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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
कृतदशा एवं आवश्यक चूर्णि में भी अनेक स्त्रियों के मुक्त होने का उल्लेख है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा आगमिक काल से लेकर वर्तमान तक स्त्री मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार कर साधना के क्षेत्र में दोनों को समान स्थान देती है। मात्र इतना ही नहीं यापनीय परम्परा के ग्रन्थ षट्खण्डागम और मूलाचार में भी स्त्री-पुरुष दोनों में क्रमशः आध्यात्मिक विकास की पूर्णता और मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है। हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं यथा नियुक्ति, भाष्य और चूणि साहित्य में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता है जिसमें स्त्री - मुक्ति का निषेध किया गया हो अथवा किसी ऐसे जैन सम्प्रदाय की सूचना दी गई हो जो स्त्रीमुक्ति को अस्वीकार करता है। सर्वप्रथम दक्षिण भारत में कुन्दकन्द आदि कुछ दिगम्बर आचार्य लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी में स्त्री-मुक्ति आदि का निषेध करते हैं । कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं कि स्त्री अचेल (नग्न) होकर धर्मसाधना नहीं कर सकती, और सचेल चाहे तीर्थंकर भी हो मुक्त नहीं हो सकता । इसका तात्पर्य यह भी है कि कुन्दकुन्द स्त्री-तीर्थंकर की यापनीय (उत्तर भारत के दिगम्बर संघों एवं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित) अवधारणा से परिचित थे। यह स्पष्ट है कि पहले स्त्री तीर्थकर की अवधारणा बनी, फिर उस विरोध में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया । सम्भवतः सबसे पहले जैनपरम्परा में स्त्रीमुक्ति-निषेध की अवधारणा का विकास दक्षिण भारत में दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा हुआ। क्योंकि सातवीं-आठवीं शताब्दी तक उत्तर भारत के श्वेताम्बर आचार्य जहाँ सचेलता और अचेलता को लेकर विस्तार से चर्चा करते हैं वहाँ स्त्रीमुक्ति के पक्ष-विपक्ष में कोई भी चर्चा नहीं करते हैं। इसका तात्पर्य है कि उत्तर भारत के जैन सम्प्रदायों में लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद उत्पन्न ही नहीं हुआ था। इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ में पं० दलसुखभाई, प्रो० ढाकी और मैंने अपने लेख
१. (अ) तत्थेव हत्थिखंधवरगताए केवलनाणं, सिद्धाए इमाए ओसप्पिणीए पढमसिद्धो मरुदेवा । एवं आराहणं प्रतियोगसंगहो कायब्वो ।
-आ० चूणि भाग २, पृ० २१२ द्रष्टव्य, वही भाग १, पृ० १८१ व ४८८ । (ब) अन्तकृद्दशा के वर्ग ५ में १०, वर्ग ७ में १३, वर्ग ८ में १० । इस प्रकार कुल ३३ मुक्त नारियों
का उल्लेख प्राप्त होता है। २. (अ) मणुस्सिणीसु मिच्छाइट्ठि सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओसंजदासंजदसंजदलाणे णियमा पज्जत्तियाओ ।।
-षट्खण्डागम, १,१, ६२.६३ (ब) एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जावो । ते जंगपुज्ज कित्ति सुहं च लभ्रूण सिझंति ।।
---मूलाचार ४/१६६ ३. लिंग इत्थीणं हवदि भुजइ पिडं सुएयकालम्मि ।
अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणेण भुजेइ ॥ णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उमग्गया सव्वे ।।
---सूत्रप्राभृत, २२, २३ ( तथा ) सुणहाण गदहाण य गोपसुमहिलाणं दीसदे मोक्खो। जे सोधति चउत्वं पिच्छिज्जंता जणेहि सम्वेहिं ।।
-शोलमाभूत २६
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