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खण्ड ५ : नारी त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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दिखाती है, ये तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि जैनधर्म में नारी की अवमानना नहीं की गई। चतुर्विध धर्मसंघ में भिक्षुणीसंघ और श्राविकासंघ को स्थान देकर निर्ग्रन्थ परम्परा ने स्त्री और पुरुष की समकक्षता को ही प्रमाणित किया । पार्श्व और महावीर के द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के भिक्षुणी संघ की स्थापना की गई जबकि बुद्ध को इस सम्बन्ध में संकोच रहा-यह भी इसी तथ्य का द्योतक है कि जैनसंघ का दृष्टिकोण नारी के प्रति अपेक्षाकृत उदार रहा है।
जैनसंघ में नारी का कितना महत्वपूर्ण स्थान था इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि उसमें प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तक सदैव ही भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की और गृहस्थ उपासकों को अपेक्षा उपासिकाओं की संख्या अधिक रही है । समवायांग, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र एवं आवश्यकनियुक्ति आदि में तीर्थंकर की भिक्षुणियों एवं गृहस्थ उपासिकाओं की संख्या उपलब्ध होती है। इन संख्यासूचक आंकड़ों में ऐतिहासिक सत्यता कितनी है, यह एक अलग प्रश्न है, किन्तु इससे इतना तो फलित होता ही है कि जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी जैनधर्म संघ का महत्वपूर्ण घटक थी । भिक्ष णियों की संख्या सम्बन्धी ऐतिहासिक सत्यता को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। आज भी जैनसंघ में लगभग नौ हजार दो सौ भिक्षु-भिक्षुणियों में दो हजार तीन सौ भिक्ष और छह हजार नौ सौ भिक्ष - णियां हैं । भिक्ष णियों का यह अनुपात उस अनुपात से अधिक ही है जो पार्श्व और महावीर के युग में माना गया है।
धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री और पुरुष की समकक्षता के प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृत्दशा आदि आगमों में स्पष्ट रूप से स्त्री और पुरुष दोनों की ही साधना के सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्ति के लिए सक्षम माना गया है । उत्तराध्ययन में स्त्रीलिंग सिद्ध का उल्लेख है। ज्ञाता, ' अन्त
१. जइ वि परिचित्तसंगो तहा वि परिवडइ। महिलासंसग्गीए कोसाभवणूसिय व्व रिसी ॥
-भक्तपरिज्ञा, गा० १२८ ( तथा ) तुम एतं सोयसि अप्पाणं णवि, तुम एरिसओ चेव होहिसि, उवसामेति लद्धबुद्धी, इच्छामि वेदावच्चंति गतो, पुणोवि आलोवेत्ता विहरति ।।
__--आवश्यक चूणि २, पृ० १८७ ण दुक्कर तोडिय अंबपिंडी, ण दुक्करं णच्चितु सिक्खियाए । तं दुक्करं तं च महाणुभाग, ज सो मुणी पमयवणं निविट्ठो॥
-वही, १, पृ० ५५५ २. कल्पसूत्र, क्रमशः १९७, १६७, १५७ व १३४, प्राकृत भारती, जयपुर, १९७७ ई० ३. चातुर्मास सूची, पृ० ७७ प्र. अ. भा. समग्र जैन चातुर्मास सूची प्रकाशन परिषद बम्बई १९८७ । ४. इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य नपुसगा । ___ सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेब य ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र ३६, ५० ५. ज्ञाताधर्मकथा-मल्लि और द्रौपदी अध्ययन ।
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