti ka Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf
Publication Year1989
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain woman
File Size3 MB
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