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________________ १३२ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन पुत्र का स्थान महत्त्वपूर्ण हो गया और यह उद्घोष किया गया कि पुत्र के बिना पूर्वजों की सुगति/मुक्ति सम्भव नहीं ।। फलतः आगे चलकर हिन्दू परम्परा में कन्या की उत्पत्ति को अत्यन्त हीनदृष्टि से देखा जाने लगा। इस प्रकार वैदिक हिन्दू परम्परा में पुत्र-पुत्री की समकक्षता को अस्वीकार कर पुत्र को अधिक महनीयता प्रदान की गई किन्तु इसके विपरीत जैन आगमों में हम देखते हैं कि उपासक और उपासिकाएँ पुत्र-पुत्री हेतु समान रूप से कामना करते हैं। चाहे अर्थोपार्जन और पारिवारिक व्यवस्था की दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों में भी पुत्र की प्रधानता रही हो किन्तु जहाँ तक धार्मिक जीवन और साधना का प्रश्न था, जैन धर्म में पुत्र की महत्ता का कोई स्थान नहीं था। जैन कर्म सिद्धान्त ने स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित किया कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही सुगति या दुर्गति में जाकर सुख-दुःख का भोग करता है । सन्तान के द्वारा सम्पन्न किए गये कर्मकाण्ड पूर्वजों को किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं करते इस प्रकार उसमें धार्मिक आधार पर पुत्र की महत्ता को अस्वीकार कर दिया । फलतः आगमिक युग में पुत्र-पुत्री के प्रति समानता की भावना प्रदर्शित की गई किन्तु अर्थोपार्जन और पारिवारिक व्यवस्था में पुरुष की प्रधानता के कारण पुत्रोत्पत्ति को ही अधिक सुखद माना जाने लगा । यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि आदि के जन्मोत्सव के उल्लेख उपलब्ध हैं, किन्तु इन उल्लेखों के आधार पर यह मान लेना कि जैन संघ में पुत्र और पुत्री की स्थिति सदैव ही समकक्षता की रही, उचित नहीं होगा। आगमिक व्याख्या साहित्य एवं पौराणिक साहित्य में उपर्युक्त आगमिक अपवादों को छोड़कर जैनसंघ में भी पुत्री की अपेक्षा पुत्र को जो अधिक सम्मान मिला उसका आधार धार्मिक मान्यतायें न होकर सामाजिक परिस्थितियाँ थीं । यद्यपि भिक्षुणी संघ की व्यवस्था के कारण पुत्री पिता को उतनी अधिक भारस्वरूप कभी नहीं मानी गयी जितनी उसे हिन्दू परम्परा में माना गया था। इस प्रकार जैन आगमिक व्याख्या साहित्य से जो सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि यौगलिक काल अर्थात् पूर्व युग में और आगम युग में पुत्र और पुत्री दोनों की ही उत्पत्ति सुखद थी किन्तु आगमिक व्याख्याओं के युग में बाह्य सामाजिक एवं आर्थिक प्रभावों के कारण स्थिति में परिवर्तन आया और पुत्री की अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्व दिया जाने लगा। विवाह संस्था और नर-नारी की समकक्षता का प्रश्न विवाह-व्यवस्था प्राचीन काल से लेकर आज तक मानवीय समाज व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग रही है । यह सत्य है कि जैनधर्म के अनुयायियों में भी प्राचीनकाल से विवाह व्यवस्था प्रचलित रही है किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि निवृत्तिप्रधान होने के कारण जैनधर्म में विवाह-व्यवस्था को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया । धार्मिक दृष्टि से वे स्वपत्नी सा स्वपति सन्तोषव्रत की व्यवस्था करते हैं जिसका तात्पर्य है व्यक्ति को अपनी काम-वासना को स्वपति या स्वपत्नी तक ही सीमित रखना १. अपुत्रस्य गतिनास्ति । २. जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव अणुवुड ढेमित्ति । ज्ञाताधर्मकथा, १, २, १६ ३. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । ___ एक्को सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥ -उत्तराध्ययन १३, २३ ४. ज्ञाताधर्मकथा अध्ययन ८, सूत्र ३०, ३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210572
Book TitleJain Agamik Vyakhya Sahitya me Nari ki Sthiti ka Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf
Publication Year1989
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain woman
File Size3 MB
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